Thursday, March 20, 2014

सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत –

करीब 12 साल पहले अगस्त 2002 में आई थी खुशवंत सिंह की आत्मकथा। इसमें वे इसे लिखने का कारण बताते हुए लिखते हैं...
                   “मैं इस आत्मकथा को कुछ घबराहट के साथ लिखना शुरू कर रहा हूँ। यह निश्चित रूप से मेरी लिखी हुई आखिरी किताब होगी- जीवन की सान्ध्य बेला में मेरी कलम से लिखी अंतिम रचना। मेरे भीतर के लेखक की स्याही तेजी से चुक रही है। मुझमें एक और उपन्यास लिखने की ताकत अब बाकी नहीं; बहुत-सी कहानियाँ अधलिखी पड़ी हैं और मुझमें उन्हें खत्म करने की ऊर्जा अब रही नहीं। मैं उन्नासी साल का हो गया हूँ। यह आत्मकथा भी कहाँ तक लिख पाऊंगा, नहीं जानता। बुढ़ापा मुझ पर सरकता आ रहा है, इस बात का एहसास रोज कोई--कोई बात करा देती है। मुझे कभी अपनी याद्दाश्त पर बहुत नाज था। वह अब क्षीण हो रही है। एक समय ऐसा था जब मैं दिल्ली, लन्दन, पेरिस और न्यूयार्क में अपने पुराने मित्रों को टेलीफोन किया करता था। ऐसा करते हुए मुझे टेलीफोन डायरी से उनके नम्बर दुबारा देखने की जरूरत नहीं पड़ती थी। अब मैं अक्सर खुद अपना नम्बर भी भूल जाता हूँ। हो सकता है जल्दी ही सठियापे में गर्क होकर मैं फोन पर खुद अपने को बुलाने की कोशिश करता नजर आऊँ। मेरी दोनों आँखों में मोतियाबिन्द बढ़ रहा है; साइनस के कारण मुझे सिरदर्द की तकलीफ रहती है। मुझे थोड़ी डायबिटीज भी है और ब्लडप्रेशर की समस्या भी। मेरी प्रोस्टेट ग्रंथि भी बढ़ गई है, कभी-कभी सुबह के समय इस कारण मुझे तनाव महसूस होता है और जवानी का भ्रम पैदा होने लगता है; इसी वजह से कभी मुझे पेशाब करने के लिये ठीक से बटन खोलने का वक्त भी नहीं मिलता। मुझे जल्दी ही प्रोस्टेट को निकलवाना पड़ेगा। पिछले दस साल से मैं आतंकवादी संगठनों की हिटलिस्ट पर हूँ। मेरे घर पर सिपाही पहरा देते हैं और तीन सशस्त्र रक्षक बारी-बारी से जहाँ भी मैं जाता हूँ-टेनिस खेलने, तैरने, पैदल घूमने या पार्टियों में- वहाँ मेरे साथ जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि आतंकवादी मुझे निशाना बना पायेंगे। लेकिन अगर वे ऐसा कर लेंगे, तो मैं उनका शुक्रगुज़ार रहूँगा कि उन्होंने मुझे बुढ़ापे की तकलीफों से भी निजात दिलायी और बैड पैन में पाखाना करके नर्सों से अपना पेंदा साफ कराने की शर्मिन्दगी से भी।..............................
          ........मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है जिसे दूसरे लोग लिखने लायक समझें। इसलिए मेरे मरते और नष्ट होते ही लोग मुझे भुला न दें उसका मेरे पास सिर्फ एक ही तरीका है कि मैं खुद पढ़ने काबिल चीजों के बारे में लिखूँ। मैं बहुत सी ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा हूँ। एक पत्रकार की हैसियत से मैंने ऐसे तमाम व्यक्तियों से साक्षात्कार लिए हैं जिहोंने उन घटनाओं को आकार देने में निर्णायक भूमिका अदा की है। मैं महान व्यक्तियों का प्रशंसक नहीं हूँ। जिन थोड़े बहुत लोगों को मुझे करीब से जानने का मौका मिला, उनमें से किसी के पाँव में दम नहीं था। वे लोग बने हुए, निर्जीव, झूठे और एकदम साधारण थे।“


सिंह ने इसके बाद भी कई किताबें लिखीं... काश वे कुछ दिन और हमारे साथ रहते... और कुछ नहीं तो 100 तो पूरे कर ही लेते...। सिंह साहब आपने वाकई पढ़ने काबिल चीजें लिखीं है और आप हमारे जेहन में बने रहेंगे...

 http://www.abhisheksinghal.com/2014/03/blog-post_20.html

खुशवंत... जो शब्दों को बना देता था जीवंत...


