Tuesday, December 16, 2008

हार का हार किसके गले में

ज़माने की दोपहर हो चली थी और हमारी सुबह। अख़बारों का जायजा लिया जा चुका था। चाय का दौर चल रहा था। अचानक गेट का दरवाजा खुला और चाचा हंगामी लाल दनदनाते हुए घुसे चले आए। उनका चेहरा थोड़ा तमतमाया सा लग रहा था. मैंने कहा, चचा क्या बात है, काहे गर्म हुए जा रहे हो।
अरे यार क्या बताये हम हार ले कर घूम रहे हैं पर कोई मिल ही नही रहा जिसको पहनाएं।
हमने कहा ये क्या बात हुई चच्चा, ऐसे कोई क्यो पहनेगा और फ़िर ये तो बताओ की ये हार है किसका, किस लिए पहनाना चाहते हो ?
अरे ये भी कोई बात हुई भला। हार तो हार है, फ़िर भी जानने को इतना ही बेताब हो तो सुनो की ये है हार का हार । भगवा वालों की सूबे में हार हुई है सो उनके ही नाप का लाया था। खास भगवा फूल भी गुथवाए थे । पर ये तो हद ही हो गई माला पहनने के आदी गले अब इधर का रुख ही नहीं कर रहे। बात में मुझे भी दम लगा। अब हार आ गया है तो पहनाया ही जाएगा। पर चच्चा को इसे लाने की क्या सूझी!
क्या चाचा तुम काहे लाये ?
हम थोड़े ही लाने वाले थे , वो तो सूबे के भगवा अध्यक्ष जी खुद ही बोले । हम हार का विश्लेषण किया हूँ । हमें ही हार पहनाये जायें। पद मुक्त समझा जाए। सो ले आए हम ये हार और लगे पहनाने। पर अब उनके सिपहसलार कहते है, अरे हार उन्हें नही महारानी को पहनाओ आख़िर ज़ंग के सारे सैनिक तो उन्ही के थे। हम कहे वो तो ठीक है भइया फ़िर ये पद मुक्ति का राग क्यों ? वो बोले ऐसा ही होता है। यही दस्तूर है।
उनके दस्तूर के चक्कर में पैसे हमारे ठुक गए। सोचा चलो जिसके सैनिक लड़े उन की देहरी पर सजदा कर उन्हें हार पहनाये। पर वहां गए तो पता चला की वे खुद किसी और ही हार की तलाश में दिल्ली के मंदिरों में धोक लगा रही हैं । और तो और उनके भी दरबारी कम नही थे हाथ में हार देखते ही सारा माजरा समझ गए , तुंरत कह उठे देखो भाई, महारानी जी ने तो पहले ही कह दिया था की सैनिक तो मैदान में लड़ रहे हैं पर सेनाओ का प्रबंध ठीक नही हुआ तो आपकी आप जानो । वोही हुआ महारानी के चुने सनिक तो मैदान जीत गए। हारने वाले क्यों हारे , किसने किसको हराया ? आप ख़ुद ही देख लो। रही बात जिम्मेदारी की तो वो अभी भी हार पहनने के ही चक्कर में डेरा डाले हुए है। सो जो ख़ुद ही हार पहनने की कतार में हो वो पराजय की जिम्मेदारी का हार क्या पहनेगा । सो हम वंहा से भी निकल लिए । कुछ आगे ही गए थे की रास्ते में कुछ लोग मिल गए कहने लगे भाई माला लाये हो तो वापस मत ले जाओ कुछ लोग हैं जो सबका दुःख दर्द बांटते हैं स्वयम आगे बढ़ कर सेवा करते हैं । इस बार भी उन्होंने खूब सेवा की है , उन्हें ही जाकर उनके भवन में ये हार पहना दो । हम वंहा चले गए । लेकिन उनका तो तर्क ही जोरदार था, कहने लगे चचा ये जो राजनीति है , इस से हमारा कोई लेना देना नहीं है । हम तो केवल संगठन और सेवा का काम करते है। माला - वाला से भी हमें कोई मतलब नही है। सो आपकी माला आप ही जानो। तो भतीजे अब ये रही माला तुम ही बताओ इसका क्या करूं....?
कुछ देर सोचने के बाद मैने कहा, चचा एक बात बताओ ये हराने- जिताने का काम कौन करता है ...?
जनता .. न....?
हां,, !
.....और तुम भी तो जनता हो, सो ऐसा करो की ये हार का हार तुम ही पहनो। जीत का हार पहनने वाले तो बहुत मिल जायेंगे पर हार का हार तो जनता को ही पहनना होगा।

