Tuesday, December 16, 2008

हार का हार किसके गले में

ज़माने की दोपहर हो चली थी और हमारी सुबह। अख़बारों का जायजा लिया जा चुका था। चाय का दौर चल रहा था। अचानक गेट का दरवाजा खुला और चाचा हंगामी लाल दनदनाते हुए घुसे चले आए। उनका चेहरा थोड़ा तमतमाया सा लग रहा था. मैंने कहा, चचा क्या बात है, काहे गर्म हुए जा रहे हो।
अरे यार क्या बताये हम हार ले कर घूम रहे हैं पर कोई मिल ही नही रहा जिसको पहनाएं।
हमने कहा ये क्या बात हुई चच्चा, ऐसे कोई क्यो पहनेगा और फ़िर ये तो बताओ की ये हार है किसका, किस लिए पहनाना चाहते हो ?
अरे ये भी कोई बात हुई भला। हार तो हार है, फ़िर भी जानने को इतना ही बेताब हो तो सुनो की ये है हार का हार । भगवा वालों की सूबे में हार हुई है सो उनके ही नाप का लाया था। खास भगवा फूल भी गुथवाए थे । पर ये तो हद ही हो गई माला पहनने के आदी गले अब इधर का रुख ही नहीं कर रहे। बात में मुझे भी दम लगा। अब हार आ गया है तो पहनाया ही जाएगा। पर चच्चा को इसे लाने की क्या सूझी!
क्या चाचा तुम काहे लाये ?
हम थोड़े ही लाने वाले थे , वो तो सूबे के भगवा अध्यक्ष जी खुद ही बोले । हम हार का विश्लेषण किया हूँ । हमें ही हार पहनाये जायें। पद मुक्त समझा जाए। सो ले आए हम ये हार और लगे पहनाने। पर अब उनके सिपहसलार कहते है, अरे हार उन्हें नही महारानी को पहनाओ आख़िर ज़ंग के सारे सैनिक तो उन्ही के थे। हम कहे वो तो ठीक है भइया फ़िर ये पद मुक्ति का राग क्यों ? वो बोले ऐसा ही होता है। यही दस्तूर है।
उनके दस्तूर के चक्कर में पैसे हमारे ठुक गए। सोचा चलो जिसके सैनिक लड़े उन की देहरी पर सजदा कर उन्हें हार पहनाये। पर वहां गए तो पता चला की वे खुद किसी और ही हार की तलाश में दिल्ली के मंदिरों में धोक लगा रही हैं । और तो और उनके भी दरबारी कम नही थे हाथ में हार देखते ही सारा माजरा समझ गए , तुंरत कह उठे देखो भाई, महारानी जी ने तो पहले ही कह दिया था की सैनिक तो मैदान में लड़ रहे हैं पर सेनाओ का प्रबंध ठीक नही हुआ तो आपकी आप जानो । वोही हुआ महारानी के चुने सनिक तो मैदान जीत गए। हारने वाले क्यों हारे , किसने किसको हराया ? आप ख़ुद ही देख लो। रही बात जिम्मेदारी की तो वो अभी भी हार पहनने के ही चक्कर में डेरा डाले हुए है। सो जो ख़ुद ही हार पहनने की कतार में हो वो पराजय की जिम्मेदारी का हार क्या पहनेगा । सो हम वंहा से भी निकल लिए । कुछ आगे ही गए थे की रास्ते में कुछ लोग मिल गए कहने लगे भाई माला लाये हो तो वापस मत ले जाओ कुछ लोग हैं जो सबका दुःख दर्द बांटते हैं स्वयम आगे बढ़ कर सेवा करते हैं । इस बार भी उन्होंने खूब सेवा की है , उन्हें ही जाकर उनके भवन में ये हार पहना दो । हम वंहा चले गए । लेकिन उनका तो तर्क ही जोरदार था, कहने लगे चचा ये जो राजनीति है , इस से हमारा कोई लेना देना नहीं है । हम तो केवल संगठन और सेवा का काम करते है। माला - वाला से भी हमें कोई मतलब नही है। सो आपकी माला आप ही जानो। तो भतीजे अब ये रही माला तुम ही बताओ इसका क्या करूं....?
कुछ देर सोचने के बाद मैने कहा, चचा एक बात बताओ ये हराने- जिताने का काम कौन करता है ...?
जनता .. न....?
हां,, !
.....और तुम भी तो जनता हो, सो ऐसा करो की ये हार का हार तुम ही पहनो। जीत का हार पहनने वाले तो बहुत मिल जायेंगे पर हार का हार तो जनता को ही पहनना होगा।

