Thursday, September 7, 2017

कौन हैं रोहिंग्या, क्यों पहुंचे जम्मू? Who are Rohingya Muslims?



इन दिनों भारत के समाचार माध्यमों की सुर्खियों में एक कदरन नया शब्द तैर रहा है। और वह शब्द है रोहिंग्या। रोहिंग्या मुस्लिम्स। यह है पूरा शब्द। नाम से अंदाजा लग जाता है कि वे मुस्लिम हैं। पर उनके नाम के साथ उपसर्ग लगा है रोहिंग्या। वे करीब 11 लाख हैं। वे रोहिंग्या या रुइंग्गा बोली बोलते हैं।  वे म्यांमार यानी बर्मा के उत्तरी पश्चिमी प्रान्त राखिने में रहते हैं। रोहिंग्या बोली का लहजा राखिने में बोली जाने वाली अन्य भाषाओं से अलग है।उनका लहजा बांग्लादेश के चिट्टागोंग में बोली जाने वाली बंगाली के ज्यादा नजदीक है। दरअसल बौद्ध बहुल बर्मा में रोहिंग्या मुसलमानों को घुसपैठिया माना जाता है। रोहिंग्या मुसलमानों को बर्मा के 135 आधिकारिक सांस्कृतिक समूहों में शामिल नहीं किया गया और 1982 से ही उन्हें पूरी तरह से म्यांमार की नागरिकता देने से इनकार किया जाता रहा है। भारत में यह इन दिनों इसलिए सुर्खियों में हैं क्योंकि वे बड़ी तादात में न केवल भारत में मौजूद हैं बल्कि कई संवेदनशील इलाकों को उन्होंने अपना ठिकाना बना लिया है। कई जगहों पर उनके खिलाफ मामले भी दर्ज हुए हैं। इस सबको देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें वापिस म्यांमार भेजने की कोशिशें शुरू की हैं। लेकिन दो रोहिंग्या मुसलमानों ने भारत सरकार के इन कोशिशों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है जिसके बाद कोर्ट ने सरकार से इसकी वजह पूछी है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही बर्मा में विरोध
बौद्ध बहुलता वाले बर्मा ने रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति सख्त रुख अपनाया है। बर्मा के आम लोगों और सरकार का मानना है कि रोहिंग्या ुसलमानों के कारण वहां अशांति रहती है। वहां आतंककारी घटनाएं हो रही हैं। बर्मा की सेना निरन्तर रोहिंग्या आबादी की तलाशी लेती है। लगभग सभी रोहिंग्या मुसलमान राखिने के पश्चिमी तटीय क्षेत्र में रहते हैं और वे बिना सरकारी अनुमति के कहीं आने जाने के अधिकारी नहीं हैं। रोहिंग्या मुसलमानों का कहना है कि बर्मा के सैनिक उन पर जुल्म ढाते हैं। और इसके  चलते बड़ी संख्या  में रोहिंग्या मुसलमान बर्मा से यहां वहां पलायन कर रहे हैं। वहीं बर्मा सरकार का कहना है कि वे हिंसक गतिविधियों और आतंककारियों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है।
रोहिंग्याईयों की है अपनी सेना
रोहिंग्या मुसलमानों की एक अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी ( अर्सा) है। जिसमें बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुस्लिम युवा सम्मिलित हैं। रोहिंग्या मुसलमानों का तर्क है कि बर्मा सेना के जुल्मों सितम के प्रतिकार स्वरूप युवा इस सेना में सम्मिलित हो रहे हैं। अन्तरराष्ट्रीय विशेषज्ञ अर्सा को एक संगठित सेना नहीं मानकर युवाओके छोटे छोटे समूहों का एक संगठन मानते हैं जो चाकू,  लाठियों और बहुत हल्के स्तर के आईईडी से लैस हैं और यदा कदा पैरामिलिट्री चैकपोस्ट्स पर हमला करते रहते हैं। पर उन्हें यह आशंका है कि देर सवेर अर्सा के घरेलु आतंककारी घटनाओं को अन्तरराष्ट्रीय जेहादियों का समर्थन मिलने लगेगा। अलकायदा और तालिबान ने इसके पक्ष में बयान दे दिए हैं।