होम लोन- मन्दी की अनोखी मंडी

लीजिये जनाब एक बार फ़िर से होम लोन की मण्डी सज गई है। प्रोपर्टी बाज़ार के सूरमाओं की बांछे खिल गई हैं। , हमारा इतना कहना था की चाचा हंगामी लाल एकदम से बिगड़ पड़े, कहने लगे तुम को तो हर बात मैं राजनीति ही दिखाई पड़ती हैं। अब यदि कर्जा सस्ता हुआ हैं, गरीब को घर मिल रहा हैं, तो तुम्हारे पेट में क्यों बल पड़ रहे हैं, काहे इसे मण्डी कह रहे हो?
हम कहे चाचा , बात ग़रीब या अमीर की नही हैं, सरकार की भी नही हैं, है तो बस प्रोपर्टी बाज़ार के मदारियों की हैं, उनकी डुगडुगी बजेगी और नौकरीपेशा गरीब मारा जाएगा, बैंक वाले मिल कर ताली बजायेंगे।
पाँच साल पहले भी ऐसी ही मण्डी सजी थी, खूब कर्जा सस्ता हुआ था। चौदह से सात फीसदी तक गिर गया था, हर कोई खोमचा लगाये आवाज लगा रहा था मकान ले लो, मकान लेलो और अपने पीछे एक रहाडी पर कर्ज बांटने वाले बैंक के मेनेजर को बिठाये हुए हाथों हाथ नए मकान को गिरवी रखवाने का पूरा प्रबंध किए रहता था। तब लोंगो ने खूब जम के मकान खरीदे । मकान थे की कम नही पड़ते थे बस दाम जरा बढ़ जाते तो बैंक वाले लोन अमाउंट बढ़ा देते और कहते की ई ऍम आई में कुछ सौ रुपये बढ़ जायेंगे बस। सो लोग लगे बड़े और ऊंचे, बढ़िया मकान खरीदने। बेचने वाले तो बेच गए। उल्टा सीधा सब ठेल गए। कुछ खुद रखा कुछ अपने राजनेतिक आकाओं को खिला गए और पार्टी में बढ़िया ओहदा पा गए । पीछे बच गए किराये की रकम में अपने घर का सपना साकार करने वाले लेनदार और उम्रभर किराये के रूप में सूद पाने वाले देनदार।
इतनी बात सुन चाचा से रहा नही गया फ़िर लपक कर बोले देखो ये किरायेदार पुराण हमें मत सुनाओ , मुझे तो बस इतना बताओ की इस सबसे तुम्हारे पेट में क्यों दर्द उठ रहा हैं?
चाचा पहले पूरी बात सुनो, फ़िर कुछ कहना , चलो एक बात बताओ, तुम अभी किराए के मकान में रहते हो?
हाँ।
कितना किराया देते हो?
दो हजार
मान लो तुम्हारा मकान मालिक किराया बढ़ा दे तो ? तीन हज़ार कर दे तो?
में तो मकान बदल लूँगा। तीन हज़ार कोई मेरे जैसा आदमी दे सकता हैं, बच्चों की फीस कंहासे लाऊँगा?ना बाबा न मकान बदलना ही भला।
सही कह रहे हो चाचा तुम तो मकान बदल लोगे पर ये बैंक के किरायेदार और अपन घर के मालिक तो मकान भी नही बदल सकते। समझे ?
सही कह रहे हो। पर फिर भी?
क्या फिर भी? ये बैंक वाले जब चाहे तब कोई न कोई बहाना बना कर ब्याज बढ़ा देते हैं। अब ये जो नया पासा फेंका हैं, सरकार के दबाव में तो इससे पुराने कर्जदारों को तो कुछ मिलना नही हैं, इन्हे लूटने के लिए नए कर्जदार और मिल जायेंगे । मंदी के नाम पर मण्डी का खेल हो रहा हैं। बैंक और बिल्डर चोक छक्के मारेंगे और हम तुम बाउंड्री लाइन के बाहर से बोल ला ला कर देंगे ।
अब के चचा बोले, बात तो तुम्हारी दमदार हैं भतीजे, लेकिन इंसान बेचारा क्या करे सपनो को हकीक़त में बदलते हुए ठगा रह जाना उसका मुकद्दर हैं।

