Thursday, July 29, 2010

हिन्दी सिनेमा का नया शो मैन ....

हिन्दी सिनेमा में शो मैन का खिताब अब तक केवल राजकपूर के लिए ही सुरक्षित माना जाता रहा है। बाकी सब स्टार, सुपर स्टार, मिलेनियम स्टार, बॉलीवुड किंग और नम्बर वन के ताजों से नवाजे जाते रहे हैं। पर अब है एक शख्स जो इन खिताबों से परे राजकपूर की तर्ज पर ग्रेट शो मैन का खिताब का हकदार बन गया है। वो बेहतरीन एक्टर है,, प्रोड्युसर है, और निर्देशक भी,,,। यहां तक की स्क्रीन राइटर भी। और अपनी पहली ही फिल्म के निर्देशन के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देसक का पुरस्कार भी जीता। बिल्कुल आप सही जा रहे हैं, बात हो रही है आमिर खान की। 1973 में यादों की बारात में बाल कलाकार और 88 में कयामत से कयामत तक में चॉकलेटी हीरो, जो 2008 में गजिनी का माचो नायक बन कर स्क्रीन पर जलवे बिखेरता है वही शख्स तारे जमीन पर और पीपली लाइव जैसे संवेदन शील विषयों पर न केवल फिल्में बनाता है बल्कि उन्हें कला फिल्म के टैग से बचा कर कॉमर्शियली वाइबल भी बनाता है, बिना नायिका को पानी में भिगोए,,,। तो क्या कहना है आपका। मेरा दिल तो कहता है,, साला मैं तो आमिर का फैन हो गया।...

Wednesday, July 28, 2010

निशाना हमेशा एक तरफ क्यों

अजहरुद्दीन इन दिनों मीडिया के निशाने पर हैं। आम तौर पर राजनेताओं और खिलाड़ियों की निजी जिन्दगी में दखल नहीं देने वाला मीडिया अजहर के बेडमिंटन प्रेम के कारण खोज रहा है। इसकी गहराई में ज्वाला गुट्टा की अजहर से नजदीकियां नजर आईं। फिर सामने आया कि बिजलानी भी काफी समय से अजहर के साथ नहीं हैं। तो खबर बनी की अजहर अब फिर अपने से करीब 20 साल छोटी ज्वाला से ब्याह रचाने की तैयारियों में हैं। तमाम देश चिंतित है। खासकर मीडिया और समाजशास्त्री इसलिए क्योंकि अजहर एक सांसद हैं, स्टार हैं। वे यूं बार बार शादियां रचाएंगे तो समाज में क्या संदेश जाएगा। समाज किस दिशा में जाएगा। संगीता बिजलानी यानी एक नारी का बसा बसाया घर उजड़ जाएगा। हां ये चिन्ताएं मौजूं हैं, पर मेरा सवाल जरा दूसरा है। क्यों ऐसे हर मामले में पुरुष ही समाज के निशाने पर होता है। क्यों किसी पहले से किसी के बसे बसाए घर पर नजर लगाने वाले नारी उनका निशाना नहीं होती। यदि अजहर और ज्वाला की नजदीकियों की बात सही है,( हालांकि ज्वाला इससे लगातार इनकार कर रही हैं,) तो क्या यह संभव है कि अजहर उस जैसी अन्तरराष्ट्रीय खिलाड़ी जिसने दुनिया देखी है, को फुसला सकता है। क्या ज्वाला को नहीं पता है कि अजहर पहले से शादीशुदा है और संगीता से उसकी दूसरी शादी है। जब वो यह सब जानती बूझती है तो फिर निशाना केवल अजहर की क्यों। शायद नारीवादियों को मेरी बात में पुरुषवाद की बू आए।

