Tuesday, June 3, 2008

होई है सोई जो राम रचि राखा.....

आप सुबह सवेरे टीवी खोलिए खबरों के लिए और खबरें तो नहीं पर हां कैसा बितेगा आपका दिन और आपकी राशि का ग्रह उस दिन किस तरह और कैसे किसे निहाल करेगा इनका हाल पाइए। अब कोई भारत को जादू टोने का देश कहे तो क्या गलत कहता है। जब यहां का इलेक्ट्रोनिक मीडिया, कहा जाता है देश की तरक्की का परिचायक भी यही है, हर सुबह औऱ देर रात जब जी चाहे तब किसी न किसी बहाने से ग्रहों की चाल और मंत्रों के जाप से होनी को टालने औऱ आपके पक्ष में बनाने के उपाय सुझाता रहे तो इसका मतलब देश के बहुसंख्यक लोग यही सब जानना देखना चाहते होंगे। बिचारे संपादक भी क्या करें जब टीआरपी का जिन्न यही संकेत देता है कि लोग इन ग्रह चक्कर में ही फंसे रहना चाहते तो यह सब दिखाने में उनका क्या दोष। आखिर हर न्यूज रूम का सबसे फेवरेट जुमला भी यही है कि लिखो वही (दिखाओ वही) जो सोसायटी में हो रहा हो। यानी मीडिया है सोसायटी मिरर सो यदि सोसायटी ही जादू टोने में विश्वास रखती है तो टीवी न्यूज चैनल्स का क्यों दोष दिया जाए। लेकिन अब सवाल कुछ और है, और जो है वह पहले से कहीं ज्यादा चिन्तित कर देता है। क्या वाकई आम हिन्दुस्तानी को ग्रहों की चाल पर इतना भरोसा है कि हर समय इसी सबके बारे में जानना चाहता है। क्या हमारी सारी एजुकेटेडनेस इन ग्रहों घरों में टेढ़ी तिरछी नजरों और अन्तरदशा महादशा में उलझ कर रह गई है। कुछ तर्क देते हैं कि दरअसल ज्योतिष भी एक विग्यान है और इसके आधार पर प्रीडिक्शन सही होते हैं, इसलिए इसे कोरा अंधविश्वास नहीं मानना चाहिए। वे सही होंगे इसमें मेरा कोई तर्क कुतर्क नहीं है, लेकिन सवाल है कि क्यों हर कोई भविष्य जानना औऱ उसे सुरक्षित करना चाहता है। शायद यही मानवीय स्वभाव है। लेकिन जो भी हो यह सच कि हम इतने भाग्यवादी औऱ भाग्यभीरू हैं हमारे कर्मवाद को कहीं दरका रहा है। ऐसा नहीं है कि यह भाग्यवादिता केवल कम पढ़े या अनिश्चित भविष्य का जीवन जीने वालों में ही है, कई लोग जो जबरदस्त प्रोफेशनल हैं, अनिश्चितताओं के चक्र से दूर दिखाई देते हैं वे भी कई परिचितों को हाथ दिखाते उनकी सलाह पर रत्न पहनते देखे हैं। सो क्या कहते हैं,, क्या हम शुरु से ही ऐसे थे या अब ऐसे हो रहे हैं? खैर हमें तो रामायण की एक चौपाई याद आ रही है जौ हम अक्सर अपने ऑफिस में भी ठेल देते हैं ... होई है सोई जो राम रचि राखा..... यानी कहीं न कहीं हम भी हैं तो भाग्यवादी ही...

Monday, June 2, 2008

पेट्रोल का स्टेटस स्टेटमेंट, तेरा क्या होगा रे....

