Sunday, November 27, 2011

शहर, शहरी और सरकार

पिछले करीब दस साल से इस गुलाबी नगर कहलाने वाले शहर में अपना ठिकाना है।
अब तो इस शहर से बेइंतहा प्यार हो गया है। इतिहास और अखबार इसे लगातार
सुनियोजित नगर नियोजन की परम्परा वाला बताते रहे हों पर हमें तो ये
परम्पराएं परकोटे की गुलाबी दीवारों से आगे कहीं नजर नहीं आईं। पर इतना
ही दिल को सूकून देने के लिए बहुत है। आखिर यहां कुछ तो गुलाबी रंग मौजू
है वरना जमाने की गुलाबियत तो कालिख में बदल गई है। दो साल पहले शहर में
बहुत शोर हुआ था। सबने कहा था इतिहास बदलने वाला है। शहर ने अपना रहनुमा
खुद चुना है। पूरे शहर ने मिलकर एक के हाथ में कमान सौंप दी है। लॉटरी से
यह तय हो गया था कि वो कोई महिला ही होगी। वैसे चाहे महिला हो या पुरुष
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बड़ी उम्मीदों से कुछ बदलने के अरमान हर शहरी
ने सजाए थे। हम भी उन्हीं में से थे। लेकिन बदला जरूर और वो भी एक बार
नहीं पांच बार पर वो था शहरी सरकार की नौकरशाही का मुखिया। जिस बादशाह को
वजीरों से काम लेना था वह अपने ही वजीरों से उलझ पड़ा। रही सही कसर बोर्ड
में कांग्रेस और भाजपा के संख्याबल ने पूरी कर दी। मानो पार्षद चुने जाना
उनके लिए कुछ मायने ही नहीं रखता। इससे ज्यादा वे कांग्रेस और भाजपा के
सिपाही हो गए। जिस अमले को शहर का ख्याल करना था वो आपस में ही ऐसा उलझा
का पूरा शहर इस सरकार के सर्कस को दम साधे देखता रहा। शहरवासियों के लिए
इससे बड़ी पीड़ा क्या हो सकती थी कि उनके रखरखाव के इंतजामों की चिता पर
ही यह पूरा खेल हो रहा है। दो साल में शहर के लिए कुछ भी तो ऐसा नहीं हुआ
जिसे लेकर इनकी कुछ प्रशंसा की जाए। कुछ भी तो नहीं है दो साल की
उपलब्धि। एक भी नवाचार नहीं। जरा भी पहल नहीं। शहर सड़ रहा है। सड़कें
टूटी हैं। बाजारों में धक्कमपेल है। गलियों, कॉलोनियों में अतिक्रमण हैं।
परकोटे के मकानों में बने अवैध गोदाम लोगों की जान को जोखिम में डाले हुए
हैं। पार्किंग की कमी से लगते जाम अनमोल समय को कुंभकर्णी भूख के समान पी
रहे हैं। क्या इसी लिए चुना था इन्हें। साधारण सभा की बैठकों में
विधानसभा जैसे नजारे हो गए। क्या क्या नहीं हुआ। धक्का मुक्की में महिला
पार्षद की साड़ी तक फट गई। यह वक्त की खासियत है कि वह किसी का इन्तजार
नहीं करता। दो साल गुजर गए, तीन भी गुजर जाएंगे। यह इस शहर की तासीर है
कि यह अपना अंदाज और बदनुमा नहीं होने देता। आप चाहे इसकी सुध लो या
नहीं। यह अपनी गति से आप ही अपना शोधन करता चलता है। पर हां वो पर्याप्त
है या नहीं यह दूसरी बात है। यदि इस शहरी सरकार के नुमाइंदों ने अब भी
अपने रंग ढंग नहीं सुधारे और शहर की सुध नहीं ली तो और कुछ हो या नहीं हो
एक अभिनव प्रयोग जिससे हम लोकतांत्रिक सुधारों की ओर बढ़ रहे थे, पर जरूर
प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। जो लोग सक्षम होते हुए भी, इस निरंकुशता पर अंकुश
नहीं लगा रहे हैं, यदि वे यह सोचते हों कि उनकी या बड़ी सरकार की इस छोटी
सरकार ऐसे कामकाज की कोई जिम्मेदारी नहीं है तो इतिहास लिखेगा उनका भी
इतिहास जो तटस्थ रहे........।

