Thursday, November 1, 2012

पता नहीं क्यों ?

जाने आज क्यों परेशान थी रिद्धिमा..? आखिर आज ऐसा क्या हो गया जो उसे इतना चुभ रहा था..? अब से पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ। और फिर जो हुआ वह भी तो ऐसा नहीं था जो उसके लिए कुछ नया हो। उसके लिए तो यह सब बहुत सामान्य सा था। फ्रेंड्स अक्सर नाइट आउट पर जाते ही रहते हैं। पार्टी खत्म होने तक किसे होश रहता है कि कौन किसके साथ जा रहा है। उसे खुद ही कहां पता रहता है। फिर यदि जे.. उसके फ्रेंड सर्किल में यही नाम है ज्योत्सना का... अमित के साथ चली गई तो क्या हो गया? अब न उसे और न ही उसके ग्रुप में किसी को इन बातों से कोई फर्क पड़ता है कि कौन किस के साथ कहां घूम रहा है? क्या खा रहा है? क्या पी रहा है? और किस हद तक जा रहा है? अब हदें बची ही कहां है? हद से पार होते हुए भी हद में रहने का सारा सामान तो हमेशा पर्स में रहता है?  इतना सोचते-सोचते उसे याद आ गया जब दीदी कुछ दिन उसके साथ रहने जयपुर आ गई थी। कितनी मुश्किल से समझा पाई थी उसे कि उसकी रूम मेट के पास एंटी प्रेंग्नेंसी पिल्स क्या कर रही थीं। कितनी और कैसी कहानी गढ़ी... गॉड नो। फिर अब अमित और जे को लेकर उसे क्यों परेशानी हो रही है? वैसे उसका खुद का अपना व्यवहार भी तो पिछले चार -पांच दिन से बदल रहा है। अब उसे पार्टीज में हर किसी के साथ डांस करना नहीं भा रहा था। दो-चार स्टेप्स के बाद ही उसे अजीब सा लगने लगता था। और बूज़ वो तो बिल्कुल ही मिस कर देना चाहती है। क्यों इतना बदल रही है वह...यही सब चलता रहा तो मिसफिट हो जाएगी वो अपने सर्किल में। कितने जतन से तो इतने दोस्त बने हैं। मजे मारने का मौका मिल रहा है।आए दिन पार्टी, रात तक थिरकना, लोंग ड्राइव पर जाना। ब्रांडेड कपड़े और जाने क्या क्या। दो साल पहले जब वो जयपुर आई थी, तब कैसी लगती थी, सलवार सूट में कंधों से सरकती चुन्नी को संभालने में ही जुटी रहती थी। पता ही नहीं था कि लाइफ इतनी रंगीन भी होती है। घरवालों से लड़कर हॉस्टल छोड़ा और पीजी जॉइन किया। तब पीजी में शुरू हुई थी नई लाइफ। डेढ़ साल हो गया अब तो सबकुछ फिल्मी लगता है। टीवी पर एड्स में दिखने वाली मॉडल्स भी पीछे रह जाती हैं। पर आज ऐसा क्यों हो रहा है...। तभी रिद्धिमा की नजर कलैण्डर पर पड़ती है..... अरे आज तो एक तारीख हो गई... पर इसमें क्या नया है... तारीख तो बदलनी ही है... वह दिन गिनने लगती है...... 10 ... पूरे 10 दिन ऊपर हो गए हैं ........। कहीं ये अमित की उस दिन की जिद्द की नतीजा तो नहीं है जब उसने कहा नो .. आज हम कुछ भी यूज नहीं करेंगे.. और वो भी तरंग में मान गई थी...। उसे लगा था पिल्स ले लेगी। फिर उसने पिल्स लेना भी चाहा था.. पर पता नहीं क्यों ले नहीं पाई थी....। अब दिन निकल रहे थे...। यानी कुछ गड़बड़ थी। गड़बड़ से उसे कोई डर नहीं था ... उसे अच्छे से पता था एमटीपी किट के बारे में। जरूरत पड़ी तो उससे सब ठीक हो जाएगा। पर उसे अब भी समझ नहीं आ रहा था कि वह इतना परेशान क्यों है? क्यों उसे जे का अमित की एसयूवी से उतरना अच्छा नहीं लगा? पता नहीं क्यों....?