Tuesday, December 2, 2008

शोर थमा अब जोर से चुनो

लो थम गया चुनाव का शोर। भाषण का जोर। भाषाओँ का सभ्य असभ्य आक्रमण । विकास से भ्रष्टाचार तक पाँव रखने और हाथ थामने का दौर। जादू के जोर से वोट की बोट तैराने का करिश्मा । नेताओ की फौज और कार्यकर्ताओं का टोटा । बगावत के सुर और मान मनोवल के बोल। पुराणी पंगत और पुराने ही जीमनखोर। अख़बारों की कतरन और नारों की खबरें। सामंतवाद और आतंकवाद का राग। राम और रहीम की दुहाई। गरीब की जोरू सबकी भोजाई । यानी चुनाव प्रचार के इन दिनों में वो सब था जो आम चुनाव में होता है, बस नही था तो लोगों में जोश नही था। प्रचार थम गया जो कभी परवान ही नही चढा था। अशोक के पराक्रम से वसुंधरा के शौर्य तक । इन चुनावों में कुछ भी नया नही था। कोई मुद्दा नही था। कोई लहर नही थी। है तो बस वोट डालने की मजबूरी । हिन्दुस्तानी होने के नाते वोट डालना है ये जरूरी है ,, पर किसे और क्यों डालें इसका कोई जवाब नही है। सो रस्म अदायगी के इस फेर में किसी न किसी की लोटरी खुलेगी । कोई जीतेगा कोई हारेगा । सब किस्मत होगा । जो जीतेगा वो बोलेगा में इसलिए जीता वो इसलिए हारा ,,,, पर हकीक़त तो इतनी ही है की सब किस्मत है ॥ जो जीतेगा वोही जीतेगा । दोनों ही दलों की सत्ता संगठन को मानाने से इंकार कराती है और संघठन है की अपनी चाल से चलता है। तो मानिये की देश के भाग की तरह हमरे राज के भाग भी किस को रजा और किस को रंक बनते है इसके बटन भले ही परसों दबंगेपर कोई इस मुगालते मैं नही रहे की उसका बटन कोई फ़ैसला करेगा। हम तो नही कर रहे पर आप भी मत नही करना।