Wednesday, November 23, 2011

प्रेस, कॉरपोरेट और काटजू

आम तौर पर लोगों को सुर्खियों में बनाए रखने वाला मीडिया इन दिनों खुद
सुर्खियों में है। वजह है प्रेस काउंसिल के नए मुखिया मार्कण्डेय काटजू
की ओर प्रेस के स्वेच्छाचार पर उठाई अंगुली। काटजू का इशारा खास तौर पर
इलेक्ट्रोनिक मीडिया की ओर है। प्रेस का दावा है कि वे स्वयं ही
स्वनियंत्रण की ओर बढ़ रहे हैं और उन्होंने आईबीए के बैनर तले इस तरह की
कवायद शुरू भी कर दी है। वे इसका उदाहरण भी देते हैं। लेकिन यह बहस नई
नहीं है और बहुत शिद्दत से महसूस की जा रही है। सबको अपने कर्तव्य का भान
करवाने वाला स्वयं क्यों निरंकुश हो जाए। जब हर कोई किसी न किसी नियामक
के अधीन है तो फिर प्रेस को भी नियामक के अधीन क्यों नहीं होना चाहिए।
खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। हम जब तब देखते रहते हैं तमाम तरह की
स्टोरियां महज सनसनी बनाने के लिए तरह तरह के साउण्ड और विजुअल इफेक्ट के
साथ पेश की जाती हैं। मीडिया में से इन्फोर्मेशन गायब हो गई है और
एंटरटेनमेंट बढ़ गया है। ऐसे में काटजू की शिकायत समीचीन पड़ती है क्यों
नहीं सबकी खबर रखने वाला मीडिया भी अपने किए कहे पर जवाबदेह रहे।

