Saturday, December 22, 2007

केसीके जर्नलिज्म अवार्ड

केसीके अवार्ड
राजस्थान पत्रिका समूह ने समूह संस्थापक एवं मूर्धन्य पत्रकार कर्पूर चंद्र कुलिश की स्मृति में कर्पूर चंद्र कुलिश अवार्ड २००७ ( केसीके अवार्ड- २००७) की घोषणा की है।पुरस्कार का उद्देश्य व्यावसायिक मूल्यों में नीति, नैतिकता, अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा और मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रोत्साहित करने का उल्लेखनीय कार्य करने वाले मीडिया लीडर एवं पत्रकारों को सम्मान देना है। वर्ष २००७ के अवार्ड की थीम मानव विकास है। केसीके अवार्ड के विजेता को ११,००० यू एस डॉलर ( करीब साढ़े चार लाख रुपए) का एक पुरस्कार प्रदान किया जाएगा। पुरस्कार के अलावा दस श्रेष्ठ प्रविष्टियों का विशेष रूप से उल्लेख किया जाएगा जिन्हें प्रशस्ति पत्र व पदक प्रदान किए जाएंगे। प्रविष्टि में शामिल में न्यूज स्टोरी किसी दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित होनी चाहिए। अधिक जानकारी के लिए www. rajasthanpatrika.com/kckaward पर विजिट किया जा सकता है। पुरस्कार के लिए प्रविष्टियों की अन्तिम तिथि ३१ जनवरी २००८ है।

Saturday, December 8, 2007

गुजरात तय करेगा देश का भविष्य

गुजरात चुनाव वाकई महज एक राज्य के चुनाव तक सीमित रहने वाले चुनाव नहीं रह गए हैं। दरअसल ये चुनाव कहीं न कहीं दक्षिण औऱ वाम पंथ की लड़ाई को निर्णायक दौर में पहुंचाने वाले हो गए लगते हैं। भाजपा में कोई कारआमद नेतृत्व नहीं होने के चलते गुजरात के चुनाव के नतीजे राष्ट्रीय राजनीति पर भी गहरा असर करेंगे। यदि गुजरात के नरेन्द्र भाई जीते तो उनके राज्य की राजनीति से आगे राष्ट्र् की राजनीति पर चमकने को तय मानिए। यदि वे खेत रहे तो राष्ट्रीय परिदृश्य से भाजपा के खेत होने की शुरुआत मानिए। भला हो बुद्धदेव का जो नंदीग्राम रच दिया औऱ वामपंथ औऱ दक्षिणपंथ का पलड़ा बराबर कर दिया वरना नरेन्द्र मोदी अकेले ही गोधरा को लेकर कोसे जाते और मुकाबला कड़ा नहीं हो पाता लेकिन अब मुकाबला आर पार का है। गुजरात तय करेगा कि हिन्दुस्तान में कौन जीतेगा। शायद इसीलिए राष्ट्रीय राजनीति में कम महत्वपूर्ण माने जाने वाला राज्य गुजरात के चुनाव में राष्ट्रीय मीडिया प्रणप्राण से जुट गया है। कवरेज करने नहीं बल्कि नतीजे प्रभावित करने में। कल की बात कर रहा हूं। एक औऱ तो अपने पंकज भाई एनडीटीवी पर पोरबंदर को चोरबंदर कहते हुए पिछले पांच साल में बंद हुई फैक्ट्रीयों का हिसाब किताब कर रहे थे। तो दूसरी ओऱ और आजतक औऱ हेडलाइन्स टुडे पर मोदी के समर्थन में ऑरकुट जैसी वेबसाइटों पर चल रहे अभियानों के बारे में जानकारी दी जा रही थी। कितना भयंकर विरोधाभास है, एक और ऑरकुट को संस्कृति पर खतरा बताने वाले लोग उसी की सहायता ले रहे हैं तो दूसरी ओऱ एक चैनल पूरी तरह विपक्ष की भाषा बोलता लग रहा है। सामान्यतया इस तरह के आरोप नेता प्रतिपक्ष अपनी प्रेस कांफ्रेंस में लगाता रहता है और प्रेस इसे इसी रूप में कवर करती है। स्वतंत्र प्रेक्षक के रूप में भारतीय मीडिया केवल माहौल की खबरें प्रसारित करने तक सीमित रहता दिखता रहा है। वो तथ्य प्रस्तुत करता है पर उसके नतीजे श्रोताओं, दर्शकों, पाठकों पर छोड़ता आया है, लेकिन इस बार खेल दूसरा लग रहा है। मीडिया तथ्य दे रहा है उसके नतीजे, निष्कर्ष दे रहा है और निर्णय के लिए एक लाइन भी दे रहा है। अब ये नीति कितनी कारगर होगी। कौन जीतेगा ये तो वक्त बताएगा लेकिन एक बात समझ नहीं आई कि जब हर ओर से मोदी की एक तरफा जीत की खबरें आ रही हैं तो मोदी ने विकास का गीत गाते गाते, सोहराबुद्दीन मामले को उछालते हुए हिन्दुत्व की टेर क्यों लगाई। कुछ तो बात है? ......गुजरात के नतीजों का देश की जनता को बेसब्री से इन्तजार है। खासकर राजस्थान की जनता को जिसकी वर्तमान मुख्यमंत्री के कार्यकाल को आज ही के दिन चार साल पूरे हुए हैं। गुजरात के चुनाव मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के अगले साल की दिशा औऱ उनकी कार्यशैली को तय करेंगे। आज चार साल का कार्यकाल पूरा होने के अवसर पर जयपुर में विशाल रैली आयोजित की गई। इस सरकारी सफलता के जश्न में काफी तादात में लोग जुटे। जयपुर की हर सड़क पर अभूतपूवॆ जाम था। एक किलोमीटर की दूरी पार करने में लोगों को एक घण्टा लग गया। पर सरकारी जश्न था इसलिए सब कोई हंस कर सह रहा था। जो मिला वही पूछ रहा था कि रैली कैसी रही । एक दो लोगों ने बताया है कि कोई एक लाख लोगों ने शिरकत की है। इस लिहाज से रैली सफल कही जाएगी। लेकिन इस भीड़ से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होगा गुजरात की मतपेटी से निकलने वाला जिन्न। वह जिन्न राजस्थान ही बल्कि पूरे देश की भावी राजनीति को तय करने वाला है। यदि नरेन्द्र मोदी फिर गुजराते अगले मुख्यमंत्री होते हैं तो तय मानिए की वे भी मायावती की ही तरह एक न एक दिन लाल किले से भाषण देने के दावेदार बन जाएंगे। देखिए क्या होता है। पर गुजरात की दिलचस्प लड़ाई विधानसभा क्षेत्रों के साथ ही न्यूज चैनलों पर भी है। देखते रहिए औऱ मुस्कुराते रहिए,क्योंकि होगा वही जो मतदाता चाहेगा। और वो चाहता है किसी को कहता नहीं बस करता है. परिणाम अपना रंग दिखाएंगे और उसके बाद यही चैनल उसका विश्लेषण करते रहेंगे।

Friday, December 7, 2007

लिंक रोड , न केवल डेस्टिनेशन बल्कि जिंदगियां भी लिंक

लड़कियां-लड़कियां-लड़कियां ही लड़कियां, जिधर देखो उधर लड़कियां जाने अपनी अतिशय खूबसूरती के कारण या बदसूरती के कारण, लेकिन स्कार्फ बांधे चेहरा छुपाए, टाइट जींस औऱ शॉर्ट और बदन से चिपके हुए टॉप में अपने बदन के आकारों की नुमाइश करती लड़कियां। दो-दो चार चार के समूह में लड़कियां, हंसती खिलखिलाती औऱ किसी लड़के को अपनी और देखता पा कर झटका सा खाती लड़कियां। सड़क के इस छोर से उस छोर तक जहां देखो वहां खड़ी हैं लड़कियां।
शहर के एक मशहूर गर्ल्स कॉलेज के आगे से गुजरिए लड़कियां दिखाई देंगी। आप कहेंगे लड़कियां गर्ल्स कॉलेज बाहर नहीं तो क्या किसी ओनली फॉर बॉयज कॉलेज के बाहर दिखेंगी? सही है बात सामान्य है पर नजारा खास है। कॉलेज के बाह एक सर्कल है औऱ सर्कल जाहिर है चौराहे के बीच है। जब चौराहा है तो चार रास्ते भी हैं। एक रास्ता देश के प्रथम प्रधानमंत्री के नाम पर है तो दूसरा विश्वविद्यालय के घने जंगलों में खोना चाहता है। जो चौथा रास्ता है वो शहर की एक अन्य जीवनरेखा जा मिलता है औऱ अपने आप में मील का पत्थर है। कहने को यह रास्ता महज लिंक रोड है लेकिन जानने वाले जानते हैं कि यह आम रास्ता कितना खास है।
सूबे के बहुत से खास लोगों की ख्वाबगाह इसी रास्ते पर है। तो हम जान रहे थे कि ये लिंक रोड खास क्यों है। शुरुआत में ही जिन ढकी सी उघड़ी सी, शर्मिली सी, बेहया सी लड़कियों का जिक्र हुआ है वे अक्सर इसी लिंक रोड पर पाई जाती हैं। वैसे तो यह लिंक रोड छोटी सी है कुछ सौ मीटर लम्बी। पर आशिकमिजाज लोग इसे पार करने में घण्टों लगा देते हैं। उन्हें आशिकमिजाज कहना आशिकी की तौहीन हो सकती है। पर इस लिंक रोड पर ऐसी कई तौहीनें रोज होती रहती है।
लड़की धीमे- धीमे चली जा रही है। पीछे पीछे एक लड़का चला जा रहा है। लड़के के होठ हिल रहे हैं। मानो कुछ कह रहा है, लगता है लड़की सुन रही है, तभी तो बार बार उसका सिर हिलता जा रहा है, राम जाने हां कर रही है या नो कमेंट्स कह रही है। पर चाल बदस्तूर जारी है। सड़क खत्म हो रही है पर बात खत्म नहीं हो रही । न लड़की टल रही है न लड़का हट छोड़ रहा है। बात पूरी नहीं हुई इसलिए लड़की ने साइड बदली औऱ वापस चलना शुरु कर दिया। अब तक जो ट्रेक अप था अब डाउन हो गया है। ट्रेन पहले जा रही थी अब आ रही है। सिचुएशन वही है, अब लड़के के हाथ भी हिल रहे हैं। दोनों के बीच गैप कम हो गया है। लड़की अब सिर हिलाते हिलाते बीच बीच में कभी कभार हंस भी रही है। वापस सड़क खत्म हो रही है। और ये क्या सड़क खत्म हो गई। लड़की फुटपाथ के एक किनारे पर ठहर गई। उसे ठहरा देख लड़के ने अपना हाथ हवा में हिलाया और एक होंडा मोटरसाइकिल आ कर लड़के के पास रुक गई। मोटरसाइकिल लाने वाले सज्जन ने बड़ी आत्मीयता से उतर कर हेलमेट लड़के को थमाया। तब तक कुछ दूर खड़ी लड़की ने स्कार्फ निकाल और मुहं पर बांधने लगी। लड़के ने हेलमेट पहना औऱ मोटरसाइकिल पर सवार हो किक से उसे स्टार्ट किया। मोटरसाइकिल घुमाई और लड़की के पास रोकी। देखने वाले समझ रहे थे कि दोनों के बीच सब खत्म हो गया लेकिन ये क्या, लड़की बिना समय गंवाए मोटरसाइकिल की पिछली सीट पर बैठी और मोटरसाइकिल ये जा और वो जा.......।
इस दौरान लिंक रोड पर लड़कियों की संख्या बराबर उतनी ही बनी हुई थी। हां, इस बीच लड़कों के साथ बाइक पर बैठ कर जाने वाली लड़कियों की तादाद भी खासी थी। कुल मिला कर लिंक रोड लड़कियों को कॉलेज से शहर की जीवन रेखा मानी जाने वाली सड़क तक तो पहुंचा ही रही है, लेकिन साथ ही उनकी जीवन रेखा भी संवार रही है। है ना कमाल, लिंक रोड। आपके शहर में भी ऐसी कई लिंक रोड होंगी जरा कुछ देर रुक कर देखिएगा कैसे रोचक नजारे होते हैं। मुस्करा ना पड़ें तो कहियेगा।

Tuesday, December 4, 2007

पानी अमृत या कुछ और जयपुर आइए और देखिए



जयपुर को आप किस रूप में जानते हैं, जाहिर है गुलाबी शहर के रूप में या देश के पहले नियोजित शहर के रूप में ही जानते होंगे। बहुत ज्यादा हुआ तो अब रिअल एस्टेट के क्षेत्र में उभरते बड़े डेस्टिनेशन के रूप में जानते होंगे। राजस्थान की राजधानी के रूप में भी आपका इससे परिचय तो होगा ही। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि यह शहर पानी के लिए भी जाना जाएगा। और वो भी नेगेटिव रूप में। इन दिनों जयपुर में पानी अमृत नहीं है। यहां दूषित पानी पीने से लोग मर रहे हैं। भारत के सबसे बड़े राज्य की राजधानी में पिछले कई दिनों से यह कहर बरप रहा है। सड़ी गली पाइप लाइनों में मिले सीवर के मल ने नल से निकल कर लोगों के प्राण हरने शुरु कर दिये हैं। जब से जयपुर आया हूं यहां के अखबारों में एक खबर हर दूसरे तीसरे रोज एक स्थायी कॉलम की तरह पढ़ता आया हूं। नलों से निकला लाल पानी। बदबूदार पानी, या नीला पानी। यानी पानी के दूषित होने की बात कहने वाले समाचार यहां के अखबारों की पेज तीन की लीड बनते आये हैं। लेकिन जाने क्या बात है कि इतना सब होने के बाद भी कभी यहां की पेयजल व्यवस्था दुरुस्त नहीं हुई। अब जब दूषित पानी से मौतों का सिलसिला शुरु हुआ है अफसर औऱ मंत्री अपना मुंह छिपाते घूम रहे हैं । लेकिन इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ना। हम हिन्दुस्तानियों की फितरत ही एेसी है कि हमसे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, खुद हमें भी नहीं। कुछ दिन हम हल्ला मचाएंगे, जोर जोर से चिल्लाएंगे। और फिर चुप हो जाएंगे। चुप्पी तब तक जब तक फिर से कोई घटना नहीं घट जाए। फिर हल्ला औऱ फिर चुप्पी। यही क्रम है । और इस क्रम को सरकारी बाबुओं अफसरों की जमात अच्छी तरह समझ चुकी है। वो बर मौके का इन्तजार करती है,कब किस गाय से कितना दूध दूहना है,कब उसे बेकार कह उसकी बोली लगानी है,कब उसका रोम रोम बेच खाना है, और कब उसके बिक जाने पर हल्ला कर लोगों को याद दिलाना है कि है कि गाय तो हमारे लिए पूजनीय है, जो हुआ सो हुआ पर अब यह सुनिश्चित करना है कि फिर कोई दूसरा गाय का दूध न दूह पाए। लोग इकट्ठे होंगे हां, में हां मिलाएंगे, वाह क्या अफसर है, कहेंगे। और दूसरे दिन उसी अफसर के हाथों किसी अन्य गाय का दूध दूहे जाते देखेंगे। यही हाल जयपुर के जलदाय विभाग के अफसरों का है। सालों से खराब पाइप लाइन की दुहाई दे रहे हैं। लेकिन हर बार साल छह महीने में बदल जाने की खबरें प्रकाशित कर इतिश्री कर देतेहैं । जाने हकीकत में पाइपलाइन बदलती भी या नहीं। बस हमारी तो एक ही दुआ है कि कम से कम भगवान तो जयपुर पर कृपा बनाए रखें और गोविन्ददेव जी के इस शहर में अब पानी अमृत की जगह जहर न बने।

Monday, December 3, 2007

ब्लॉग वर्ल्ड के साथियों, मदद करो...नारद के फोन्ट नहीं दिख रहे


साथियों, काफी कोशिशों के बावजूद में एग्रीगेटर नारद और कई चिट्ठों में लिखी देवनागरी स्क्रिप्ट नहीं पढ़ पा रहा हूं , मुझे स्क्रीन पर शब्दों के स्थान पर केवल डॉट्स दिखाई दे रहे हैं। और ऐसा केवल चिट्ठों की प्रिविष्ठिओं के साथ हो रहा है। साइड बार में लिखे शब्द आसानी से पढ़े जा रहे हैं। मैंने इन्टरनेट ऑप्शन्स में जा कर ठभई कोिश की है। लेकिन बात कुछ बन नहीं पाई है। मेरे सिस्टम में विण्डोज एक्स पी लोड है। यदि कोई साछई मेरी मदद करेगा को आसानी होगी। कृपया बताएं कि किस प्रकार नारद का फोण्ट पढ़ा जा सकता है। सधन्यवाद।

Sunday, December 2, 2007

आजा नच ले में माधुरी के जलवों पर बहन जी की लगाम


इस शुक्रवार को सिल्वर स्क्रीन पर माधुरी दीक्षित की आजा नचले का पदार्पण हुआ। पांच साल बाद हुई माधुरी यह वापसी जितनी धमाकेदार होनी चाहिए थी, उतनी धमाकेदार साबित नहीं हो पा रही थी। शुक्रवार शान्ति के साथ बीता तय होने लगा कि माधुरी की वापसी मजेदार नहीं की शाम करीब आठ -साढ़े आठ बजे न्यूज चैनलों का स्क्रॉल बार दनदनाने लगा। ब्रेकिंग न्यूज मायावती ने लगाया आजा नच ले पर बैन, आजा नच ले यूपी में बैन। बस फिल्म को जैसे जीवनदान मिल गया हो। पूरी रात सारे न्यूज चैनलों पर आजा नचले के बैकग्राउण्ड में एंकर फिल्म और माधुरी के बारे में बताते रहे। जब मामला जातिवाद की राजनीति से जुड़ जाए तो उसे तूल पकड़ते कितनी देर लगती है, देखते ही देखते और भी कुछ राज्यों के बैन लगाने की खबर प्रसारित होने लगी। वाह रे राजनीति। ओमकारा जैसी गालियों से भरी फिल्म पूरे हिन्दुस्तान में पूरे शान से चली। और भी पता नहीं कितनी फिल्मों में जाने कितने डॉयलाग्स के मन चाहे मतलब निकाले जा सकते थे, लेकिन बहन जी को इसी फिल्म के एक गीत के बोल अखरने थे औऱ तुरन्त दान महादान की तर्ज पर सीधे बैन का फरमान जारी कर दिया। हो सकता है अगली बार से निर्माता उत्तर प्रदेश में फिल्म दिखाने से पहले बहनजी को स्पेशल स्क्रीनिंग की परम्परा शुरु कर दें। सेंसर बोर्ड को जिस पर आपत्ति नहीं हो उसे बहनजी बैन कर सकती हैं, और बहनजी की देखा देखी और राज्य भी। समांतर सेंसर बोर्ड की नई परम्परा शुरु हो सकती है। बढ़िया है फिल्म पर कई कैचिंया चलेंगी तो फिल्म औऱ मजबूत ही होगी। बहरहाल विवाद सुलझ गया है, फिल्म निर्माता ने माफी मांग ली है औऱ माधुरी का जलवा फिर से यूपी के सिनेमाघरों में दिख रहा है। एक डुबती फिल्म को बहनजी ने बचा लिया। पर इससे फिल्म निर्माताओं को बहुत कुछ समझ आ गया होगा।

Friday, November 30, 2007

इसके बाद नो मजा.........

कुछ दिन पहले की बात है, दफ्तर में अपने साथियों से चर्चा हो रही थी,कुछ क्रिएटिव करने की। बात चली कैम्पेन बनाने की, याद आया एक दिसम्बर, और थिंक पोजिटिव की जगह थिंक नेगेटिव का विज्ञापन। सोचा कुछ एसा हो जाए जो याद रहे बहुत सोचा, बहुत विचार, खूब खोपड़ी लड़ाई पर पर इसके बाद नो मजा...........।


हां, यही तो बात है जो कहना चाह रहे थे। अब बन गई लगता है। वाकई एड्स के बारे में जितना सुना है, एड्स पीड़ितों से मिलने के बाद लगता है वाकई यह उतना ही भयावह भी है। इससे बचने के लिए लोगों को जितना अवेयर किया जा रहा है वो जरूरी है। भले ही प्रचार की बहती गंगा मे से एनजीओ के लोग अपने खेतो की भी निराई गुड़ाई कर लें। कभी-कभी तो सारी गंगा ही अपने खेत में बहा लें, तो भी जितनी दीवारें पुत रही हैं, जितने स्लॉट बिक रहे हैं, जितने कॉलम सेन्टीमीटर छप रहे हैं उससे कुछ तो हो ही रहा होगा।ये दूसरी बात है कि मस्ती का मौका मिलने पर लोग बचाव की परवाह नहीं करते। उस समय तो साथी की रजामंदी ही महत्व रखती है, एड्स से बचाव नहीं। पर हां प्रोफेशनल्स को जरूर चिंता करते देखा है। शहर के नाइट क्लब के पास एक चौबीसघंटे की मेडिकल शॉप है, रात में अपना काम निपटा कर जाते समय वहीं से दवाई आदि की खरीद करता हूं। अक्सर देररात को भी हाई -फाई लड़कियों को उस स्टोर स इस भयावह दैत्य से बचाव के साधन को खरीदते हुए उन्हें देख लगता है वाकई सरकारी अभियानो का कुछ तो असर है।

लेकिन इसका सबसे उम्दा असर हमारे झोला बाबा पर देखा, वे एक एनजीओ चलाते हैं, चार पांच साल पहले तक कुछ नहीं चलाते थे, पर जब से एड्स से बचाव के रेड रिबन बांधने का काम शुरु किया है, बड़ी वाली होंडा सिटी चला रहे हैं। एक बार ऐसे ही शाम की पार्टी के दौरान बात चल निकली की यार ये एड्स होना बंद हो जाए तो क्या हो, एक रसिया मित्र का जवाब था, यार, मजा आ जाए, लेकिन हमारे झोला बाबा ने जो कहा वो अंतिम सत्य था,,,, इसके बाद नो मजा.....। नो पार्टी.. सब एड्स के ही भरोसे जो है।...तो समझ गए ना कि....

Saturday, November 17, 2007

सेक्स सर्वे पर रवीश जी कि टिपण्णी

ख्यातनाम मीडियाकर्मी रवीश कुमार ने अपने ब्लोग क़स्बा पर पिछले दिनों सेक्स सर्वे पर ये टिपण्णी पोस्ट कि थी। उनके ब्लोग से अक्षरश प्रस्तुत है.