Tuesday, January 24, 2012

जेएलएफः आवो नी पधारो म्हारे देस

आजकल पता नहीं क्या हो रहा है कि चचा हंगामी लाल जब भी मिलते हैं, उदास ही मिलते
हैं, आज ही शाम की बात ले लो, सुबह तो बड़े उत्साह से बोले थे कि भतीजे आज जा रहा हूं
जरा कुछ देख कर आता हूं साहित्य का कुछ मजमा चल रहा है शहर में, वहां जरा कुछ भाई लोग
आए हुए हैं उनसे बतिया कर आता हूं। सो हम तो शाम को उनसे बहुत सारी दुनिया भर की बातें
सुनने की उम्मीद लगाए बैठे थे। लेकिन ये क्या शाम को जब आए तो सुबह सूरजमुखी सा खिला
चेहरा शाम को डाल से टूटे पत्ते की तरह मुरझाया हुआ था। हमारी सवालिया नजरों को ताड़
कर बिना कुछ पूछे ही वे बोलना शुरू हो गए।
भतीजे का बताएं तुमको, आज हम तो बहुत अरमान से गए थे कि अपने पुराने यार लोग आए हुए हैं
उनसे गप करेंगे, कुछ कविता की बात होगी, कुछ गजल की। कुछ किस्से सुनेंगे कुछ कहानी कहेंगे।
बड़ी मुश्किल से तो हम जैसे तैसे उस मजमे में अन्दर घुस पाए, लेकिन घुसने से पहले ही हमें लग
गया था कि आज कुछ शगुन ठीक नहीं लग रहे। पता चला वहां कोई वीसी उसी होने वाली
जिसमें कोई अपनी बात कहना चाह रहा था, पर कुछ लोग चाह रहे थे कि वो अपनी बात नहीं
बोले, ...। हम तो जैसे तैसे बचते बचाते अन्दर पहुंचे और अपने मित्रों को ढूंढने में लग गए। एक
आध मिला भी, पर किसी का भी मिजाज कुछ जमता नहीं लग रहा था। जरा कुरेद कर पता
किया तो सबके मन में एक ही सवाल गूंज रहा था क्या वाकई हिन्दुस्तान में इसे ही आजादी
कहते हैं। सरकारें ऐसे ही संविधान के रक्षा करती हैं। उसकी पालना करती हैं। अरे भाई जो
चीज प्रतिबंधित है वो वाकई प्रतिबंधित है उस पर कोई बोले तो जो जायज हो वो कार्रवाई
करो, कानून में गलती है तो माननी ही पड़ेगी। अब जो कहें कि कानून ने गलत रोक लगाई है
तो उसका भी निस्तार है,, गुहार लगाओ,, भाई लोग लगा भी रहे हैं,,,। जो कहते हैं कानून
सही है और उसकी पालना हो, तो यह भी ठीक है,, । कानून का पालन तो होना ही
चाहिए। जहां कुछ गलत लगे वहीं रोक दो।
हमने कहा चचा, सरकार ने, इस मजमे ने जमाने वालों ने सबने कुछ सोच कर ही सारा मामला
जमाया होगा,,हालात देखे होंगे तभी तो फैसला किया होगा?
कहते तो तुम ठीक हो भतीजे, हमने वहां लोगों को यही समझाया, अरे भाई जो टीवी पर दिख
रहा है, सैंकड़ो किलोमीटर दूर बैठा है, बात की बात में, भावावेश में कुछ ऐसा ही कह बैठे जो
यहां के कानून की सीमा से परे हो तो, अंजाम तो इस मजमे को ही भुगतना पड़ेगा ना। बताओ
तो सही कितनी मेहनत करके वो तीनों ने ये महफिल जमाई है, सालों लगे हैं, कई विवाद आए,
कई गए। पर वो कहते हैं न शो मस्ट गो ऑन की तईं। नमिता बेन, संजोय बाबू और वो
विलियम ने मिलकर एक एक सितारा इस ओढ़नी पर काढ़ा है। हमारी बात से कुछ विलियम भाई
भी मुतमईन थे, कहने लगे हंगामीलाल जी, हमारे लिए तो इस मेले को चलाए रखना महत्वपूर्ण
है, मेला रहेगा तो बात रहेगी, आप चाहे कुछ भी कह दो, भले ही कितना ही गरिया लो पर
एक बात तो मानते हो न कि बच्चों को कुछ किताबों का शौक लगा है, कुछ तो वो साहित्य
की बात कर रहे हैं, कुछ नए लोगों को मंच मिला है, कईयों की किताबें बिकी हैं, कईयों को
मीडिया ने तरजीह दी है, आखिर कुछ तो फायदा हुआ या नहीं।
भतीजे मुझे विलियम की बात में दम लगता है, तुम भी तो जयपुर के वाशिंदे हो तुम को क्या
लगता है.
देखो चचा अपन तो शुरु से ही कहते हैं कि ऐसे मेले ठेले ही गुलाबीनगर की शान हैं, हम तो शुरु
से ही आवो नी पधारो म्हारे देस के संस्कृति के लोग रहे हैं, पावणों को स्वागत करना ही
हमारी परम्परा है। मैं तो कहता हूं जो भी हो विवादों पर मिट्टी डालो और ऐसे आयोजनों के
लिए जुटे रहे हो।
सही कह रहे हो भतीजे, मैं भी तुम्हारी बात से सहमत हूं, मैं तो जरा यूं ही दिन बेकार हो
जाने से उदास हो रहा था, पर तुमसे बात करके सारी उदासी दूर हो गई।