Saturday, November 29, 2008

धमाका.. धमाका.. धमाका.. धमाका

धमाका.. धमाका.. धमाका.. धमाका .. मुंबई में एक और धमाका ..
अब तक का सबसे बड़ा धमाका.,,
१५० मर गए ,,
सवा तीन सौ घायल हो गए,,
५१ घंटों तक मुंबई में गोलियां गूंजती रहीं ...
पुलिस - सेना - कमांडो सभी ने मिल कर इतना बड़ा हमला नाकाम कर दिया,, चंद लोगों ने पूरा मुंबई जाम कर दिया ,, देश को हिला दिया,, राजनेता हिल गए .,., प्रधानमंत्री संतरी और तमाम जीव जंतरी सभी हिल गए ,,, अब दो -तीन दिन तक हिलते ही रहेंगे ,, बस दो दिन , तीन दिन । बहुत हुआ तो चार दिन हिल लेंगे। देश विदेश के अख़बारों की सुर्खियों पर मुंबई २६ /११ छाया रहेगा,, सरकार के बयान आ गए हैं, और आ जायेंगे ,,, ।
राजनेता अपना काम यानि राजनीती कर रहे हैं , राजनीती नही करने की अपील के साथ, ,,, आतंकी को बख्शा नही जाएगा ,, दुनिया के किसी भी कोने में हो हम नही छोडेंगे ...आतंक का मुहँ तोड़ जवाब देंगे,, (पहले आतंकी को ढूंढ तो लो ) जब हो जाएगा उसे पकड़ लेंगे तो पक्की कारवाई करेंगे ... लेकिन इन सब में एक ही अड़चन है,, पुलिस है, पर कडा कानून नही है,, और कडा कानून हम बना नही सकते ,,, क्योंकि हमारी सरकार का मानना है की कोई भी कडा कानून मानवाधिकारों का हनन हो सकता है,, आप भले ही कहते रहिये की जो मरे हैं उनका भी मानवाधिकार है पर ,,, होता होगा,, मानवाधिकार तो वोटाधिकार से तय होता है। आप जितने बड़े वोट बैंक ....... आपका मानवाधिकार भी उतना ही बड़ा ,,, तो कुल मिला कर आप यह समझ लो की जो कानून है वो तो यही रहेगा,, अब आप इस कानून में कुछ कर सकते हो, उखाड़ सकते हो तो उखाड़ लो ,,। लेकिन हमारे जांबांज पुलिस वालों का क्या कीजिये जो तमाम प्रेशर में भी कुछ कर जाते है आतंक के गुरु को पकड़ लेते हैं । पर वो क्या कहते हैं न की हमारे तो संविधान मैं ही लिखा है की सौ दोषी भले छूट जायें पर एक निर्दोष नही मरना चाहिए सो हम, सो निर्दोषों के खून के बाद भी एक दोषी को बचाने में जुटे रहते हैं ।
अब मुंबई के बाद भी यही होगा। ,, हमारे रहनुमा इसी प्रकार गाल बजा बजा कर बयान देंगे और हमारे पर हुकुम चलते रहेंगे ,। हम मन में सोचेंगे अबकी बार चुनाव आने दो । इन्होने नहीं किया तो हम ही कुछ करेंगे । पर
हम इन्हे ही चुनेगे ,, क्योंकि इनकी पार्टी इन्हे ही टिकेट देगी। हम वोट भी देंगे और गाली भी देंगे ,, पर नाग नाथ या सांपनाथ में से किसी एक को ही चुनेंगे,, । ये हमें कानून की सीख देंगे ,, एकजुट होने को कहेंगे । पर होगा क्या । हम यूँ ही मरेंगे । इस तंत्र मैं यही होना है। कोई निजात नही है। शायद सब नही जानते की क्यों मुंबई ओपरेशन इतना लंबा खिंचा । अन्दर जो बंधक थे वो वो कौन थे जरा नाम सामने आने दीजिये सब सामने आ जयेगा,, । पर हाँ अब इस तंत्र पर ,,शमा चाहूँगा भीड़तंत्र पर भरोसा नही रहा । क्या वाकई ऐ वेडनस डे जैसी बेबसी हो गई लगती है,,, । बस ज्यादा कुछ नही लिखा जा रहा ,, अब कोई तारतम्यता नही बची है बैठना भी नही है,, पर कोई तो समझाओ भाई हमारे वोट लेते हो तो हमारी सुरक्षा भी करो । क्या हमने अपना इंतजाम ख़ुद ही करना होगा ???????