खुशवंत सिंह नहीं रहे....। यह टीप अभी अभी फेसबुक पर पढ़ी।  मन में धक्का सा लगा। तुरन्त समाचार वेबसाइट्स खंगालनी शुरू की और,,,,। आखिर उस शब्द चितेरे को काल अपने साथ ले ही गया। 99 साल की शानदार पारी में खुशवंत सिंह जिन्हें हम एक पत्रकार, उपन्यासकार, इतिहासकार, स्तम्भलेखक के रूप में जानते हैं अपनी लेखनी से खुशवंत ने मानव मन के कई रूपों को लगातार उजागर किया। कई लोग उनकी बोल्ड लेखनी को जबरन ठूंसा गया यौन वृतांत मानते रहे हैं पर यह भी सच है कि उनकी पुस्तकें बेस्ट सेलर रहीं।  ए कम्पनी ऑफ वुमन तो इस लिहाज से बहुत आगे रही। खुशवंत सिंह खुद कहते थे कि सेक्स के बिना जीवन की कल्पना बेमानी है। उनकी किताबों का जिक्र करते समय हर किसी की आंखों में एक शरारती मुस्कान तैर जाती रही है। पर फिर भी उनका लिखा इतना प्रवाहवान होता है कि उसे सिंगल सिटिंग में खत्म करने की इच्छा सदैव बलवती रही।  मुझे तो लगता है कि वे आधुनिक दौर के बाबू देवकी नंदन खत्री थे। भले ही उनके उपन्यासों  में ऐयार, जासूस, रहस्य नहीं हो पर उनकी लेखनी में बांधे रखने की गजब क्षमता थी।
          देश की राजधानी जिस लुटियन्स दिल्ली में बसती है उसे बनाने वालों में थे उनके पिता सोभा सिंह। 2 फरवरी 1915 को पंजाब के हडाली ( अब पाकिस्तान ) में जन्मे खुशवंत सिंह पर विभाजन का गहरा असर पड़ा था। उन्होंने उस पीड़ा को ट्रेन टू पाकिस्तान में जाहिर भी किया। अस्सी से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके खुशवंत सिंह योजना जैसी सरकारी पत्रिका के सम्पादक भी रहे तो इलेस्ट्रेड वीकली साप्ताहिक के संपादक भी। सिंह ने  विदेश मंत्रालय की नौकरी भी की। खुशवंत का साप्ताहिक कॉलम लोगो की स्मृतियों में लम्बे समय तक बना रहेगा। उनकी सक्रियता की मिसाल इससे ही ली जा सकती है कि 98 की उम्र में भी वे खुशवंतनामाः द लेसंस ऑफ माई लाइफ लिख रहे थे। सिंह 80 से 86 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे। इससे पहले 1974 में ही उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया जा चुका था। पर बाद में 1984 में स्वर्ण मंदिर की कार्रवाई के विरोध में उन्होंने इसे लौटा दिया था। उन्हें 2007 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।सिंह की इंदिरा गांधी से नजदीकियां थीं और इसी वजह से वे कांग्रेस के काफी करीब थे। उन्होंने सिक्ख इतिहास पर गहन काम किया था और खूब लिखा भी । खुशवंत पर बहुत कुछ लिखने का मन है,, अभी तो बस भारी मन से उन्हें आदरांजलि।