खेल भी अब खेल हो गया

हम हिन्दुस्तानियों की बड़ी गजब आदत है। हर चीज को हम खेल बना लेते हैं। बात चाहे खेल की हो वह भी हमारे लिए खेल हो गया है। खेलने को और कुछ नहीं मिला तो लगे कॉमनवेल्थ खेलों से ही खेलने। अब जब की बारात दरवाजे पर आने के लिए खड़ी है, घराती कह रहे हैं कि शादी भी होनी चाहिए थी कि नहीं। एक दो घराती तो यहां तक कह रहे हैं कि शादी बिगड़ ही जाए तो बेहतर। क्या हो रहा है यह। हम कब अपनी आदत से बाज आएंगे। अरे देश की गरीबी,बच्चों के हित की इतनी चिन्ता थी तो जब खेलों की मेजबानी का न्यौता लेने गए थे तब क्यों नहीं विरोध किया। और यदि अब सरकार ने यह तय कर दिया कि हमें मेजबान होना है तो फिर जम कर मेजबानी करो। आने वाले भी तो याद करें की हिन्दुस्तान गए थे। लेकिन हम बाज नहीं आएंगे। हमें तो अपना झण्डा लहराना है। मीडिया की सुर्खियां बटोरनी हैं। कौन हैं मणिशंकर यह कहने वाले की खेल का आयोजन बिगड़ ही जाए तो अच्छा। आज की स्थिति में तो देश के साढ़े सात सौ सांसदों में से एक सांसद । क्यों मीडिया उनकी बात को तवज्जो देता है। ठीक है आप आजाद देश में, स्वतंत्र जनतंत्र में काम कर रहे हैं। आप को जो भी मसालेदार मिलता है आप छापते हैं, दिखाते हैं। कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर भी खूब नकारात्मक रिपोर्टिंग हो रही है। अच्छा है यह देश हित में है, कम से कम इस रिपोर्टिंग के बहाने ही सही काम में तेजी आएगी। पर ये बेकार की बयानबाजी क्यों दिखाई, पढ़ाई जाए। इससे तो केवल बयान देने वालों का ही फायदा होगा। मणिशंकर आज कह रहे हैं, कि इतने पैसों में हम पदकों का ढेर लगा सकते थे। मणि बाबू आप भी तो खेल मंत्री रहे थे, जरा देश को बताइए आपने कितने पदक कारखाने बनाए। क्या किया जो देश के खेल जगत को कुछ फायदा पंहुचा हो। बेकार के बयानों से बचिए। आपको एक पढ़े लिखे राजनेता के रूप में जाना जाता है। आप से ऐसे ओछे बयानों की उम्मीद नहीं है। जरा हमारे पड़ौसी चीन को देखिए हाल ही ओलम्पिक आयोजित करवाए हैं पूरी दुनिया वाह वाही कर रही है। क्या गड़बड़ियां वहां नहीं हुई होंगी..। जरूर हुई होंगी। माना वहां सरकारी मीडिया का असर है,पर फिर भी चीन विश्वभर में अपनी छवि बनाने में कामयाब रहा। यहां क्यों हम पहले ही अपनी मिट्टी पलीत करने में लगे हैं। सामूहिक नेतृत्व और सामूहिक जिम्मेदारी भी कोई चीज है। यदि सरकार ने आयोजन का जिम्मा उठाया है तो यह हर भारतीय का कर्तव्य बनता है कि इस आयोजन को सफल बनाने मे प्राण पण से जुट जाए।
मुझे याद आता है मेरी मम्मी जिस स्कूल की प्रधानाचार्य थीं वहां संभाग स्तरीय टूर्नामेंट आयोजित हुए थे। ऐसे टूर्नामेंटों के लिए सरकारी बजट बहुत रस्मी सा होता है। समुचित व्यवस्थाओं के लिए काफी पैसा खर्च होना था। जाहिर है मम्मी अपने स्कूल के अन्य सदस्यों के साथ जनसहयोग के लिए दो तीन जनों से मिलने गईं। छोटा होने के नाते मैं यूं ही साथ था। गांव के जिन भी लोगों से वे मिली सभी ने एक ही बात कही थी, मैडम आप तो बता देना क्या कैसे करना है। गांव की बात है। हमारे गांव में बाहर की छोरियां (लड़कियां) आएंगी। सबको अच्छा लगना चाहिए। गांव की बात खराब नहीं होनी चाहिए।,,,, तो ये थी उस छोटे से गांव के लोगों की भावनाएं। जिन्होंने अपनी जेब से एक खेल आयोजन के लिए पैसा दिया। और राष्ट्रीय स्तर के ये नेता बेकार की बयानबाजी में उलझे हैं।