सेक्स सर्वे आये दिन होने लगा है। तमाम पत्रिकाएं सर्वे कर रही हैं। सेक्स सर्वेयर न जाने किस घर में जाकर किससे ऐसी गहरी बातचीत कर आता है। कब जाता है यह भी एक सवाल है। क्या तब जाता है जब घर में सिर्फ पत्नी हो या तब जाता है जब मियां बीबी दोनों हों। क्या आप ऐसे किसी को घर में आने देंगे जो कहे कि हम फलां पत्रिका की तरफ से सेक्स सर्वे करने आए हैं या फिर वो यह कह कर ड्राइंग रूम में आ जाता होगा कि हम हेल्थ सर्वे करने आए हैं। एक ग्लास पानी पीने के बाद मिसेज शर्मा को सेक्स सर्वे वाला सवाल दे देता होगा। मिसेज शर्मा भी चुपचाप बिना खी खी किए सवालों के खांचे में टिक कर देती होंगी। और सर्वेयर यह कह कर उठ जाता होगा कि जी हम आपका नाम गुप्त रखेंगे। सिर्फ आपकी बातें सार्वजनिक होंगी। मिसेज शर्मा कहती होंगी कोई नहीं जी। नाम न दीजिए। पड़ोसी क्या कहेंगे। सर्वेयर कहता होगा डोंट वरी...पड़ोसी ने भी सर्वे में जवाब दिए हैं। मिसेज शर्मा कहती होंगी...हां....आप तो...चलिए जाइये।ज़रूरी नहीं कि ऐसा ही होता हो। मैं तो बस कल्पना कर रहा हूं। सर्वे में शामिल समाज को समझने की कोशिश कर रहा हूं। क्या हमारा समाज हर दिन सेक्स पर किसी अजनबी से बात करने के लिए तैयार हो गया है। हर तीन महीने में सेक्स का सर्वे आता है। औरत क्या चाहती है? मर्द क्या चाहता है? क्या औरत पराई मर्द भी चाहती है? क्या मर्द हरजाई हो गया है? क्या शादी एक समझौता है जिसमें एक से अधिक मर्दो या औरतों के साथ सेक्स की अनुमति है? क्या सेक्स को लेकर संबंधों में इतनी तेजी से बदलाव आ रहे हैं कि हर दिन किसी न किसी पत्रिका में सर्वे आता है?हो सकता है कि ऐसा होने लगा हो। लोग नाम न छापने की शर्त पर अपनी सेक्स ज़रूरतों पर खुल कर बात करते हों। समाज खुल रहा है। सेक्स संबंधों को लेकर लोग लोकतांत्रिक हो रहे हैं। क्या सेक्स संबंधों में लोकतांत्रिक होने से औरत मर्द के संबंध लोकतांत्रिक हो जाते हैं? या फिर यह संबंध वैसा ही है जैसा सौ साल पहले था। सिर्फ सर्वे वाला नया आ गया है। सर्वे वाला टीन सेक्स सर्वे भी कर रहा है। लड़के लड़कियों से पूछ आता है कि वो अब कौमार्य को नहीं मानते। शादी से पहले सेक्स से गुरेज़ नहीं। शादी के बाद भी नहीं। सेक्स सर्वे संडे को ही छपते हैं। सोमवार को नहीं। क्या इस दिन सेक्स सर्वे को ज़्यादा पढ़ा जाता है।आज के टाइम्स आफ इंडिया में भी एक कहानी आई है। नाम न छापने की शर्त पर कुछ लड़के लड़कियों ने बताया है कि वो शादी संबंध के बाहर सिर्फ सेक्स के लिए कुछ मित्र बनाते हैं। फन के बाद मन का रिश्ता नहीं रखते। सीधे घर आ जाते हैं। इस कहानी में यही नहीं लिखा है। जब पति पत्नी को पता ही होता है कि उनके बीच दो और लोग हैं। तो सेक्स कहां होता होगा। घर में? इसकी जानकारी नहीं है। सिर्फ कहानी है। ऐसी कि आप नंदीग्राम छोड़ सेक्सग्राम की खबरें पढ़ ही लेंगे। सेक्स संबंधों में बदलाव तो आता है। आ रहा है। हमारा समाज बहुत बदल गया है। लेकिन वो सर्वे में आकर सार्वजनिक घोषणा करने की भी हिम्मत रखता है तो सवाल यही उठता है कि वो अपना नाम क्यों छुपाता है। क्या सिर्फ २००७ के साल में ही लोग शादी से बाहर सेक्स संबंध बना रहे हैं? उससे पहले कभी नहीं हुआ? इतिहास में कभी नहीं? अगली बार कुछ सवालों का सैंपल बनाकर मित्रों के बीच ही सर्वे करने की कोशिश कीजिएगा। पता चलेगा कि कितने लोग जवाब देते हैं। या नहीं तो किसी बरिस्ता में बैठे जोड़ों से पूछ आइयेगा। जवाब मिल गया तो मैं गलत। अगर मार पड़ी तो अस्पताल का बिल खुद दीजिएगा।
-रवीश कुमार

Thursday, November 8, 2007

ब्लोग बज, राजस्थान पत्रिका, जस्ट जयपुर 8 नवम्बर


राजस्थान पत्रिका के जयपुर सिटी के लाइफ स्टाइल न्यूज़ सप्लीमेंट जस्ट जयपुर में प्रकाशित ब्लोग बज । आप सभी के अवलोकनार्थ ।
ब्लोग बज 8 नवम्बर

Saturday, November 3, 2007

दीपावली और ...उपहार

दीपावली के आगमन के साथ ही ऐसे लोगों कि बाद सी आ गई है जो घर का पता जानना चाहते हैं। दरअसल वे शिष्टाचार भेंट करना चाहते हैं। और इसी भेंट के बहाने ही कुछ भेंट करना चाहते हैं, ताकि संबंध मधुर बने रहे। और उन्हें गाहे बगाहे उपकृत करते रहे। मेरे विचार मैं तो यह् एक प्रकार कि रिश्वत का ही आदान प्रदान है। आप क्या सोचते हैं?

Thursday, November 1, 2007

ब्लोग बज, राजस्थान पत्रिका, १ november



rajasthan patrika, city laaif staail sapliment jast jaipur men 1 nov. ko prakashit .aap sabhi ke avloknarth, saadar

Monday, October 29, 2007

पिछली बार प्रकाशित ब्लोग बज




राजस्थान पत्रिका के जयपुर सिटी सप्लीमेंट में दिनाकं २५ अक्तूबर को प्रकाशित। आप सब के उत्साहवर्द्धक रेस्पोंसे से प्रेरित होकर मैं पिछली बार प्रकाशित कालम अपलोड कर रहा हूँ। इमेज पड़ने मैं कठिनाई हो रही होगी । मैं कोशिः करूंगा कि टेक्स्ट को दुबारा कोम्पोसे कर के दूं, आप सभी अनुरोध है कि इसे सकारात्मक तरिक्र से लिया जाये।


ब्लॉग बज तो राजस्थान पत्रिका में भी है,,,

आज इरफान साहेब के ब्लोग मैंन पढा कि अविनाश जी जनसत्ता मैं ब्लोगालिखी लिख रह हैं। ब्लोग वर्ल्ड के साथियों को बताना चाहूँगा कि राजस्थान पत्रिका काफी अर्से से ब्लोग्बज़ प्रकाशित कर रह है, प्रत्येक गुरुवार को। कोशिश करूंगा कि पिछले प्रकाशित कालम आप सबको उपलब्ध करवाऊँ . सादर.

यह कारवां तो अब बिखरने लगा है...

- अभिषेक

भारतीय जनता पार्टी का कारवां लगता है बिखरने लगा है। पार्टी विद ए डिफरेन्स का नारा बुलंद करने वाली यह पार्टी अब पार्टी विद डिफरेन्सेज हो गई लगती है। भाजपा की यह अधोगति केवल भाजपा के ही हित या अहित को प्रभावित करती हो, ऐसा नहीं है,बरसों से सम्भाला संवारा लोकतंत्र भी इससे कहीं अन्दर तक आहत हो रहा है। सालों के प्रयास के बाद 90 के दशक में जा कर लगने लगा था कि अब देश में सही मायने में लोकतंत्र की स्थापना होगी और देश में दो दलीय व्यवस्था सुदृढ़ होगी। लेकिन शायद भाजपा के लौहपुरुषों और कर्णधारों को यह मंजूर नहीं था। तभी तो अपने बाद उन्होंने किसी अन्य की वह हस्ती नहीं बनने दी जो पार्टी को संभाल सके। न संघ यह समझ पाया और न भाजपा कि नेता नियुक्त नहीं होते,वे तो बनते हैं। प्रमोद महाजन औऱ साहिब सिंह जैसों को विधाता ने छीन लिया तो उमाभारती जैसों को प्रक्रिया और स्वाभिमान, जैसा वे कहती हैं, की लड़ाई ने। कल्याण सिहं राजनाथ सिंह की आपसदारी ने यूपी को डुबोया तो केन्द्र में वैंकया नायडु,सुषमा स्वराज, अरुण जेटली जैसों की महत्वकांक्षा ने सबकुछ लुटाने की सी स्थिति बना दी। भाजपा शासित राज्यों की तो बात ही क्या करें। चाहे मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ हो या राजस्थान हर जगह कुलड़ी में गुड़ फोड़ा जा रहा है। नेताओं की कतार खड़ी है दूसरे नेताओँ की जड़ों मे मट्ठा दालने में। वैसे असंतोष कोई नई बात नहीं है,सवर्दा ही वंचित वर्ग असंतुष्ट रहता है।पर उसका समय पर इलाज हो जाना जरूरी है,निरंकुशता स्थितियों को विकृत कर देती है। कुल मिला कर भाजपा की स्थिति निराश करती है। इन सबसे उपर संघ की भूमिका भी बदलने लगी है।पहले वहां निपटारे होते थे। मनोमालिन्य दूर होते थे अब वहां पेशियां होती हैं, फैसले होते हैं, सबसे बड़ी बात कई बार तो उसके न्यायकर्ता की भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं। और सिद्धान्तों का चोला भी लगता है अब उतर गया है। तभी कर्नाटक मे पहले इतनी छिछालेदार के बाद अब फिर से कुमारस्वामी का साथ मंजूर कर सरकार बनाने का दावा कर लिया है। कहते हैं राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता पर इतना जल्दी तो गिरगिट भी नहीं बदलता। कुमारस्वामी को पहले पता नहीं था क्या कि उनका दल टूट सकता है। दल टूटा तो चले भाजपा की गोद मे और ये भी इतने बे मुरोव्वत की तुरन्त बैठा लिया और पहुंच गए राजभवन।खैर यह तो वक्त की बात है, लेकिन इस और इस जैसी अन्य कई घटनाएं एक बात साफ कर रही हैं,कि हमारे यहां दो दलीय व्यवस्था का सितारा बुलंद होना बहुत संभव नहीं लगता।और हम कांग्रेस के इर्द-गिर्द छोटे-छोटे तात्कालिक महत्वकांक्षाओं वाले राजनैतिक घटकों से ही त्रस्त रहेंगे जो देश की किसी भी बड़ी परियोजना को सफल होने देने मे भरसक रोड़े अटकाएंगे।क्योंकि उन्हें पूरे देश से कोई मतलब नहीं, उन्हें तो सिर्फ अपने से मतलब है। और यह सब होगा देश की किमत पर। बात जहां तक भाजपा के कारवां के बिखरने की है तो मुझे एक कहावत याद आ रही है...
राम किसी को मारे नहीं, नहीं हत्यारा राम,
पापी खुद ही मर जाए कर कर खोटे काम,,,,,,

Saturday, October 27, 2007

गोधरा को क्यों नही छोड़ता मीडिया

- अभिषेक

गोधरा और गुजरात इतने अर्से बाद भी मीडिया की सुर्खियां हैं, हर बार एक ही नजर से। लेकिन मैं आज नजर की बात नहीं करूंगा। मैं बात करूंगा मीडिया की जिम्मेदार होने की। पिछले दो दिन से स्टिंग ऑपरेशन के नाम पर जो कुछ चैनलों पर जो कुछ दिखाया जा रहा है वो कितने गोधरा औऱ गुजरात रच देगा इसकी किसीको परवाह है। इसमें कोई शक नहीं कि जो हुआ वो दुखःद था। चाहे पहले की दुर्घटना सुनियोजित थी या बाद में प्रतिक्रिया के रूप में भीड़ की अराजक और अमानवीय कार्रवाई किसी साजिश का हिस्सा रही हों,कुल मिलाकर दोनों ही हादसे मानवीयता के प्रतिकूल और कलंक थे। इसके लिए कौन लोग जिम्मेदार हैं,गुनहगार हैं, उसके लिए हमारा तंत्र है, राज्य सरकार पर भरोसा नहीं तो केन्द्र सरकार है। केन्द्रीय एजेंसियां हैं। उनकी जांच में जो सामने आता है वो न्यायालय में पेश हो और वहां से जो निर्णय हो उसका पालन हो।
मीडिया को तो ऐसी किसी जांच की छूट नहीं होनी चाहिए। चलिए कोई मीडिया की खोजी ताकत को अंगीकार कर छूट ले भी लेता हो तो उससे जिम्मेदारी से काम लेने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन लगता है टीआरपी की सुर्खियों ने मीडीया के जिम्मेदारी को निगल लिया है। तभी तहलका का कलंक पूरे उत्साह के साथ तमाम हिन्दुस्तान के लोगों को दिखाया जा रहा है। चंद लोगों के बयान से बताया जा रहा है कि गुजरात का सच क्या था। हो सकता है कि तहलका के इस स्टिंग में जो बाते कही गई हैं वो बातें उन लोगो ने कही हों। लेकिन ऐसा होने पर भी इन बयानों को सीधे सार्वजनिक करने की बजाय जांच एंजेसियों को सौंप जाना चाहिए था.जांच एजेंसियों और अन्य की राय के बाद इन्हें सार्वजनिक किया जाना था। इन दिनों एक चिन्ता और तेजी से वास्तविक समस्या के रूप में सिर उठाने लगी है, और वह है मीडिया की प्रतिबद्धता। सामान्यतया मीडिया हाउस किसी न किसी राजनैतिक दल या विचारधारा से जुड़े हुए पाए जाते रहे हैं। लेकिन फिर भी वे निष्पक्षता के एक धागे से बंधे दिखाई देते रहे हैं। लेकिन अब यह धागा टूटता दिख रहा है और मीडिया हाउस सीधे तौर पर अपने राजनैतिक विचार को पोषित करने और विरोधी विचार को हतोत्साहित करते दिखाई देने लगे हैं। आप सोचिए तहलका की स्टिंग टीम के अब तक के सारे शिकार राजग के घटक ही क्यों हुए। संघ, भाजपा से जुड़े लोगों की ही पोल खोलने के लिए तहलका क्यों जुटा रहा है। क्यों नहीं अन्य दलों के लोगों के लिए तहलका का स्टिंग जाल फैला। हो सकता हो यह संयोग वश ही हुआ कि तहलका के न्यूजरूम में एन्टी एनडीए खबरों को ही बड़ी खबर माना गया हो। लेकिन ऐसा संयोग सवाल खड़े करता है औऱ जवाब भी मांगता है।

लुआब यह कि,दूसरों कि निष्पक्षता और कर्तव्यपरायणता पर उंगली उठाने वाले मीडिया को स्वयं भी इन सबकों को याद रखना होगा तभी यह चौथा स्तंभ, स्तंभ के रूप में खड़ा रह पाएगा।

सवाल लड़के और लक्ष्मी का....

लड़का और लड़की अब भी हमारे लिए भेदभाव की बात है. हमने कितनी भी तरक्की क्यों न कर ली हो, लेकिन लड़के और लड़की का भेद अब भी हमारे समाज में कितनी गहराई तक घुसा हुआ है इसका मुजाहिरा मेरी बेटी के जन्म के साथ। बेटी के जन्म हुआ सरकारी अस्पताल में,इसी सरकारी अस्पताल में मेरे बेटे का भी जन्म हुआ था। पत्नी का प्रसव करवाने में सहायता देने वाला नर्सिंग स्टाफ सारा का सारा लगभग दोनों समय एक सा ही था। बेटे जन्म के समय अन्दर से ही चिल्ला कर बताने वाली आवाज बेटी के जन्म के समय कई बार पूछने के बाद बहुत धीरे से निकली, लक्ष्मी आई है। जब हमने बिटिया के जन्म की बधाई (बक्शीश) दी तो इतने खुश जैसे उन्हें इतने की उम्मीद ही नहीं हो। इसके बाद जब परिजनों, परिचितों को सूचना मिलने पर उनके बधाई संदेश मिले तो सबमें एक बात कॉमन थी, बधाई हो लक्ष्मी आई है....। हमने तो अभी बिटिया का नाम ही नहीं रखा था और सब उसे लक्ष्मी पुकार रहे थे। सब का तात्पर्य समृद्धि की देवी लक्ष्मी से था, यह हम समझ रहे थे,हमें याद नहीं आ रहा था कि जब हमारे यहां बेटे का जन्म हुआ था तब किसी ने विष्णु,शिव,राम, हनुमान या गणेश के आगमन का संदेश देते हुए हमें बधाई दी हो,पर कन्या जन्म के समय सब का एक ही स्वर था,लक्ष्मी आई है। एक बात और खास थी कि बड़े पत्रकारों, लेखकों सहित मेरे गांव के मित्र के ठेठ देहाती पापा तक सभी की एक ही बोली थी। कुछ लोग थोड़े साहसी भी थे, पूछ बैठते, पहला तो बेटा है ना, मेरे हां कहने पर कहते, चलो अच्छा हुआ फैमिली कम्पलीट हो गई। अब आप ही अन्दाजा लगाइए और सोचिए की हम लड़के और लड़की का भेद मिटाने में कितना कामयाब हुए हैं या हमारी सोच अभी भी कहां अटकी है।
- अभिषेक

मेरे घर आई नन्हीं परी....

मेरे घर आई नन्हीं परी....
दोस्तो,आप सब को यह सूचना देते हुऐ मुझे बहुत हर्ष हो रहा है कि मेरे आंगन में विगत 15 तारीख को एक बालिका का जन्म हुआ है। कुछ इसी कारण से बढ़ी व्यस्तताओं के चलते और कुछ तकनीकी खामी के चलते मैं आपसे रूबरू नहीं हो पाया इसके लिए क्षमा चाहता हूं। कोशिश करूंगा की अब कुछ नियमित रह सकूं।..
- अभिषेक

Thursday, October 11, 2007

एंग्रीयंगमैन और हिन्दुस्तानी दादा जी, अमिताभ बच्चन



पिछले दिनों एक ब्लॉग का चक्कर लगाते समय अमिताभ बच्चन और दिलीप कुमार में से महान कौन,इस बहस पर दिलचस्प तर्क वितर्क पढ़े। बहस का नतीजा क्या निकला ये तो पता नहीं, पर मुझे इस बहस को पढ़ते समय भी और आज अमिताभ के जन्म दिन पर मीडिया में चल रही खबरें देखते समय याद आता है सालों पहले, ये मानिए,87 की बात होगी, लगभग हर शख्स की हेयर स्टाइल एक सी होती थी। बीच की मांग,जिससे दोनों तरफ के बाल सिर पर छज्जा सा बनाते थे और लम्बी कलम जो कानों की नोक तक आती थी। मैं उस समय प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था। राजस्थान के चित्तोड़गढ़ जिले के एक अन्दरूनी गांव ( वैसे लोग उसे कस्बा कहते थे) राशमी में उस समय मां की पोस्टिंग थी। पहाड़ी की तलहटी के नीचे बसा गांव सामान्य गांव सा ही था, जगह जगह बड़ पीपल के पेड़ थे। टेकरी पर माताजी का मंदिर था। एक तालाब था जो सूखा होने के चलते क्रिकेट खेलने के काम आता था। सबसे नजदीकी थिएटर कपासन में हुआ करता था। यह सारा परिचय इसलिए की आप गांव की स्थिति का भली भांति अंदाजा लगा सकें। तब मेरा एक दोस्त होता था किशऩ। उसकी हेयरस्टाइल से लगाकर सीनीयर स्कूल के गणित के मास्टर जी सभी की हेयरस्टाइल एक सी, अमिताभ शैली। तबके बाद सालों साल जितने भी लोग मिले उनमें अधिकांश को उसी शैली के बालों में देखा।
समय गुजर गया है, गंगा में बहुत पानी बह गया है। अब जरा अपने आस पास बुजुर्गों के चेहरों पर नजर दौड़ाइये। कल तक मूंछ को खिजाब से काला करते और गाल सफाचट रखते लोग अब फ्रेंट कट रख रहे हैं। वो भी बिना खिजाब के। वाकई यह होता है अमिताभ का अमिताभ होना जो सालों से हिंदुस्तानियों के प्रजेंटेशन का तरीका बाना हुआ है .एंग्रीयंगमैन से एक आम हिन्दुस्तानी घर के दादाजी की छवि तक का यह सफर बेमिसाल है। अमिताभजी के जन्मदिन पर उन्हें बधाई।
- अभिषेक

Tuesday, October 9, 2007

stock

बोम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) के 30 शेयर आधारित सेंसेक्स ने मंगलवार को 18 हज़ार का स्तर पार कर एक नया रिकॉर्ड स्थापित किया। सेंसेक्स मंगलवार को 18280 के स्तर पर बंद हुआ. सेंसेक्स को 1000 अंक की दूरी तय करने में केवल नौ कारोबारी सत्र लगे.
इससे पहले बीएसई का सेंसेक्स 26 सितंबर को 17,000 को पार कर गया था। सबसे कम समय में 16000 से 17000 अंकों के बीच एक हजार अंकों का फ़ासला तय किया था . इससे पहले, वर्ष मार्च 2006 में सेंसेक्स ने महज 19 दिनों में ही 11000 से 12000 तक का सफ़र तय किया था।