Tuesday, August 16, 2011

लोकतंत्र, भ्रष्टाचार का संरक्षक या उन्मूलक

पैंसठवा पड़ाव किसी भी जीवन में एक अहम पड़ाव होता है,सामान्यतौर पर यह जीवन पर पुनःदृष्टिपात कर जीवन में अर्जित अनुभव से समाज को लाभान्वित करने के क्रम में एक मील का पत्थर माना जाता है। स्वाधीन भारत ने भी कल इस पड़ाव में कदम रखा है,लेकिन जीवन की धारणाओं के विपरीत लोकतंत्र के जीवन में यह पड़ाव परिपक्वता की दृष्टि से अहम बनता जा रहा है। अन्ना हजारे जन लोकपाल बिल की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं। उनके प्रखर आंदोलन के तेज तले खुद को अंधकार में पा रही देश की सरकार को उन्हें संतुष्ट करने का उपाय नजर नहीं आ रहा है,नतीजतन एक बार फिर वह कांग्रेस की परिपाटियों के अनुसार दमन की नीति पर चल पड़ी है और उसने अन्ना व उसके सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया है। जब भारत की राष्ट्रपति भ्रष्टाचार को कैंसर बता चुकी हों और प्रधानमंत्री स्वंय लाल किल्रे की प्राचीर से यह स्वीकार चुके हों कि सरकारी योजनाओं का पैसा बाबुओं अधिकारियों की जेब में जा रहा है,सरकारी ठेके गलत लोगों को गलत तरीके से दिए जा रहे हैं तो ऐसे में भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने का उपाय लेकर जो भी जनता के सामने आएगा उसे जननेतृत्वकारी बनने से कोई नहीं रोक सकता। फिर चाहे वो अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव हों। इसमें कोई शक नहीं कि अन्ना की गिरफ्तारी देश में बड़ी उथल पुथल मचाएगी। सवाल उठता है इस उथलपुथल को न्यौतने जरूरत क्यों कर पड़ गई। जहां हम यह दावा करते हैं कि हमारी संसद जनमत की अभिव्यक्ति है और वहां पारित होने वाले कानून जनता की सार्वभौमिक स्वीकृति से पारित होते हैं तो फिर जो काम हमारे सांसदों को करना चाहिए वह करने की जरुरत किसी और को क्यों। क्यों हमारे संसद अपने उद्देश्यों में ही विफल हो रही है। मैं यहां अन्ना के जनलोकपाल के पक्ष या विपक्ष में अपनी बात नहीं रख रहा हूं, मैं जरा तंत्र की स्थिति पर बात कर रहा हूं, अन्ना अकेले नहीं हैं जो संसद पर एक बिल को हू बहू पारित करने का दबाव बना रहे हैं, अन्ना के अलावा एक और समूह भी है जिसे लगता है कि वो भी देश को कानूनों का मसौदा दे सकता है, और वह समूह है एनएसी के प्रगतिशील विचारक।जो मनमाने तरीके मनमानी व्याख्याओं के साथ नए मसविदे प्रस्तुत कर रहे हैं। जहां एक ओर अन्ना के साथ जनबल की ताकत है, वहीं दूसरी ओर एनएसी के साथ सत्ता बल की ताकत है। पर सवाल यह है कि अन्ना और एनएसी को यह आवश्यकता क्यों पड़ रही है है जो काम सांसदों का है जिसे सदन के अन्दर होना चाहिए वह सदन के बाहर करें।
असल में हमारी व्यवस्था में सबसे बड़ी खामी है सांसद का अपनी पार्टीलाइन में बंधे रहने की अनिवार्यता, इसी वजह से अपने क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद निर्वाचित सांसद को सदन में वही कहना और करना होता है जो उसकी पार्टी के चंद हुक्मरान तय करते हैं, और सीधे तौर पर इसमें कहीं भी जनमत नहीं होता बल्कि यह तो चंदमत होता है, पर व्यवस्था ऐसी है कि हम इसी चंदमत को जनमत मानने पर विवश हैं। इसी वजह से अन्ना के प्रस्ताव के समर्थन में इतनी जनअभिव्यक्ति होने के बावजूद जनलोकपाल संसद का मुंह देख पाने से वंचित है जबकि वहीं दूसरी और चंदमत के आशीर्वाद के चलते एनएसी की ओर से प्रस्तावित लक्षित हिंसा के नाम पर बनाए जाने वाले मसौदे को सरकार कानूनी जामा पहनाने की पूरी तैयारी में है।
कांग्रेस अन्ना को चुनौती देती है कि वे कहीं से चुनाव लड़कर आएं। हमारी व्यवस्था में यदि अन्ना चुनकर आ भी गए तो क्या कर लेंगे।संसद में एक निर्दलीय सांसद की क्या हैसियत होती है,,,। यदि कोई व्यक्तिगत बिल ले भी आया गया तो पार्टी व्हिप जारी कर उस बिल के परखच्चे उड़ा दिए जाएंगे। क्या कांग्रेस यही चुनौती एनएसी के उन विचारकों को भी दे सकती है जो कि कांग्रेस के शब्दों में कानून बनाने का शौक रखते हैं,,,।
बहरहाल अन्ना गिरफ्तार हो चुके हैं, जनमानस अवाक है,, देखें वक्त किस करवट लेता है.....पर एक बात तय है कि यह मुद्दा तय कर देगा कि लोकतंत्र,भ्रष्टाचार का संरक्षक है या उन्मूलक