Tuesday, July 27, 2010

किसके लिए हुए वे शहीद


कल करगिल विजय दिवस था। करगिल कश्मीर में कबायलियों के नाम पर छद्म पाकिस्तानी सैनिकों का घुसपैठ और कब्जे का प्रयास। 1999 में हुई इस बड़ी लड़ाई में देश के सवा पांच सौ से अधिक जवान शहीद हुए और करीब सवा हजार जवान घायल हुए। लड़ाई को ग्यारह साल गुजर गए हैं। पर आश्चर्य करगिल विजय दिवस पर सरकार की ओर से कोई आयोजन नहीं हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने कई जगहों पर शहीदों की विधवाओं को सम्मानित किया। सरकारी स्तर पर कोई कार्यक्रम नहीं होना गहरे सवाल खड़े करता है। क्या करगिल की लड़ाई एनडीए सरकार के कार्यकाल में हुई इसलिए कांग्रेस सरकार उन शहीदों का सम्मान नहीं करना चाहती, और क्या इसीलिए भाजपा सम्मान के कार्यक्रम आयोजित कर रही है। सम्मान समारोह भाजपा आयोजित कर रही है, तो इसका कोई ज्यादा गलत संदेश नहीं है। सम्मान होना चाहिए भले ही बैनर कोई भी हो। पर शहीदों को लेकर राजनीति क्यों। राजीव गांधी, इंदिरागांधी, जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिवस, पुण्यतिथि सहित अन्य अवसरों पर अखबारों को विभिन्न मंत्रालयों के सरकारी विज्ञापनों से भर देने वाली सरकार का क्या देश की सीमा की रक्षा कर प्राण गंवाने वालों के प्रति कोई कर्तव्य नहीं बनता। करगिल के इतिहास को लेकर सेना में चलने वाली लड़ाई को दरकिनार करिए। सोचिए सवा पांच सौ जिंदगियां कम नहीं होती। देश के लिए प्राण गंवाने वालों ने कभी नहीं सोचा होगा की यूं वे हमारी छीछली राजनीति में दल विशेष के शहीद हो कर रह जाएंगे।
करगिल शहीदों को मेरी विनम्र श्रद्धाजंली, प्रभु उनके परिवारों को संबल प्रदान करे।


पुनश्चः हां एक बात का संतोष है, कम से कम से करगिल लड़ाई में शहीद होने वाले जवानों के परिजन बहुत ज्यादा कष्ट में नहीं है। उन्हें जो पैकेज मिला वो उनके सम्मानजनक जीवन के लिए वाकई जरूरी था। हां, कुछ गड़बड़ियां, इन मामलों में भी जिन्हें सरकार त्वरित गति से सुलझाए। जहां परिवारों का मामला हैं वहां भी सरकार को कुछ दखल देना चाहिए।