ब्लॉगिंग: ऑनलाइन विश्व की आजाद अभिव्यक्ति

( मुझे किसी परिचित ने यह् आलेख मेल किया है। वैसे तो ये इन्टरनेट पर पहले भी होगा पर एक बार फिर साभार आदर के साथ)
(कादम्बिनी के अक्तूबर 07 अंक में प्रकाशित लेख का मूल, पूर्ण आलेख)
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
"दूसरे धर्मों का तो पता नहीं पर मैंने अपने धर्म में इतने दंभी, स्वार्थी और बेवकूफ लोग देखे हैं कि मुझे पछतावा है कि मैं क्यों जैन पैदा हुआ? अब जैन में तो हर चीज करने में पाप लगता है.... कुछ जैन संप्रदाय मूर्ति पूजा करते हैं तो कुछ मूर्तिपूजा के खिलाफ हैं। अब एक जैन मंदिर में जाकर लाइट चालू करके, माइक पे वंदना करके यह संतोष व्यक्त करते हैं कि मुझे स्वर्ग मिलेगा तो कुछ 'स्थानकवासी' जैन मानते हैं कि बिजली चालू करने से पाप लगता है और मूर्ति बनाने से बहुत छोटे जीव मरते हैं इसलिए पाप लगता है। यहां दोनों संप्रदाय एक ही भगवान की पूजा करेंगे लेकिन अलग ढंग से। फिर आठ दिन भूखे रहकर यह मान लेंगे कि उनका पाप मिट गया। यानी आपने तीन खून किए हों या लाखों लोगों के रुपए लूटे हों फिर भी कुछ दिन भूखे रहने से पाप मिट जाएंगे।" (तत्वज्ञानी के हथौड़े)। "मैं अपने आपको मुसलमान नहीं मानता मगर मैं अपने मां-बाप की बहुत इज्जत करता हूं, सिर्फ और सिर्फ उनको खुश करने के लिए उनके सामने मुसलमान होने का नाटक करता हूं, वरना मुझे अपने आपको मुसलमान करते हुए बहुत गुस्सा आता है। मैं एक आम इन्सान हूं, मेरे दिल में वही है जो दूसरों में है। मैं झूठ, फरेब, मानदारी, बेईमानी, अच्छी और बुरी आदतें, कभी शरीफ और कभी कमीना बन जाता हूं, कभी किसी की मदद करता हूं और कभी नहीं- ये बातें हर इंसान में कॉमन हैं। एक दिन अब्बा ने अम्मी से गुस्से में आकर पूछा- क्या यह हमारा ही बच्चा है? तो वो हमारी तरह मुसलमान क्यों नहीं? कयामत के दिन अल्लाह मुझसे पूछेगा कि तेरे एक बेटे को मुसलमान क्यों नहीं बनाया तो मैं क्या जवाब दूं? पहले तो अब्बा-अम्मी ने मुझे प्यार से मनाया, फिर खूब मारा-पीटा कि हमारी तरह पक्का मुसलमान बने... यहां दुबई में दुनिया भर के देशों के लोग रहते हैं और ज्यादातर मुसलमान। मुझे शुरू से मुसलमान बनना पसंद नहीं और यहां आकर सभी लोगों को करीब से देखने और उनके साथ रहने के बाद तो अब इस्लाम से और बेजारी होने लगी है। मैं यह हरगिज नहीं कहता कि इस्लाम गलत है, इस्लाम तो अपनी जगह ठीक है। मैं मुसलमानों और उनके विचारों की बात कर रहा हूं।" (नई बातें, नई सोच)। ये दोनों टिप्पणियां दो अलग-अलग लोगों ने लिखी हैं। दो ऐसे साहसिक युवकों ने, जो प्रगतिशीलता का आवरण ओढ़े किंतु भीतर से रूढ़िवादिता
ब्लॉगिंग है एक ऐसा माध्यम जिसमें लेखक ही संपादक है और वही प्रकाशक भी। ऐसा माध्यम जो भौगोलिक सीमाओं से पूरी तरह मुक्त, और राजनैतिक-सामाजिक नियंत्रण से लगभग स्वतंत्र है। जहां अभिव्यक्ति न कायदों में बंधने को मजबूर है, न अल कायदा से डरने को।
को हृदयंगम कर परंपराओं और मान्यताओं को बिना शर्त ढोते रहने वाले हमारे समाज की संकीर्णताओं के भीतर घुटन महसूस करते हैं। क्या इस तरह की बेखौफ, निश्छलतापूर्ण और ईमानदार टिप्पणियां किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित की जा सकती हैं? क्या क्रुद्ध समाजों की उग्रतम प्रतिक्रियाओं से भरे इस दौर में ऐसे प्रतिरोधी स्वर किसी दूरदर्शन या आकाशवाणी से प्रसारित हो सकते हैं? क्या को धार्मिक, सामाजिक या राजनैतिक मंच इस मानदार किंतु विद्रोही आक्रोश की अभिव्यक्ति का मंच बन सकता है? ऐसा संभवत: सिर्फ एक मंच है जिसमें अभिव्यक्ति किन्हीं सीमाओं, वर्जनाओं, आचार संहिताओं या अनुशासन में कैद नहीं है। वह मंच है इंटरनेट पर तेजी से लोकप्रिय हो रही ब्लॉगिंग का। औपचारिकता के तौर पर दोहरा दूं कि ब्लॉगिंग शब्द अंग्रेजी के 'वेब लॉग' (इंटरनेट आधारित टिप्पणियां) से बना है, जिसका तात्पर्य ऐसी डायरी से है जो किसी नोटबुक में नहीं बल्कि इंटरनेट पर रखी जाती है। पारंपरिक डायरी के विपरीत वेब आधारित ये डायरियां (ब्लॉग) सिर्फ अपने तक सीमित रखने के लिए नहीं हैं बल्कि सार्वजनिक पठन-पाठन के लिए उपलब्ध हैं। चूंकि आपकी इस डायरी को विश्व भर में कोई भी पढ़ सकता है इसलिए यह आपको अपने विचारों, अनुभवों या रचनात्मकता को दूसरों तक पहुंचाने का जरिया प्रदान करती है और सबकी सामूहिक डायरियों (ब्लॉगमंडल) को मिलाकर देखें तो यह निर्विवाद रूप से विश्व का सबसे बड़ा जनसंचार तंत्र बन चुका है। उसने कहीं पत्रिका का रूप ले लिया है, कहीं अखबार का, कहीं पोर्टल का तो कहीं ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा के मंच का। उसकी विषय वस्तु की भी को सीमा नहीं। कहीं संगीत उपलब्ध है, कहीं कार्टून, कहीं चित्र तो कहीं वीडियो। कहीं पर लोग मिल-जुलकर पुस्तकें लिख रहे हैं तो कहीं तकनीकी समस्याओं का समाधान किया जा रहा है। ब्लॉग मंडल का उपयोग कहीं भाषाएं सिखाने के लिए हो रहा है तो कहीं अमर साहित्य को ऑनलाइन पाठकों को उपलब्ध कराने में। इंटरनेट पर मौजूद अनंत ज्ञानकोष में ब्लॉग के जरिए थोड़ा-थोड़ा व्यक्तिगत योगदान देने की लाजवाब कोशिश हो रही है। सीमाओं से मुक्त अभिव्यक्ति ब्लॉगिंग है एक ऐसा माध्यम जिसमें लेखक ही संपादक है और वही प्रकाशक भी। ऐसा माध्यम जो भौगोलिक सीमाओं से पूरी तरह मुक्त, और राजनैतिक-सामाजिक नियंत्रण से लगभग स्वतंत्र है। जहां अभिव्यक्ति न कायदों में बंधने को मजबूर है, न अल कायदा से डरने को। इस माध्यम में न समय की कोई समस्या है, न सर्कुलेशन की कमी, न महीने भर तक पाठकीय प्रतिक्रियाओं का इंतजार करने की जरूरत। त्वरित अभिव्यक्ति, त्वरित प्रसारण, त्वरित प्रतिक्रिया और विश्वव्यापी प्रसार के चलते ब्लॉगिंग अद्वितीय रूप से लोकप्रिय हो ग है। ब्लॉगों की दुनिया पर केंद्रित कंपनी 'टेक्नोरैटी' की ताजा रिपोर्ट (जुलाई २००७) के अनुसार ९.३८ करोड़ ब्लॉगों का ब्यौरा तो उसी के पास उपलब्ध है। ऐसे ब्लॉगों की संख्या भी अच्छी खासी है जो 'टेक्नोरैटी' में पंजीकृत नहीं हैं। समूचे ब्लॉगमंडल का आकार हर छह महीने में दोगुना हो जाता है। सोचिए आज जब आप यह लेख पढ़ रहे हैं, तब अभिव्यक्ति और संचार के इस माध्यम का आकार कितना बड़ा होगा? आइए फिर से अभिव्यक्ति के मुद्दे पर लौटें, जहां से हमने बात शुरू की थी। हालांकि ब्लॉगिंग की ओर आकर्षित होने के और भी कई कारण हैं
जो चाहें, लिखें और अगर चाहते हैं कि इसे दूसरे लोग भी पढ़ें तो ब्लॉग पर डाल दें। किसी को जँचेगा तो पढ़ लेगा वरना आगे बढ़ जाएगा। ब्लॉगिंग वस्तुत: एक लोकतांत्रिक माध्यम है। यहां कोई न लिखने के लिए मजबूर है, न पढ़ने के लिए।
लेकिन अधिकांश विशुद्ध, गैर-व्यावसायिक ब्लॉगरों ने अपने विचारों और रचनात्मकता की अभिव्यक्ति के लिए ही इस मंच को अपनाया। जिन करोड़ों लोगों के पास आज अपने ब्लॉग हैं, उनमें से कितने पारंपरिक जनसंचार माध्यमों में स्थान पा सकते थे? स्थान की सीमा, रचनाओं के स्तर, मौलिकता, रचनात्मकता, महत्व, सामयिकता आदि कितने ही अनुशासनों में निबद्ध जनसंचार माध्यमों से हर व्यक्ति के विचारों को स्थान देने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। लेकिन ब्लॉगिंग की दुनिया पूरी तरह स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और मनमौजी किस्म की रचनात्मक दुनिया है। वहां आपकी 'भई आज कुछ नहीं लिखेंगे' नामक छोटी सी टिप्पणी का भी उतना ही स्वागत है जितना कि जीतेन्द्र चौधरी की ओर से वर्डप्रेस पर डाली गई सम्पूर्ण रामचरित मानस का। 'भड़ास' नामक सामूहिक ब्लॉग के सूत्र वाक्य से यह बात स्पष्ट हो जाती है- कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिए... मन हल्का हो जाएगा..। चौपटस्वामी नामक ब्लॉगर की लिखी यह टिप्पणी पढ़िए- "(हमारे यहां) धनिया में लीद मिलाने और कालीमिर्च में पपीते के बीज मिलाने को सामाजिक अनुमोदन है। रिश्वत लेना और देना सामान्य और स्वीकृत परंपरा है और उसे लगभग रीति-रिवाज के रूप में मान्यता प्राप्त है। कन्या-भ्रूण की हत्या यहां रोजमर्रा का कर्म है और अपने से कमजोर को लतियाना अघोषित धर्म है। गणेशजी को दूध पिलाना हमारी धार्मिक आस्था है। हमारा लड़का हमें गरियाते और जुतियाते हुए भी श्रवणकुमार है, पर पड़ोसी का ठीक-ठाक सा लड़का भी बिलावजह दुष्ट और बदकार है।" यानी कि सौ फीसदी अभिव्यक्ति की एक सौ एक फीसदी आजादी! वरिष्ठ ब्लॉगर अनूप शुक्ला (फुरसतिया) कहते हैं- "अभिव्यक्ति की बेचैनी ब्लॉगिंग का प्राण तत्व है और तात्कालिकता इसकी मूल प्रवृत्ति है। विचारों की सहज अभिव्यक्ति ही ब्लॉग की ताकत है, यही इसकी कमजोरी भी। यही इसकी सामर्थ्य है, यही इसकी सीमा भी। सहजता जहां खत्म हुई वहां फिर अभिव्यक्ति ब्लॉगिंग से दूर होती जाएगी।" जो चाहें, लिखें और अगर चाहते हैं कि इसे दूसरे लोग भी पढ़ें तो ब्लॉग पर डाल दें। किसी को जंचेगा तो पढ़ लेगा वरना आगे बढ़ जाएगा। ब्लॉगिंग वस्तुत: एक लोकतांत्रिक माध्यम है। यहां कोई न लिखने के लिए मजबूर है, न पढ़ने के लिए। जो अच्छा लिखते हैं, उनके ठिकानों पर स्वत: भीड़ हो जाती है, उनके ब्लॉगों में टिप्पणियों की बहार आ जाती है। ऐसे कई ब्लॉग हीरो ब्लॉगिंग की दुनिया ने दिए हैं जो सिर्फ अपने लेखों, भाषा या रचनात्मकता के लिए ही नहीं, तकनीकी मार्गदर्शन देने (गैर-अंग्रेजी ब्लॉगरों को इसकी जरूरत पड़ती ही है) और नए ब्लॉगरों व ब्लॉग परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए भी जाने जाते हैं। ब्लॉग विश्व के चर्चित लोग दुनिया के विख्यात ब्लॉगरों में एंड्र्यू सलीवान (एंड्र्यूसलीवान.कॉम), रॉन गंजबर्गर (पोलिटिक्स१.कॉम), ग्लेन रोनाल्ड (इन्स्टापंडित.कॉम), डंकन ब्लैक, पीटर रोजास, जेनी जार्डिन, बेन ट्रोट, जोनाथन श्वार्ट्ज, जेसन गोल्डमैन, रॉबर्ट स्कोबल, मैट ड्रज (ड्रजरिपोर्ट.कॉम) आदि शामिल हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को महाभियोग की हद तक ले जाने वाले मोनिका लुइन्स्की प्रकरण का पर्दाफाश मैट ड्रज ने ही अपने ब्लॉग पर किया था। चीनी अभिनेत्री जू जिंगले का ब्लॉग संभवत: दुनिया का सर्वाधिक लोकप्रिय ब्लॉग है जिसे पांच करोड़ से भी अधिक बार पढ़ा जा चुका है। ब्लॉगिंग का चस्का बहुत सी विख्यात हस्तियों को भी लगा है जिनमें टेनिस सुंदरी अन्ना कोर्निकोवा, हॉलीवुड अभिनेत्री पामेला एंडरसन, गायिका ब्रिटनी स्पीयर्स, अभिनेत्री व सुपरमॉडल कर्टनी लव, फिल्म निर्देशक व अभिनेता केविन स्मिथ आदि शामिल हैं। हमारे देश में
भारत के कई अंग्रेजी ब्लॉग काफी लोकप्रिय हो गए हैं जिनमें गौरव सबनीस का वान्टेड प्वाइंट, अमित वर्मा का इंडिया अनकट, रश्मि बंसल का यूथ सिटी, अमित अग्रवाल का डिजिटल इनिस्परेशन, दीना मेहता का दीनामेहता.कॉम आदि प्रमुख हैं।
फिल्म अभिनेता आमिर खान (लगानडीवीडी.कॉम), जॉन अब्राहम, बिपासा बसु (बिपासाबसुनेट.कॉम), राहुल बोस, राहुल खन्ना, शेखर कपूर, सुचित्रा कृष्णमूर्ति, अनुपम खेर, कवि अशोक चक्रधर, रेडिफ चेयरमैन अजीत बालाकृष्णन, इंडियावर्ल्ड.कॉम बनाकर उसे छह सौ करोड़ रुपए में सिफी.कॉम को बेचने वाले राजेश जैन, वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई , नौकरी.कॉम के सी ई ओ संजीव बीखचंदानी आदि भी सक्रिय ब्लॉगर हैं। आमिर खान के ब्लॉग पर तो पिछली पोस्ट के जवाब में सत्रह सौ पाठकों की टिप्पणियां दर्ज हैं! भारत के कई अंग्रेजी ब्लॉग काफी लोकप्रिय हो गए हैं जिनमें गौरव सबनीस का वान्टेड प्वाइंट, अमित वर्मा का इंडिया अनकट, रश्मि बंसल का यूथ सिटी, अमित अग्रवाल का डिजिटल इनिस्परेशन, दीना मेहता का दीनामेहता.कॉम आदि प्रमुख हैं। आई आई टी के छात्र रहे अमित अग्रवाल तो आई.बी.एम. में अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर पूरी तरह अपने ब्लॉग पर ही केंद्रित हो गए हैं और कहा जा रहा है कि नौकरी की तुलना में ब्लॉग से उनकी कमाई कहीं ज्यादा है। संदर्भ आया है तो बता दें कि ब्लॉगों पर मुख्यत: विज्ञापनों और प्रायोजित लेखों के माध्यम से कमाई होती है। दुनिया में ब्लॉगिंग से सर्वाधिक कमा करने वालों में केविन रोस नामक किशोर प्रमुख हैं जिसने महज डेढ़ साल की अवधि में छह करोड़ डालर (लगभग २५ करोड़ रुपए) की राशि अर्जित की है। ब्लॉगर पाउला नील मूनी ने सर्वाधिक आय अर्जित करने वाले ब्लॉग-उद्यमियों की जो सूची बनाई है उसमें मारकस फ्राइंड़ (३.६ करोड़ डालर), वेबलॉग्स के जेसन कैलाकैनिस (१.१ करोड़ डालर), रोजेलिन गार्डनर (४३ लाख डालर) आदि प्रमुख हैं। गूगल के एड-सेंस कार्यक्रम और कई अन्य कंपनियों की विज्ञापन योजनाओं के तहत सैकड़ों ब्लॉगर अच्छी खासी रकम बना रहे हैं। यह बात अलग है कि अभी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में ब्लॉगरों को इस किस्म की कमाई नहीं हो रही। रवि रतलामी का हिंदी ब्लॉग, रचनाकार और टेक ट्रबल आदि ब्लॉगों का संचालन करने वाले रवि रतलामी को भी कुछ हजार की आय होने लगी है। उनका कहना है- "पिछले वर्ष मैंने व्यावसायिक चिट्ठाकारी में प्रवेश किया था। साल भर के भीतर मुझे जो धनराशि मिली है, उसका कोई तीस प्रतिशत हिंदी ब्लॉगों से मिल रहा है। मेरे विचार में हिंदी में भी संभावनाएं खूब हैं। हां, इसमें थोड़ा समय जरूर लग सकता है।" अगर आपने झटपट ब्लॉग बनाकर फटाफट धन कमाने की योजना बना ली हो तो जान लीजिए कि यह को आसान काम नहीं है। अपने ब्लॉग
हिंदी ब्लॉगिंग के प्रमुख हस्ताक्षरों में जीतेन्द्र चौधरी, अनूप शुक्ला, आलोक कुमार, देवाशीष, रवि रतलामी, पंकज बेंगानी, समीर लाल, रमण कौल, जगदीश भाटिया, मसिजीवी, पंकज नरूला, प्रत्यक्षा, अविनाश, अनुनाद सिंह, शशि सिंह, सृजन शिल्पी, ई-स्वामी, सुनील दीपक, संजय बेंगानी, जयप्रकाश मानस, नीरज दीवान आदि के नाम लिए जा सकते हैं।
के लिए अमित अग्रवाल ही रोजाना सैंकड़ों ब्लॉगों, उतनी ही आरएसएस फीड (ब्लॉगों के लेखों को अपेक्षाकृत आसान फॉरमेट में कंप्यूटर या इंटरनेट ब्राउजर पर पढ़ने की सुविधा) और दर्जनों वेबसाइटों का अध्ययन करते हैं। रोजाना बारह से चौदह घंटे तक काम करना, पचासों मेल संदेशों का जवाब देना और सर्च इंजनों को खंगालना उनके दैनिक कर्म में शामिल है। लेकिन फिर भी, कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है। हिंदी ब्लॉगिंग के प्रमुख हस्ताक्षरों में जीतेन्द्र चौधरी, अनूप शुक्ला, आलोक कुमार (जिन्होंने पहला हिंदी ब्लॉग लिखा और उसके लिए 'चिट्ठा' शब्द का प्रयोग किया), देवाशीष, रवि रतलामी, पंकज बेंगानी, समीर लाल, रमण कौल, मैथिली, जगदीश भाटिया, मसिजीवी, पंकज नरूला, प्रत्यक्षा, अविनाश, अनुनाद सिंह, शशि सिंह, सृजन शिल्पी, ई-स्वामी, सुनील दीपक, संजय बेंगानी आदि के नाम लिए जा सकते हैं। जयप्रकाश मानस, नीरज दीवान, श्रीश बेंजवाल शर्मा, अनूप भार्गव, शास्त्री जेसी फिलिप, हरिराम, आलोक पुराणिक, ज्ञानदत्त पांडे, रवीश कुमार, अभय तिवारी, नीलिमा, अनामदास, काकेश, अतुल अरोड़ा, घुघुती बासुती, संजय तिवारी, सुरेश चिपलूनकर, तरुण जोशी, अफलातून जैसे अन्य उत्साही लोग भी ब्लॉग जगत पर पूरी गंभीरता और नियम के साथ सक्रिय हैं और इंटरनेट पर हिंदी विषय वस्तु को समृद्ध बनाने में लगे हैं। अगर आप ब्लॉगों की दुनिया से अनजान हैं, तो संभवत: ये नाम भी आपने नहीं सुने होंगे। लेकिन अगर आप ब्लॉगजगत में सावन की तेज हवा में उड़ती पतंग का सा फर्राटा भी मार लें तो इन सबकी अनूठी रचनात्मकता, हिंदी प्रेम और ब्लॉगी जुनून का लोहा मानने पर मजबूर हो जाएंगे। इस लेख के शुरू में जिन दो ब्लॉगों पर लिखी टिप्पणियां उद्धृत की गई हैं, उन्हें रवि कामदार और शुएब संचालित करते हैं। प्रसंगवश, इसी ब्लॉगविश्व में मीडिया की आत्मालोचना पर केंद्रित 'वाह मीडिया' नामक ब्लॉग के माध्यम से छोटी सी उपस्थिति मेरी भी है। ब्लॉगिंग में है कुछ अलग बात! अंग्रेजी में तो ब्लॉगिंग की उम्र दस वर्ष हो गई है। इन दस वर्षों में संचार और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनने के साथ-साथ उसने सामूहिकता और सामुदायिकता पर आधारित अनेकों नई विधाओं को जन्म दिया है। दुनिया का पहला ब्लॉग किसने बनाया, इस बारे में मतैक्य नहीं है। लेकिन इस बारे में को विवाद नहीं है कि ब्लॉगिंग की शुरूआत १९९७ में हुई । अप्रैल १९९७ में न्यूयॉर्क के डेव वाइनर ने स्क्रिप्टिंग न्यूज नामक एक वेबसाइट शुरू की जिसने ब्लॉगिंग की अवधारणा को स्पष्ट किया और लोगों को अपने विचार इंटरनेट पर प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया। दिसंबर १९९७ में जोर्न बार्गर ने रोबोटविसडम.कॉम की शुरूआत की और पहली बार इसे 'वेब लॉग' का नाम दिया। पीटरमी.कॉम के पीटर मरहोल्ज ने वेबलॉग के स्थान पर उसके छोटे रूप 'ब्लॉग' का प्रयोग किया। तब से इंटरनेट पर ब्लॉगों जो तेज हवा बही, उसने पहले आंधी और अब तूफान का रूप ले लिया है। हालांकि ब्लॉगिंग के आगमन के पहले से ही अभिव्यक्ति के नि:शुल्क मंच इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। नब्बे के दशक के शुरू में ही जियोसिटीज.कॉम, ट्राइपोड.कॉम, ८के.कॉम, होमपेज.कॉम, एंजेलफायर.कॉम, गो.कॉम आदि ने आम लोगों को अपने निजी इंटरनेट होमपेज बनाने की सुविधा दी थी और इनमें से अधिकांश आज भी सक्रिय हैं। उन पर लाखों लोगों ने अपनी वेबसाइटें बनाई भी लेकिन उन्हें ब्लॉगिंग की तर्ज पर अकूत लोकप्रियता नहीं मिली क्योंकि वेबसाइट बनाने के लिए थोड़ा-बहुत तकनीकी ज्ञान आवश्यक है। दूसरी तरफ ब्लॉग का निर्माण और संचालन लगभग मेल पाने-भेजने जितना ही आसान है। ब्लॉगर, वर्डप्रेस, माईस्पेस, लाइवजर्नल, ब्लॉग.कॉम, टाइपपैड, पिटास, रेडियो यूजरलैंड आदि पर ब्लॉग और पोस्ट करना बहुत आसान है। सरल, तेज, विश्वव्यापी, विशाल, नि:शुल्क और इंटर-एक्टिव होने के साथ-साथ को संपादकीय, कानूनी या संस्थागत नियंत्रण न होना ब्लॉगिंग की बुनियादी शक्तियां (और कमजोरी भी) हैं जिन्होंने इसे इंटरनेट आधारित अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों की तुलना में अधिक लोकप्रिय बनाया है। ब्लॉगिंग विश्व ने उन लोगों की स्मृतियों को भी जीवित रखा है जो सरकारी दमनचक्र, समाजविरोधी तत्वों के जुल्म या फिर आतंकवादी कार्रवाइयों के शिकार हुए। चीन में भले ही थ्येनआनमन चौक पर हुई अमानवीय सैन्य कार्रवाई के खिलाफ मुंह खोलना बहुत बड़ा अपराध हो, पर ब्लॉगिंग की दुनिया में ऐसी रोकटोक नहीं। 'यान्स ग्लटर' नामक ब्लॉग का संचालन करने वाली यान शाम शैकलटन १९८९ में थ्येनआनमन चौक पर हुए सैनिक नरसंहार में मारे गए युवकों के प्रति अपनी भावनाओं को इस तरह व्यक्त करती हैं- 'मैं भूलूंगी नहीं। मैं आपको हमेशा याद रखने का वादा करती हूं। मैं ऐसा दोबारा नहीं होने दूंगी। मैं पूरी दुनिया को आपकी, थ्येनआनमन चौक के छात्रों की याद दिलाती रहूंगी। मेरे बड़े भाइयो और बहनों!' दमन के विरुद्ध विद्रोह और लोकतंत्र की चाहत को भी ब्लॉगिंग ने स्वर दिए हैं। बहरीन में शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करते लोगों के सरकारी
ब्लॉग लेखन आम तौर पर बहुत गंभीर लेखन नहीं माना जाता लेकिन ड्रज रिपोर्ट, बगदाद ब्लॉगर आदि की जिम्मेदाराना भूमिकाओं और ट्रेन्ट लोट के इस्तीफे के बाद समाचार माध्यम के रूप में भी उसकी साख और विश्वसनीयता में वृद्धि हुई है।
दमन को वहीं के एक ब्लॉगर 'चनाद बहरीनी' (ब्लॉगर का छद्म नाम) ने अपने चित्रों में कैद किया और ब्लॉग के माध्यम से दुनिया भर को उसकी जानकारी दी। कुछ वर्ष पहले अमेरिकी सीनेटर ट्रेन्ट लोट ने १९४८ के राष्ट्रपति चुनाव में हैरी ट्रूमैन के प्रतिद्वंद्वी और रंगभेद समर्थक उम्मीदवार स्ट्रॉम थरमंड का समर्थन किया। मीडिया ने इस पर खास ध्यान नहीं दिया तो ब्लॉगर समुदाय ने जोर-शोर से यह मुद्दा उठाया और सीनेटर से इस्तीफा दिलवाकर ही दम लिया। इस घटना में ब्लॉगरों ने मीडिया के वैकल्पिक स्वरूप के रूप में अपनी उपयोगिता सिद्ध की। यही बात इराक युद्ध के दौरान भी 'बगदाद ब्लॉगर' के नाम से प्रसिद्ध एक गुमनाम ब्लॉगर ने 'सलाम पैक्स' के नाम से लिखे अपने ब्लॉग के माध्यम से दिखाई। वह इराक युद्ध की विनाशलीला का आंखों देखा हाल उपलब्ध कराता रहा और उसकी टिप्पणियों का दुनिया भर के मीडिया ने उपयोग किया। ब्लॉगिंग को लोकप्रिय बनाने में उसकी अहम भूमिका मानी जाती है। इराक युद्ध के दौरान जब बीबीसी और वॉयस ऑफ अमेरिका में इस ब्लॉगर पर केंद्रित कार्यक्रमों का प्रसारण किया गया तो उसके पिता को पहली बार अहसास हुआ कि संभवत: ये कार्यक्रम मेरे शर्मीले पुत्र के बारे में हैं जो चुपचाप कमरे में बैठकर इंटरनेट पर कुछ करता रहता है। उन्हें लगा कि सद्दाम हुसैन की खुफिया एजेंसियों को पता चलने वाला है और वे पक्के तौर पर बहुत बड़े संकट में फंसने जा रहे हैं। लेकिन सौभाग्य से ऐसा कुछ नहीं हुआ और सलाम का नाम ब्लॉगिंग के इतिहास में दर्ज हो गया। (संयोगवश, सलाम ने इराक युद्ध के बाद लंदन के 'गार्जियन' अखबार में कॉलम भी लिखा)। ब्लॉग लेखन आम तौर पर बहुत गंभीर लेखन नहीं माना जाता लेकिन ड्रज रिपोर्ट, बगदाद ब्लॉगर आदि की जिम्मेदाराना भूमिकाओं और ट्रेन्ट लोट के इस्तीफे के बाद समाचार माध्यम के रूप में भी उसकी साख और विश्वसनीयता में वृद्धि हुई है। पिछले अप्रैल माह में अमेरिका के वर्जीनिया विश्वविद्यालय में अनजान हमलावरों ने अंधाधुंध फायरिंग कर कई छात्रों को मार डाला तब ब्लॉगर अनुराग मिश्रा ने हमारे अपने 'इंडिया टीवी' के लिए रिपोर्टिंग की। इंडिया टीवी से जुड़े नीरज दीवान, जो स्वयं 'कीबोर्ड के सिपाही' नामक ब्लॉग चलाते हैं, कहते हैं- "उस घटना पर किसी भारतीय द्वारा अमेरिका से दी जा रही वह पहली जानकारी थी। अनुराग भाषा, शैली में पूर्णत: सक्षम और विश्वस्त ब्लॉगर हैं। वे उसी विश्वविद्यालय के छात्र भी हैं। उस वक्त मेरे पास उनसे बेहतर कोई और विकल्प नहीं था। अनुराग ने जन-पत्रकार की भूमिका बखूबी निभाई ।" हिंसा व आतंक के खिलाफ और लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होने वाले ये गुमनाम सिपाही स्वयं भी लोकतंत्र विरोधियों के दमन का शिकार होते रहे हैं। ईरान सरकार ने अराश सिगारची नामक ब्लॉगर को उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से खफा होकर १४ साल के लिए जेल में डाल दिया है। अनार्कएंजेल नामक एक ब्लॉगर के खिलाफ मुस्लिम कट्टरपंथियों ने मौत का फतवा भी जारी किया है। सिंगापुर में दो चीनी ब्लॉगरों को स्थानीय कानूनों की आलोचना करने ओर मुसलमानों के खिलाफ टिप्पणियां करने के लिए जेल में डाल दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र से जुड़े एक राजनयिक को उसके ब्लॉग में लिखी टिप्पणियों के कारण सूडान ने तीन दिन में देश छोड़ने का आदेश दिया था। यानी चुनौतियों की कोई कमी भी नहीं। नई दिशाएं, नए स्वरूप बहरहाल, ब्लॉगिंग अब नए क्षेत्रों, न दिशाओं में आगे बढ़ रही है। असल में ब्लॉग तो अपनी अभिव्यक्ति, अपनी रचनाओं को विश्वव्यापी इंटरनेट उपयोक्ताओं के साथ बांटने का मंच है, और ऐसे मंच का प्रयोग सिर्फ लेखों, राजनैतिक टिप्पणियों और साहित्यिक रचनाओं के लिए किया जाए, यह किसी किताब में नहीं लिखा है। ब्लॉग पर फोटो या वीडियो डाल दीजिए, वह फोटो ब्लॉग तथा वीडियो ब्लॉग कहलाएगा। संगीत डाल दीजिए तो वही म्यूजिक ब्लॉग हो जाएगा। रेडियो कार्यक्रम की तरह अपनी टिप्पणियों को रिकॉर्ड करके ऑडियो फाइलें डाल दीजिए तो वह पोडकास्ट कहलाएगा। किसी ब्लॉग को कई लोग मिलकर चलाएं तो वह कोलेबरेटिव या सामूहिक ब्लॉग बन जाएगा। हिंदी में 'बुनोकहानी' नामक ब्लॉग पर कई ब्लॉगर मिलकर कहानियां लिख रहे हैं। यह इसी श्रेणी में आएगी। किसी परियोजना विशेष से जुड़े लोग यदि आपस में विचारों के आदान-प्रदान के लिए ब्लॉग बनाएंगे तो वह प्रोजेक्ट ब्लॉग माना जाएगा और अगर कोई कंपनी अपने उत्पादों या सेवाओं का प्रचार करने या फिर अपने कर्मचारियों के बीच वैचारिक आदान-प्रदान के लिए ब्लॉग बनाती है तो इसे कारपोरेट ब्लॉग कहेंगे। यानी ब्लॉग आपकी जरूरतों के अनुसार ढल सकता है। यूट्यूब (आम लोगों की ओर से पोस्ट किए गए वीडियो), फ्लिकर (आम लोगों के खींचे चित्र), विकीपीडिया (आम लोगों द्वारा लिखे गए लेख) जैसी परियोजनाएं भी ब्लॉगों की ही तर्ज पर विकसित हुई हैं। अब आम लोगों के भेजे समाचारों की वेबसाइटें भी लोकप्रिय हो रही हैं। अंग्रेजी समाचार चैनल आईबीएन ने पिछले साल इस दिशा में पहल की थी जो बहुत सफल हुई । भारत में मेरीन्यूज.कॉम भी नागरिक पत्रकारिता (सिटीजन जर्नलिज्म) पर आधारित एक चर्चित वेबसाइट है। ब्लॉगिंग के और भी बहुत से रूप तथा उपयोग हैं। आजकल मेल पर जिस तरह से वायरसों और स्पैम (अनचाही तथा घातक डाक) का हमला हो रहा है उसे देखते हुए बहुत सी कंपनियां ब्लॉगों को संदेशों के आदान-प्रदान के सुरक्षित माध्यम के रूप में भी इस्तेमाल कर रही हैं। यह सामाजिक मेलजोल का भी एक माध्यम है। अपने ब्लॉग पर टिप्पणियां करने वाले अनजान व्यक्तियों के साथ संदेशों का आदान-प्रदान करते-करते उनके साथ मित्रता हो जाना स्वाभाविक है। धीरे-धीरे एक ही विषय में रुचि रखने वाले लोगों के बीच सामुदायिकता की भावना पैदा हो जाती है। ऐसे ब्लॉगर समय-समय पर मिल-बैठकर चर्चाएं भी करते हैं जैसे कि १४ जुलाई को दिल्ली में पहले कैफे कॉफी डे पर और फिर एक नए ब्लॉग एग्रीगेटर के दफ्तर पर हुई । शैशव काल में है हिंदी ब्लॉगिंग हिंदी में अभी ब्लॉगिंग अपने शैशव काल में है। अंग्रेजी में जहां ब्लॉगिंग १९९७ में शुरू हो गई थी वहीं हिंदी में पहला ब्लॉग दो मार्च २००३ को लिखा गया। समय के लिहाज से अंग्रेजी और हिंदी के बीच महज छह साल की दूरी है लेकिन ब्लॉगों की संख्या के लिहाज से दोनों के बीच कई प्रकाश-वर्षों का अंतर है। अंग्रेजी