Sunday, March 16, 2014

आखिर क्या है केजरीवाल का उद्देश्य

भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को बनारस से पार्टी प्रत्याशी घोषित कर दिया है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार मुरली मनोहर जोशी का विरोध राष्ट्रीय स्वयं सेवक के दखल के पश्चात खत्म हुआ और वो कानपुर से चुनाव लड़ने उतरे। गलती से राजनीति में फंस गया विज्ञान का विद्यार्थी अब पराभव की ओर बढ़ती उद्योगनगरी कानपुर से भाग्य आजमाएगा। भाजपा की सूची में और भी कई उलटफेर हैं। पर लगभग सभी बड़े नाम सूचियों में जगह पाते जा रहे हैं। हालांकि लाल कृष्ण आडवाणी की टिकट की राह जरा मुश्किल नजर आ रही है।
     लोकसभा चुनाव अब दिलचस्प मोड़ लेता जा रहा है, और एकाएक मुकाबला कांग्रेस बनाम भाजपा की बजाय मोदी बनाम केजरीवाल बनाने की कवायद साफ नजर आ रही है।क्या वाकई ऐसा है? क्या केजरीवाल मोदी का मुकाबला कर सकते हैं। उन मोदी का जिन्हें भारतीय जनता पार्टी ने अपना प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया है। केजरीवाल किस गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी हैं? क्या उनकी पार्टी दिल्ली के अपने प्रदर्शन के दम पर केन्द्र में सत्ता हासिल करने का दावा कर सकती है? चलिए एक बारगी मान लेते हैं कि कोई करिश्मा हो जाए और दिल्ली विधानसभा में दूसरी बड़ी पार्टी बन कर उभरने वाली आम आदमी पार्टी दिल्ली की सातों सीटें भी जीत जाए। उसकी सूची के कुछ और बड़े बड़े नाम भी जीत जाएं तो भी आम आदमी पार्टी के कुल सांसदों की संख्या क्या मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, जयललिता की अन्ना द्रमुक , करुणानिधि की द्रमुक, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की सीटों से ज्यादा हो सकती है? शायद यह संभावना बहुत दूर की कौड़ी होगा। तो.. तो ,, फिर आखिर क्या है केजरीवाल का उद्देश्य...?
    भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी रहे केजरीवाल मूलतया  आरटीआई के लिए काम करते हुए सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हुए थे। इसके पश्चात उन्होंने भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए जन लोकपाल की मांग की।पर उनकी मांग कोई बहुत असर नहीं डाल पा रही थी। अपने आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें एक चेहरा चाहिए था। उनकी नजर पहुंची महाराष्ट्र के एक गांव रालेगण सिद्धी में ग्राम स्तर पर विकास का अनूठा मॉडल खड़ा करने वाले पूर्व फौजी अन्ना हजारे तक। फिर एकाएक एक रोज अन्ना हजारे के नेतृत्व में जन लोकपाल की मांग बुलंद होती है। रामलीला मैदान पर अन्ना का धरना होता है। और अन्ना के साथ प्रमुख रणनीतिकार के रूप में नजर आते हैं अरविन्द केजरीवाल। धरना चलता है। भ्रष्ट सरकारों से त्रस्त पूरा देश अन्ना की छतरी तले लामबंद होने लगता है। भाजपा के नेता भी धरने का समर्थन करते हैं। कई लोगों का तो यहां तक कहना है कि उस समय धरने को और अन्ना के आंदोलन को सफल बनाने के लिए संघ के कार्यकर्ता भी अन्ना टोपी पहने नजर आए थे। खैर लम्बा आंदोलन होता है और यूपीए सरकार जनलोकपाल लाने का वादा करती है। इसी बीच एक चुनौती उछलती है कि आंदोलन करना और बात है... राजनीति और... हिम्मत हैं तो धरना देने वाले राजनीति में उतर कर खुद विधानसभा में पहुंचे। केजरीवाल चुनौती स्वीकारते हैं। गठन होता है आम आदमी पार्टी यानी आप का। केजरीवाल की पार्टी ने अपना केंद्र चुना दिल्ली। वह दिल्ली जहां पूरा आंदोलन हुआ। केजरीवाल के सामने थी कांग्रेस सरकार। वही कांग्रेस जिस कांग्रेस के नेताओं ने उन्हें राजनीति में आने की चुनौती दी थी। केजरीवाल ने घोषणा की थी कि उनकी पार्टी सरकार में आएगी तो शीला दीक्षित के खिलाफ मुकदमा होगा। कॉमनवेल्थ घोटाले के आरोपी जेल जाएंगे। भ्रष्टाचार की परतें उघड़ेंगी। विधानसभा के नतीजों ने नायक फिल्म के अनिल कपूर को साकार कर दिया। अरविन्द की पार्टी को जबरदस्त सफलता मिली। अरविन्द की पार्टी ने बाद में सरकार भी बनाई। उसी कांग्रेस के समर्थन से जिसके विरुद्ध ये सारी लड़ाई शुरू हुई थी। खैर उनपचास दिन बाद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया। और वे लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गए। पर ये क्या अब उनके भाषणों का केन्द्र यूपीए सरकार नहीं थी। वो यूपीए सरकार जिसने उनके जन लोकपाल को मानने की बजाय अपना ही लोकपाल बिल लाकर एक तरह से उनसे वादा