Monday, July 26, 2010

कामचलाऊ अंदाज

सरकार राज्य में जल प्राधिकरण बनाने का मन बना रही है। प्रदेश में मानसून के उम्मीद से कमतर रहने पर अब सरकार को यह खयाल आया है कि पानी का संरक्षण आवंटन करने के लिए कोई व्यवस्था होनी चाहिए। ठीक है यदि सरकार को अब यह खयाल आया है कि पानी का इस्तेमाल सोच समझकर होना चाहिए और इसके लिए कोई नियामक होना चाहिए। पर सवाल उठता है कि विषम भौगोलिक परिस्थितयों वाले प्रदेश के लिए सरकार के अब तक किए गए सारे उपाय निष्फल क्यों हो गए। पानी जैसे संसाधन का संरक्षण अब तक केवल नारों के दायरे से बाहर क्यों नहीं निकल सका। हर माह सैकड़ों करोड़ रुपए की पेयजल योजनाओं की घोषणा और फिर सालों की देरी से पूरे होने के बाद विफल हो रही योजनाओं की जिम्मेदारी किसकी है। क्या नए प्राधिकरण की घोषणा से सरकार यह कहना चाहती है कि इस काम में लगे उसके विभाग पूरी तरह नाकाम रहे हैं। इतने सालों से इतने इंजीनियरों का अमला क्या कर रहा था। उन्हें सही दिशा में काम करवाने के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों को क्या हो गया था। यदि हम पानी का सही आकलन और आवंटन ही नहीं कर पा रहे हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है। पहले सरकार ने ही एनीकट बनाने की बात की। गांव गांव में जगह जगह एनीकट बने। इसके लिए सरकारी योजनाएं बनीं। और अब कहा जा रहा है कि इन एनीकटों ने बड़े बांधों, पेयजल योजनाओं का गला घोंट दिया। क्या इंजीनियरों को पहले पता नहीं था कि किस एनीकट में रुकने वाले पानी की मंजिल कौन सा बांध है। और कितने एनीकटों के बाद बांध तक पानी पहुंचेगा ही नहीं। हद तो तब है जब सरकार अवैध एनीकटों को हटाने की बात तो करती है पर इसे हटाने के लिए जिम्मेदार कौन है यह स्पष्ट ही नहीं करती। सारे विभाग मिल कर ढपली बजानें में लगे हैं। हकीकत तो यह है कि अमृत कहने वाले पानी के प्रति सरकार कभी गम्भीर रही ही नहीं, चाहे किसी भी दल की सरकार रही हो। अधिकारी काम चलाऊ योजनाएं पेश करते हैं और विशेषज्ञ उन पर उसी अंदाज में ठपा लगा देते हैं। और फिर इसकी क्या गारण्टी है कि यह कामचलाऊ अंदाज प्राधिकरण के गठन के बाद खत्म नहीं हो जाएगा। आखिर इन प्राधिकरणों में भी रिटायर्ड आईएएस अफसर ही लगाए जाएंगे। सरकार हर साल लगातार बढ़ते डार्क जोन का रोना रोती है, पर एक भी जगह पर नए ट्यूबवैल खोदने से रोकने की कारगर कार्रवाई नहीं कर पा रही। सरकार चाहे तो क्या नहीं हो सकता। पानी और कुछ नहीं केवल भ्रष्टाचार की गंगा बहाने के काम आ रहा है। हर बार एक नई योजना और नया तखमीना। आखिर यह कामचलाऊ अंदाज कब खत्म होगा।