अंग्रेजी में जहां ब्लॉगिंग १९९७ में शुरू हो गई थी वहीं हिंदी में पहला ब्लॉग दो मार्च २००३ को लिखा गया। समय के लिहाज से अंग्रेजी और हिंदी के बीच महज छह साल की दूरी है लेकिन ब्लॉगों की संख्या के लिहाज से दोनों के बीच कई प्रकाश-वर्षों का अंतर है।
में और कुछ नहीं तो साढ़े तीन करोड़ ब्लॉग मौजूद हैं जबकि हिंदी में करीब एक हजार। हालांकि अप्रत्याशित रूप से ब्लॉगिंग विश्व में एशिया ने ही दबदबा बनाया हुआ है। टेक्नोरैटी के अनुसार विश्व के कुल ब्लॉगों में से ३७ प्रतिशत जापानी भाषा में हैं और ३६ प्रतिशत अंग्रेजी में। को आठ प्रतिशत ब्लॉगों के साथ चीनी भाषा तीसरे नंबर पर है। ब्लॉगों के मामले में हिंदी अपने ही देश की तमिल से भी पीछे है जिसमें दो हजार से अधिक ब्लॉग मौजूद हैं। लेकिन हिंदी ब्लॉग जगत निराश नहीं है। कुवैत में रहने वाले वरिष्ठ हिंदी ब्लॉगर जीतेन्द्र चौधरी कहते हैं- २००३ में शुरू हुए इस कारवां में बढ़ते हमसफरों की संख्या से मैं संतुष्ट हूं। आज हम लगभग ९०० ब्लॉगर हैं और साल के अंत तक हम लगभग ११०० का आंकड़ा छू सकते हैं। जीतेंद्र चौधरी के आशावाद के विपरीत रवि रतलामी मौजूदा हालात से संतुष्ट नहीं दिखते, "जब तक हिंदी ब्लॉग लेखकों की संख्या एक लाख से ऊपर न पहुंच जाए और किसी लोकप्रिय चिट्ठे को नित्य दस हजार लोग नहीं पढ़ लें तब तक संतुष्टि नहीं आएगी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने की गति अत्यंत धीमी है। पर पर इंटरनेट और कंप्यूटर में हिंदी है भी तो बहुत जटिल भाषा- जिसमें तमाम दिक्कतें हैं।" दुनिया की दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा होने के लिहाज से देखें तो हिंदी में ब्लॉगों की संख्या अपेक्षा से बहुत कम दिखेगी। लेकिन इसके कारण स्पष्ट हैं। टेलीफोन, कंप्यूटर, इंटरनेट, बिजली और तकनीकी ज्ञान जैसी बुनियादी आवश्यकताएं पूरी किए बिना कंप्यूटर और इंटरनेट को तेजी से लोकप्रिय बनाने की आशा नहीं की जा सकती। दूसरे, आर्थिक रूप से हम इतने सक्षम और निश्चिंत नहीं हैं कि ऐसी किसी तकनीकी सुविधा पर समय, श्रम और धन खर्च करना पसंद करें, जो अपरिहार्य नहीं है। तीसरे, हमारा समाज संभवत: पश्चिम के जितना अभिव्यक्तिमूलक भी नहीं है। बहरहाल, आर्थिक तरक्की के साथ-साथ इन सभी क्षेत्रों में स्थितियां बदल रही हैं जिसका असर ब्लॉग की दुनिया में भी दिख रहा है। पिछले छह महीने में नए हिंदी ब्लॉग बनने की गति कुछ तेज हुई है। चिट्ठाकार आलोक कहते हैं, "ब्लॉगिंग की गति में आई तेजी के कई कारण हैं। एक तो हिंदी में लेखन के अलग-अलग तंत्रों (सॉफ्टवेयरों) का विकास, दूसरे विन्डोज एक्सपी का अधिक प्रयोग जिसमें हिंदी में काम करना विंडोज ९८ की तुलना में अधिक आसान है, तीसरे ब्लॉगर जैसी वेबसाइटों में मौजूद सुविधाओं में वृद्धि (जिनसे ब्लॉगिंग की प्रक्रिया निरंतर आसान हो रही है), और चौथे पत्र-पत्रिकाओं में इंटरनेट, ब्लॉग आदि के बारे में छप रहे लेख।" पुणे के सॉफ्टवेयर इंजीनियर देवाशीष चक्रवर्ती, जिन्होंने नवंबर २००३ में नुक्ताचीनी नामक ब्लॉग शुरू किया, ने हिंदी ब्लॉगिंग में अहम भूमिका निभा है। नुक्ताचीनी के अलावा वे पॉडभारती नामक पोडकास्ट और नल प्वाइंटर नामक अंग्रेजी ब्लॉग चलाते हैं। उन्होंने श्रेष्ठ ब्लॉगों को पुरस्कृत करने के लिए 'इंडीब्लॉगीज' नामक पुरस्कारों की शुरूआत भी की है। देवाशीष कहते हैं, "भारतीय भाषाओं में ब्लॉग जगत में निरंतर विकास होगा, इसमें को संदेह नहीं है। अधिकांश भाषाओं के अपने ब्लॉग एग्रीगेटर हैं, और स्थानीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने भी भाषायी ब्लॉगरों को काफी प्रचारित एवं प्रोत्साहित किया है। गूगल और माइक्रोसॉफ्ट की कुछ तकनीकों से भी भाषायी ब्लॉगिंग को गति मिली है।" इस बीच, तरकश समूह ने भी ब्लॉग पोर्टल के रूप में एक अच्छी शुरूआत की है और वह तरकश जोश (अंग्रेजी), टॉक एंड कैफे (अंग्रेजी) और पॉडकास्ट का संचालन कर रहा है। इस बीच नारद के कुछ प्रतिद्वंद्वी ब्लॉग एग्रीगेटर भी सामने आए हैं जिनमें ब्लॉगवाणी, चिट्ठाजगत और हिंदीब्लॉग्स.कॉम प्रमुख हैं। इन सबने हिंदी ब्लॉग जगत को विविधता दी है और उसकी विषय वस्तु को समृद्ध किया है। अक्षरग्राम और नारद बहरहाल, अगर कुछ समर्पित ब्लॉगरों ने मिलकर प्रयास न किए होते तो शायद हिंदी में ब्लॉगिंग की हालत बहुत कमजोर होती। अलग-अलग
जीतेंद्र चौधरी का कहना है, "इंटरनेट पर हिंदी का प्रचार-प्रसार हिंदी ब्लॉगिंग के जरिए बढ़ सकता है क्योंकि हर ब्लॉगर अपने साथ कम से कम दस पाठक जरूर लाएगा। अगर उन दस पाठकों में से चार ने भी ब्लॉगिंग शुरू की तो एक श्रृंखला बन जाएगी और ध्यान रखिए, इंटरनेट पर जितनी ज्यादा सामग्री हिंदी में उपलब्ध होगी, जनमानस का इंटरनेट के प्रति रुझान भी बढ़ता जाएगा।
देशों में रहने ब्लॉगरों के कुछ समूहों ने हिंदी ब्लॉगिंग को संस्थागत रूप देने और नए ब्लॉगरों को प्रोत्साहित करने का अद्वितीय काम किया है। उन्होंने हिंदी में काम करने की दिशा में मौजूद तकनीकी गुत्थियां सुलझाने, नए लोगों को तकनीकी मदद देने, हिंदी टाइपिंग और ब्लॉगिंग के लिए सॉफ्टवेयरों का विकास करने, ब्लॉगों को अधिकतम लोगों तक पहुंचाने के लिए ब्लॉग एग्रीगेटरों (एक सॉफ्टवेयर जो विभिन्न ब्लॉगों पर दी जा रही सामग्री को एक ही स्थान पर उपलब्ध कराने में सक्षम है) का निर्माण करने, सामूहिक रूप से अच्छी गुणवत्ता वाली रचनाओं का सृजन करने और ब्लॉगरों के बीच नियमित चर्चा के मंच बनाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। 'चिट्ठाकारों की चपल चौपाल' के नाम से चर्चित अक्षरग्राम नेटवर्क ऐसा ही एक समूह है। इसके सदस्यों में पंकज नरूला (अमेरिका), जीतेन्द्र चौधरी (कुवैत), ईस्वामी, संजय बेंगानी, अमित गुप्ता, पंकज बेंगानी, निशांत वर्मा, विनोद मिश्रा, अनूप शुक्ला और देवाशीष चक्रवर्ती शामिल हैं। यह समूह ब्लॉग एग्रीगेटर 'नारद' और 'चिट्ठा विश्व' (आजकल निष्क्रिय), 'अक्षरग्राम', हिंदी विकी 'सर्वज्ञ', ब्लॉगरों के बीच वैचारिक-आदान प्रदान के मंच 'परिचर्चा', सामूहिक रचनाकर्म पर आधारित परियोजना 'बुनो कहानी', ब्लॉग पत्रिका 'निरंतर' आदि का संचालन करता है। ब्लॉग जगत से जुड़े अधिकांश सदस्य इन सभी से न सिर्फ परिचित हैं, बल्कि किसी न किसी तरह जुड़े हुए भी हैं। हिंदी ब्लॉगिंग के क्षेत्र में पिछले चार वर्षों के दौरान हुई धीमी प्रगति के बावजूद इस समूह ने अपनी लगन और उत्साह में कमी नहीं आने दी। इस बारे में जीतेंद्र चौधरी का कहना है, "इंटरनेट पर हिंदी का प्रचार-प्रसार हिंदी ब्लॉगिंग के जरिए बढ़ सकता है क्योंकि हर ब्लॉगर अपने साथ कम से कम दस पाठक जरूर लाएगा। अगर उन दस पाठकों में से चार ने भी ब्लॉगिंग शुरू की तो एक श्रृंखला बन जाएगी और ध्यान रखिए, इंटरनेट पर जितनी ज्यादा सामग्री हिंदी में उपलब्ध होगी, जनमानस का इंटरनेट के प्रति रुझान भी बढ़ता जाएगा। और एक गर्मागर्म विवाद इतने समर्पित लोगों की प्रिय परियोजना 'नारद' को लेकर पिछले दिनों एक विवाद भी खड़ा हो गया जब एनडीटीवी चैनल के पत्रकार अविनाश दास की ओर से संचालित 'मोहल्ला' नामक सामूहिक ब्लॉग पर धर्म के संवेदनशील मुद्दे पर छपी कुछ टिप्पणियों पर आपत्तियां उठाई गईं। 'मोहल्ला' ज्वलंत मुद्दों पर गंभीर टिप्पणियों के लिए जाना जाता रहा है और उसके माध्यम से हिंदी ब्लॉगजगत को कुछ अच्छे टिप्पणीकार मिले हैं। चूंकि 'नारद' एक ब्लॉग एग्रीगेटर है, जिस पर सभी पंजीकृत ब्लॉगों की टिप्पणियां दिखाई देती हैं, सो 'मोहल्ला' की यह विवादास्पद टिप्पणी भी वहां प्रदर्शित हुई । कई ब्लॉगरों की नजर में यह टिप्पणी ईश-निंदा के दायरे में आती है और वे मानते हैं कि उसे लेकर भारतीय दंड विधान के तहत कार्रवाई भी संभव है। अन्य ब्लॉगर इसे 'सेकुलर' टिप्पणी मानते हैं और उन्हें लगता है कि इसके विरोध में संघवादियों का हाथ है। इस तरह की आशंकाओं ने 'नारद' की अनुभवी टीम को भी डरा दिया और उसने 'मोहल्ला' को इस एग्रीगेटर से हटाने का फैसला किया। इस मुद्दे पर हिंदी ब्लॉग जगत में साफ विभाजन दिखाई दिया और आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया। एक ओर 'मोहल्ला' के खिलाफ हिंदुत्ववादियों की मुहिम शुरू हो गई तो दूसरी ओर 'मोहल्ला' के प्रति सहानुभूति रखने वालों ने 'नारद' को उखाड़ फेंकने का अभियान शुरू कर दिया। इस प्रक्रिया में कुछ अन्य लोग भी जुट गए और लानत-मलामत का अप्रिय दौर शुरू हुआ जिसने हिंदी ब्लॉग जगत का माहौल प्रदूषित किया। कुछ ब्लॉगरों ने टिप्पणी की कि अविनाश का को 'हिडन एजेंडा' है जिसे वे ब्लॉग जगत पर थोपना चाहते हैं। कुछ अन्य ने कहा- मोहल्ला को प्रतिबंधित करने का कदम उन कट्टरपंथी मध्ययुगीन मुल्लाओं से अलग नहीं है जो कलाकारों, लेखकों, औरतों, फिल्मकारों की आजादी से खौफ खाते हैं और उनके खिलाफ फतवे जारी करते हैं। वे हर प्रकार की असहमतियों को दबा देना चाहते हैं। इस विवाद ने स्वाभाविक रूप से, नारद की टीम को बहुत व्यथित किया और जीतेंद्र चौधरी ने टिप्पणी की,
मुझे लगता है कि मोहल्ला प्रकरण एक अनावश्यक विवाद था। मुझे न जीतेंद्र चौधरी की निष्पक्षता, राजनैतिक तटस्थता और ब्लॉगिंग विधा के प्रति समर्पण में कोई संदेह है और न ही इस आरोप पर विश्वास होता है कि अविनाश और उनके साथियों ने हिंदुत्व के विरुद्ध कोई साजिश की है। मुझे तो यह विवाद कम्युनिकेशन-गैप और अति उत्साह का परिणाम लगता है। हड़बड़ी में उठाए गए कुछ कदमों और उनकी तीखी, त्वरित प्रतिक्रियाओं ने बात का बतंगड़ बना दिया।
"आज दिल व्यथित है, बहुत ज्यादा। कुछ चिट्ठाकारों द्वारा नारद की निंदा किए जाने और कुछ अन्य लोगों द्वारा उसे बढ़ावा दिए जाने के बाद। आज मैं आत्मचिंतन करने पर मजबूर हो गया हूं कि आखिर हम इतना सब किसके लिए कर रहे हैं? ऐसे लोगों के लिए जिन्हें इतनी समझ नहीं कि वे अपनी मनमानी ना होने पर किसी की भी बेइज्जती करने से न चूकें या उनके लिए जो इन लोगों को परोक्ष रूप से उकसा रहे हैं, या फिर उनके लिए जो मूक दर्शक बने सब कुछ देख रहे हैं। मैं बहुत गंभीरतापूर्वक नारद, अक्षरग्राम और उससे जुड़ी अन्य परियोजनाओं से हटने की सोच रहा हूं।" दूसरी ओर अविनाश और उनके साथी ब्लॉगरों को इन टिप्पणियों से चोट पहुंची कि उनकी विचारधारा मुस्लिम तुष्टीकरण की है और हिंदुत्व के विरुद्ध वे को सुनियोजित साजिश बनाकर चल रहे हैं। इस दौरान उनके ब्लॉग को कैंसर की उपमा दी गई , और 'महाशक्ति' ने लिखा- "इन लोगों की स्थिति मोहल्ले के गंदे सुअर की तरह है कि आप उन्हें कितना भी अच्छा खाना दीजिए किंतु अपशिष्ट पदार्थ के बिना उनका पेट नहीं भरता।" इन टिप्पणियों से दुखी अविनाश ने लिखा- मोहल्ले के सरोकार अल्पसंख्यकों, दलितों और स्त्रियों से जुड़े हैं और उनकी हिमायत करने वाला विमर्श हम आगे भी जारी रखेंगे। दोनों ही पक्षों ने एक दूसरे पर दोषारोपण किया, एक-दूसरे को आहत किया, एक-दूसरे पर सांप्रदायिक और हिंदूविरोधी के लेबल चस्पा किए। कुछ अन्य लोग भी वाणिज्यिक या राजनैतिक कारणों से इस मुकाबले में हाथ सेंकने कूद पड़े। उन्होंने अपने तरीके से इसका लाभ भी उठाया और नुकसान में रहे तो विवाद से सीधे जुड़े हुए दोनों पक्ष ही। मुझे लगता है कि यह एक अनावश्यक विवाद था। मुझे न जीतेंद्र चौधरी की निष्पक्षता, राजनैतिक तटस्थता और ब्लॉगिंग विधा के प्रति समर्पण में कोई संदेह है और न ही इस आरोप पर विश्वास होता है कि अविनाश और उनके साथियों ने हिंदुत्व के विरुद्ध कोई साजिश की है। मुझे तो यह विवाद कम्युनिकेशन-गैप और अति उत्साह का परिणाम लगता है। हड़बड़ी में उठाए गए कुछ कदमों और उनकी तीखी, त्वरित प्रतिक्रियाओं ने बात का बतंगड़ बना दिया। इस बीच विभिन्न लोगों की ओर से आ कुछ विवादास्पद टिप्पणियों ने आग को और हवा दी। बहरहाल, मामला फिलहाल ठंडा पड़ चुका है और 'मोहल्ला' 'नारद' पर लौट चुका है। एक तरह से इसे हिंदी ब्लॉगिंग की परिपक्वता की निशानी भी माना जा सकता है कि वह इस तरह के विवाद से अंतत: बाहर निकलने में सफल रही। हम प्रिय-अप्रिय अनुभवों से सीखते हुए ही आगे बढ़ते हैं और मजबूत भी बनते हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि धीरे-धीरे ब्लॉगर साथी इन अप्रिय स्मृतियों से उबर कर फिर से एक साथ, अपने सार्थक काम में जुट जाएंगे। सीमाएं और चुनौतियां हिंदी ब्लॉगिंग के स्वस्थ विकास के लिए कुछ मुद्दों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। जिस तरह ब्लॉगरों की संख्या में वृद्धि की दर दूसरी भाषाओं की तुलना में काफी कम है, उसी तरह यहां पाठकों का भी टोटा है। हिंदी ब्लॉग विश्व को चिंतन करना होगा कि वह आम पाठक तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगिंग में विविधता का अभाव है? क्या इसलिए कि इसमें मौजूद अधिकांश सामग्री समसामयिक विषयों पर टिप्पणियों, निजी कविताओं, पुराने लेखों तथा प्रसिद्ध लेखकों की रचनाओं को इंटरनेट पर डालने तक सीमित है? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगों की भाषा अभी विकास के दौर से गुजर रही है और पूरी तरह मंजी नहीं है? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगों की सामग्री सुव्यवस्थित ढंग से उपलब्ध नहीं है बल्कि छिन्न-भिन्न है जिसमें मतलब की चीज ढूंढना चारे के ढेर में सुई ढूंढने के समान है? या फिर इसलिए कि पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपने के बावजूद हिंदी पाठक अभी तक ब्लॉगिंग को तकनीकी अजूबा मानते हुए उनसे दूर हैं? इंटरनेट आधारित साहित्यिक पत्रिका सृजनगाथा.कॉम के संपादक और ब्लॉगर जयप्रकाश मानस कहते हैं, "जहां तक हिंदी ब्लॉगिंग की भाषा का प्रश्न है, वह अभी परिनिष्ठित हिंदी को स्पर्श भी नहीं कर सकी है। वहां भाषा का सौष्ठव कमजोर है। अधिकांश ब्लॉगर नगरीय परिवेश से हैं, ऊपर से हिंदी के खास लेखक और समर्पित लेखक ब्लॉग से अभी कोसों दूर हैं, सो वहां भाषाई कृत्रिमता और शुष्कता ज्यादा है। वहां व्याकरण की त्रुटियां भी साबित करती हैं कि अभी हिंदी ब्लॉगिंग में भाषा का स्तर अनियंत्रित है।" अविनाश भी इससे सहमत दिखते हैं, "हिंदी ब्लॉगिंग की अभी कोई शक्ल नहीं बन पाई है। विविधता के हिसाब से भी अभी विषयवार ब्लॉग नहीं हैं। लेकिन जो हैं, वे जड़ता तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।" हालांकि कई लेखक लीक से हटकर चलने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। अतुल अरोरा और सुनील दीपक के संस्मरण और यात्रा वृत्तांत, रवि
जयप्रकाश मानस कहते हैं, "जहां तक हिंदी ब्लॉगिंग की भाषा का प्रश्न है, वह अभी परिनिष्ठित हिंदी को स्पर्श भी नहीं कर सकी है। वहां भाषा का सौष्ठव कमजोर है।
रतलामी, श्रीश शर्मा, जीतेन्द्र चौधरी, देबाशीष, पंकज नरूला, ईस्वामी, अमित गुप्ता, प्रतीक पांडेय आदि के तकनीकी आलेखों का स्तर बहुत अच्छा है। प्रत्यक्षा जैसी कथालेखिका, अशोक चक्रधर, बोधिसत्व जैसे कवि और जयप्रकाश मानस, प्रमोद सिंह, प्रियंकर जैसे साहित्यकार-ब्लॉगर, आलोक पुराणिक जैसे सक्रिय व्यंग्यकार और रवीश कुमार, चंद्रभूषण, इरफान जैसे पत्रकार भी अच्छी, विचारोत्तेजक ब्लॉगिंग कर रहे हैं। लेखक ने स्वयं अपने ब्लॉग 'वाहमीडिया' को विविधता के लिहाज से मीडिया की आत्मालोचना पर केंद्रित रखा है। कमल शर्मा का 'वाह मनी' आर्थिक विषयों पर केंद्रित है और आलोक का 'स्मार्ट मनी' निवेश संबंधी सलाह देता है। 'फुरसतिया' और 'मोहल्ला' पर क ऊंचे दर्जे के साक्षात्कार और लेख पढ़े जा सकते हैं। नीलिमा हिंदी ब्लॉग जगत में पाठकों-लेखकों संबंधी आंकड़ों की गहन छानबीन कर रही हैं। मनीषा स्त्री विमर्श के मुद्दों पर साहसिक लेखन कर रही हैं। लेकिन विविधता अभी और भी चाहिए। जीतेन्द्र चौधरी भी यह बात मानते हैं- "लेखन के विषयों और गुणवत्ता पर काफी कुछ किया जाना बाकी है। आसपास कई ऐसे चिट्ठाकार आए हैं जिनके लेखन में विविधता है और लेखन भी काफी उत्कृष्ट कोटि का है। लेकिन बहुसंख्यक ब्लॉग ऐसे हैं जो निजी डायरी के रूप में ही चल रहे हैं।" अनगढ़ भाषा कोई अड़चन नहीं! वैसे एक मजेदार तथ्य यह भी है कि भाषा के लिहाज से बेहद कमजोर माने जाने वाले कुछ ब्लॉग लोकप्रियता में परिमार्जित भाषा वाले ब्लॉगों से कहीं आगे हैं। तत्वज्ञानी के हथौड़े की भाषा देखिए- "वेसे अगर आपके जमाने कि बात करे तो भी लता से बहेतर बहुत सी गायिकाए होन्गी लेकिन आपकि कमजोर संगीत सुझकि बजह से वह आपको दिखी नहि! शायद आप पोप्युलर गाने हि सुनते थे इसिलिए शमशाद बेगम को भुल गए। शायद लताजी फिल्मो में राजनिति करती थी और इसलिए कोई और आपके जमाने मे से उभर नहि पाया? मुझे अफसोस होता है कि आप लोगो ने केवल २-३ अछछी गायिकाए दी!" और शुएब को देखिए, "अपने विचारों को शेर करने के लिए मेरा ब्लॉग काफी है और मेरी डाईरी यही ब्लॉग है। भारत मेरा पहला धर्म है जहां मैं पैदा होवा और उसी के बनाए कानून के मुताबिक कोर्ट में शादी करूंगा मगर एसी लड़की मिलेगी कहां?" कहना न होगा कि व्याकरण संबंधी त्रुटियों के बावजूद ये दोनों ब्लॉगर सर्वाधिक पढ़े जाने वालों में से हैं। भाषा की बात चली है तो कुछ शीर्षकों की मिसालें भी दी जा सकती हैं, "सब मोहल्ले का लौंडपना है", "क्या इस देश को चूतिया बनाया जा रहा है?" कुछ टिप्पणियों पर भी निगाह डालिए, 1। "आपके चिट्ठे की टिप्पणियों में बेनामों की विष्ठा के अलावा कोई भी नामधारी टिप्पणी क्यों नहीं है?", 2। "बेंगाणी एक गंदा नैपकिन है", 3. "ये लोग (एक ब्लॉगर) आतंकवादी से भी खतरनाक हैं। ये हमेशा आग लगाने की फिराक में रहते हैं।" जयप्रकाश मानस कहते हैं, "सार्थक अर्थों में वैचारिक, अर्थशास्त्रीय, चिकित्सा, इतिहास, लोक अभिरुचि और साहित्यिक ब्लॉग नहीं के बराबर हैं। हिंदी ब्लॉगरों के उत्साह को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए ब्लॉगिंग के विषयों और उसके कोणों में विविधता और विश्वसनीयता आवश्यक है अन्यथा इनकी स्थिति भी वैसी ही हो जाएगी जैसे किसी दैनिक अखबार के संपादक को कई बार किसी कल्पित नाम से 'संपादक के नाम पत्र' छापना पड़ता है।' लेखकों के साथ-साथ हिंदी ब्लॉगों के पाठक कैसे बढ़ें? रवि रतलामी के अनुसार, "फिलहाल हिंदी ब्लॉग जगत के अधिकतर पाठक वे ही हैं जो किसी न किसी रूप से स्वयं ब्लॉगिंग से जुड़े हुए हैं। उनमें से अधिकतर स्वयं सक्रिय रूप से ब्लॉग लिखते हैं।" अनूप शुक्ला भी यह बात स्वीकार करते हैं, "पाठक तब बढ़ेंगे जब हिंदी में तकनीक का प्रसार होगा। हमारे समाज में कंप्यूटर और नेट का पूरी तरह से उपयोग होना बाकी है। जैसे-जैसे मीडिया में ब्लॉगिंग का प्रचार होगा, वैसे-वैसे पाठक संख्या में भी वृद्धि होगी।" आलोक कुमार इस संदर्भ में बड़ी कंपनियों के पहल करने की जरूरत महसूस करते हैं, "बड़े पोर्टल और बड़ी कंपनियां हिंदी भाषियों की जरूरतों को पूरा करने में पीछे रह गई हैं। इस समय जो भी बड़ी कंपनियां व पोर्टल आगे आकर हिंदी के स्थल बनाएंगे उनके पीछे हिंदी भाषियों की बहुत बड़ी टोली हो लेगी।" यानी हिंदी ब्लॉगिंग को भी बड़े संस्थानों के समर्थन की जरूरत है। शायद आलोक कुमार ठीक कहते हैं। ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर और संस्थागत आधार पर तैयार किए गए सॉफ्टवेयरों की तुलनात्मक स्थिति को देखकर भी यह धारणा पुष्ट होती है कि आम लोगों द्वारा किए जाने वाले असंगठित तकनीकी प्रयासों को किसी न किसी दिशानिर्देशक या व्यवस्थागत समर्थन के बिना उतनी बड़ी सफलता नहीं मिल पाती जिसके वे वास्तव में हकदार होते हैं। (लेखक हिंदी पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक हैं और
'वाह मीडिया' (हिंदी) तथा 'localisationlabs' (अंग्रेजी) नामक ब्लॉग चलाते हैं)। email: balendu@gmail.com