रोहिंग्याओका दावा 12 वीं शताब्दी से हैं बर्मावासी
राखिने को रोहिंग्या अराकान क्षेत्र बताते हैं। रोहिंग्याओं के एक संगठन अराकान रोहिंग्या नेशनल ऑर्गेनाइजेशन का दावा है कि रोहिंग्या अराकान में सदियों से रह रहे हैं।  अंग्रेजों के करीब सवा सौ साल ( 1824-1948) के शासन के दौरान भारत के तात्कालीन बंगाल के वर्तमान बांग्लादेश वाले क्षेत्र से बहुत बड़ी संख्या संख्या में मजदूर म्यांमार पहुंचे थे। चूंकि तब म्यांमार ब्रिटिश भारत का एक प्रान्त था और इस तरह के आव्रजन को आन्तरिक आव्रजन माना जा कर इसे सामान्य माना गया। लेकिन तब क मूल निवासियों ने मजदूरों की इस आवक को नकारात्मक लिया।इस आधार पर बौद्ध रोहिंग्याओं को बंगाली मानते हैं। ह्युमन राइट्स वाच की एक रिपोर्ट के अनुसार म्यांमार की स्वतंत्रता के बाद म्यांमार की सरकारों ने ब्रिटिश काल के दौरान हुए आव्रजन को अवैध माना और इसी आधार पर उन्हें नागरिकता देने से इनकार कर दिया। स्वंतत्रता के बाद पारित यूनियन सिटीजनशिप एक्ट में किन सांस्कृतिक समूहों को नागरिकता दी सकती है इसको परिभाषित किया गया था और रोहिंग्या इसमें नहीं थे। हालांकि इस एक्ट में उन लोगों को परिचय पत्र के लिए आवेदन करने की अनुमति दी गई थी जिन्हें म्यामांर में रहते हुए दो पीढ़ी से ज्यादा समय हो गया था। रोहिंग्याओं को प्रारम्भ में इस तरह के परिचय पत्र भी दिए गए और पीढ़ीगत आधार पर नागरिकता तक दी गई। इस समय के दौरान कई रोहिंग्या पार्लियामेंट का हिस्सा भी रहे। 
सैन्य  तख्तापलट के बाद बदले हालात
म्यामांर में 1962 के सैन्य तख्तापलट  के बाद हालात तेजी से बदले। सभी नागरिकों के लिए नेशनल रजिस्ट्रेशन कार्ड हासिल करने जरूरी कर दिए गए। इस प्रक्रिया में रोहिंग्याओं को विदेशी परिचय पत्र जारी किए गए। जिससे वे केवल नौकरी और शैक्षणिक सुविधाओं तक सीमित रह गए। वर्ष 1982 में एक नया नागरिकता कानून पारित हुआ। इसमें 135 सांस्कृतिक समूहों को बर्मा क नागरिकताका अधिकारी बताया गया। ोहिंग्या इनमें नहीं थे और इससे रोहिंग्या पूरी तरह से राज्यविहीन हो गए। नागरिकता के तीन स्तरों में सबसे मूल स्तर ( नैचुरलाइज्ड सिटिजनशिप) के लिए व्यक्ति को एक सबूत प्रस्तुत करना अनिवार्य है कि उसका परिवार 1948 से पहले म्यामांर में रह रहा है इसके साथ ही उसे बर्मा की को एक राष्ट्रीय भाषा धारा प्रवाह आनी चाहिए। अधिकांश रोहिंग्याओं के पास इस तरह का कोई दस्तावेज नहीं था। इसके बाद उन पर कई तरह के प्रतिबंध आयद हो गए। जिसके चलते रोहिंग्याओं ने म्यांमार से बड़ी संख्या में पलायन करना शुरू कर दिया और वे बांग्लादेश, मलेशिया, थाईलैंड व अन्य दक्षिणएशियाई देशों में जाने लगे।