Saturday, July 10, 2010

केसर क्यारीःपीढ़ी का दर्द, और पथराव

लम्बे समय बाद कश्मीर में सेना सड़कों पर गश्त कर रही है। 11 जून से शुरू हुआ प्रदर्शनों का सिलसिला एक माह बाद भी थमने का नाम नहीं ले रहा। जब लगने लगा था कि केसर क्यारी में अमन का माहौल है, पंजाब के बाद एक और मोर्चे पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की जीत होती नजर आ रही थी। फिर एकाएक क्या हुआ कि सालों की मेहनत से जमा विश्वास यूं बहता दिखने लगा। क्यों लोग यूं सड़कों पर उतर, अपना आक्रोश जाहिर कर रहे हैं। सुरक्षा बलों की जांच के तथ्य कहते हैं इसमें पाकिस्तानी हाथ है। पाकिस्तान में बैठे हुक्मरान यहां पर उनके पिट्ठू नेताओं के जरिए हालात को हवा देने में लगे हैं। पथराव के लिए लोगों को पैसे दिए जा रहे हैं। इस तरह की बातचीत को रिकॉर्ड किया जा रहा है। इस सबमें शामिल लोगों की पहचान कर उनसे सच जानने का प्रयास किया जा रहा है। ये तथ्य अपनी जगह हैं, पर कहीं न कहीं एक बात तो तय है कि घाटी में काम कर रही जनता की सरकार से कोई गलती जरूर हुई है। पिछले एक माह में केन्द्र सरकार ने कई बार कहा कि कश्मीर में राजनीतिक पहल की जरूरत है, फिर कहां है वो राजनीतिक पहल। क्यों नहीं है वहां के नेताओं में अवाम के बीच जाने की हिम्मत। क्यों नहीं वो लोगों का विश्वास लौटा पाते। एक ओर कश्मीरी युवक आईएएस जैसी परीक्षाओं में सफल हो रहे हैं। तो दूसरी तरफ महज तेरह साल के मासूम पथराव जैसे कामों में क्यों कर जूनून का अनुभव कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि शांति बहाली के दौर में पुनर्निर्माण की जो प्रक्रिया तेजी से चलनी चाहिए उसमें कमी रह गई। लोगों के जीवन के लिए जरूरी इमदाद को उन तक पहुंचाने में कसर रह गई। और कहीं यही कसर तो असंतोष को भड़काने के लिए बारूद नहीं बन गया। क्यों छोटे बच्चे और युवा पथराव में, प्रदर्शन में जुटे हैं। जिस उम्र में स्कूल कॉलेज जाना चाहिए, करियर की चिन्ता करनी चाहिए वहां वो क्यों विध्वंसात्मक गतिविधियों में इन्वॉल्व हैं। क्यों अपने ही लोगों के खिलाफ पथराव को बहादूरी समझ रहे हैं। तेरह साल के मासूम पत्थरमार को तो पता भी नहीं होगा कि वो क्यों पथराव कर रहा है। दरअसल कहीं कश्मीर की एक पूरी नई पीढ़ी स्वविकास की राह पर चलने से वंचित तो नहीं हो गई। खबरें आ रही हैं कि कश्मीर में कई प्रमुख नेता उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व से खुश नहीं हैं। क्या हो गया कि महज कुछ साल पहले जो नेतृत्व नई हवा का झोंका लग रहा था अब गर्मी में ओढ़ा हुआ सा कम्बल लगने लगा है। बहुत देर होने से पहले सही इलाज करना जरूरी होगा। हालात काबू में आ चुके थे, उन्हें बिगड़ने देने का खतरा उठाना मूर्खता होगा। अवाम को स्वविकास के अवसर देने होंगे। स्कूल, कॉलेज और फिर सम्मानित नौकरी। वैसा ही सम्मानित जीवन जो भारत की पहचान है, सुनिश्चित करना होगा। तभी पिछले चुनाव में बढ़िया जीवन की आस में आतंकी बंदूकों की परवाह किए बिना मतदान के लिए उमड़ी जनता का भरोसा कायम रह पाएगा।

