उत्तर प्रदेश, राजनीतिक
पंडितों के मुताबिक यही वह प्रदेश है जो यह तय करता है कि देश पर कौन राज करेगा।
देश का प्रधानमंत्री कौन बनेगा। पिछले लोकसभा चुनावों में यहां जम कर बही मोदी लहर
ने नरेन्द्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनाया। आज जो भाजपा की पूर्ण बहुमत की
सरकार केन्द्र में है इसमें सबसे बड़ा योगदान यदि किसी का है तो वह उत्तरप्रदेश का
है। देश के इस ह्रदय स्थल में भाजपा का कमल इतना खिला कि सपा के कर्णधार
पिता-पुत्र मुलायम और अखिलेश साइकिल पर तो बसपा की बहन कुमारी मायावती हाथी पर
सवार हो कर एक तरफ जीत का इन्तजार ही करते रह गए। इस सबके बीच कांग्रेस का तो
सूपड़ा ही साफ हो गया। माना गया कि मोदी लहर जितनी तेज बही थी उसका फायदा उठाने
में भाजपा के तत्कालीन उत्तर प्रदेश प्रभारी अमित शाह की चाणक्य नीति ने भी जम कर
काम किया था। शाह को तो इस जीत का ईनाम ऐसा मिला कि उन्हें पूरी भाजपा की कमान
संभलवा दी गई।
अब दो साल बाद एक बार फिर
उत्तर प्रदेश में चुनावी चौसर सज रही है। लेकिन इस बार मोदी लहर गायब लग रही है।
जिन अमित शाह को उत्तरप्रदेश में भाजपा की करिश्माई जीत का जादूगर माना जाता है
उनका जादू उसके बाद दिल्ली और बिहार में फुस्स साबित हुआ। आसाम ने जरूर भाजपा को
जिता कर मोदी शाह की गिरती साख को थामा।
लेकिन अब उत्तर प्रदेश और
फिर पंजाब यह तय करेंगे कि नरेन्द्रमोदी अब भी जन नायक हैं या नहीं। मोदी के असर
को बनाए रखने के लिए उत्तरप्रदेश सियासी नारों, वादों और समीकरणों से ज्यादा
चुनावी गुरूओं के दावपेंचों का मैदान बन रहा है।
बिहार में मोदी को नीतीश के
हाथों पटखनी दिलवा चुके पी.के. यानी प्रशान्त किशोर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की
नैया पार लगाने के लिए मैदान में आए हैं। यानी मुकाबला होगा अमित शाह और प्रशान्त
किशोर की रणनीतियों में और सपा के युवा सीएम अखिलेश यादव में। मायावती अभी से सधी
हुई चाल खेलती नजर आ रही हैं। हालांकि चुनाव की चौसर करीब करीब सज चुकी है और सबसे
पहला दांव चला है कांग्रेस और भाजपा ने। कांग्रेस ने पीके की सलाह पर दिल्ली की
शीला दीक्षित को मैदान मुख्यमंत्री के रूप में उतारा है। चर्चा है कि यह ब्राह्मण
वोटों पर दांव है। ब्राह्मण शब्द से यह भी जिक्र कि उत्तरप्रदेश का चुनाव हो और
जाति की बात न हो यह संभव ही नहीं। मोटे तौर पर यूपी अगड़ों पिछड़ों की राजनीति से
भी आगे ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर, जाट, यादव, कुर्मी, लोध,दलित और मुसलमान जैसी
प्रमुख वोटबैंक के खांचों में फिट होता है। अब इसमें से जिसने जितने एकक एकसाथ
जोड़ लिए उसने मैदान मार लिया। इतिहास बताता है कि कांग्रेस बरसों तक ब्राह्मण+दलित+ मुसलमान के समीकरण को साध
कर उत्तरप्रदेश और देश की सियासत को थामे रही है। तो कांग्रेस ने पहले चाल चलते
हुए शीला दीक्षित के रूप में ब्राह्मण वोटों पर अपना दावा ठोंक दिया है। याद दिला
दें कि विधानसभा चुनाव के दौरान भी कांग्रेस की कमान ऋता बहुगुणा जोशी यानी
ब्राह्मण ही के पास थी। पर कांग्रेस का हश्र क्या हुआ ये सबको पता है। कांग्रेस
बमुश्किल 29सीट जीत पाई औऱ 31 सीट पर दूसरे स्थान पर रह पाई। तो केवल अकेला
ब्राह्मण फैक्टर कांग्रेस की नैया पार लगा पाएगा इसमें संदेह है। हालांकि पुराने
समाजवादी राजबब्बर को प्रदेशाध्यक्ष बना कर कांग्रेस ने क्या साधा है यह अभी
राजनीतिक पंडितों को भी समझ नहीं आ रहा है। माना बस इतना जा रहा है कि इससे
कांग्रेस की अंदरुनी गुटबाजी पर कुछ काबू पाया जा सकेगा। कांग्रेस की नजर ब्राह्मण
वोटों के साथ उस शहरी वोटर पर भी टिकी है जो दिल्ली के विकास के लिए काफी हद शीला
दीक्षित को श्रेय देता है। चूंकि उत्तरप्रदेश की नौकरशाही का अपना अंदाज है तो
पढ़ेलिखे अभिजात्य वर्ग को यह बात जम सकती है कि शीला दीक्षित अपने सियासी अनुभव
के आधार पर उस नौकरशाही पर नकेल लगा सकती है। शीला ने अभी तक उत्तर प्रदेश को लेकर
अपनी रणनीति जाहिर नहीं की है पर साफ तौर पर वे कांग्रेस के परम्परागत वोट बैंक
यानी ब्राह्मण दलित मुस्लिम के लिए काम करना चाहेंगी। इन में से दलित मायावती से
छिटकेंगे इसमें संदेह है। रही बात मुस्लिम की तो उनका वोट उसी को मिलेगा जो भाजपा
को हराने की स्थिति में होगा। दिल्ली में दो बार करिश्माई जीत दर्ज कर चुकीं शीला
उत्तर प्रदेश में क्या कर पाएंगी यह तो वक्त ही बताएगा पर इतना तय है कि उनकी साख
इस मैदान में दांव पर नहीं है, बल्कि दांव पर है उनकी साख जो उन्हें मैदान में लाए
हैं। यानी प्रशान्त किशोर। उत्तर प्रदेश की चुनावी गणित इतनी आसान नहीं है कि उसे
एक ही बार में समझ लिया जाए। आगे भाजपा सपा और बसपा बात करेंगे, साथ ही बात करेंगे
बसपा में हो रही टूट फूट की और बिहार के तर्ज पर बनते बिगड़ते राजनीतिक समीकरणों
की। पर एक बात तो माननी ही चाहिए कि मोदी लहर के उतार के इस दौर में प्रशान्त किशोर
की सलाह मान कर शीला को मैदान में उतार कर कांग्रेस ने लगभग वाक ओवर दिए जा चुके
मुकाबले में खुद की उपस्थिति तो दर्शाई है। अन्यथा उत्तरप्रदेश का मुकाबला तो
त्रिकोणीय ही माना जा रहा था, शीला की मौजूदगी ने इसे चतुष्कोणीय बनाने की चर्चाएं
जरूर चला दी हैं।