खिलाफी की थी। वो यूपीए सरकार जो पिछले दस साल से केन्द्र में काबिज है। वो यूपीए सरकार जिस पर टूजी, सीडब्ल्यूजी, कोयला घोटाले जैसे भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त होने के आरोप लगे। वो यूपीए सरकार जिसके नेताओं की चुनौती को मान कर अरविंद राजनीति में उतरे थे। वो यूपीए सरकार उनके निशाने पर नहीं है। बल्कि एकाएक उनके निशाने पर आ गए भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेद्र मोदी। अब अपने भाषणों में वे केन्द्र की नीतियों की आलोचना नहीं करते, बल्कि वे अब गुजरात का सच उजागर करने की जल्दबाजी में दिखते हैं। उनके भाषणों मे राहुल, सोनिया नहीं मोदी की आलोचना होती है। जबकि मोदी तो अभी केन्द्र में पहुंचे भी नहीं हैं। देश की वर्तमान स्थिति के लिए किसी भी तरह से मोदी, भाजपा या राजग को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। फिर भला अरविंद क्यों कर पूरी तरह से मोदी विरोध की राजनीति पर उतर आए हैं।
     इसे समझने के लिए आप बस भारतीय चुनावों की एक बेहद मूल बात को समझ लें।और वह है चुनावों का एफसीसीबी सिद्धांत। यानी फर्स्ट पास्ट द पोस्ट। अर्थात जो सबसे आगे रहा वो जीता। चुनाव एक तरह से वो खेल हो गया है जिसमें वह खिलाड़ी जीतेगा जिसने एक निश्चित समय में सबसे ज्यादा केले खाएं हों। और केले कुल दस ही हों।अब यदि कोई चार ही केले खा सकने की ताकत रखता हो और वह जानता हो कि सामने वाला छह केले खा सकता है तो वह क्या करता है कि  दो प्रतियोगी और उतार देता है, कोई एक खाएगा कोई दो ,,, यानी तीन केले तो इन निश्चित हारने वाले खिलाड़ियों ने खा लिए। यानी दोनों मुख्य खिलाड़ियों के लिए बचे कुल सात केले। इस दौरान निश्चित गति से अपनी चाल से केले खाने वाला चार केले खा कर भी जीत जाएगा। जबकि छह केले खा सकने की क्षमता रखने वाले के लिए केले बचेंगे ही नहीं क्योंकि दो कमजोर से खिलाड़ी अनावश्यक रूप से तीन केले चट कर गए। शायद इन चुनावों में भी कुछ ऐसा ही खेल होने जा रहा है। कोशिश की जा रही है, यूपीए के कार्यकाल से बने सत्ता विरोधी वातावरण और भ्रष्टाचार विरोधी लहर को किसी तरह से बांट दिया जाए। पर शायद रणनीतिकार भी यह अच्छे से समझते हैं कि जब तक प्रतिद्वंद्वी जीतने लायक नही होगा तब तक वोट नहीं बनेंगे। और इसीलिए इस तरह का वातावरण बनाया जा रहा है कि केजरीवाल मोदी को टक्कर दे सकते हैं।ताकि केजरीवाल की पार्टी को कुछ वोट मिल जाएं। ऐसा होने पर वो वोट शर्तिया यूपीए विरोधी मत होंगे जो मोदी  के नेतृत्व वाले राजग को मिलने वाले हो सकते हैं। केजरीवाल की भी खुद की ऐसी ही कोशिश है कि वो मोदी को मिलने वाले मतों में सेंध लगा सकें। ऐसे में केजरीवाल को मिलने वाले मतों का सीधा फायदा किसे होगा? जाहिर है कांग्रेस और उसके गठबंधन के सहयोगियों को। कुछ जगहों पर क्षेत्रीय दल भी इस बंदरबांट में हिस्सेदारी हासिल कर सकते हैं।
     एक बात और भी है केजरीवाल देश के प्रगतिशील सुधारकों के एक खास समूह से ताल्लुक रखते नजर आते हैं, कुछ लोग उसे वामपंथी समूह भी कहते हैं। हालांकि केजरीवाल ने वामपार्टियों का दामन नहीं थामा पर उनके समर्थकों में इस विचार के लोग बहुत आसानी से चिन्हे जा सकते हैं। उनके प्रत्याशियों की सूची में भी मेघा पाटेकर, सोनी सोरी जैसे नाम इस संभावना को ही बल देते हैं कि शायद उन्हें वामपंथ का समर्थन हासिल है और देश में पूरी तरह से नकारा जा चुका वामपंथ एक नए रूप में अवतरित हो रहा हो।
     यदि केजरीवाल पूरा देश और दिल्ली छोड़कर मोदी से मुकाबला करने बनारस जाते हैं तो यह एक तरह से साफ हो जाता है कि केजरीवाल का उद्देश्य भ्रष्टाचार रोधी शासन की स्थापना से ज्यादा मोदी को रोकना होगा। हालांकि लोकतांत्रिक देश में वे इसके लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं कि वे किन रणनीतियों से आगे बढ़ें पर आम जन मानस में यह सवाल तो खड़ा होता ही है कि केजरीवाल एकाएक कांग्रेस से मुकाबला करना भूल कर मोदी के मुकाबले में क्यों खड़े हो रहे हैं? जबकि चुनावशास्त्र की जरा भी समझ रखने वाला कह सकता है कि वे स्वयं अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं हैं, और उनका इस तरह का व्यूह अंततः कांग्रेस को फायदा पहुंचाएगा। उसी कांग्रेस को जिसने उनके लोकपाल को नहीं माना। न लोकसभा में और न ही उनकी अपनी दिल्ली विधानसभा में। जहां वे सदन के नेता होने के बावजूद लाचारी के साथ लोकपाल पर प्रस्ताव के मुद्दे पर इस्तीफा दे आए।