Monday, October 27, 2008

सुनो, बाजार कह रहा है, दीपावली आ गई है


लो जी एक बार फिर करीब तीन सौ साठ (कुछ कम या ज्यादा हो सकते हैं) दिन बाद दीपावली एक बार फिर से आ गई है। महंगाई की आंधी के बीच मंदी के दियों में जल रहा बोनस का तेल कब तक उल्लास के दीपक को जलाए रख पाएगा सबको बस यही इन्तजार है। आप और हम भले ही इस मंदी औऱ महंगाई के दोहरे दैत्य से घबरा रहे हों लेकिन बाजार इस बार राम बना बैठा है और ठान चुका है कि इन दोनों दैत्यों का संहार कर के ही दम लेगा। ऑफर के न्यौतों से सजा धजा बाजार ग्राहकों का इन्तजार कर रहा है। ग्राहक भी तैयार हो कर बाजार जा रहा है। सब कुछ देख रहा है, परख रहा है,पर खरीद कुछ नहीं पा रहा। बोनस का तेल तो पूजा और मिठाई के दिये जलाने में ही खर्च जो हो गया है। आम आदमी की तो क्या कहिए जब बड़ी कंपनियां अपनी स्थापित परंपराओं से पीछे हट रही हैं। कम्पनियां केवल बोनस दे कर ही दीपावली शुभ हो कह रही हैं। लेकिन आप चिन्ता नहीं करें आप घर नहीं सजा सकते कोई बात नहीं बाजार सज रहा है। आप वहां जाइए शौक से घूमिए चमक दमक और रौनक का अहसास करिए जम कर पटाखों की आवाज सुनिए, बच्चों को भी सुनाइए। और दीपावली मनाइये। एक खबर में पढ़ा था इस बार बाजार की बिक्री घटी है और विंडो शॉपिंग करने वालों की तादात बढ़ी है। विग्यापन बाजार में खींच तो सकते हैं पर कुछ खरिदवा नहीं सकते। तो अपना तो सारे प्रसून जोशियों और पीयूष पाण्डेयों से यही कहना है कि भाई अब ऐसा विग्यापन बनाओ जो खरीदने की इच्छा के साथ ही ताकत भी दे। हमारी तो भगवान से यही प्राथॆना है कि वह सभी को खरीदने की ताकत बक्शे ताकि वे तन के साथ ही मन से भी दीपावली शुभ हो कह सकें। अन्ततः एक बार फिर से दीपावली शुभ हो।

Saturday, September 20, 2008

रेलवे का नल, पानी और हवा


ट्रेन अपनी पूरी गति से भागी चली जा रही थी। पत्नी बच्चों के साथ घर लौट रहा श्याम खाली पड़े रिजर्वेशन डिब्बे में चैन से एक बर्थ पर पसर कर सो रहा था। अचानक बच्चे के झिंझोंड़े से उसकी नींद टूटी। बच्चा हाथ में पानी की खाली बोतल ले, कह रहा था, पापा पानी ला दो। ट्रेन एक स्टेशन पर खड़ी थी, और स्टेशन उस इलाके के अच्छे स्टेशनों में से एक था। नींद से उठा श्याम बोतल ले कर डिब्बे से बाहर निकला तो सामने ही शीतल जल लिखी ग्रेनाइट के पत्थर मे सजी, टोंटी देख उसके चेहरे का तनाव गायब हो गया। तुरन्त टोंटी को उठाया और बोतल उसके नीचे। पर यह क्या, टोंटी में से पानी नहीं सूं सूं की आवाज ही आ रही थी। इधर उधर नजर उठाई तो दूर एक खम्भे के चारों औऱ चार टोंटियां लगीं दिखीं। इस बीच स्टेशन पर हर तरफ रेहड़ीयों पर ठण्डा पानी जोर शोर से बिक रहा था। पर नलों में से नदारद था। जाहिर है उस खम्भे के साथ लगीं टोंटियों में भी पानी की जगह हवा ही बह रही थी। पास से गुजर रहे एक स्टेशन कर्मी से पूछा, भाईसाहब यहां पानी नहीं मिलेगा क्या? अरे इतनी बोतलें बिक रही हैं। खरीद लो। ये नहीं स्टेशन पर पानी नहीं है क्या? है, वहां आगे एक प्याऊ है। श्याम भागते भागते प्याऊ तक गया तो पाया कुछ सेवाभावी बुजुर्ग लोगों को पानी पिला रहे थे, बोतलों को कीप से भर रहे थे। पानी क्या था मानों शरबत था, श्याम का मन तृप्त था। पर स्टेशनल की टोंटियों में पानी की कमी अखर रही थी, जाने क्या सूझा। वह सीधा स्टेशन मास्टर के कमरे में घुस गया और कहा, आपके स्टेशन पर कहीं भी पानी नहीं है, आप कुछ करते क्यों नहीं. अरे प्याऊ लगवा तो रखी है, और क्या करें, इससे ज्यादा कुछ चाहिए तो चिठ्ठी लिख देना, रेलमंत्री के नाम, उनका बहुत नाम है, बड़े बड़े कॉलेज में मैनेजमेंट पढ़ा रहे हैं. इसे भी मैनेज करवा देंगे। इन टोंटियों में हवा की जगह पानी बहा देंगे। क्या समझे। श्याम कुछ समझता उससे पहले इंजन की सीटी सुन वह लपका और भागता भागता अपने डिब्बे में चढ़ा। उसकी पत्नी का कहना था, बहुत देर लगा दी आपने, दस रुपए की बोतल ही खरीद लेते। ,,,,,,,

