Thursday, April 3, 2008

रेडलाइट स्टॉप बचपन......

सड़क पर गिरते ही वह जमीन पर हाथ टिका कर खड़ी हो गई। दूर होती नई होण्डा सिटी के मालिक के लिए एक गन्दी सी गाली उसके होठों से निकली और हवा में विलीन हो गई। सड़क पर गिर गया अपना कपड़ा सम्भाल वह फुटपाथ पर जा खड़ी हो गई। एक के बाद एक गाड़ियां उसके पास से सर्र-सर्र कर निकली जा रही थीं। का रधिया, लागी तो कोन, गाडी पे ध्यान सूं लूम्यां कर , उसका भाई लक्ष्मण, जो उससे कुछ ही बड़ा होगा, पास आता हुआ बोला। उरे उ तो दे रह्यो छो, पण उं की लुगाई न देबा दी। मं देखी की दे ही दे लो, पण साळो एक दम सूं ई दौड़ाई दी, थन कित्ता मिल्या? एक, बड़ी मुश्किल सूं दियो छो। इसी दौरान सामने वाली लाइट के लाल होने के बाद रामूड़ा दौड़ता हुआ आया और रधिया के कंधे पर लटक सा गया। जीजी, कांई हो ग्यो, ले मन खांड की बोरी खेला। रधिया उसे पूरी तरह कंधे पर ले गोल-गोल घूमने लगी। थोड़ी देर पहले गिरने से उसके चेहरे पर उपजा दर्द अब जाने कहां चला गया। मैले चीकटे बालों से घिरे उसके चेहरे पर आत्मसंतोष की चमक नजर आने लगी थी। रधिया के गोल घूमने से रामूड़ा जोर-जोर से हंसने लगा था। उसकी हंसी रधिया को औऱ जोर से घूमा रही थी। अचानक लक्ष्मण की आवाज गूंजी, गाडियां रुकगी। इतना सुनते ही रधिया को जैसे ब्रेक लग गए हों। रामूड़ा भी हंसना भूल गया। तीनों हाथ में कपड़ा थामे ट्रैफिक लाइट के लाल होने से रूकी गाड़ियों के बोनट, शीशे साफ करने के बाद, एक रुपया दे दो, भगवान भला करेगा, का जाप करने लगे। बत्ती हरी हुई, गाड़ियां आगे बढ़ीं लेकिन इस बार सड़क पर गिरने वाली रधिया नहीं, रामूड़ा था। एक भद्दी सी गाली उछाल अपने हाथ पैर झटकता वह सड़क के बीच डिवाइडर की ओर बढ़ने लगा। जहां उसे कुछ देर के लिए ही सही उसे अपना बचपन वापस मिलने वाला था।


दिनांक १ जून २००६ को लिखा गया।