आज हमारा एक मित्र घर आने वाला है, पत्नी- बच्चे सभी घबराए हुए, थोड़े सहमे हुए से लग रहे हैं, सहमे हुए तो हम भी हैं लेकिन ऊपर से चेहरे पर दिखाने भर के लिए ही थोड़ी बहादुरी से कह रहे हैं, अरे तो क्या हो गया जो पेट्रोल वाली गाड़ी से आ रहा है, अभी कल तक तो हम सभी एक बराबर ही थे। अब उसकी हैसियत थोड़ी ज्यादा हो गई है, पेट्रोल से चलने वाली गाड़ी मेंटेन कर रहा है तो क्या, है तो अपना यार ही। कहने को तो हम कह गए लेकिन घर के बरामदे में बिना पेट्रोल के खड़ी अपनी कार देख कर एक बार फिर हौले से दिल कांप गया। घर आने वाले मेहमान की हमारी दोस्ती जबरदस्त घुटती थी, पहले हम अक्सर कभी उनकी या कभी अपनी कार में कहीं कहीं घूमने आया जाया करते थे। लेकिन जब से पेट्रोल के दाम ने चक्रवृद्धिब्याज दर से और इंक्रीमेंट ने सरल ब्याज दर से बढ़ने का रुख किया है, गाड़ी में पेट्रोल भरवाना जरा हमारे बूते से बाहर की बात हो गई है। जब बढ़ते दामों की खबरें आने लगी थीं तभी हम भांप गए थे कि देर सवेर अपन इस लग्जरी से वंचित हो जाने वाले हैं सो अपन ने बंद मुट्ठी लाख वाली तर्ज पर पहले ही दफ्तर में अपने बेडौल होते शरीर और निकलती तौंद पर चिन्ता जाहिर करनी शुरु कर दी थी, जैसे ही दाम बढ़ने की खबरें पुख्ता हुई अपने राम एक साइकिल खरीद लाए। सबको पहले ही कह दिया था कि भाई मामला हैल्थ का है, सो स्टेटस भी बना रह गया और पेट्रोल से बजट पर पड़ने वाली मार से भी बच गए। लेकिन अब संकट दूसरा हो गया था, हमारे कुछ मित्र जिनकी आय अच्छी थी और अब भी पेट्रोल चलित वाहन अफोर्ड कर सकते थे, उनसे हमारा वर्ग भेद हो गया था। अरे क्लास डिफरेन्स, हम या मित्र तो जाहिर नहीं करते थे, पर श्रीमती जी अक्सर कह देती थीं कि फलाने की वाइफ कह रही थीं कि वे लोग कल लोंग ड्राइव पर गए थे। हमारी ऐसी किस्मत कहां? हम जैसे तैसे उन्हें सोने की साइकिल चांदी की सीट आओ चले डार्लिंग डबल सीट सुना कर बहला देते थे। संकट की इंतहा तब होती थी जब कोई मित्र अपने पेट्रोल वाहन चला पाने की हैसियत दिखाने पेट्रोल चलित वाहन पर को घर के दरवाजे पर ला खड़ा करता। तब हम कभी उनकी पेट्रोल से चल रही कार को देखते कभी अपनी बिना पेट्रोल के यूं ही खड़ी कार को देखते। कोई न कोई बहाना बना मामला रफा दफा करते। पर आज मामला कुछ ज्यादा ही गम्भीर होने वाला था, दोस्त की पत्नी हमारी पत्नी की कॉलेज की सहपाठी भी थीं, और उनसे छह माह पहले जब पत्नी की बात होती थी तब पेट्रोल कोई बड़ा संकट नहीं था, सो कार का खूब जिक्र हुआ था। अब वे अपनी कार से आएंगी और हमें कहीं साथ घूमने के लिए कह दिया तो हम अपनी कार कैसे चला पाएंगे। हमने उपाय भी ढ़ूंढ लिया था, पत्नी को कह दिया था कि उनके आते ही अपनी तबियत नासाज होने का बहाना कर लेना, कहीं जाने से बच जाएंगे। लेकिन कहते हैं न कि जिसका कोई नहीं होता उसका खुदा है यारों,,,,, तो भगवान ने हमारी ऐसी रखी कि बस पूछो मत। हुआ यूं कि वे लोग आए तो सही पर ऑटो से। ऑटो भी हमारे पास वाले बस स्टेण्ड का था यानि वे वहां तक बस से आए थे। आते ही कहने लगे, भई यहां की सड़कों पर बहुत ट्रैफिक है, और परकोटे में पार्किंग की प्रॉब्लम तो आप जानते ही हैं, जरा सिटी में शॉपिंग भी करनी थी सो सोचा की कार की जगह बस से ही चला जाए। इसलिए भई हम तो ऐसे ही चले आए। अब बारी हमारी थी, ज्यों ज्यों हमें लगने लगा कि पेट्रोल के सताए एक हम ही नहीं है दुनिया में... त्यों त्यों हमारी चेहरे की चमक बढ़ रही थी। श्रीमती भी स्टेटस कॉम्प्लेक्स से उबरने लगी थीं। हमने मन में जोर से कहा धन्न करतार तु ही सबका राखा, सबका तारनहार, अचानक देखा तो श्रीमती जी हमारी चद्दर खींच रही थीं और कह रही थीं, एक ऑफ का ही दिन तो मिलता है, उस दिन भी पूरी दोपहर सोने में गुजार देते हो,,, चलो कार निकालो घूमने चलना है,,, मैं उनींदा सा उनकी इस बात पर हंसता हूं अभी तो सपना था, पर सच होते कितने दिन लगेंगे,,,