Wednesday, July 23, 2008

हाथ लहराते हुए हर लाश चलानी चाहिए

बरसों बीते कुछ लिखे हुए.....
hअन ये कुछ दिन बरस से ही लगे हैं.

अब सोचते हैं की कुछ लिखा जाए ॥
पर सवाल है की क्या लिखा जाए...
मित्र कहते हैं बहुत सरे मुद्दे हैं,,,
लोकसभा मैं नोटों की बरसात से लेकर डील के डील डोल तक।
सेना से लेकर ऐना तक।
माल्लिका से लेकर करीना ke अक्षय से लेकर दस के दम वाले सलमान तक , सचिन से लेकर धोनी तक और इन सब का बाप मुद्दा है मंहगाईजितना मर्जी आए उतना लिखो हर कोई कलम रगड़ रहा है आप भी रगदो पर हम हैं की चाह कर भी कुछ रगड़ नही पा रहे है,,, एक अजगाह पढ़ाआख़िर इस दर्द की दावा क्या है हमारा जवाब था,,,,

हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलानी चाहिए।

बस भाई हम तो बहुत मेहनत के बाद दुष्यंत जी की इन पंक्तियों को एक बार फ़िर रगड़ सके है, आप कुछ रगड सके तो रगड़ दे, ....

ये पोस्ट भी आज एक मित्र के आग्रह पर,,,

Tuesday, June 3, 2008

होई है सोई जो राम रचि राखा.....

आप सुबह सवेरे टीवी खोलिए खबरों के लिए और खबरें तो नहीं पर हां कैसा बितेगा आपका दिन और आपकी राशि का ग्रह उस दिन किस तरह और कैसे किसे निहाल करेगा इनका हाल पाइए। अब कोई भारत को जादू टोने का देश कहे तो क्या गलत कहता है। जब यहां का इलेक्ट्रोनिक मीडिया, कहा जाता है देश की तरक्की का परिचायक भी यही है, हर सुबह औऱ देर रात जब जी चाहे तब किसी न किसी बहाने से ग्रहों की चाल और मंत्रों के जाप से होनी को टालने औऱ आपके पक्ष में बनाने के उपाय सुझाता रहे तो इसका मतलब देश के बहुसंख्यक लोग यही सब जानना देखना चाहते होंगे। बिचारे संपादक भी क्या करें जब टीआरपी का जिन्न यही संकेत देता है कि लोग इन ग्रह चक्कर में ही फंसे रहना चाहते तो यह सब दिखाने में उनका क्या दोष। आखिर हर न्यूज रूम का सबसे फेवरेट जुमला भी यही है कि लिखो वही (दिखाओ वही) जो सोसायटी में हो रहा हो। यानी मीडिया है सोसायटी मिरर सो यदि सोसायटी ही जादू टोने में विश्वास रखती है तो टीवी न्यूज चैनल्स का क्यों दोष दिया जाए। लेकिन अब सवाल कुछ और है, और जो है वह पहले से कहीं ज्यादा चिन्तित कर देता है। क्या वाकई आम हिन्दुस्तानी को ग्रहों की चाल पर इतना भरोसा है कि हर समय इसी सबके बारे में जानना चाहता है। क्या हमारी सारी एजुकेटेडनेस इन ग्रहों घरों में टेढ़ी तिरछी नजरों और अन्तरदशा महादशा में उलझ कर रह गई है। कुछ तर्क देते हैं कि दरअसल ज्योतिष भी एक विग्यान है और इसके आधार पर प्रीडिक्शन सही होते हैं, इसलिए इसे कोरा अंधविश्वास नहीं मानना चाहिए। वे सही होंगे इसमें मेरा कोई तर्क कुतर्क नहीं है, लेकिन सवाल है कि क्यों हर कोई भविष्य जानना औऱ उसे सुरक्षित करना चाहता है। शायद यही मानवीय स्वभाव है। लेकिन जो भी हो यह सच कि हम इतने भाग्यवादी औऱ भाग्यभीरू हैं हमारे कर्मवाद को कहीं दरका रहा है। ऐसा नहीं है कि यह भाग्यवादिता केवल कम पढ़े या अनिश्चित भविष्य का जीवन जीने वालों में ही है, कई लोग जो जबरदस्त प्रोफेशनल हैं, अनिश्चितताओं के चक्र से दूर दिखाई देते हैं वे भी कई परिचितों को हाथ दिखाते उनकी सलाह पर रत्न पहनते देखे हैं। सो क्या कहते हैं,, क्या हम शुरु से ही ऐसे थे या अब ऐसे हो रहे हैं? खैर हमें तो रामायण की एक चौपाई याद आ रही है जौ हम अक्सर अपने ऑफिस में भी ठेल देते हैं ... होई है सोई जो राम रचि राखा..... यानी कहीं न कहीं हम भी हैं तो भाग्यवादी ही...

