Sunday, November 27, 2011

शहर, शहरी और सरकार

पिछले करीब दस साल से इस गुलाबी नगर कहलाने वाले शहर में अपना ठिकाना है।
अब तो इस शहर से बेइंतहा प्यार हो गया है। इतिहास और अखबार इसे लगातार
सुनियोजित नगर नियोजन की परम्परा वाला बताते रहे हों पर हमें तो ये
परम्पराएं परकोटे की गुलाबी दीवारों से आगे कहीं नजर नहीं आईं। पर इतना
ही दिल को सूकून देने के लिए बहुत है। आखिर यहां कुछ तो गुलाबी रंग मौजू
है वरना जमाने की गुलाबियत तो कालिख में बदल गई है। दो साल पहले शहर में
बहुत शोर हुआ था। सबने कहा था इतिहास बदलने वाला है। शहर ने अपना रहनुमा
खुद चुना है। पूरे शहर ने मिलकर एक के हाथ में कमान सौंप दी है। लॉटरी से
यह तय हो गया था कि वो कोई महिला ही होगी। वैसे चाहे महिला हो या पुरुष
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बड़ी उम्मीदों से कुछ बदलने के अरमान हर शहरी
ने सजाए थे। हम भी उन्हीं में से थे। लेकिन बदला जरूर और वो भी एक बार
नहीं पांच बार पर वो था शहरी सरकार की नौकरशाही का मुखिया। जिस बादशाह को
वजीरों से काम लेना था वह अपने ही वजीरों से उलझ पड़ा। रही सही कसर बोर्ड
में कांग्रेस और भाजपा के संख्याबल ने पूरी कर दी। मानो पार्षद चुने जाना
उनके लिए कुछ मायने ही नहीं रखता। इससे ज्यादा वे कांग्रेस और भाजपा के
सिपाही हो गए। जिस अमले को शहर का ख्याल करना था वो आपस में ही ऐसा उलझा
का पूरा शहर इस सरकार के सर्कस को दम साधे देखता रहा। शहरवासियों के लिए
इससे बड़ी पीड़ा क्या हो सकती थी कि उनके रखरखाव के इंतजामों की चिता पर
ही यह पूरा खेल हो रहा है। दो साल में शहर के लिए कुछ भी तो ऐसा नहीं हुआ
जिसे लेकर इनकी कुछ प्रशंसा की जाए। कुछ भी तो नहीं है दो साल की
उपलब्धि। एक भी नवाचार नहीं। जरा भी पहल नहीं। शहर सड़ रहा है। सड़कें
टूटी हैं। बाजारों में धक्कमपेल है। गलियों, कॉलोनियों में अतिक्रमण हैं।
परकोटे के मकानों में बने अवैध गोदाम लोगों की जान को जोखिम में डाले हुए
हैं। पार्किंग की कमी से लगते जाम अनमोल समय को कुंभकर्णी भूख के समान पी
रहे हैं। क्या इसी लिए चुना था इन्हें। साधारण सभा की बैठकों में
विधानसभा जैसे नजारे हो गए। क्या क्या नहीं हुआ। धक्का मुक्की में महिला
पार्षद की साड़ी तक फट गई। यह वक्त की खासियत है कि वह किसी का इन्तजार
नहीं करता। दो साल गुजर गए, तीन भी गुजर जाएंगे। यह इस शहर की तासीर है
कि यह अपना अंदाज और बदनुमा नहीं होने देता। आप चाहे इसकी सुध लो या
नहीं। यह अपनी गति से आप ही अपना शोधन करता चलता है। पर हां वो पर्याप्त
है या नहीं यह दूसरी बात है। यदि इस शहरी सरकार के नुमाइंदों ने अब भी
अपने रंग ढंग नहीं सुधारे और शहर की सुध नहीं ली तो और कुछ हो या नहीं हो
एक अभिनव प्रयोग जिससे हम लोकतांत्रिक सुधारों की ओर बढ़ रहे थे, पर जरूर
प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। जो लोग सक्षम होते हुए भी, इस निरंकुशता पर अंकुश
नहीं लगा रहे हैं, यदि वे यह सोचते हों कि उनकी या बड़ी सरकार की इस छोटी
सरकार ऐसे कामकाज की कोई जिम्मेदारी नहीं है तो इतिहास लिखेगा उनका भी
इतिहास जो तटस्थ रहे........।

Wednesday, November 23, 2011

प्रेस, कॉरपोरेट और काटजू

आम तौर पर लोगों को सुर्खियों में बनाए रखने वाला मीडिया इन दिनों खुद
सुर्खियों में है। वजह है प्रेस काउंसिल के नए मुखिया मार्कण्डेय काटजू
की ओर प्रेस के स्वेच्छाचार पर उठाई अंगुली। काटजू का इशारा खास तौर पर
इलेक्ट्रोनिक मीडिया की ओर है। प्रेस का दावा है कि वे स्वयं ही
स्वनियंत्रण की ओर बढ़ रहे हैं और उन्होंने आईबीए के बैनर तले इस तरह की
कवायद शुरू भी कर दी है। वे इसका उदाहरण भी देते हैं। लेकिन यह बहस नई
नहीं है और बहुत शिद्दत से महसूस की जा रही है। सबको अपने कर्तव्य का भान
करवाने वाला स्वयं क्यों निरंकुश हो जाए। जब हर कोई किसी न किसी नियामक
के अधीन है तो फिर प्रेस को भी नियामक के अधीन क्यों नहीं होना चाहिए।
खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। हम जब तब देखते रहते हैं तमाम तरह की
स्टोरियां महज सनसनी बनाने के लिए तरह तरह के साउण्ड और विजुअल इफेक्ट के
साथ पेश की जाती हैं। मीडिया में से इन्फोर्मेशन गायब हो गई है और
एंटरटेनमेंट बढ़ गया है। ऐसे में काटजू की शिकायत समीचीन पड़ती है क्यों
नहीं सबकी खबर रखने वाला मीडिया भी अपने किए कहे पर जवाबदेह रहे।