होम लोन- मन्दी की अनोखी मंडी

लीजिये जनाब एक बार फ़िर से होम लोन की मण्डी सज गई है। प्रोपर्टी बाज़ार के सूरमाओं की बांछे खिल गई हैं। , हमारा इतना कहना था की चाचा हंगामी लाल एकदम से बिगड़ पड़े, कहने लगे तुम को तो हर बात मैं राजनीति ही दिखाई पड़ती हैं। अब यदि कर्जा सस्ता हुआ हैं, गरीब को घर मिल रहा हैं, तो तुम्हारे पेट में क्यों बल पड़ रहे हैं, काहे इसे मण्डी कह रहे हो?
हम कहे चाचा , बात ग़रीब या अमीर की नही हैं, सरकार की भी नही हैं, है तो बस प्रोपर्टी बाज़ार के मदारियों की हैं, उनकी डुगडुगी बजेगी और नौकरीपेशा गरीब मारा जाएगा, बैंक वाले मिल कर ताली बजायेंगे।
पाँच साल पहले भी ऐसी ही मण्डी सजी थी, खूब कर्जा सस्ता हुआ था। चौदह से सात फीसदी तक गिर गया था, हर कोई खोमचा लगाये आवाज लगा रहा था मकान ले लो, मकान लेलो और अपने पीछे एक रहाडी पर कर्ज बांटने वाले बैंक के मेनेजर को बिठाये हुए हाथों हाथ नए मकान को गिरवी रखवाने का पूरा प्रबंध किए रहता था। तब लोंगो ने खूब जम के मकान खरीदे । मकान थे की कम नही पड़ते थे बस दाम जरा बढ़ जाते तो बैंक वाले लोन अमाउंट बढ़ा देते और कहते की ई ऍम आई में कुछ सौ रुपये बढ़ जायेंगे बस। सो लोग लगे बड़े और ऊंचे, बढ़िया मकान खरीदने। बेचने वाले तो बेच गए। उल्टा सीधा सब ठेल गए। कुछ खुद रखा कुछ अपने राजनेतिक आकाओं को खिला गए और पार्टी में बढ़िया ओहदा पा गए । पीछे बच गए किराये की रकम में अपने घर का सपना साकार करने वाले लेनदार और उम्रभर किराये के रूप में सूद पाने वाले देनदार।
इतनी बात सुन चाचा से रहा नही गया फ़िर लपक कर बोले देखो ये किरायेदार पुराण हमें मत सुनाओ , मुझे तो बस इतना बताओ की इस सबसे तुम्हारे पेट में क्यों दर्द उठ रहा हैं?
चाचा पहले पूरी बात सुनो, फ़िर कुछ कहना , चलो एक बात बताओ, तुम अभी किराए के मकान में रहते हो?
हाँ।
कितना किराया देते हो?
दो हजार
मान लो तुम्हारा मकान मालिक किराया बढ़ा दे तो ? तीन हज़ार कर दे तो?
में तो मकान बदल लूँगा। तीन हज़ार कोई मेरे जैसा आदमी दे सकता हैं, बच्चों की फीस कंहासे लाऊँगा?ना बाबा न मकान बदलना ही भला।
सही कह रहे हो चाचा तुम तो मकान बदल लोगे पर ये बैंक के किरायेदार और अपन घर के मालिक तो मकान भी नही बदल सकते। समझे ?
सही कह रहे हो। पर फिर भी?
क्या फिर भी? ये बैंक वाले जब चाहे तब कोई न कोई बहाना बना कर ब्याज बढ़ा देते हैं। अब ये जो नया पासा फेंका हैं, सरकार के दबाव में तो इससे पुराने कर्जदारों को तो कुछ मिलना नही हैं, इन्हे लूटने के लिए नए कर्जदार और मिल जायेंगे । मंदी के नाम पर मण्डी का खेल हो रहा हैं। बैंक और बिल्डर चोक छक्के मारेंगे और हम तुम बाउंड्री लाइन के बाहर से बोल ला ला कर देंगे ।
अब के चचा बोले, बात तो तुम्हारी दमदार हैं भतीजे, लेकिन इंसान बेचारा क्या करे सपनो को हकीक़त में बदलते हुए ठगा रह जाना उसका मुकद्दर हैं।

Tuesday, December 2, 2008

शोर थमा अब जोर से चुनो

लो थम गया चुनाव का शोर। भाषण का जोर। भाषाओँ का सभ्य असभ्य आक्रमण । विकास से भ्रष्टाचार तक पाँव रखने और हाथ थामने का दौर। जादू के जोर से वोट की बोट तैराने का करिश्मा । नेताओ की फौज और कार्यकर्ताओं का टोटा । बगावत के सुर और मान मनोवल के बोल। पुराणी पंगत और पुराने ही जीमनखोर। अख़बारों की कतरन और नारों की खबरें। सामंतवाद और आतंकवाद का राग। राम और रहीम की दुहाई। गरीब की जोरू सबकी भोजाई । यानी चुनाव प्रचार के इन दिनों में वो सब था जो आम चुनाव में होता है, बस नही था तो लोगों में जोश नही था। प्रचार थम गया जो कभी परवान ही नही चढा था। अशोक के पराक्रम से वसुंधरा के शौर्य तक । इन चुनावों में कुछ भी नया नही था। कोई मुद्दा नही था। कोई लहर नही थी। है तो बस वोट डालने की मजबूरी । हिन्दुस्तानी होने के नाते वोट डालना है ये जरूरी है ,, पर किसे और क्यों डालें इसका कोई जवाब नही है। सो रस्म अदायगी के इस फेर में किसी न किसी की लोटरी खुलेगी । कोई जीतेगा कोई हारेगा । सब किस्मत होगा । जो जीतेगा वो बोलेगा में इसलिए जीता वो इसलिए हारा ,,,, पर हकीक़त तो इतनी ही है की सब किस्मत है ॥ जो जीतेगा वोही जीतेगा । दोनों ही दलों की सत्ता संगठन को मानाने से इंकार कराती है और संघठन है की अपनी चाल से चलता है। तो मानिये की देश के भाग की तरह हमरे राज के भाग भी किस को रजा और किस को रंक बनते है इसके बटन भले ही परसों दबंगेपर कोई इस मुगालते मैं नही रहे की उसका बटन कोई फ़ैसला करेगा। हम तो नही कर रहे पर आप भी मत नही करना।