Monday, July 18, 2011

कुछ बातें

वो कहते हैं उनकी अदाओं के दीवाने हजार हैं,
पर उन हजारों में हम सा तो कोई दूसरा कहां हैं,
---
डर लगता है तिरी जुल्फों में खो न जाऊं
पर वो घनी छांव फिर कहां से पाऊं
---
बरसों बाद मिलना और मिलकर भी नजरअंदाज करना
तेरी इस फितरत से तो मुश्किल है अब इश्क का जिंदा रहना
------------------
तमाम कोशिशों के बाद मैं उसको मना न पाया
कुछ खोट है इन चाहतों में जो हो रहा है इश्क का नाम जाया
---------------
जिन्दगी की राहों में हर एक को मंजिल की तलाश है
इसी भागमभाग में हर एक कि जिन्दगी उदास है
------------------
जब भी छाती हैं यें घटाएं, बदलियों सी बरसती हैं तेरी यादें,
जिन्दगी की घटाटोप के बीच बिजलियों सी चमकती हैं तेरी बातें
---
जब भी जिक्र होता है मन की गहराईयों में तेरा
आईने में अक्स नजर आ जाता है आज मेरा
----
अब हम जमाने को क्या कहें क्यू आती है तिरी याद
बुझा न सके हम राख के अंगार को लाख कोशिश के बाद

Wednesday, April 6, 2011

गांधी फिर सत्याग्रह पर हैं,,,

अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। उस भ्रष्टाचार के खिलाफ जो हमारी रगों में बहते खून के विभिन्न अवयवो में समाहित हो गया है। जीवन में भ्रष्ट कोशिकाओं की मात्रा जानने के लिए किसी लेबोरेट्री टेस्ट की जरूरत नहीं है। जहां भी हाथ रख दो वही नब्ज भ्रष्टाचार के पेट्रोल से दौड़ती महसूस होगी। कोशिश करके देखें। तंत्र की इस प्राणवायु के बिना तंत्र निष्प्राण हो जाता है। कोमा में चला जाता है। कैसा भी काम हो भ्रष्टाचार अपने चरम रूप में नजर आएगा। ऐसे में अन्ना हजारे एक मुहीम ले कर निकले हैं। उनका और उनके सहयोगियों का मत है कि लोकपाल विधेयक का उनका प्रारूप भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सकता है। उनकी यह धारणा कितनी सही है या समय के साथ सही साबित होगी इस पर बात किए बिना सबसे पहले अन्ना के आंदोलन को समर्थन। आखिर गांधी के देश में एक बार फिर गांधी सड़क पर हैं और इस बार मुकाबला परायों से नहीं अपनों से है। और एक सत्य यह भी है कि यह लड़ाई फैसला करेगी कि लोकतंत्र के इस भीड़तंत्र में क्या वाकई नैतिकता सम्मान के साथ जी सकेगी या बलशालियों की रंगशाला में दरबान बनना ही नैतिकता की किस्मत है। और क्या मांग है अन्ना की। वे किसी भी अमीर उद्योगपति के गैराज में फालतू खड़ी कार तो नहीं मांग रहे ताकि जिंदगी भर बस तक में नहीं बैठ सकने वाला गरीब उस कार के पेट्रोल भर से यात्रा कर सके। या उसके वार्डरोब में जीवन में बस एक बार पहना गया कपड़ा भी नहीं मांग रहे। वे यह भी नहीं कह रहे कि धनपतियों क्यों जरूरत से ज्यादा धन अपनी तिजोरियों में भर कर गरीबों की आंतों को सूखा रहे हो, क्यों उन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होने दे रहे। नहीं वे किसी से भी कुछ नहीं मांग रहे, वे इतना ही तो कह रहे हैं कि भाई गड़बड़ी की जांच कर सके ऐसा तंत्र बना दो। इसमें भी उन्हें एतराज क्यों है। क्यों डरती है सरकार गड़बड़ी की जांच के पारदर्शी तंत्र से। आखिर ये मांग ऐसी तो नहीं तो जिसे पूरा नहीं किया जा सके। या फिर ये इसलिए पूरी नहीं हो सकती क्योंकि इसमें कोई जाति वर्ग का वोट नहीं जुड़ा। इसका समर्थन करने वाले पटरियों पर डेरा नहीं जमा सकते। वो दिल्ली की आपूर्ति ठप नहीं कर सकते। वो लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी को डसने वाले भ्रष्ट तंत्र पर नकेल कसने के लिए उनकी ही जिंदगी के चक्के को थाम नहीं सकते। तो सरकार और नौकरशाहों को गलतफहमी है कहीं। अन्ना ने सोए हिन्दुस्तान की कुंभकर्णी नींद को तोड़ने का काम कर दिया है। जितना इसे टाला जाएगा उतना लावा जनता के सीने में जमा होता जाएगा। सरकार जागे न जागे हिन्दुस्तान जागने लगा है। देश की कमान थामने वालो को चिंता करनी चाहिए कि कहीं यह लावा जनता के सीने से निकल कर न बहने लगे। अन्ना के रूप में गांधी ने इस देश को फिर से अपना सहारा दिया है।,,,गांधी फिर सत्याग्रह पर हैं,,, देश को फिर आजाद करवाने के लिए जुट जाएं।