Monday, October 8, 2007

इन्द्रधनुष का एक साल.....-



- अभिषेक

राजस्थान की पहली वेब पत्रिका इन्द्रधनुष को एक साल हो गया। राजस्थान के इन्टरनेट प्रेमियों के लिए यह वाकई बहुत सुकूनपरक है। इन्द्रधनुष की हिट स्टेटिक्स तो मुझे नहीं पता पर हां, उसकी कंटेट स्टेटिक्स मैं जरुर जानता हूं। वाकई बहुत उम्दा। इन्द्रधनुष की पहली सालगिरह के मौके पर जयपुर में एक जलसा भी हुआ। प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले। इस गोष्ठी में अच्छी तादात में शहर के साहित्यप्रेमी जुटे। वक्ताओं में वेब पत्रकारिता के शुरुआती योद्धाओं में से एक माने जाने वाले यशवन्त व्यास और साहित्यकार नंद भारद्वाज थे। रामकुमार सिंह के रूप मे पत्रकारिता के युवा हस्ताक्षर भी पोडियम पर थे। यशवन्त जी तो स्वयं इन्टरनेट पर अवरसोल डॉट कॉम नाम से एक पोर्टल चलाते हैं। रामकुमार जी भी तकनीकप्रिय व्यक्ति हैं। तीनों ने बहुत सी सारगर्भित अंदाज में अपनी बात कही। यह समारोह मुझ जैसे ब्लॉगर के लिए दोहरी खुशी का अवसर था। एक तो किसी वेबपत्रिका के संपादकमंडल और तकनीकि कर्मियों में इतना धैर्य रहा कि वे तमाम मुश्किलात के बावजूद भी इस कार्य को एक साल तक न केवल जीवित रख सके बल्कि इसे नई ऊंचाई भी देते रहे। जिसका सीधा सा मतलब था कि लोगों को इन्टरनेट रास आ रहा है। मेरे लिए खुशी का दूसरा कारण इन्टरनेट की किसी पत्रिका का वर्चुअल वर्ल्ड से निकल कर भौतिक जगत में पदार्पण करना। और उस जलसे में इतने लोगों का आना। मेरा इन्द्रधनुष के संपादक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल से व्यक्तिगत परिचय होने के नाते मैं उनकी सक्रियता पर अक्सर उन्हें सीधे बधाई देता रहता हूं। पर आज उन्हें इस ब्लॉग के माध्यम से भी बधाई देता हूं। जयपुर औऱ राजस्थान में इन्टनेट जिस प्रकार से लोकप्रिय हो रहा है उसमें उनका काफी योगदान है। मेरा उन्हें साधुवाद। इन्द्रधनुष की प्रबंध संपादक अंजली सहाय का भी इस उपक्रम को पूरा समर्थन देने के लिए साधुवाद। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रेमचंद ने इस गोष्ठी का सफल संचालन किया. अन्त में इस समारोह के दौरान इऩ्द्रधनुष के संपादक के नाते राजस्थान में कई वेब पत्रिकाएँ होने और उनसे रचनात्मक मुकाबले की ख्वाहिश व्यक्त करने पर शुक्रिया के साथ ही आमीन......।

फोटो साभार, महेश स्वामी, जयपुर
http://www.indradhanushindia.org/

Saturday, October 6, 2007

बीएसएनएल की मेहरबानी के चलते...

- अभिषेक
सबसे पहले तो मैं आपसे इतने दिनों तक कोई सम्पर्क नहीं रख पाने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं। पर यह काफी कोशिशों के बाद अब जब यह सम्पर्क हो रहा है तो मैं इस पुनः सम्पर्क स्थापना के लिए बीएसएनएल के कर्मठ सरकारी कमर्चारियों का तहेदिल से शुक्रगुजार हूं।
दरअसल यह् हम भारतीयों का सौभाग्य है कि है हम लोगों को आपस में जोड़े रखने के लिए भारत संचार निगम लिमिटेड के कर्मठ कार्यकर्ता हर दम तैयार और तत्पर रहते हैं। बस उन्हें प्राइवेटाइजेशन के इस दौर में प्रोफेशनली काम करना आ जाए। फिर देखिए वे कैसे आपकी सेवा करते हैं। अब मेरा मामला ही लीजिए, चलते चलते फोन मृत हो गया, डेड हो गया। मेरे घर के आस पास सौभाग्या या दुर्भाग्य से कोई अन्य बीएसएनएल फोन नहीं है, मेरे पास जो चल कोशिकिय फोन है वो भी वायु संचार यानी एयरटेल का है। और मेरे ऑफिस में सारे फोन इन्द्रधनुष के हैं। अब फोन के डेड होने की कम्पलेंट कैसे हो। किसी ने बताया कि अपने फोन की पहली तीन डीजिट के बाद दो लगा कर 198 पर कम्पलेंट दर्ज करवा दो। कोशिश की,कम्पयूटर पर पहले से दर्ज एक मोहतरमा बोलीं, हिन्दी के लिए दो,अंग्रेजी के लिए एक दबाओ, बीप के बाद खराब टेलिफोन का नम्बर दबाओ, और अन्त में बोलीं की यह नम्बर इस एक्सचेंज का नहीं है। धन्यवाद। तीन दिन तक बीएसएनएल के कई दफ्तरों में कई तरह कोशिश कर ली। कम्पलेंट दर्ज नहीं तो कार्रवाई नहीं। सोचा चलो उपोभोक्ता केन्द्र में जाकर कम्पलेंट दर्ज करवा दें। ऑफिस के सामने एक बड़े वाले उपभोक्ता केन्द्र में भी पहुंचे। वहां जो सज्जन मिले , प्लान चेंज हो सकता है,नया कनेक्शन मिल सकता है,लेकिन शिकायत के लिए आपको वहीं 198 का तरीका ही अपनाना पड़ेगा। वाह क्या उपभोक्ता सेवा है....। कई दिन तक बीएसएनएल के कई दफ्तरों में फोन की कम्पलेंट दर्ज करवाने की कोशिश की पर नहीं हुई। इस दौरान लाइनमैन महोदय, बीएसएनएल स्विच रूम, कन्ट्रोल रूम,विशेष इन्क्वायरी सेवा, और दूसरे इलाके के एसडीई साहब जाने कितने लोगों से गुहार लगाई गई। पर कुछ नहीं हुआ। अन्ततः आज अपने इलाके के एसडीई साहब से बात की अपने पत्रकारना लहजे में उन्हें फोन के खराब होने की सूचना भर दी औऱ शाम होने तक लाइनमैन हमारे दरवाजे पर था। फोन जीवित हो गया है, और हम फिर से आपके सम्पकर् में आ गये हैं। .. आशा है बीएसएनएल कुछ करेगा.....

Friday, September 28, 2007

हर फिक्र को धुंए में उड़ाने वाले देवआनंद


हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया, मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया, बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया.....हम दोनों फिल्म का यह गीत और इस पर देव साहब की अदाकारी का ही कमाल है कि आज भी जाने कितने लोग जब हाथ में सिगरेट थामते हैं तो अपने आप को देव आनंद की शैली में बर्बादी पर जश्न मनाने का सा अहसास कराते हैं। कभी बुड्ढे नहीं होने का दम भरने वाले देव आनंद वाकई बुड्ढे नहीं हुए हैं। 85 बरस की इस उम्र में जब अच्छे लोग जवाब दे जाते हैं, देव साहब रोमांसिंग विद देवआंनद के साथ एक बार फिर चर्चा में हैं। उनकी यह सदा जवान बने रहने की कोशिश कहीं सच से मुहं चुराने की जुगत तो नहीं लगती..नहीं देव साहब एक ऐसे शख्स के रूप में सामने आए हैं जो हर वक्त अपनी पहचान के आस पास रहना चाहता है। कुछ लोग इसे भले ही कुछ भी कहें पर मैं तो इसे जीवटता को सलाम ही कहूंगा। टीवी पर जब भी उनकी फिल्म देखता हूं लगता है, जैसे अपनों के बीच से कोई आम इंसान सा नायक। जो बहुत रोमानी है, पर हम सा ही है। जिसमें यदि कुछ खास है तो अंदाज...।यही तो अंदाज है देवअंदाज...यह सब कुछ केवल उनके आदर में.....सम्मान में.....
- अभिषेक

Tuesday, September 25, 2007

स्वागत है युवराज

- अभिषेक
सूबे कि रिआया इस समय बुहत खुश है, युवराज को राजसभा में औपचारिक तौर पर एक जिम्मेदार ओहदेदार के रूप में मनोनीत कर दिया गया है। और उन्हें सूबे के भावी सेनानायकों को तैयार करने वाली महत्वपूर्ण सेना की कमान सौप दी गई है। युवराज की ताजपोशी का रिआया को बेसब्री से इन्तजार था। साम्राज्ञी ने गाहे बगाहे यह संकेत दे दिए थे कि उनके बाद रिआया यदि किसी पर भरोसा कर सकती है तो वो केवल उनके लख्ते जिगर ही हो सकते हैं। दरअसल वे ये बात इतिहास को नजीर रखते हुए कहती हैं, इसलिए बेआवाज रिआया के लिए यह पूर्ण सत्य है। इतिहास गवाह है जब भी रिआया ने परिवार से बाहर नेतृत्व की कमान सौंपने की हिम्मत की है, रिआया का अपना अस्तित्व ही संकट में आ गया। विश्व भर की राजनीती मं में देश की साख बनाने वाले, बच्चों को देश का भविष्य बताने वाले, चक्रवर्ती से प्रतापी सम्राट के इस संसार से जाने के बाद जरूर रिआया को जो नेतृत्व मिला था वह परिवार से ताल्लुक नहीं रखता था। और परिवार के न होने के बावजूद उस नेतृत्व ने रिआया को सुकून और देश को विजेता का गर्व दिया था। पर देश का दुर्भाग्य था कि वे नेतृत्व कर्ता रहस्यमयी परिस्थितियों में असमय ही रिआया के बीच से उठ गए। इसके बाद रिआया फिर से परिवार के भरोसे हो गई। फिर रिआया काफी जद्दोजहद और इंडीकेट और सिडीकेट के चक्कर के बाद पूरी तरह परिवार के ही आसरे पर जिन्दा रह गई। नेतृत्व के उस दौर में भी युवराज का दौरे दौरा था। कहते हैं देश में कई अकल्पनीय लगने वाले काम और योजनाएं, पूरे परिवार नियोजन के साथ लागू के करवाने का श्रेय उस समय के युवराज को जाता है। रिआया तो युवराज के हाथ में पूरी बागडोर थमाने की बात से ही रोमांचित हो जाती थी। पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था और वे युवराज राज की कमान संभालने से पहले ही दघर्टना में चल बसे। तात्कालीन स्रामाज्ञी जिसे प्रखर विरोधी भी दुर्गा कहते थे, कालान्तर में वीर गति को प्राप्त हुईं। तो रिआया के सामने फिर से संकट खड़ा हुआ की अब कमान किसे सौंपी जाए। अन्त में दो -तीन घन्टे की जहमत के बाद परिवार के भरोसेमंद अमात्यों ने मशवीरा कर युवराज को ही रिआया और देश की कमान सौंपना उचित समझा। कालान्तर में यह युवा सम्राट भी वीरगति को प्राप्त हुए। लेकिन अब परिवार का शासन से मोह भंग हो गया था। परिवार ने इस बार कमान संभालने से इंकार दिया परिवार के नौनिहाल अभी पूरी तरह से वयस्क नहीं थे। राजमाता इन चक्करों में उलझना नहीं चाहती थीं। कुल मिला कर रिआया को विवश हो परिवार से बाहर के नेतृत्व पर भरोसा करना पड़ा। लेकिन क्या करें। बात परिवार से बाहर आते ही सारे सामन्त सरदार आपस में ही लड़ने लगे। नतीजा रिआया का अस्तित्व संकट में आ गया। रिआया के भरोसेमंद लोग रिआया का साथ छोड़ने लगे। स्थिति इस कदर विकट हो गई कि रिआया के चुनिंदा सामन्तों को राजमाता से कमान संभालने की गुजारिश करनी पड़ी। और उन्हें यह स्वीकारना पड़ा कि परिवार के बिना रिआया का अस्तित्व ही संकट में आ जाएगा। शुरुआती ना नुकूर के बाद राजमाता ने ने रिआया की कमान संभाल ही ली। तो रिआया की किस्मत भी सुधर गई। इस बीच शासन के नाम से घबराने वाले युवराज ने भी शासन की कला सीख ली और वे भी सभासद बन कर देश के तंत्र के अंग बन गए। अब रिआया में औपचारिक ओहदेदार हो गए हैं। तो परिवार के भरोसेमंद अमात्यों को चैन आ गया है। आखिर उनके परिवार की अमात्य परम्परा भी तो इसी प्रकार बरकरार रहेगी। राजमाता ने भविष्य की टीम बनाकर इसको सुनिश्चित कर दिया है। दिवंगत सम्राट के भरोसेमंद अमात्यों के बेटों को ही युवराज के साथ कंधे कंधा मिलाकर चलने के लिए चुना गया है। रिआया को भी करार है कि चलो परंपरा का पालन होगा। इस समय रिआया के हर कंठ से एक ही नाद गूंज रहा है......

...............स्वागत है युवराज...............

Tuesday, September 18, 2007

सोश्यल इंजीनियरिंग के नाम

- अभिषेक

आज एक मित्र का आग्रह था कि सोश्यल इंजीनियरिंग की कुछ बात हो जाए। उन्हीं के आग्रह पर सादर.......