Sunday, June 1, 2008

वॉलीबॉल के मैदान में, फुटबॉल.... लाइनमैन आउट

सूबा सुलग रहा है, लाशों की अर्थी सजी है और राजनीति की चिता में आम नागरिक का अमन स्वाहा हो रहा है। लोकप्रियता की वेदी पर निर्दोष लोगों की बलि तो चढ़ी ही एक काबिल अफसर को भी बड़े बेआबरू हो कर जाना पड़ा। फायरिंग की जवानों को बचाने के लिए और खुद पर ही बैकफायर हो गया। जैसे कप्तान साहब सब कुछ अपनी मर्जी से कर रहे हों, पूरे आंदोलन से खुद ही निपट रहे हों। किसी और का कोई आदेश नहीं, कोई निर्देश नहीं। सूबे का क्या देश भर का बच्चा बच्चा समझ सकता है कि आंदोलन से निपटने के कैसे औऱ कहां से क्या निर्देश मिल रहे हैं। जो खेल दो घंटे में, बड़ी हद कुछ और घंटों में काबू किया जा सके उसे अनावश्यक ढील दे कर लम्बा खींचा गया। कहा जा रहा है कि इलाके के अफसरों ने आंदोलनकारियों को पटरी तक पहुंचने ही क्यों दिया, बिचारे नासमझ थे, नहीं जानते थे कि कर्फ्यु, १४४ भी कुछ चीज होती है.....। उन्हें तो इस सबसे निपटने का कोई ट्रेनिंग नहीं मिला होगा न ........। सो वे भी गए। अब कप्तान साहब गए क्योंकि ये अपने जवानों पर फायरिंग न करने का दबाव बनाए नहीं रख सके। जवान अपनी जान संकट मे देख फायर कर बैठे, औऱ निशाना बन गए खुद उनके कप्तान। जवानों अबकि बार कोई ऐसा मौका आ जाए जब जान के लाले पड़ जाएं तो फायरिंग के भरोसे मत रहना, वर्ना इन कप्तान साहब से भी हाथ धो बैठोगे। बिचारे कप्तान साहब को फायरिंग के जिम्मेदार मानने वाले भी क्या करें......। उनकी मजबूरी है.....। सबको खुश जो रखना है...। अब या तो राज कर लो,,,, तंत्र चला लो,,,, नियम कायदों का पालन करवा लो या...... सबको संतुष्ट कर लो। लोकतंत्र में सबको राजी रखने पर ही तो राजे राज रहता है। पुराना समय तो है नहीं कि जो सही लगा किया,,,, अब तो सही वो होता है जो ज्यादा जनों को रास आए। सब जानते हैं,,, मांग ऐसी है जिसका कोई हल यहां नहीं है,,, कहीं नहीं है ऐसा नहीं है पर जहां है वहां कोई जाता नहीं,,,। जाए तो भी कुछ होगा इसका अंदाजा नहीं क्योंकि वहां का गणित एसा है कि सच का गणित बदल जाता है, ,,, जो यहां सच साबित करवाया जा सकता है उसकी वहां कोई सनद लेने वाला नहीं होगा। क्योंकि वहां देश का गणित होगा, गागर की बूंद वहां