Thursday, March 13, 2014

चायवाला, टोपीवाला, साइकिल वाला....या चॉकलेटी बॉय


चचा हंगामीलाल बहुत दिनों बाद फिर अवतरित हुए हैं। बड़े परेशान हैं। भिड़ते ही न दुआ न सलाम। बस बहुत गंभीर। विचार मग्न। उन्हें अचरज से देखते हुए हमने कहा चचा, चाय मंगा देता हूं, चाय पियोगे। जवाब मिला,, भाई, चाय पीने तुम्हारे पास क्यों आऊंगा। हर नुकक्ड़ पर चाय चौपाल लग रही है। वहीं खूब पी है। जम कर। फिर ,,, अरे वो क्या है ना कि अब से एक महीने बाद चुनाव हैं...। सोच रहे हैं इस बार किसे वोट दिया जाए।.. हम कहे.. अरे चचा जिसे जमे उसे ही दे दो..। कहने लगे अरे बहुत मुश्किल हो रही है। एक तो अच्छा भला विकास पुरूष खुद को चाय वाला चायवाला बनाने पर तुला है,,,। दूसरा कभी मां की दुहाई दे कर कहता है सत्ता जहर है,,, और खुद ही नीलकंठ बनने चला है। और तीसरा जो की खुद को आम आदमी बताता है.. कभी नेताओं को कोसता है, कभी उद्योगपतियों को कोसता है.. कुछ साफ साफ समझ नहीं आता कि आखिर वो है किस तरफ...।
तो चचा आप बताओ क्या करें..। गुमसुम चचा बोले,, देखो भाई अभी तो लड़ाई शुरू हुई है...। छुटभैय्यै नेता इधर से उधर होना शुरू हुए हैं। एक बार सब सेटल हो जाने दो फिर ही देखेंगे... कि किसे वोट देना है...। इतना कह कर चचा तुरंत उड़न छू हो गए। चलिए हम भी जरा लड़ाई का  आनंद लें..।