Friday, July 9, 2010

प्रेम भी परहेज भी

पिछले कुछ दिनों में एक बात तो कम से कम साफ हुई है। देश की अवाम को मंहगाई और भ्रष्टाचार दोनों से ही घोर परहेज है तो उतना ही प्रेम भी है। परहेज ड्राइंग रूम की बहस तक सीमित है तो प्रेम कुलांचे भरता रसोई और जीवन के रंग रंग में समाया है। कहने को महंगाई कमर तोड़ रही है। हर कोई दुहाई दे रहा है कि मंहगाई बहुत है भाई पर बाजारों में से भीड़ है कि कम ही नहीं हो रही। कोई भी दुकानदार, चाहे मॉल का हो या गली का, यह नहीं कह रहा कि लोग कुछ खरीदते क्यों नहीं। महंगा है पर लोग जमकर खरीद रहे हैं। फिर कहां और कैसी है मंहगाई। मेरे एक वरिष्ठ साथी अक्सर कहते हैं कि महंगाई कोई मुद्दा नहीं है, यदि महंगाई मुद्दा होती तो सरकार दुबारा नहीं आती। लोग उसे वोट नहीं देती। इतनी महंगाई के बावजूद कोई भी एक शख्स ऐसा नहीं मिलता जो महंगाई के कारण अपना टूथपेस्ट, साबुन, तेल या और किसी चीज का ब्राण्ड बदलता हो। किसी ने भी महंगी चीनी के चलते चाय के प्यालों में कमी या चीनी की मात्रा में कटौती नहीं की। इतना ही नहीं परिवारों की वीकली, बाईवीकली और मंथली आउटिंग में भी कोई कमी नहीं हुई है। बल्कि बढ़ोतरी ही हुई है। फिर कहां है मंहगाई। जब जीवनशैली पर असर ही नहीं है तो महंगाई का मुद्दा तो खत्म हो ही गया न। पर हां मानव का स्वभाव है ज्यादा से ज्यादा पैसा अपने पास रखना। कमाई ज्यादा हो और खर्चा कम हो तो बेहतर। जो बच जाए वो ही तो अमीर बनाएगा। स्टेट्स देगा। और फिर ज्यादा मंहगी स्टेट्स वाली चीजों की खरीद में काम आएगा। इसलिए लगता है कि अरे एक किलो चीनी में 12 रुपए ज्यादा चले गए। पेट्रोल के खर्च में 200 रुपए बढ़ गए। बच जाते तो कुछ नया खरीद लाते। जैसे एलसीडी टीवी, डबल डोर फ्रीज, या ए.सी.। कार भी अब आठ सौ नहीं चलती, कम से कम वैगनआर तो चाहिए। उसकी फाइनेंस की किश्त ही चुक जाती। तो कुल मिला कर महंगाई अभाव का नहीं असंतोष का पुराण है। इसलिए इसमें गम्भीरता भी नहीं है। हां, जिनके लिए दो जून रोटी का संकट है वो तो जब चीनी ढाई रुपए किलो थी तब भी था, और जब चीनी और ऊंचे पहाड़ पर जा बैठेगी तब भी रहेगा। उनका अभाव भी महंगाई से नहीं बल्कि काम की उपलब्धता से जुड़ा है। इसलिए मंहगाई बहस का मुद्दा है पर परेशानी का नहीं। इसके लिए परेशानी नहीं उठाई जा सकती। इसी कारण कार में बैठा, ऑफिस जाने के लिए तैयार शख्स बंद का समर्थन नहीं करता, और वाकई जब महंगाई से कोई फर्क पड़ ही नहीं रहा तो बंद जैसे कष्टकारक विरोधप्रदर्शनों के मायने क्या हैं। दूसरा मुद्दा है भ्रष्टाचार जिसे करते समय लोग इसे शिष्टाचार मानते हैं और जब इसका जिक्र हो तो इसे निंदाचार मानते हैं। हर कोई अपना काम निकालने के लिए कुछ देने में बुरा नहीं मानता। किसी का काम निकालते समय कुछ लेना उसका हक हो जाता है। पर चौपाल पर गरियाना भी उसका हक है। केतन देसाई (एमसीआई के प्रमुख) या अन्य प्रमुख लोग तो मात्र चावल हैं, पूरा खेत ही घुना हुआ है। किस से और कहां उम्मीद हो कि कुछ सही होगा। हर आदमी जो डायस पर खड़ा हो कर भाषण पेलता है, नीचे उतरते ही व्यवस्था की जुगाड़ में लग जाता है। जब हर कोई ऐसा कर रहा है तो बात क्या है। क्यों नहीं लोगों को भ्रष्टाचार करते समय हिचकिचाहट का अहसास होता है। जो लोग किसी भी कीमत पर न भ्रष्ट होते हैं न किसी को रिश्वत देते हैं उन्हें लोग सनकी कहती है। हंस कर टाल देती है, जमाने के साथ चलने की सीख देती है। अंत में क्या करें जमाना ही ऐसा है, का ब्रह्मास्त्र तो है ही। क्या यह सुविधाचारी और स्वार्थी समाज की निशानियां है। शायद हमारे पुरखे जानते थे कि हम ऐसे ही हैं। इसलिए उन्होंने पंचतंत्र, महाभारत, रामायण व अन्य पुराणों, उपनिषदों के माध्यम से सदाचार की सीखें गढ़ी और निरन्तर इनका पाठ करते औऱ करवाते रहे। ताकि शायद सुन कर ही हम सदाचारी हो जाएं। पर पता नहीं क्यों हो ही नहीं पाते। ...