सरोवर में विलीन हो जाएगी। उनके लिए इस तरह के सच को मानना कोई मजबूरी नहीं होगा क्योंकि सिर गिनने की गणित में वहां सिर खोजे नहीं मिलेंगे। इसलिए सच की (हक की) लड़ाई लड़ने वालों ने फुटबॉल के खेल के लिए वॉलीबाल का मैदान चुना है। नेट के नीचे से ही बॉल लिए दौड़ रहे हैं, हर शॉट में दम है, मैदान के चारों और खड़े दर्शक बिचारे भुगत रहे हैं, हर बॉल उनके बदन से टकरा रही है, न रैफरी को चिन्ता है न खिलाड़ी को। रैफरी चाहे तो खिलाड़ियों को मैदान से बाहर कर सकता है। उसके पास यलो कार्ड है। दिखा सकता है। चाहे तो कुछ खिलाड़ियों को जबरन मैदान से हटा भी सकता है,लेकिन इस सबमें खिलाड़ी उससे नाराज हो सकते हैं, अगली बार उसे रैफरी बनाने से इन्कार कर सकते हैं। रैफरी बिचारा फंस गया है। खिलाड़ियों को खेलने दे तो दर्शक परेशान, न खेलने दो अगली बार रैफरी बनने का संकट, इसलिए कीसी को नाराज नहीं करने का फॉर्मूला निकाला है, लाइनमैन को ही बाहर कर दो... । एक दो तीन जितने चाहिए उतने बदल देंगे। आखिर कोई नाराज तो नहीं होगा। पर खेल जरा लम्बा ही चल गया है,,, मौका रैफरी के विरोधियों को भी मिल गया है, उन्होंने बोर्ड में आवाज उठा दी है, रैफरी उस ऊंची कुर्सी के लायक नहीं, सही समय पर सिटी तक नहीं बजा पाया। दर्शक मैदान छोड़ देंगे। अगला टूर्नामेंट फ्लॉप हो जाएगा। एक भी टिकट नहीं बिकेगी। रैफरी गिल्ड का अध्यक्ष जो कई सालों से चीफ रैफरी बनने का सपना पाले है, इस खेल से बहुत प्रेम करता है, खेल के लिए घर-बार तक छोड़ चुका है। दबे- छुपे इस मामले को हवा दे सकता है, शायद बात बन जाए, अगले टूर्नामेंट में चीफ रैफरी का दावेदार ही हो जाए.... तो वाकई खेल लम्बा हो गया है....। मामला केवल स्थान सुरक्षित करने तक ही नहीं बचा है अब तो सबकुछ शतरंज हो गया है। किसकी बिसात पर कौन प्यादा बन गया है कुछ नहीं पता। पर हां, इतना जरूर है यह सारा संकट एक कड़ाई से दूर हो सकता था। बॉलीवाल के मैदान में किसी को फुटबॉल नहीं खेलने देना चाहिए था। अब जब खेलने का मौका दे ही दिया है तो भुगतो,,,,। रखो सबको खुश.... शायद एक कड़े नियम की पालना करवाने पर तो राजधर्म निभाने की छूट भी मिलती पर अब तो राजधर्म नहीं यह तो लोकप्रियधर्म के चक्कर में अलोकप्रियकर्म हो गया है....।