Friday, February 25, 2011

सवाल हां और ना के बीच पिसती जनता का

मेरे एक सीनियर अक्सर कहा करते थे, चुनाव के बाद बस बैंचे बदल जाती हैं हालात नहीं। राजस्थान विधानसभा के मंगलवार से प्रारम्भ बजट सत्र की कार्रवाई को देखने के बाद वाकई यही लगता है कि हालात बदलने इतने आसान भी नहीं। विधानसभा में उठने वाला हर मुद्दा अपनी अहमियत के बजाय पक्ष विपक्ष की रस्साकसी में उलझ कर रह जाता नजर आता है। विधानसभा के इस सत्र की शुरुआत में राज्यपाल के लम्बे अभिभाषण में जहां आंकड़ों की माया पसरी थी वहीं सुनने वालों को कुछ भी नएपन का अहसास नहीं हो रहा था, कई बार ऐसा भी लगा कि क्या इतनी छोटी-छोटी उपलब्धियां भी अभिभाषण में होनी चाहिए। पर शायद सरकार का कर्तव्य बनता है कि वह अपनी उपलब्धियों को इसी बहाने विधानसभा की कार्रवाई का अंग बनाए और उनका बखान करे। पर इसके बाद जब इस पर करीब पन्द्रह घण्टे की बहस होती है और करीब चालीस से अधिक वक्ता अपने तर्क पेश करते हैं तो वह राजस्थान के विकास या सरकार के कामकाज के विश्लेषण से भटक कर कांग्रेस और भाजपा के आपसी विरोध पर आ टिकती है। हर महारथी यह साबित करने में जुटा नजर आता है कि उसके व्यंग्य बाण सबसे पैने हैं। यहां तक कि सामान्य प्रश्नकाल के दौरान भी मंत्री अपने किए को सही साबित करने की बजाय पिछली सरकारों के कामकाज पर बेजा टिप्पणियां करने में जुटे रहते हैं। पहली बार आए एक विधायक ने तो बहस के दौरान यह कहा भी कि हम हां पक्ष में हैं तो हमें हां और आप ना पक्ष में हो तो आपको ना कहना ही है। क्या वाकई इसी तरह की बहस के लिए यह व्यवस्था की गई थी। पूरी बहस में एक दो वक्ताओं को छोड़कर किसी ने भी अभिभाषण को लेकर बात नहीं कि। भाजपा विधायकों का खास शगल मंत्रीमंडल के बयान रहे तो कांग्रेसी विधायकों ने पिछली भाजपा सरकार की खिंचाई करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। इस बीच जो दो तीन काम के मुद्दे उठे वे बेजा टिप्पणियों और बेकार की बहसबाजी में उलझ कर रह गए। कांग्रेस की ओर से तो खैर कोई ऐसा नाम याद नहीं आता जिसने सरकार के कामकाज की ओवरआल प्रशंसा करने के अलावा कोई खास काम की बात कही हो।हां, रमेश खंडेलवाल ने जरूर विधवाओं की पेंशन की शर्तों को हटाने की मांग की। भाजपा में राव राजेन्द्र सिंह ने आंकड़ों के हवाले से अभिभाषण की कमियां उजागर की तो रोहिताश कुमार ने परिवहन नीति बनाने की मांग की। वाकई उनकी बात में दम था कि क्या रोडवेज की साढे चार हजार बसें पूरे प्रदेश के लिए पर्याप्त हैं और क्यों सरकार रोडवेज को प्रोफिट मेकिंग कारपोरेशन मानता है। जब गांव सड़क से जुड़ गए हैं तो उन पर बस क्यों नहीं चलनी चाहिए। मेरे सीनियर्स का कहना था कि अच्छा है इस बार विधानसभा में कार्यवाही हंगामे की भेंट नहीं चढ़ी कम से कम बहस तो हो रही है,, चलो यदि वे इसे अच्छा कह रहे हैं तो वाकई बुरा इससे और भी बहुत बुरा होता होगा।