हाल ही में उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव देश की राजनीति को एक नई दिशा औऱ नया नारा दे गए हैं। मतपेटी से निकले जिन्न ने एक और नए जिन्न की रचना कर दी। इस जिन्न का नाम है सोश्यल इंजीनियरिंग। मायावती और सतीश मिश्रा ने भारतीय जातिय समाज और भारतीय आरक्षण प्रणाली के समुचित समानुपातिक मिश्रण से एक ऐसा विलयन तैयार किया है जो लगभग संजीवनी बूटी का सा अहसास दे रहा है। इस जातिय तालमेल का चुनावी रंग और असर चाहे जो हो पर यह कहीं न कहीं हमारी जाति व्यवस्था की नई परिभाषा जरूर गढ़ रहा है।
दरअसल समाज चाहे कोई भी हो कैसा भी हो। उसका एक ढांचा होना आवश्यक है। बिना समुचित ढांचे के विकास या सहजीवन की परिकल्पना मुश्किल है। जीन जैक रुसो की आदर्श बर्बर मानव की बात कुछ ऐसी ही है। हम यदि भारतीय समाज की बात करें तो यह एक स्वयंसिद्दा और स्वयंविकिसत समाज है। जिसने अपरने विकास के साथ साथ अपना मार्ग और अपनी नीतियां तय की हैं। मनुसंहिता के रूप में मनु ने समाज के समुचित संचालन के लिए तालमेल की एक व्यवस्था प्रदान की थी। वह उस समय समाजिक अराजकता को खत्म कर समाज को व्यवस्थित करने की एक कारगर पहल थी। यदि अंग्रेजी का नेशनल मीडिया उस समय होता तो उसे भी सोश्यल इंजीनियरिंग ही कहा जाता।
यह मनुवादी सोश्यल इंजीनियरिंग सदियों तक भारतीय समाज की दशा और दिशा तय करती रही। जाहिर है हर वक्त के बलशाली औऱ विचारवान लोगों ने इसमें अपनी सुविधानुसार इच्छित परिवर्तन किए। भारतीय परतंत्रता के कालखण्ड में आक्रान्ताओ के अनुरूप समाज निर्माण के चलते इसमें जबरदस्त विकृतियां आईं। पर वक्त के साथ उनके इलाज भी हुए। आजादी के साथ ही सामाजिक विकृतियों को दूर करने के लिए सोश्यल इंजीनियरिंग के पुरोधा डॉ। भीमराव अम्बेडकर ने आरक्षण की व्यवस्था की। कालान्तर में यह व्यवस्था ही अपने आप में बहुत बड़ी विकृति बन गई। वंचित वर्ग की तुष्टि के नाम पर कई नए वंचित वर्ग तैयार हो गए।
और हालात वर्तमान स्थितियों तक पहुंच गए। मायावती और सतीश मिश्रा ने हालात की मांग को समझते हुए या यूं कहें की माइनस माइनस इजिक्वल टू प्लस की अवधारणा पर काम करते हुए,विकृत सामाजिक ढांचे के कारण वंचित वर्ग व आरक्षण की व्यवस्था के कारण वंचित हुए नववंचित वर्ग को आपस में जोड़ दिया। यह गठजोड़ वाकई अनूठा है। और कारगर है। वक्त की मांग है औऱ राजनीतिक विश्लेषकों के अनुमान हैं कि इस प्रकार की सोश्यल इंजीनियरिंग अन्य स्थानों पर भी दिखेगी। लेकिन इसके खतरे बहुत हैं। जिस प्रकार आरक्षण में योग्यता की उपेक्षा होती है, इसमें भी योग्यता पीछे धकेली जाएगी। नतीजा पूरा देश चुकाएगा। जाहिर है शॉर्टकट अपनाने का नुक्सान सभी को उठाना ही होगा। यह ज्वार एक बार तो जरूर उठेगा। बस इंतजार करिए इसके उठने औऱ हर चीज के इसके आगोश में समाने का। हर ज्वार के बाद भाटा आता है और समुद्र की रौद्र लहरें शांत हो जाती हैं। हम जैसे कुछ लोगों को आशा है कि समुद्र की सी वह शांति जल्द ही आएगी।
आमीन।

एकाधिकार का जमाना नहीं

खबर है कि यूरोपियन यूनियन ने माइक्रोसॉफ्ट को बाजार एकाधिकार मामले में पूर्व में सुनाया गया फैसला बरकरार रखते हुए उसे बाजार एकाधिकार का दुरुपयोग करने का दोषी पाया है। कई मायनों में यह एक बहुत जोरदार खबर है, खासकर भारत के मायने में जहां हम माइक्रोसॉफ्ट के कई सॉफ्टवेयर्स या ओएस को बिना उसके अधिकृत किए ही जबरदस्त तरीके से काम में ले रहे हैं। इस फैसले से भले ही माइक्रोसॉफ्ट की बाजार एकाधिकार प्रवृति पर अंकुश नहीं लग पाए लेकिन उसे अब अन्य उत्पादों का सम्मान तो करना ही होगा।

Monday, September 17, 2007

लालू की हो़ड़ में मुशर्रफ और पाकिस्तान का लोकतंत्र

अभिषेक
इन दिनों पाकिस्तान से कई खबरें लगातार आ रही हैं। पहले नवाज शरीफ की घर वापसी को लेकर कई दिनों से हंगामा मचा रहा फिर बात बेनजीर भुट्टो के मियां मुशर्रफ के साथ कथित समझौते के किस्से हवा में तैर रहे थे। कि हवा में एक नया ही शगूफा छिड़ गया है,लेकिन अबकि बार मामला थोड़ा गम्भीर हो गया है।दरअसल बात पाकिस्तान तक ही रहती तो ठीक थी, पर बात हिन्दुस्तान तक आ गई है। पाकिस्तानी हुक्मरान हमारी लोकतांत्रिक परंपराओं का अनुकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। सुना है मुशर्रफ लालू की तर्ज पर अपनी बेगम सबिहा को प्रेसीडेंट का चुनाव लड़ाना चाहते हैं। बस यहीं से मामला गम्भीर हो गया है। बड़े बड़े मसलों पर गम्भीर होने से इंकार कर देने वाले आईआईएम के कॉरपोरेट ट्रेनर लालू भी गम्भीर लग रहे हैं।
कहने लगे ये भी भला कोई बात हुई। ये हमारा लोकतांत्रिक तरीका मुशर्रफ को नहीं अपनाना चाहिए। अरे भाई उसे का जरुरत है, ये सब करने की। उस पर थोड़े ही न कोई गयैन का चारा खाबै का केस चल रहा है। केवल कपड़न का ही तो मामला है। क्या फर्क पड़ता है जो हरा नहीं सफेद पहन ले। पर हमारा फार्मुला तो नहीं चुराए। हम कितनी मुश्किल से ये लोकतांत्रिक टूल डिजाइन किए थे। राबड़ी को रसोई से निकाल कर कुर्सी पर बैठा दिये। सबकुछ कितना मुस्किल था। हम तो इस फार्मुला को पेटेंट भी नहीं करवा सके मुशर्रफ इसे अपनाने चला है। पर कोई नहीं अभी कुछ नहीं बिगड़ा है हम तुरन्त ही इसे पेटेंट करवा देते हैं। ऊ को बिना रॉयल्टी लिए नहीं छोड़े। रॉयल्टी भी लेनी जरूरी है। दरअसल असल बात है कि हमें रुपए पैसे का लालच नहीं है। वो तो चारा जैसे कई मामलों में बहुत सारा इकट्ठा हो गया है। बात है हमारी परम्पराओं की। वो पाकिस्तान के लोग कैसे एक दम से हड़प लेंगे। बात हमारे स्वाभिमान की है, आज मेरा फार्मुला चुराया है कल को कोई रथ यात्रा निकालने लगा तो। कोइ और नहीं तो हमारे यहां जैसा लाल सलाम वाला मामला वहां भी हो गया तो हमारे यहां के लाल सलाम वालों का क्या होगा। अभी तो वे संसार में लाल सलाम वालों कि प्रजाति के गिने चुने प्राणियों में कुछ हैं। उन्हें संसार में लाल सलाम के पुरावशेष होने का गर्व है पर यदि उनसे यह गर्व का भाव छिन गया तो सोचो क्या होगा। वे कई मामलों की पैरोकारी करनी बंद कर देंगे। और देश को उनके से सजग पैरोकारों से मरहम रहना पड़ सकता है। यदि एसा हो जाएगा तो संसद नियमित चलने लगेगी। सांसदों को सदन में बैठना पड़ेगा, एसा हो गया तो अक्सर क्षेत्र के दौरे के नाम पर किसी रमणीय सथल की यात्रा करने वाले नेता जी को संसद में बैठना पड़ेगा। देश के जाने कितने आलतू फालतू के मसलों को पारित करना पड़ेगा। सरकार ने अब तक जिन मुद्दों को लोकहित में अटका रखा था उन्हें बाहर निकालना पड़ेगा। और भी पता नहीं क्या क्या हो जाएगा। इसलिए यदि कोई इसे पाकिस्तान का घरेलु मामला कहे तो वह गलत होगा। कैसे भी करके उसे इस से रोकना होगा। पर फिर क्या गारंटी है वह इसी प्रकार के परिणाम वाला मनमोहनीय डिप्लोमेटिक डेमोक्रेटिक टूल का इस्तेमाल नहीं कर देगा। उसमें तो ज्यादा फायदे है। खुद तो त्याग कर दो और सारा खेल किसी ओऱ के हाथ में दे दो। खुद को केवल अपने हाथों की कुछ उंगलियों में डोर बांधनी होगी और समय समय पर उसको हलका हलका दायें बायें भर करना है । कुल मिला कर हमारे लोकतांत्रिक टूल्स पर पाकिस्तानी हुक्मरानों की नजर पड़ चुकी है। देखना है तो सिर्फ ये कि हमारे अपने हुक्मरान किस प्रकार इस चक्रव्यूह से बचते हैं या अपना अनूठापन और विश्वगुरू की पदवी बरकरार रखने के लिए कोई नया लोकतांत्रिक मॉ़डल प्रस्तुत करते हैं।

Sunday, September 16, 2007

ये नया खेल है....

Technorati प्रोफाइल

राम सेतु मामले में अब लड़ाई सरकारे अपने सिपहसालरों के बीच जंग में बदल गई है। देखें क्या नतीजा निकलता है।

Saturday, September 15, 2007

सेतु समुद्रम के बहाने ही सही ....

- अभिषेक

भारतीय राजनीति एक बार फिर से राम के इर्द गिर्द ध्रुवित होने लगी है। पहले राजीव के राम और बाद में भाजपा के राम को मनमोहन के राम ने पीछे छोड़ दिया है। यह नव वैश्विकरण का एक और आयाम है, इससे आम तौर पर भारतवासी अनभिज्ञ थे। माना यही जाता था कि भारत में राम और कृष्ण के अस्तित्व पर बात करना यह कहना होगा कि सूरज रात्रि में निकलता है। पर यह मनमोहन सरकार का ही कमाल है कि अब तक सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों की ठीक प्रकार से देखभाल तक नहीं कर पाने वाली आर्कियोलॉजी सर्वे अब राम के होने ना होने का हिसाब लगा रही है। जहां दिन की शुरुआत ही राम- राम से होती है, वहां राम ही नहीं हैं। वाकई कितनी बड़ी चिन्ता की बात हो गई। है। पर सरकार को सद्बबुद्धी आ गई। गलती सुधर गई है। अब राम हैं। एक दिन पहले नहीं थे। पर अब हैं। सेतुसमुद्रम से होने वाले फायदे नुकसान का तो पता नहीं पर हां अगले चुनाव के लिए राम एक बार फिर मतदाताओं के निर्णय को प्रभावित करने के लिए हाजिर हो गए हैं। अब किसे परवाह है महंगाई की या मंत्री महोदय के रिश्वतखोर होने की । अब तो सबकुछ भगवान राम ही तय करेंगे।
पहले भी कई बार राम ने ही कईयों की चुनावी वैतरणी को तारा था। इस बार भी कईयों को चुनावी समुद्र से पार उतारने के लिए राम सेतु के रूप में सामने आ गए हैं। इसे भी विडम्बना ही कहेंगे कि राम को सामने लाने और उन्हें सकुशल (वनपीस)बनाए रखने का श्रेय इस बार जिस दल को जाता है, उस दल का तो दावा ही राम से दूरी बनाए रखने का है। और जो दल अब तक राम को कभी आगे तो कभी पीछे रख कर अपना काम और नाम चला रहा था उसका इस सारे खेल में केवल दर्शक का सा नाता रहा। हमेशा गरीब का हाथ कहलाने वाले हाथ ने ही इस बार सारा कमाल दिखा दिया। पहले कहा राम कभी थे ही नहीं। फिर कहा राम पर कोई सवाल नहीं। यानी हमने राम को बचा लिया। देश के लिए बचा लिया। पर इस सबसे राम के नाम को आधार बना कर जी रही पार्टी को जीवनदान मिल गया। बरसों तक लौहपुरुष होने का विश्वास पाले रथ के सवार जो सब कुछ त्याग कर वनवास को चले गए थे। यकायक वनवास से लौट कर आ गए। तुरन्त हुंकार भरी। लौहपुरुष सा लौहत्व दिखाया। उनकी इस हुंकार ने एक और त्याग की मूर्ति का मन द्रवित कर दिया। अब तक केवल रोम की चिन्ता करने वाली नारी को राम की चिन्ता होने लगी। नतीजा रहा कि राम नववैश्विक करण के नए मॉडल बनने से बच गए। और अगले चुनाव तक तो सब को तार गए। अब कोई चिन्ता नहीं, चीनी, प्याज भले ही कोई भाव मिले उन्हें कोई फिकर नहीं।
मनमोहन राम में रम गए हैं, प्रकाश और सीताराम को भी राम भा गए हैं, वन टू थ्री अब नौ दो ग्यारह हो गया है।



सच ही हैराम नाम की लूट है लूट सके तो लूट........

राहुल द्रविड़ का इस्तीफा

भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान राहुल द्रविड ने अचानक कप्तानी से इस्तीफा दे दिया है।
राहुल कल भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष शरद पवार से मिलने गए थे।
खबरों के मुताबिक उन्होंने यह कह कर कप्तान पद से इस्तीफा दे दिया कि वे “अपने खेल पर पूरा ध्यान लगाना चाहते हैं।“
बी सी सी आई के सचिव निरंजन शाह का कहना है कि “द्रविड फैसले पर पुनर्विचार के लिए नहीं कहा गया क्योंकि हर खिलाड़ी को अपने बारे में फैसला लेने का हक है।”
बात सीधी सी यह है कि गुरु ग्रेग की विदाई के बाद द्रविड के दिन भी गिनती के रह गए थे।
ग्रेग के जमाने में वरिष्ठ और कनिष्ठ- हर खिलाड़ी के साथ राहुल द्रविड ने वैसा ही (बुरा) बर्ताव किया जैसा ग्रेग ने कहा। इसलिए अब उनके साथ टीम में किसी की सहानुभूति नहीं है।
हाल ही में खत्म हुए इंग्लैण्ड दौरे में द्रविड ने मैदान पर जितने गलत निर्णय लिए, उसके बाद बोर्ड के हाथ बहाना लग गया था उन्हें चलता करने का।
अब कप्तानी किसकी होगी? सचिन? या सौरव?
इंतजार करिए बोर्ड के “जल्द ही होने वाले” फैसले का।