Thursday, January 19, 2012

क्या चुनाव ऐसे होते हैं?

ढ़आज चचा हंगामी लाल बहुत दिन बाद नजर आए थे। पर उनके चेहरे पर वो चमक नहीं थी जो
आम तौर इस ऋतु में होती है।आप यकीन मानिए मैं शीत ऋतु में चाची के हाथ के गोंद के लड्डू
खाने के बाद आने वाली चमक की बात नहीं कर रहा। दरअसल उनकी चमक का मौसम से कोई
ताल्लुक नहीं है पर हां फिजाओं से है। फिजा में जब भी चुनावी रंग नुमाया होता है हमारे चचा
की चमक एकाएक बढ़ जाती है। पर इस बार उनके चेहरे से चमक देख हमें बड़ी चिन्ता हुई। बड़ी
बेकरारी से हमने पूछ ही लिया.. चचा क्या बात है आपके फेवरेट सूबे में सियासी जंग चल रही है
पर आप पर तो असर ही नहीं।
इतना कहते ही जैसे मानो मैंने बर्र के छत्ते को छेड़ दिया हो, चाचा बौराए से बोले,,
बरखुरदार क्यों मजे ले रहे हो,, ये भी कोई चुनाव हैं,, मजाक है मजाक,...। अरे क्या ऐसे ही
चुनाव देखने के लिए इतना इन्तजार कर रहे थे.. बताओ,,, तो जरा,, तुम को भी इस सियासी
जंग का इंतजार था या नहीं,,, । बताओ बताओ,,।
अरे चचा बिल्कुल था, भला होता भी क्यों नहीं, पर ऐसा क्या हो गया जो तुम इतना परेशान हो।
अरे क्या हो गया..? कुछ नहीं हो रहा इसी बात का रोना है। न कोई किसी को कुछ कह
रहा है , न कोई किसी पर तंज कस रहा है। अरे यूं लखनवी तहजीब के साथ भी कभी वहां
चुनाव हुए हैं। वो तो भला हो वो चुनाव आयोग वालों का जो हाथियों पर पर्दा डलवा कर
थोड़ा सा रंग भर दिया वरना तो कुछ भी बाकी नहीं रहता। अब तुम ही बताओ वो राहुल और
उमा तो बुआ भतीजे हो गए। कैसे काम चलेगा,, अरे रिश्तेदारी निभाओगे या चुनाव लड़ोगे। न
माया कुछ बोल रहीं हैं न मुलायम कुछ तेवर दिखा रहे हैं। युवराजों की आपसी लड़ाई भी बहुत
सभ्य हो गई है। सारे इतिहास पे बट्टा लग जाएगा इस बार के चुनाव में। बताओ तो,, और तुम
कहते हो चिन्ता काहे कर रहे हो,,,। तुम ही बोलो क्या वाकई में चुनाव ऐसे होते हैं,, ।
चचा की बात सुन कर हम तो वाकई सोच में पड़े हुए हैं,, कि क्या वाकई चुनाव ऐसे होते हैं,,
आप क्या कहते हैं,,,?

Wednesday, January 11, 2012

हांगकांग के एक संगठन ने भारतीय ब्यूरोक्रेसी को एशिया में अक्षमतम बताया