Saturday, February 12, 2011

राहुल को वोट का पैमाना,,,,

फेसबुक पर एक साथी ने नवभारत टाइम्स में काम करने वाले शिवेन्द्र कुमार सुमन के ब्लॉग का लिंक पोस्ट किया। शीर्षक था लोग राहुल को वोट क्यों देते हैं। शीर्षक ने सहज उत्सुकता जगाई और जो पाया वो शिवेंद्र के ब्लॉग से साभार कट पेस्ट कर आपको भी पढ़वा रहा हूं। ,,,..


बात 2009 में हुए आम चुनाव की है। दिल्ली में वोटिंग हो गई थी। वोटिंग के दो-तीन बाद मैं ऑफिस कैंटीन में खाना खा रहा था। मेरी बगल में टाइम्स ऑफ इंडिया की एक महिला पत्रकार खाना खाने आई।

चुनाव का सीज़न था तो उसी की चर्चा चल पड़ी। उसने मुझसे पूछा, ‘आपने वोट दिया?’ मैंने सर हिलाते हुए कहा, ‘नहीं।’ वह चौंकी। थोड़ी तेज़ आवाज़ में पूछा, ‘क्यों?’ मेरा उत्तर था कि मेरे पास वोटर कार्ड नहीं है। उसने मुझे हिकारत भरी नज़रों से देखते हुए कहा, ‘गज़ब हैं आप! एक जर्नलिस्ट होकर वोटर कार्ड नहीं बनवा सकते?’ मैंने कहा, ‘2 बार कोशिश की थी, पर बन नहीं पाया। वे जो डॉक्युमेंट्स मांगते हैं, वे मेरे पास हैं ही नहीं।’ फिर वह चुपचाप खाना खाने लगी। मुझे लगा, मुझे भी उनसे कुछ बात करनी चाहिए।

मैंने पूछा, ‘आपने वोट दिया?’ उसने चहकते हुए कहा, ‘हां’ और फिर स्याही लगी हई अपनी उंगली दिखाते हुए बोली, ‘यह देखिए।’ मैंने कहा, ‘गुड।’ वह ऐसे मुस्कुराईं जैसे उसने बहुत बड़ा मैदान मार लिया हो और कोई डरपोक व्यक्ति उनके सामने खड़ा हो जो मैदान में उतरा ही न हो। इससे आगे मुझे और नहीं पूछना चाहिए था, लेकिन मन माना नहीं और मैंने फिर एक निजी सवाल दाग दिया। ‘किसको वोट दिया आपने?’ चहकते हुए बोली, ‘मैं नहीं बताऊंगी।’ फिर कुछ देर बाद खुद बोली, ‘कांग्रेस को।’ मैंने फिर सवाल दागा, ‘क्यों?’ उसका जवाब था, ‘कांग्रेस में राहुल गांधी जो हैं, इसलिए।’