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Friday, September 14, 2007

निगरानी
कहानी
निगरानी

- राजनारायण बोहरे

पंछी राम बड़ा तुर्रम खाँ है । पूरे पैंतीस बरस से वह कलेक्टर के हाथ के नीचे काम कर रहा है, सो बड़े -बड़े हाकिम-हुक्कामों से बोलने बतियाने और उनकी सेवा करने का अच्छा तज़ुर्बा है उसके पास । इस हुनर और तज़ुर्बे के दम पर अपने साथी चपरासियों के साथ बैठकर वह खूब लंबी लंबी गप्पें मारता है । बाकी लोग, चुप बैठ कर उसकी बातें मुंह बाये सुनते रहते हैं और उसकी हाँ में हाँ मिलाते हैं ।लेकिन इस दफा पंछीराम ऐसा फंसा कि सारी चौकड़ी भूल गया ।
दरअसल हुआ कुछ ऐसा , कि उन दिनों चारों ओर घनघोर बदरा छाये थे । सावन का महीना था । पूरे देश में झमाझम बरसात हो रही थी । छोटे-साधनहींन और दूर के इलाके में बसे गाँवों की कौन कहे, खूब ठीकठाक कस्बों और ख़ासे बड़े, तरक्की पा गये गाँवों तक पहुंचने के रास्ते गोबर और कीचड़ की गहरी लम्बी नदियों में तब्दील हो चुके थे ।
ऐसे बसकारे के टप्प-टप्प मौसम में दिल्ली बैठे एक आला हुक्काम ने हुकुम दागा कि अगले माह देश में आम-चुनाव कराये जायेंगे । जिस दिन अखबारों में यह खबर छपी, देश भर के प्राइमरी स्कूलों के मास्टर, तमाम दफ्तरों के बाबू-चपरासी, तहसीलों के पटैल-पटवारी और कोटवार तथा पुलिस थानों के दरोगा और सिपाही समेत अनेक कर्मचारी मन-ही-मन दहल उठे । ब्याह के डला-टिपरियों सी चुनाव की पेटी, थैली और तमाम सामग्री माथे पर लादे, अन्जान डगर और अजनबी गांवों में जाकर, भूखे-प्यासे और नींद के सताये रहकर ,भय और दहशत के माहौल में उनने अब तक की नौकरी में जितने भी चुनाव कराये थे , वे सब एक-एक कर उन्हें याद आने लगे । चुनाव तो वैसे भी भय कारी होता है, चाहे सूखा मौसम और ऐन शहर का पोलिंग क्यों न हो, फिर इस बार तो बारिश का घुटन भरा मौसम होगा । तो कैसे क्या होगा , इस चिन्ता में कई अफसर-अहलकारों की वह रात जगते हुये बीती । उधर यही खबर जब छोटे-बड़े नेताओं ,बिल्ला-परचा और पोस्टर छापने वाले प्रेसमालिकों, छुटमुट पेन्टरों ,माईकवालों और बेरोजगार गुण्डे-मवालियों ने पढ़ी, वे सब खुशी से नाच उठे-अब पांच साला कुम्भ आ गया था उनका ।
इधर चाय की दुकानों और दफ्तरों की खुली सभाओं में बारिश के मौसम में चुनाव हो पाने की संभाव्यता पर बहस चल रही थी और उधर दिल्ली में चुनावों की व्यवस्था समझाने के लिए बैठक बुलायी गयी बैठक में देश भर के आला हाकिम रबर के गूंगे गुवें की तरह चुनाव-व्यवस्था संभाल लेने के प्रश्न पर हामी में सिर हिला रहे थे- अब तक हर काम के लिए हामी में सिर हिलाते-हिलाते उनकी गरदन की हड्डी सिर्फ आगे-पीछे सिर हिलाने लायक ही रह गयी थी शायद, दांये-बांये यानी कि इन्कार में सिर हिलाना इस अवस्था में संभव नहीं था ।
दिल्ली में सब ''यस सर'' कह कर लौट आये और घर आ के इस चिंता में डूब गये कि अब इन झमेलों से कैसे निपटें- दूबरी और दो अषाड़ ! अलबत्ता प्रदेश कार्यालयों से कागजी कबूतर नाना प्रकार के सन्देश और परवाने लेकर उड़े तथा जिला कार्यालयों के सुस्त पड़े चुनाव-दफ्तरों में प्राण फूंकने लगे । सोये-अलसाये अंगड़ाई लेकर उठे और हुंकारा भर के आंखों का कांटा बने पुराने कई कर्मचारियों को अपने यहां अटैच करने के हुक्मनामे पहली ही फुरसत में जारी कर डालें ।
कलेक्टर के खासलुखास होने से चपरासी पंछी राम की ड्यूटी कभी भी चुनाव कार्यालय में नहीं लगी थी । लेकिन इस बार जाने कैसे जब उसे चुनाव कार्यालय में अटैच किया गया तो उसका माथा ठनका । मन ही मन उसने दिल्ली के आला हुक्काम से लेकर चुनाव कार्यालय के बड़े बाबू तक को खूब गरियाया ।
कीचड़ और गन्दगी से घिरे गांवों में बैठे भोले और निश्छल किसानों को बसकारे के नीरस मौसम में वक्त काटने का नया शिगूफ़ा हाथ लगा तो वे लोग अफ़सरों ,नेताओं और पुलिस वालों के भाग-दौड़ को बड़ी उत्सुकता से निहारने लगे । सबको कौतूहल था कि बरसात के इस झलाझल मौसम में अफसर लोग कैसे चुनाव करा पायेंगें ?
कलेक्टर के चैम्बर में उस समय केवल दो लोग थे -चपरासी पंछी राम और नायब तहसीलदार तोता राम उर्फ टी0 आर0 खुर्राट ।
कलेक्टर साहब एक फाइल में सिर गड़ाये बैठे थे, जबकि नायब साब पूरी तन्मयता से अपने सामने रखा एक अखबार पढ़ रहे थे । पीछे खड़े पंछीराम को उत्सुकता हुई, तो वह भी कलेक्टर साहब की नजर से बचते हुए ऐड़ियों के बल आहिस्ता से ऊंचा उठा और इस तरह खुर्राट साहब की आंखों के आगे फैली खबर को बांचने लगा । समाचार इस प्रकार छपा था -
चुनाव सुधार का नया फार्मूला
दिल्ली (संवाद एजेंसी ) चुनावों में लगातार बढ़ रहे खून-खराबे तथा फिजूल खर्ची पर एक अरसे से देश के बड़े कानूनविद चिंता जताते रहे है । इस चिन्ता से सहमत होते हुए केन्द्र सरकार ने अभी हाल में एक महत्वपूर्ण
निर्णय लिया है । इस निर्णय के तहत चुनावी माहौल को साफ-सुथरा करने की दृष्टि से खून-खराबे व फिजूल खर्ची रोकने के लिए देश में नया फार्मूला लागू किया जायेगा । आइंदा से हर चुनाव में प्रत्येक क्षेत्र में एक बाहरी निगरानी अफसर तैनात किया जायेगा, यह अफसर क्षेत्र में हाजिर रहकर सारी चुनाव प्रक्रिया पर निगरानी रखेगा, उसे जहां भी किसी तरह की धांधली या नियम विरुद्ध काम दिखेगा, वह सारा चुनाव रद्द करा सकेगा । इस नये फार्मूले से देश के चुनावी इतिहास में क्रांतिकारी फेर बदल होने की संभावना है । आशा है कि हर तरह की धमकी-लालच और प्रचार-प्रसार के शोर-शराबे, हिंसक झड़पों तथा बेशुमार चुनावी खर्च पर ये अफसर नकेल डाल देंगे और मतदाता निडर होकर मतदान करेगा । जिसके कारण देश में जनतंत्र का वास्तविक स्वरूप उभरेगा, और चुनावों की पवित्रता पुन: स्थापित होगी ।
सहसा कलेक्टर साहब ने सिर उठाया, और वे बड़ी विनीत मुद्रा में कहने लगे - कहने-सुनने में ये सब चीजें अच्छी लगती हैं । शायद सैद्धांतिक रूप से भी यह इंतजाम ठीक होंगे। लेकिन प्रेक्टिकली बड़ी दिक्कत है,दिल्ली में बैठे लोग क्या जानें कि जाने-अनजाने हम लोग बहुत-सी अनदेखी अपरिहार्य गलतियां और लापरवाही करते रहे हैं,जो अब शायद नुकसानदायक हो जायें । ........खैर । आप लोगों ने देख ही लिया कि अपने ऊपर दिल्ली से एक बाहरी अफसर तैनात किया जा रहा है, जो बिला-वजह अपने को परेशान करने के लिए हमारी छाती पर बैठा रहेगा । पर आप दोनों पुराने अनुभवी आदमी हो । मुझे विश्वास है कि आप लोग सब संभाल ही लेंगे । मैं आप दोनों को अपना आदमी मान के उस अफसर के साथ लगा रहा हूं । देखना उसकी सेवा सत्कार में कोई कमी न रह जाये । अपने को जैसे-तैसे केवल दस दिन का समय निकालना है । यदि इस पीरियड में उस अफसर को कोई शिकायत रह गई तो वो मेरा कैरियर ही चौपट हो जायेगा ।
कलेक्टर की बात सुनते समय पंछी राम मन ही मन बड़ा खुश हो रहा था, क्योंकि बात-बात में शेर सा दौंकी मारने वाला कलेक्टर इस वक्त भीगी बिल्ली सा म्याऊं म्याऊं कर रहा था ?
लेकिन भीतर ही भीतर एक अज्ञात सा भय उसे खाये जा रहा था, कि जिस अफसर से कलेक्टर डर रहा है उसके लिये नायब और पंछीराम तो मक्खी - मच्छर हैं । गलती से दिल्ली वाला अफसर कहीं उनसे नाराज हो गया तो नौकरी जाने में सेकंड नहीं लगेंगे । वह सोचने लगा कि महीना भर पहले से उसने छुट्टी क्यों नहीं ले ली ! अब इस वक्त किसी को छुट्टी मिलने से रही । इस समय तो बाकी सारे काम व्यर्थ हैं । इस समय सब अफसर छोटे हैं । इस समय तो मात्र दिल्ली वाला अफसर ही बहुत ताकतवर है । वो जो लिख देगा, दिल्ली से वैसा ही हुकुम आ जायेगा । उसकी दिल्ली जाने वाली रोज-रोज की रपट बड़ी महत्वपूर्ण है ,इस कारण कलेक्टर की भी फूंक सरकती है इन दिनों ।
कलेक्टर के चेम्बर से बाहर निकला तो बाकी चपरासियों ने पंछी राम को घेर लिया -कलेक्टर ने अकेले में क्या बात करी ?
पंछीराम को भरपूर मौका मिला ,सो उसने गप्पें ठोंकने में कोताही नहीं की और लंतरानियां मारना शुरु कर दीं, कि किस तरह कलेक्टर ने उसे बगल की कुर्सी पर बिठा कर चाय पिलाई और दिल्ली से आने वाले हुक्काम के साथ एक ख़ास अफसर के रुप में काम करने का अनुरोध किया वगैरह वगैरह । बाकी लोग विस्मय में डूबे पंछीराम की आड़ी-तिरछी उड़ान के नजारे देखते रहे ।
घर जाकर उस दिन पंछी राम को रात भर नींद नहीं आई । उसने कलेक्टर को रात भर खूब गालियां दी, जिसका अंग विशेष इस कारण फट रहा था, कि दिल्ली से आने वाला अफसर बड़ा कड़क है । दिल्ली के आला हुक्कामों को भी निगरानी अफसर तैनात करने के नये चलन पर पंछी राम ने नहीं बख्शा-अरे भैया चालीस साल से जिस ढंग से चुनाव चल रहे थे वैसे ही चलने देते । ये क्या कि सारे देश को उलट पुलट दो और इधर के अफसर इधर, उधर के अफसर इधर की जगहों पर तैनात कर डालो । जाने कहां का फिजूल चलन शुरु दिया, यूं ही बैठे ठाले । जैसे प्रदेश और जिले के अफसरों पर कोई विश्वास ही नहीं बचा हो ।
''शताब्दी एक्सप्रेस का खर्चा या तो सरकारें उठातीं हैं या फिर विधान सभायें, और पार्लियामैण्ट । या तो अटैची हाथ में लिये मोटा चश्मा,भारी तोंद और गर्मी में भी सूट डाटे बैठे घाघ अफसर इस चलते फिरते महल में यात्रा करते हैं, या फिर एम0 पी0 और विधायक ।'' पंछी राम की इस धारणा को सच साबित करता पचपन-छप्पन साल का एक अध गंजा खड़ूस -सा आदमी शताब्दी एक्सप्रेस के डिब्बे से उतर के स्टेशन पर अनाथ सा खड़ा था । वह नाक-भौ सिकोड़े आसपास के यात्रियों को तुच्छ नजरों से घूरता हुआ अपने दो सूटकेस संभाले इधर-उधर ताक रहा था । नायब साहब ने अन्दाजा लगाया कि यही होगा दिल्ली वाला निगरानी अफसर ।
नायब साहब उसके बगल में पहुँचे, अपने आगे निकले पेट को जितना वे दबा सकते थे उतना दबाते हुये अधझुके से होकर उस खडूस से आदमी से बड़े मीठे स्वर में वे पूछने लगे-आप कोहली साहब हैं ना सर ।
''हूँ !!!'' एक लम्बे हुंकारे ने नायब साब को और झुका दिया, ''नमस्ते सर । मैं आपकी कॉस्टीटयूऐन्सी का लायजनिंग अफसर हूँ - नायब तहसीलदार टी.आर.खुर्राट । ''
''तुम्हारा कलेक्टर कहाँ है ? उसे फुरसत नहीं मिली मुझे लेने आने की ।'' कोहली की त्यौरियां चढ़ गयी ।
''सर'' नायब साब ने ऐसा शब्द कहा, जिसके मनमाने अर्थ निकाले जा सकते थे, यानी कि ''जी सर'' भी या फिर ''नहीं सर'' भी, या फिर आप माई बाप हैं हुजूर, जो कुछ कहें वही सच है श्रीमान'' । नायब साब की चालाकी पर मन ही मन हंसा - पंछीराम ।
''चलो '' कोहली ने हुकुम दागा ।
और नायब साब ने एक सूटकेस उठा लिया तो दूसरा पंछीराम ने लाद लिया ।
स्टेशन के बाहर लाल बत्ती लगी वातानुकूलित कार खड़ी थी, नायब साब ने ड्रायवर को इशारा किया, तो उसने पिछला दरवाजा खोल दिया । ड्रायवर ने डिग्गी खोलकर पीछे दोनों सूटकेस जमा दिये ।
नायब साब खिड़की से झांकते हुये बोले ''हम अगली गाड़ी में हैं सर, अभी होटल चल रहे हैं, फिर फील्ड के लिये चलेंगे । अपना एरिया यहां से चालीस किलो मीटर बाद शुरु होगा सर और डेढ़ सौ किलोमीटर तक रहेगा''
''हँ !!!''फिर लम्बा हुंकारा गूंजा, तो नायब साब वहां से हट गये । चपरासी पंछी राम उनके पीछे था । आगे एक और कार खड़ी थी, वे दोनों उसमें बैठ गये पिछली कार को संकेत देती हुई वह कार चल पड़ी ।
होटल में पंछीराम को कुछ भी नहीं करना पड़ा । वर्दीधारी बैरे ने कोहली की अटैची उठाने से लेकर भोजन परोसने तक का सारा काम अपने हाथों निपटाया । तब तक पंछीराम ने बरसात में भीग गये अपने कपड़े सुखा डाले ।
दोपहर दो बजे दिल्ली वाले अफसर ने नायब साब को तलब किया और ढाई बजे दोनों कारें होटल छोड़कर चल पड़ी । तब भी हल्की बूंदाबांदी हो रही थी । जिला मुकाम यहाँ से अस्सी किलोमीटर दूर था ।
रास्ते में वे लोग कहीं नहीं रूके सीधे कलेक्ट्रेट पहुँचे ।
खबर लगी तो कलेक्टर दौड़े-दौड़े बाहर आ पहुंचे - ''आइये सर ! मैं आई.सी. घोष !''
''इलैक्सन का ऑफिस कहाँ है ?'' कोहली के स्वर में उपेक्षा का भाव था,और कलेक्टर समेत सारे कर्मचारी डरे से दिख रहे थे । पंछीराम मन ही मन खुश हुआ - अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे । इस पल वह अपने आपको इस दफ्तर का कर्मचारी नहीं मान रहा था, उसे लग रहा था, कि मानो वह भी दिल्ली से आया है और कलेक्टोरेट के कर्मचारी उस के लिये कीड़े मकोड़े हैं ।
कलेक्टर साब स्वयं आगे आगे चलते हुये कोहली साब को चुनाव के दफ्तर में ले गये । कोहली ने डिप्टी साब की घूमने वाली गद्देदार कुर्सी देखी तो नाक-भौं चढ़ा लिये - ''इसे हटाओ यहाँ से । ''
पंछीराम ने तुरंत ही वह कुर्सी हटा दी और कोहली की नजर को भांपते हुए एक साधारण सी कुर्सी उस जगह रख दी । कोहली बैठे तो पंछीराम बाहर खिसक आया और भीतर को कान लगाके दरवाजे के बाहर खड़ा हो गया ।
''कितने पोलिंग सेंटर हैं इस कांस्टीटयूएंसी में ?'' कोहली की तीखी आवाज में प्रश्न उछला था ।
''बारह सौ सैंतीस'' कलेक्टर साब का स्वर रिरियाहट लिये था ''आठ सौ बीस इस जिले में, और चार सौ सत्रह अटैच जिले में ।''
''सैंसिटिव कितने हैं ?''
''सात सौ पाँच !''
''व्हाट ? सेवन हण्डरेड फाईव !''
''यस सर, दिस इज ए डैकेट इनफैरेटेड एरिया । टोटल कांस्टीटयूएंसी इज सेसंटिव, वट सेविन हन्ड्रेड बूथ्स आर वेरी सेंसिटिव । पिछले चुनाव में पचास पोलिगं सेंटर पर दुबारा चुनाव कराना पड़े थे सर । सत्रह आदमी मारे गये थे । इसलिये पिछली बार की तुलना में इस साल दुगने सुरक्षा गार्ड तीन हजार लगा रहे हैं और सी आर पी भी बुला रहे हैं हम।''
'' जहां-जहां हिंसा हुई थी, वहां क्या बंदोबस्त है आपका ?''
'' वहां हर पोलिंगबूथ और गांव में सी आर पी के जवान तैनात कर रहे हैं।''
'' इस बार दूसरे जिलों से भी तो चुनाव पार्टियां आयेंगी, उनके रूकने और खाने पीने के इन्तजाम हैं इस कस्बे में !''
''हां सर, कुछ भोजनालय है। ठहरने के लिए सिविल लाइंस के स्कूल में इंतजाम करा रहे है।''
''गिव मी ए मैप आफ दि कांस्टीटयूएंसी एण्ड लिस्ट ऑफ पोलिंग बूथ्स ।''
''जस्ट ए मिनट सर'' कहते कलेक्टर दरवाजे की और मुड़ करके बोले ''खुर्राट नक्सा और वो लिस्ट लाओ ''। फिर वे कोहली साब से बोले -सर पिछली बार का ही तो डर है कि हर कर्मचारी इस बार चुनाव से बचना चाहता है ।''
बाहर खड़े खुर्राट साहब ने अपना ब्रीफकेस खोल कर कुछ कागजात निकाले और खुला ब्रीफ केस पंछी राम को पकड़ा के दफ्तर में दाखिल हो गये । पंछीराम को इस वक्त खुर्राट का चेहरा उस बकरे जैसा लग रहा था, जिसे तुरन्त ही ज़िबह किया जाना है । पंछी राम को खुद की औकात मुर्गे से भी बदतर लग रही थी । घोस साहब खुद को क्या समझ रहे होंगे, पंछीराम इसका अंदाज नहीं लगा पा रहा था । अलबत्ता कोहली साब उसे जल्लाद से लग रहे
थे । हिन्दी फिल्मों में जल्लाद का रुप कुछ अलग ही गेट अप के साथ दिखाया जाता है - कमर में काली सलवार पहने, माथे पर काले कपड़े से खोपड़ी बांधे, हट्टे-कट्टे बदन को उघारा करके मसल दरसाता एक क्रूर सा व्यक्ति । पंछीराम ने मन ही मन कल्पना करी कि कोहली साहब को यदि वह ड्रेस पहना दी जाये तो कैसे लगेंगे ।
पंछीराम की कल्पना को झटका देते हुये कलेक्टर अचानक बाहर आये और खुर्राट को एक तरफ ले गये । पंछीराम के कान उधर ही लगे थे । कलेक्टर पूछ रहे थे- खुर्राट तुमने इस अफसर की पसंद-नापंसद तो पता कर ली ना । देखना अपना प्लान फेल न हो जाये । ये तो सचमुच कड़क आदमी है। बहुत सारी कमियाँ ढूंढ़ लेगा ।
आप चिंता न करें सर, मैं सब निपटा लूंगा । खुर्राट कलेक्टर के चरणों में झुके जा रहे थे ।
मतदान दलों के पहुंचाने के इंतजामात यानी कि बसें, ट्रक, ट्रेक्टर, बैलगाड़ी और नाव तथा ऊंट भी, सुरक्षा यानी कि पुलिस वालों की संख्या, मतदान दलों की नियुक्ति और दूसरे जिलों से आने वाले दलों के ठहरने आदि के साधन वगैरह की कार्यवाहियाँ देखने में कोहली साब को चार घंटे लगे ।
फिर एकाएक कुछ याद आया तो वे कलेक्टर से बोले -'' मुझे एस डी एम और एसडीओपी दो जरा जल्दी से, मैं कस्बे में जाके संपत्ति-विरूपण के कुछ प्रकरण बनाना चाहूंगा ।''
पंछीराम एक अलग जीप में था । कस्बे के चौराहे पर कोहली साब रूके और रोड पार करके टांगे गये कपड़े के अनेक बैनरों पर नाराजी व्यक्त करनेलगे । पंछीराम को इशारा मिला तो उसने उछल-उछल कर वे सारे के सारे बैनर खींच लिये । दीवारों पर लिखे चुनाव प्रचारों के बारे में भी उनने एसडीएम को प्रकरण बनाने का आदेश दिया । पंछीराम ने देखा कि कोहली साब की इस कार्यवाही पर, चौराहे से गुजर रहे तमाम राहगीर बड़े खुश दिख रहे थे ।
सर्किट-हाउस में सारी व्यवस्था चाक-चौबंद थी । साफ और बदबू रहित बाथरूम , बेदाग चादरें, उम्दा ए.सी., फोन, फैक्स, टी.वी. और कम्प्यूटर से सजे कमरे को देख इत्मीनान हुआ, तो कोहली साब ने पंछीराम को छुट्टी दे दी ।
शाम को उनकी कार कस्टीटूयेंसी के दूसरे जिले को रवाना हुई तो पंछीराम और खुर्राट साब कार की अगली सीट पर ठुंसे हुये थे जबकि पिछली सीट पर कोहली साब अजीब से तरीके से लेटे हुये आराम फरमा रहे थे । कलेक्टर साब ने आग्रह किया तो कोहली साब ने सुरक्षा गार्ड लेने से कतई मना कर दिया था । बोले थे - रहने दो । आय एम स्ट्रांग । मैंने नक्सली इलाके में चुनाव कराये हैं ।
कार इत्मीनान से दौड़ रही थी । तब ,आधा घण्टा हो चुका था । सहसा वे बोले ''रास्ते में कोई सैंसिटिव सेन्टर दिखे तो गाड़ी रोकना । मैं चैक करूंगा ।''
और रास्ते में चार मतदान केन्द्रों पर उनकी गाड़ी रूकी, सब जगह एस.ए.एफ. के जवान तैनात थे । कोहली साब सिर्फ कार की खिड़की से बाहर झांकते रहे, खुर्राट साब ने ही हर जगह तहकीकात की ।
एक गांव के निकट पहुंचते-पहुंचते सड़क पर भारी भीड़ दिखी तो ड्रायवर ने गाड़ी धीमी कर ली । वे लोग कुछ समझ पाते कि अचानक उनकी गाड़ी को उस भीड़ ने घेर लिया । खुर्राट साब तो घबरा ही गये जब भीड़ में मौजूद दर्जन भर बन्दूक धारियों ने धड़ाधड हवाई फायर कर डाले । उनने जैसे तैसे हिम्मत बांधी और उन्हें डाँटते हुये पूछा ''ये क्या नाटक है ? गाड़ी क्यों घेर ली है । चलो दूर हो जाओ सब ! बन्द करो ये बन्दूकें ।''
पंछीराम ने पीछे देखा कोहली साब थर-थर काँपते नीचा सिर किये बैठे थे ।
''पहले कलेक्टर को बाहर निकालो'' भीड़ में से एक नेतानुमा आदमी ने खुर्राट साब को डाँटते हुये जवाब दिया तो कोहली साब की जान में जान आई ।
''गाडी में कलेक्टर साहब नहीं हैं, दिल्ली वाले अफसर हैं'' खुर्राट साब ने नर्म पड़ते हुये जानकारी दी ।
''फिर तो और अच्छा है ये तो कलेक्टर से भी बड़े होगें । उनसे कहो बाहर निकल के हमारी बात सुन ले, नहीं तो हम आज यह रास्ता आज चालू नहीं होने देगें । देखते हैं कैसे चुनाव कराओगे तुम हमारे एरिया में ।''
खुर्राट साब भीड़ को बहलाना चाहते थे पर शायद कलेक्टर से बड़ा हुक्काम होने का प्रमाण देना जरूरी समझ कर अचानक कोहली साब कार का दरवाजा खोल कर बाहर निकल पड़े और पूछने लगे ''क्या प्रॉबलम है ?''
एक नेता होता तो बताता, भीड़ का हर आदमी अपनी बात सुनाने के लिये कोहली साब की तरफ लपक पड़ा तो कोहली साब घबरा उठे । खुर्राट साब उतरे, अब तक भीड़ ने कोहली साब को खूब धकिया लिया था ।
जैसे तैसे लोगों को दूर कर शांत किया गया तो पता लगा कि गांव में बिजली और पानी न मिलने के कारण इस गांव के लोग रास्ता जाम कर बैठे हैं । इलाके के कई गांव के लोग चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं । खुर्राट साब के कहने पर कोहली साब ने गांव वालों को झूठा-सच्चा आश्वासन दिया और ऐन केन प्रकारेण वे लोग वहां से आगे बढ़े तो पंछीराम को लग रहा था कि अब कोहली साब ठण्डे पड़ जायेंगे । लेकिन उसे ताज्जुब हुआ कि उनके नथुने अब भी फड़क रहे थे । वे फुंफकारते हुये कह रहे थे - ''देखा ! ये हैं तुम्हारे कलेक्टर का लॉ एण्ड आर्डर । इतनी बन्दूकें बाहर हैं । आर्म्स तक जमा नहीं कर पाये । मैं तो आज ही दिल्ली को लिख दूँगा कि ये कलेक्टर चुनाव नहीं करा पायेंगा । ही इस डफर एण्ड फैल्यूअर डी.एम. एज रिटर्निंग ऑफीसर । ''
दयनीय मुद्रा बनाते हुये खुर्राट साब ''सौरी सर'' ''सौरी सर'' की तोता रटन्त बोलने लगे तो पंछीराम इस पहेली को बूझने लगा कि खुर्राट साहब किस बात की माफी माँग रहे हैं ।
''मैं तुम सबको सस्पैण्ड करता हूँ । तुम लोग एकदम जाहिल और नाकारा हो ।'' कोहली साब ज्यादा ही अकड़े तो पंछीराम की मूँछ फड़क उठी । वह खुद को रोक न सका बोला - ''ये डकैतों का इलाका है हुजूर ! इधर तो दिन दहाड़े गोली चल जाती है । यहाँ न कलेक्टर कुछ कर पायेगा न एस.पी. । यहां के तो खून में ही गर्मी रहती है । हमारे यहाँ चुनाव कराना बड़ी टेढ़ी खीर है हुजूर, कोई तुर्रम खाँ चला आये यही होगा।''
''यू शटप'' चीखते हुये कोहली ने उसे डांटा ।
पंछीराम का बदन फड़का, लेकिन खुर्राट साहब ने इशारा किया तो वह अपने होंठ ही कस कर बैठ गया । वह सोचने लगा कि चुनाव में अभी सात दिन बाकी हैं,और इतने दिन खुद को जप्त कैसे रख पायेगा वह । निश्चित ही इस बार के चुनाव उसकी नौकरी ले जायेंगे । चुनाव तो दूर है आज ही नौकरी बच जाये तो बजरंग की कृपा होगी ।
उसके इशारे पर कार ने मुख्य मार्ग छोड़ा और एक सूने से रोड़ पर चल पड़ी । अंधेरा घिरता जा रहा था । मार्ग एकदम सूना और सन्नाटे में डूबा दिख रहा था । कोहली साहब की तो बोलती ही बन्द थी । फिर भी वे बुदबुदाते हुये से बोले -'' ये रास्ता कहाँ जाता है ? ''
''यह रास्ता शॉर्टकट है सर'' खुर्राट साहब ने कहा ।