बांग्लादेश ने भी ठुकराया
मूलतः बांग्लादेशी माने जाने वाले इन रोहिंग्याओं को वहां भी जगह नहीं मिली।बांग्लादेश ने जो कि स्वयं ही आबादी के विस्फोट से जूझ रहा है इन्हें अपनाने से इनकार कर दिया। बांग्लादेशी सेना द्वारा इन्हें वापिस म्यामांर की सीमा में धकेला जाने लगा। जिसके बाद रोहिंग्याओं ने नया ठिकाना भारत के रूप में चुना है। बांग्लादेश रोहिंग्याओं की लगातार बढ़ती घुसपैठ से त्रस्त है और उसने म्यामांर की सेना के साथ मिल कर राखिने के सशस्त्र लड़ाकूओं के खिलाफ अभियान चलाने का प्रस्ताव दिया है।
बर्मा मानता है आतंककारी
म्यांमार की चांसलर आंग सान सू की की सरकार रोहिंग्याओं को राखिने में लगातार फैल रही हिंसा की घटनाओं के लिए जिम्मेदार मानती है। और इन्हें आतंककारी करार देती है। सरकार का मत है कि बढ़ती आतंककारी गतिविधियों के विरुद्ध उन्हें कानूनी गतिविधियों के द्वारा देश की रक्षा करने का हक है। रोहिंग्याओं पर पुलिस व सेना के साथ ही आम नागरिकों पर भी हमले करने के आरोप हैं।
क्या है अराकान रोहिंग्यान साल्वेशन आर्मी ?
अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (अर्सा) को पहले अल-यकीन फेथ मूवमेंट के रूप में जाना जाता था। इसने मार्च 2017 में अपने नए नाम के साथ एक बयान जारी किया और कहा यह रोहिंग्या समुदाय की सुरक्षा करने, नष्ट होने से बचाने, एवं संरक्षित करने के लिए कटिबद्ध है। समूह का कहना है कि वे अन्तरराष्ट्रीय कानूनों के तहत आत्मरक्षा के लिए मिले अधिकारों के जरिए पूरी क्षमता से लड़ाई लड़ेंगे। म्यामांर सरकार ने इसे आर्मी को आतंककारी संगठन घोषित कर रखा है। इस सेना ने राखिने स्टेट में पुलिस पोस्ट्स एवं सैन्य ठिकानों पर हमले की जिम्मेदारी भी ली है। अरसा उन लोगों को भी मार रहा है जिन पर उसे सरकार का  भेदिया होने का शक है। अर्सा के संबंध सउदी अरेबिया में रह रहे रोहिंग्याओं से भी होने की आशंका है।  
भारत में बड़ा सवाल जम्मू-लद्दाख तक कैसे पहुंचे?
भारत में रोहिंग्याओं के आने की खबरें लगातार बढ़ रही हैं। एक अन्तरराष्ट्रीय मीडिया एजेंसी के अनुसार करीब 40 हजार से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमान भारत में आ चुके हैं जो जम्मू, हैदराबाद, दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा, उत्तरप्रदेश व राजस्थान में पहुंच चुके हैं। इन रोहिंग्याओं के इस बड़ी संख्या में जम्मू तक पहुंचना एक बड़ी पहेली बन कर सामने आ रहा है। जम्मू व सांबा के राजीव नगर, कासिम नगर, नरवाल, भंठिड़ी, बोहड़ी, छन्नी हिम्मत नगरोटा इलाके में बसे हैं। जो इस क्षेत्र के जनसांख्यिकिय समीकरणों को प्रभावित करने वाला है। जम्मू में  पांच हजार, सांबा में 600 और लद्दाख में साढ़े सात हजार से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमान पहुंच गए हैं। आखिर रोहिंग्याओं ने रहने के लिए जम्मू और लद्दाख को क्यों चुना यह भी एक बड़ा सवाल है।