मैंने पूछा, ‘आपको राहुल गांधी अच्छे लगते हैं?’ उसने कहां, ‘बेशक।’ मैंने पूछा,
‘राहुल गांधी की कौन सी बात आपको अच्छी लगती है?’ उसने कहा, ‘राहुल का डिंपल! वह जब मुस्कुराता है तो उसका डिंपल बहुत अच्छा लगता है, मैं उसी की कायल हूं। बाकी नेता (उसने कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं के नाम लिए) तो जानवरों की तरह लगते हैं, पता नहीं क्यों लोग उन्हें वोट देते हैं!
’ मैं चुप हो गया। जैसे एक झटके में मुझे परमज्ञान मिल गया। मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए।

विस्तृत पढ़ने के लिए निम्न पते पर शिवेंद्र कुमार सुमन के ब्लॉग पर जा सकते हैं।

http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/bejhijhak/entry/%E0%A4%AE-%E0%A4%AC-%E0%A4%B0%E0%A4%95-%E0%A4%95-%E0%A4%A4

Friday, February 11, 2011

बासी कढ़ी में वफादारी की सीख का जलजला

राजस्थान की राजनीति की बासी कढ़ी मे इन दिनों उबाल आया हुआ है। प्रदेश के दोनों ही दलों में उठापटक का दौर चल रहा है लेकिन इस दौर के बीच एक जलजला अचानक आया और प्रदेश के एक राज्यमंत्री को जाने अनजाने में की गई एक टिप्पणी के लिए अपने पद की बलि देनी पड़ी। राज्य के सीमान्त इलाके से आए इस राजनेता को तो यह भी पता नहीं चला कि एक अच्छी और भली बात कहने के चक्कर में वे ऐसा क्या कह गए जिसने उनक सिर से लाल बत्ती का साया छीन लिया। बिचारे पार्टी में अपने काम के बदले हक के रूप में राजनीतिक नियुक्तियों का प्रसाद मांग रहे कार्यकर्ताओं को धीरज रखने और कर्म किए जा फल तो आलाकमान देगा की सीख दे रहे थे। इस्तीफे के बाद भी वे पत्रकारों से मासूमियत भरा सवाल करते रहे,, कि मैं कहां और क्या गलत कह दिया। मैं तो लोगों को पार्टी और सोनिया गांधी के प्रति वफादार रहने की सीख ही दे रहा था। मैं भी इसी वफादारी के बूते बकरियां चराते चराते मंत्री बना हूं और यही मैंने कहा था। अब ये तो कांग्रेस और उनकी पार्टी जाने की उनका एक मंत्री किस बात को और क्यों वफादारी मान रहा है। खैर इस इस्तीफे ने पार्टी के अन्य बड़बोले मंत्रियों में आशंकाओं के बादल गहरा दिए हैं। अब तो सरकार के होशिया मंत्री भी मीडिया से ऑफ द रिकार्ड ब्रीफिंग में जबरदस्त टिप्पणियां करने के बाद धीरे से पूछ लेते हैं,, कहीं कैमरे ऑन तो नहीं है,, पता चला शाम तक इस्तीफा देना पड़ जाएगा। ...बहरहाल मंत्रीमंडल में फेरबदल की हवाएं फिर तेज हो गई हैं पर विधानसभा सत्र और बजट की गहमागहमी के चलते यह अभी दूर की कौड़ी लगता है।
उधर भाजपा एक बार फिर बिना विधायक दल के नेता की सदारत में विधानसभा में उतरेगी जिससे जाहिर है विपक्ष की धार कुंद ही रहेगी। लेकिन डेढ़ साल के लम्बे अंतराल में एक सर्वमान्य नेता तक नहीं चुन पाना भाजपा के एक लोकतांत्रिक संगठन होने और पार्टी विद ए डिफरेंस के नारे को खोखला ही करता है। अब देखना होगा कि क्या वाकई भाजपा अपने अन्तरविरोधों से निपट कर एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभा पाती है या नहीं ।