वे लोग दस किलोमीटर ही चल पाये होंगे कि ड्रायवर ने कार रोक दी । पंछीराम ने देखा कि बीच सड़क पर चार-पांच भैंस खड़ी हैं । उसे मन ही मन डर सा लगा । इस क्षेत्र के लोग किसी कार को लूटते समय ऐसे ही रोड जाम कर देते हैं । फिर भी अपनी सजगता दर्शाते हुये उसने कांच उतार के गरदन बाहर निकाली और चिल्लाया-'' काहे रे लला ! ये चौंपे को छोड़ गयो इते । हटाओ तो सड़क से !''
'' को लफ्टेंट है जा कार में ?'' डांटते से स्वर में अंधकार को पार करते हुए एक बन्दूक धारी अचानक प्रकट हो गया और उसने ऐसा प्रश्न पूछा, कि जिसका जवाब देना किसी के वश में न था । सब चुप सुनते रहे । पंछीराम ने तो बाकायदा हनुमान-चालीसा का पाठ शुरू कर दिया ।
लेकिन संकट अपने आप ही टल गया । उस बन्दूक धारी ने स्वयं ही वे भैंसे रोड से हटा दीं और उनकी कार को निकालने का संकेत दिया तो ड्रायवर ने गियर बदला और एक्सीलेटर दबाकर गाड़ी को हवा कर दिया ।
उनकी गाड़ी रात दस बजे सर्किट हाउस पहुंची । जिले के सर्किट हाउस में न तो कलेक्टर मौजूद मिले न डिप्टी कलेक्टर, इसके भी ऊपर तुक्का यह हुआ कि सर्किट हाउस का वी आई पी वाला वातानुकूलित कमरा खाली नहीं मिला-उसमें कोई मंत्री रुके हुये थे । सर्किट हाउस पर मौजूद गरीब से दिखते एक नायब तहसीलदार ने कोहली साहब से एक दूसरे नॉन ए.सी. कमरे में पहुंचने की प्रार्थना की तो उनका क्रोध फट पड़ा -''डू यू नो , दैट आई एम सुप्रीम अफसर । यू आर टेकिंग मी अदर साइड आई विल टेक यू टू टास्क । ''
बेचारा वह नायब तहसीलदार तो कुछ बोल ही नहीं पा रहा था हकलाते -अटकते हुये उसके मुंह से जो स्वर टपके, उनका आशय था कि........हजूर कृपा करें........हमारी मजबूरी है.......हम विवश हैं छोटे कर्मचारी हैं............हजूर माई बाप हैं ! आला हुक्काम है.!........ जो कहें ठीक है क्षमा करें.........माफी दें ।
अपने कमरे में घुस के कोहली साब ने कुर्सी पर बैठकर टेबल पर रखा फोन अपनी ओर खींचा और जाने कहां का नम्बर डायल करने लगे । अगले ही पल उनका गुस्सा और ज्यादा धधक उठा था ''खुर्राट कम हियर ।''
खुर्राट साब शायद रसोई घर में जाकर साहब के खाने के लिये खानसामा को चीजें बता थे सो पंछी राम अपना कर्तव्य समझकर कोहली साब के कमरे में घुस बैठा ।
यकायक उसने महसूस किया कि उसके माथे पर आ कर कोई गोला सा टकराया है, और उसकी आंखों के आगे तारे नाच उठे हैं । शायद कोहली साहब ने कोई चीज उठाकर फेंकी थी, जो उछलती हुई पंछीराम के माथे से आकर लगी है । वह घबरा कर पीछे पलटा । बाहर निकलते निकलते उसने देखा कि उसके माथे से टकराने वाली चीज टेलीफोन है । जो अब दरवाजे के बीचों बीच क्षत-विक्षत सा बिखरा पड़ा है । वह क्षुब्ध हो उठा, नाराजी का यह कौन-सा तरीका है । ये तो साला नाक में दम कर रहा है,जैसे ससुराल में दामाद नखरे दिखा रहा हो ।
खुर्राट साब उस वक्त कोहली साब के कमरे में प्रवेश कर रहे थे , दूसरे नायब साब जाने कहां गायब हो गये थे । सारे सर्किट हाउस में अफरा तफरी थी । कुछ देर बाद पंछी राम को अपनी चोट का अहसास कुछ कम हुआ तो वह स्थानीय नायब साब को तलाशने लगा ताकि उन्हें और यहां के चपरासी को अपनी बला सौंप कर वह किसी कोने में आराम से लम्बी तान कर सो जाये ।
उसने सोचा कि जिस तरह से कोहली साब की एण्ट्री हुई है, उसका परिणाम तो यही लग रहा है ,कि नायब साब को अचानक ही सर्किट हाउस के किसी संडास में घुसना पड़ा होगा, सो पंछीराम उन्हें उधर ही ढूढ़ने लगा ।
तब तक 'सोंई-सोंई' करती दो कारें सर्किट हाउस में आ पहुंची थीं । चौकीदार ने बताया कि एक में कलेक्टर आये हैं, और शायद दूसरी कार में चुनाव खर्च देखने वाले अफसर हैं । कलेक्टर एक जवान सा लड़का था जबकि दूसरा अफसर एक प्रौढ़ दक्षिणी व्यक्ति दिख रहा था । वे लोग सीधे कोहली के कमरे में प्रवेश कर गये ।
पंछी राम दरवाजे से सट के खड़ा हो गया - देखें कोहली साहब जैसे परशुराम से इस नयी उम्र के लक्ष्मण जैसे कलेक्टर का क्या संवाद होता है पर उसे निराशा ही हाथ लगी । कुछ देर दरवाजा बंद रहा फिर खुला । पता नहीं तीनों अफसरों ने किस भाषा में क्या बात की, कि कोहली साहब के कमरे से बजाय गालियों के, हँसी के ठहाके गूँजते सुने पंछीराम ने । उसने पूरी प्रशासनिक बिरादरी को गरियाना शुरू कर दिया - साले सब हरामी और मादर.......हैं । छोटे कर्मचारियों को गाली देंगे पर बड़ों की गांड़ में................।
कलेक्टर तो लौट गये, दूसरे अफसर को एक और कमरा खुलवाया गया ।
रात को मेहमानों के लिए मुर्गा और विदेशी व्हिस्की का इंतजाम एक्साइज अफसर की ओर से था । खर्च देखने वाले दक्षिणी अफसर ने सिर्फ मछली पसंद की, जबकि कोहली साहब ने मेजबान को निराश नहीं किया, न केवल मुर्गा खाया बल्कि उसके पहले पीना पसंद किया,इसके बाद उसने एक वीडियो सेट और लाने को कहा ।
उसका आदेश बजाया गया । वीडियो लगा, जिसके सामने बैठ कर वह जाने कितनी रात तक बंद किवाडों के पीछे कोई खास फिल्म देखता रहा । पंछीराम को इसमें भला क्या आपत्ति होती, उसे और खुर्राट साहब को भी उचित पथ्य मिल गया था और रात भर के लिए कोहली से छुटकारा भी ।
सुबह आठ बजे कलेक्टर खुद ही अपनी गाड़ी चलाते हुये सर्किट हाऊस आ पहुँचे वे खुर्राट को एक ओर ले गये । पंछीराम ने सुना वे खुर्राट से कह रहे थे - ''इस खूंसट को चुनाव तक कैसे झेलेगें खुर्राट ! ऐसा करो कि इसे वहीं घुमा-फिरा लाओ'' ।
'वहां तो बहुत खर्च होगा सर, मेरे पास तो केवल पांच-छ: हजार........फिर इन्हें तो सिग्नेचर व्हिस्की के साथ तीतर का मांस पसंद है और मिल जाये तो कुछ और भी.........यानी कि..............। इतने कम पैसे में इनके शाही-शौक कैसे............।''
''इसकी चिन्ता तुम मत करो । हम एक एक्साइज इंसपेक्टर तुम्हारे साथ भेज रहे हैं ।''
''ठीक है सर, आप उनसे एक बार कह दीजिये फिर मैं उन्हें तैयार कर लूंगा ।''
दिन में कोहली साब कुछ देर को कलेक्टर के चुनाव कार्यालय में बैठे तो शिकायत बाजों का तांता लग गया । उन्हें जैसे तैसे निपटा के कोहली साब ने राहत की सांस ली ही थी कि खर्च देखने वाले पर्यवेक्षक शिवरामन वहीं आ बैठे ।
पंछीराम ने सुना, कोहली साब अजीब सी आवाज में उनसे कह रहे थे - ''कमीशन ने इस कौन से जंजाल में फंसा दिया शिवरामन साब ? इतने दिनों से जो हो रहा था वही ठीक था ।''
शिवरामन साहब कह रहे थे ''यह तो लोकतंत्र का पवित्र यज्ञ है साहब । हमारे चुनाव पर सारे विश्व की निगाह रहती है । इसलिये निगरानी अफसर रखना मुझे तो कतई गलत नहीं लगता । देश की सर्वोच्च निष्पक्ष और गरिमामयी संस्था के इस नवाचार में भी बड़ा विवेक छिपा है । हमें भी निष्पक्ष चुनाव कराने का प्रयत्न करना चाहिये । आखिर दिल्ली के बड़े अफसर जनहित की बात कर रहे हैं । आप ही कहें हमारे गरीब देश में अरबों का सरकारी खर्च और एक महीने तक चलने वाले भयानक शोर-शराबे प्रचार-प्रसार, जनसंपर्क, बैनर बिल्ले, पैम्पलेट, जीपों, आम-सभाओं में पार्टियों के अगणित खर्च कुल मिला कर कितना नुकसान होता होगा । प्रचार-प्रसार में बढ़ रहे व्यय को देख कर हम सोच सकते हैं कि अब गरीब आदमी तो उम्मीदवार बन ही नहीं पायेगा । शायद इसीलिये ज़नतंत्र का लाभ हर जन तक पहुंचाने के लिये यह नई व्यवस्था की गई है ।''
पंछीराम ने देखा कि यहां की बातें उसके सिर के ऊपर से गुजर रही हैं । वह बाहर चला आया। दफ्तर के बाहर डिप्टी कलेक्टर और तहसीलदारों की पूरी की पूरी भीड़ इस प्रयत्न में थी कि चुनाव प्रक्रिया के किसी काम की शिकायत न होने पावे । इसके लिये वे राजनैतिक पार्टियों के छुटभैया नेताओं के गले लग-लग जा रहे थे । दफ्तर से दुत्कार कर भगाये जाने योग्य छोटे-मोटे कार्यकर्ता भी इस वक्त प्रशासनिक अफसरों के सगे-सहोदर जैसा सम्मान पा रहे थे । पंछीराम को रेवेन्यू अफसरों का वह रूप याद आया, जब वे अपने सिंहासन पर बैठकर गांव-देहात के गरीब किसानों को देखकर दहाड़ उठते हैं, और कुछ वैसे ही हिंस्र भाव चेहरे पर ले आते हैं, जैसे कोई गीदड़ मोटा-ताजा शाकाहारी निरीह पशु देखकर उसे खाने को ललचा उठे । उनके चेहरे पर इस वक्त बड़ी कातरता दिख रही थी, जैसे दुनिया के सबसे दीन-हीन और अकिंचन व्यक्ति ये ही लोग हों ।
वे लोग एक साथ डबल रोल कर रहे थे । कर्मचारियों से अलग और राजनैतिक कार्यकर्ताओं से अलग व्यवहार था उनका । वहां उनके पास जब कोई कर्मचारी अपनी चुनाव डियूटी निरस्त कराने आ जाता तो वे अपनी गर्दन फिर अकडा लेते, रीढ़ की हड्डी फिर सीधी कर लेते और आवाज में फिर वही क्रूरता ले आते जो इस वक्त चुनावी अफसरों में होनी चाहिये ।
ऐसे में कुछ रोचक नजारे भी देखे पंछीराम ने, हुआ ये कि किसी चुनावी अफसर की तरफ जब एक मरघिल्ला सा आदमी हाथ में कागज ले के आगे बढ़ा, तो अफसर ने समझा कि वह चुनाव ड्यूटी निरस्त कराने वाला कोई कर्मचारी है, सो वह झल्ला उठा और उसे भाग जाने का हुकुम दे डाला । पर दुर्भाग्य से वह मरघिल्ला सा आदमी किसी पार्टी का चुनावी कार्यकर्ता निकल बैठा । फिर क्या था चुनाव आयोग और अफसर से शिकायत करने की धमकी देता वह व्यक्ति खूब जोर से चिल्लाने लगा तो अफसर लपक के उसके चरणों में गिरने तक को तैयार हो गया । ऐसा भी हुआ कि कुर्ता धोती धारी जिस बुजुर्ग को व्यक्ति को अफसर ने नेता समझ कर मन का सारा सम्मान और अपनापन उंडेल डाला, वह एक दफ्तर का बड़ा बाबू निकला, तो अफसर का क्रोध फट बैठा ।
एक बड़ा हादसा तो तब होते-होते टल गया जब एक प्रत्याशी के प्रचार में लगी बिना झंडा की अट्ठाइस जीपों के नम्बर दूसरा प्रत्याशी सौंप रहा था कि पहला प्रत्याशी आ गया । उसका तो पारा ही चढ़ गया और वह क्रोध में चीखते-चिल्लाते हुये दूसरे प्रत्याशी तरफ झपटा तो दूसरे व्यक्ति ने अपनी जेब में रखा कट्टा निकाल कर धाँय से हवाई फायर कर डाला ।
गोली चलने का स्वर गूंजा तो दोनों पक्षों के महारथियों के हाथों में नाना प्रकार, नाना रंग और नाना आकृतियों के कट्टे चमक उठे ।
डरता हुआ पंछीराम यह सोच रहा था कि हमारे देश में और चीजें भले न बनती हों पर कट्टा जैसे खतरनाक चीजें बनाने का कुटीर उद्योग खूब पनप गया है । यही नहीं कट्टा उत्पादन में हमारे यहाँ कितनी सरलता, कैसी कलाकारी, कितनी दूर दर्शिता और कितनी विविधता आ गई है कि दिल वाह-वाह करने लगता है ।
उधर दोनों प्रत्याशी आपस में भिड़ रहे थे,और इधर दोनों अफसर भीतर बैठे थर-थर कांप रहे थे । दिन में सुरक्षा संबंधी बंदोबस्त की बैठक में पेश किये गये डी.एम. और एस.पी. के सारे बन्दोबस्त और सारे तथ्य उन्हें मिथ्या लगने लगे थे, जब चुनाव कार्यालय का ये नजारा है-तो बूथ्स पर क्या होगा ? कुछ देर बाद कलेक्टर और एस.पी. अपने दलबल के साथ वहां आये तो दोनों पक्ष अलग अलग-अलग हुये, फिर किसी तरह से दोनों अफसर वहां से सर्किट हाउस ले जाये गये । कुछ ही देर में सारी कलेक्टोरेट पुलिस छावनी में तब्दील हो चुकी थी ।
पंछीराम ने वहां से स्टार्ट होती एक जीप में छलांग लगा दी और उसमें लद कर वह भी सर्किट हाउस की ओर भाग निकला था । नायब साब का कहीं कोई पता नहीं था ।
उसी शाम अंधेरा होते-होते उनकी कार पर्यटन स्थल पहुंच गई । पता नहीं खुर्राट साहब के पास कितनी बंधनी बंधी थी कि एक बहुत उम्दा होटल में कोहली साहब को ठहराया गया, और वो लॉज भी सस्ता नहीं था, जिसमें एक्साइज इंसपेक्टर, पंछीराम और खुर्राट साब ठहरे थे । पंछीराम को अपनी जैसी कई टीम दिखीं वहां, तो उसने उत्सुकतापूर्वक पता लगाया । पता चला कि आस पास के तमाम चुनाव क्षेत्रों के निगरानी अफसर इन दिनों यहीं आराम फरमा रहे हैं ,सो कई बारातें ठहरी हैं यहां के जनवासों में।
सुबह वे लोग जब मंदिर देखने निकले तो कोहली साहब के साथ थे ।
मंदिर में घुसने के पहले दीवारों पर बनी हजारों पत्थर की मूर्तियां दिखीं। मूर्तियां तो सदैव भगवान की बनती हैं सो पंछीराम ने बड़ी श्रद्धा से उनके भी हाथ जोड़े और दर्शन की लालसा से उन पर नजर डाली तो पानी-पानी हो गया । ऐसी मूर्तियां ! उफ्फो, भीतर भगवान और बाहर च्चचच । फिल्म और टीवी पर जरा सा अंग उघरता देख के समाज के लोग इतनी हाय तौबा मचाते हैं, और यहां तो अंग ही अंग थे, कपड़ा थे ही नहीं । बापरे ! घर के अंधियारे में होने वाले पति-पत्नी के बीच के सारे काम यहां तो बड़े ऐलानिया ढंग से मूर्ति बनाकर खडे क़रे गये थे कै ऐसे करो लला सिग काम, और यहां तो एक एक औरत ,कित्ते कित्ते आदमी!
अधेड़ कोहली साब अपना चश्मा साफ कर करके मूर्तियों को कामुक नजरों से घूर रहा था लेकिन पंछीराम वहां से तुरंत ही भाग निकला । वह अपने लॉज में लौट आया और उसका माथा जोर से खदबदा उठा था । आंख मूंदता तो बार-बार उन हंसती खिलखिलाती नौजवान औरतों के पुष्ट स्तन और नंगे शरीर दिखने लगते जो पत्थर की मूरत बनी इन मंदिरों की बाहरी दीवारों पर किलक रही थीं । उन्हें देखके कोहली साहब गदगद भाव से खुर्राट साहब से कह रहे थे - ''ओ माई गॉड, एक्सीलेंट मोनुमेंट्स'' । देखा तुमने यह है आर्ट, आजकल के मूर्तिकार कहां बना पायेंगे ऐसी मूर्तियां ?''
वे मन ही मन कुछ और बुदबुदाते रहे थे, फिर बोले थे - इन मूर्तियों का एलबम मिलता होगा यहाँ, ! तुम तलाश करो । बेसिकली आइ एम एकेडमिक परसन । तुम ऐसा करो कि कोई नर्तकी ढूंढो यहां । मैं चाहता हूँ कि इन मूर्तियों के सामने इसी एक्शन में खड़ा करके नर्तकी के कुछ फोटो ले लूं और यहां के शानदार स्मृति चिन्ह अपने साथ ले जाऊँ ।
शाम ढले उनके लॉज में जब खुर्राट साहब लौटे थे तो बेहद झुंझलाये हुये थे । आते ही बोले- साले इन अफसरों के लिये जाने क्या-क्या करना पड़ेगा हमें ।
रात शुरू हो रही थी और उनकी कार खुर्राट साहब के निर्देशन में पर्यटन बस्ती को बाहर निकल रही थी । पंद्रह-बीस किलोमीटर दूर एक गांव में जाकर वे लोग रूके । बस्ती से बाहर एक उम्दा पक्का मकान था जिस पर एक बड़ा सा साइन बोर्ड टंगा था - '' नृत्य कला संरक्षण गृह '' ।
उस संस्था की मालकिन से खुर्राट साहब इतने सयानेपन से बतियाना शुरू हुये कि पंछीराम मुंह बायें देखता रह गया ।
दस मिनिट में ही दर्जन भर नौजवान लड़कियां उनके सामने खड़ी हो गईं थीं । नायब साहब ने छांट कर उनमें से तीखे नाक-नक्श वाली , एक गोरी सी, रूबी नामक लड़की को पसंद किया।
कुछ देर बाद वह लड़की उनके साथ कार में बैठकर होटल लौट रही थी ।
पंछीराम ने छिपी नजरों से रूबी को ताका जो इस वक्त किसी कॉलेज में पढ़ने वाली शहराती युवती सी लग रही थी । उसने आसमानी रंग का चुस्त चूड़ीदार पैजामा और कूल्हे के ऊपर से खुल-खुल जाता लम्बा सा कुर्ता पहन रखा था । उसके कुर्ते का कपड़ा इतना पारदर्शी था कि भीतर पहनी गई ब्रेसरी का नंबर भी पढ़ सकता था पंछीराम । गले में लपेटे गये दुपट्टे का होना न होना बराबर था क्योंकि वह जिन अवयवों को छिपाने के लिये डाला गया था,वे तो वैसे ही कुर्ता फाड़कर बाहर आने को कसमसा रहे थे ।
कोहली साहब के पास एक दूसरे कमरे में रूबी की अटैची पहुंचा के पंछीराम बाहर निकल ही रहा था कि कोहली साहब ने उसे टोका - '' पंछीराम तुम आज मेरे दरवाजे के बाहर बैठना, स्पेशल ड्यूटी है तुम्हारी ।''
''जी हुजूर'' कहता पंछीराम वहां से बाहर निकल आया । उसे अब भी कोहली साहब का रागड़ समझ में नहीं आ रहा था ।
नायब साहब को नया हुकुम था कि वे दो कैमरों का इंतजाम करें - एक वीडियो कैमरा और दूसरा सादा स्टिल कैमरा । बेचारे खुर्राट साहब उसी तरह सिर झुकाये हर आज्ञा सिर माथे धर रहे थे । जैसे बेटी का बाप दूल्हे की सेवा में घूमता रहता है ।
रात के दस बजे होंगे जब नायब साहब ने कोहली साहब के कमरे में कैमरे पहुंचाये । फिर रूबी अपने कमरे से निकली और कोहली साब के कमरे में चली गयी । हुकम मिला तो पंछीराम ने रूबी का सूटकेश भी कोहली साब के पास पहुंचा दिया । कुछ देर बाद खुर्राट साहब बाहर आये तो उनके हाथों में कागजों का एक पुलिंदा था । पंछीराम के पास आकर वे बोले - ''जि हैं हमाये इलाके की उम्दा निगरानी तहरीरें । बस अब अपुन को रोज एक तहरीर दिल्ली के काजे फैक्स कर देनो है । इनमें कोहली ने लिख दियो है के जि इलाके में सब अमन चैन है ।''
नायब साहब गये तो अधखुले दरवाजे से पंछीराम ने भीतर झांका । अब चम्पा सोफे की बैंच पर अधलेटी सी पड़ी थी और उसके पास उकड़ूं से बैठे कोहली जानबूझ कर उसके कुर्ते के बड़े गले से झांकती गोलाईयों को ताकने की कोशिश कर रहे थे । इस समय कोहली साहब ने आधी आस्तीन की पीली बनियान और घुटनों तक पसरी रंगबिरंगी बड़ी चड्डी डाट रखी थी । टेबिल पर बाज के आकार की एक बड़ी सी काली बोतल और कुछ खाली गिलास भी सजे धरे थे ।
यकायक पंछीराम को बड़ी तेज प्यास सी लगी, उसने गौर किया कि यह प्यास नहीं तलब है, शराब की तलब । ऐसे शाही सरकारी दौरों में वह प्राय: दो तीन गिलास दारू खींच लेता है और बिना डगमग हुये नशे का मजा लेता है । पर इस वक्त कहां धरा है ये मजा !
इस वक्त तो वह स्पेशल ड्यूटी पर है......। एकाएक उसकी बुद्धि ने उसे याद दिलाया ।
उसका मन हमेशा उल्टा सोचता है.........इस वक्त की ड्यूटी काहे की ड्यूटी है उसने खुद से प्रश्न किया - घंट पर मारी ऐसी ड्यूटी ।
होटल की गैलरी में सन्नाटा था । खाली बैठा पंछीराम बुरी तरह ऊब चुका था, वह कुछ क्षणों में उठना ही चाहता था कि एकाएक उसे कुछ खयाल आया तो उसने कोहली साहब के किवाड़ों में बने चाबी के छेद से आंख लगा दी ।
अंदर रूबी इस वक्त घाघरा चोली पहन कर अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन कर रही थी - नृत्यकला काहे की वह वैसी ही मुद्रा में फोटो खिंचा रही थी जो दिन में देखी मिथुन मूर्तियों में बनाई गयीं थीं । रूबी कभी दोनों हाथ पीछे कर अपने दोनों उरोज तान लेती और ऊपर देखने लगती तो बगल में बैठे कोहली साहब नीचे झुककर उसका फोटो लेने लगते । कभी वह अपनी अधनंगी पीठ कोहली साहब तरफ कर खड़ी हो जाती और मुड़ के उन्हें देखने लगती - कुछ इस तरह कि तेरे जैसे लल्लू पंजू मैंने बहुत देखे हैं, तू क्या बिगाड़ पायेगा मेरा ।
उधर कोहली गिलास पर गिलास दारू पिये जा रहा था और रूबी के पैरों में गिर गिर जा रहा था ।
पंछीराम को इस बात से बड़ा सुख मिल रहा था कि तीन दिन से कटखने कुत्ते की तरह उन्हें डपटने वाला कोहली इस वक्त खुद किसी पालतू कुत्ते सा व्यवहार कर रहा है । इसके लिये उसने मन ही मन रूबी को खूब सा धन्यवाद दिया ।
कोहली साहब को जाने क्या सूझी वे रूबी से चिरौरी करने लगे कि वह कुछ और कपड़े उतार दे । पंछीराम की नजर इस वक्त रूबी के चेहरे पर थी । जो अपने होंठ तिरछे कर के विंहस रही थी - शायद मरदों की जल्दबाजी का उसे अच्छा ज्ञान था, इसलिये लग रहा था कि वह कोहली साहब के बावलेपन का मजा ले रही थी ।
केवल दो कपड़ों में कैद उसका मांसल बदन अब किरणें सी छोड़ रहा था, जिसे देख कोहली फोटो खींचना भूल कर तिरछी खड़ी रूबी के चिकने बदन पर अपनी मोटी हथेली फेर रहा था । उधर बंदर को नचाते मदारी की तरह रूबी सिर्फ उसकी हरकतें देख रही थी । उसकी आंखों में जाने कितने भाव थे - विजेता सा, स्वामित्व सा और कुछ-कुछ कोहली जैसे अधबूढ़े कामुक व्यक्ति के प्रति दयार्द्रता का ।
एकाएक कोहली ने रूबी को जकड़ लिया और उसे नीचे फर्श पर गिरा लिया । आगे का दृश्य चाबी के छेद से दिखना संभव न था सो सब कुछ गंवाने के भाव से पंछीराम दरवाजे से हटा और अपने स्टूल पर आ बैठा । वह मन ही मन कल्पना कर रहा था कि अब क्या हो रहा होगा । जाने क्यों उसे बार-बार विश्वास हो रहा था कि कोहली साहब शुरूआत करने के पहले ही अंटागफील हो गये होंगे ।
रात बारह बजे पंछीराम अपने लॉज लौटने लगा तब कमरे के अंदर से कोहली साहब के भद्दे से खर्राटे गूंज रहे थे और चाबी के छेद से रूबी कहीं नजर नहीं आ रही थी ।
अगले दिन सुबह रूबी नये फैशन के स्कर्ट टॉप में कमरे से निकल कर कोहली साहब के साथ मूर्ति वाले मंदिर में चली गई थी । खुर्राट साहब को कैमरे पहुंचाने का आदेश देकर कोहली ने पंछीराम को शाम समय इसी होटल में आने को कहा था । वे रूबी के साथ अपनी बेडौल सी तोंद उचकाते चले गये थे और इस बेतुकी जोड़ी पर पंछीराम को खूब हंसी आई थी । बाद के तीन-चार दिन पंछीराम ने मजे मारे, न कोई काम, न धन्धा । वह डट के खाता और सो जाता ।
वही शताब्दी एक्सप्रेस थी, वही स्टेशन ! पर इस बार नजारा बदला हुआ था । ट्रेन में बैठता अफसर चुप-चुप तो था, पर कड़क मिजाज न था । ट्रेन में चलते समय कोहली साहब अफसर ने खुर्राट साहब और पंछीराम से बाकायदा हाथ मिला कर थैंक्यू कहा ।
पंछीराम चकित था । एक आदमी में इतना परिवर्तन ! गजब है ! वह देर तक अपना हाथ सहलाता रहा, ताकि यह अहसास बना रहे कि सचमुच कोहली साहब ने उससे हाथ मिलाया था ।
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रचनाकार परिचय-
राजनारायण बोहरे
जन्म
बीस सितम्बर उनसठ को अशोकनगर मध्यप्रदेश में
शिक्षा
हिन्दी साहित्य में एम. ए. और विधि तथा पत्रकारिता
में स्नातक
प्रकाशन
' इज्ज़त-आबरू ' एवं ' गोस्टा तथा अन्य कहानियां'
दो कहानी संग्रह और किशोरों के लिए दो उपन्यास
पुरस्कार
अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता 96 में पच्चीस हजार रूपए
के हिन्दी में एक कहानी पर अब तक के सबसे बड़े पुरस्कार से
पुरस्कृत
सम्पर्क
एल आय जी 19 , हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी दतिया-475661
फोन - 07522-506304