Monday, June 2, 2008

पेट्रोल का स्टेटस स्टेटमेंट, तेरा क्या होगा रे....

आज हमारा एक मित्र घर आने वाला है, पत्नी- बच्चे सभी घबराए हुए, थोड़े सहमे हुए से लग रहे हैं, सहमे हुए तो हम भी हैं लेकिन ऊपर से चेहरे पर दिखाने भर के लिए ही थोड़ी बहादुरी से कह रहे हैं, अरे तो क्या हो गया जो पेट्रोल वाली गाड़ी से आ रहा है, अभी कल तक तो हम सभी एक बराबर ही थे। अब उसकी हैसियत थोड़ी ज्यादा हो गई है, पेट्रोल से चलने वाली गाड़ी मेंटेन कर रहा है तो क्या, है तो अपना यार ही। कहने को तो हम कह गए लेकिन घर के बरामदे में बिना पेट्रोल के खड़ी अपनी कार देख कर एक बार फिर हौले से दिल कांप गया। घर आने वाले मेहमान की हमारी दोस्ती जबरदस्त घुटती थी, पहले हम अक्सर कभी उनकी या कभी अपनी कार में कहीं कहीं घूमने आया जाया करते थे। लेकिन जब से पेट्रोल के दाम ने चक्रवृद्धिब्याज दर से और इंक्रीमेंट ने सरल ब्याज दर से बढ़ने का रुख किया है, गाड़ी में पेट्रोल भरवाना जरा हमारे बूते से बाहर की बात हो गई है। जब बढ़ते दामों की खबरें आने लगी थीं तभी हम भांप गए थे कि देर सवेर अपन इस लग्जरी से वंचित हो जाने वाले हैं सो अपन ने बंद मुट्ठी लाख वाली तर्ज पर पहले ही दफ्तर में अपने बेडौल होते शरीर और निकलती तौंद पर चिन्ता जाहिर करनी शुरु कर दी थी, जैसे ही दाम बढ़ने की खबरें पुख्ता हुई अपने राम एक साइकिल खरीद लाए। सबको पहले ही कह दिया था कि भाई मामला हैल्थ का है, सो स्टेटस भी बना रह गया और पेट्रोल से बजट पर पड़ने वाली मार से भी बच गए। लेकिन अब संकट दूसरा हो गया था, हमारे कुछ मित्र जिनकी आय अच्छी थी और अब भी पेट्रोल चलित वाहन अफोर्ड कर सकते थे, उनसे हमारा वर्ग भेद हो गया था। अरे क्लास डिफरेन्स, हम या मित्र तो जाहिर नहीं करते थे, पर श्रीमती जी अक्सर कह देती थीं कि फलाने की वाइफ कह रही थीं कि वे लोग कल लोंग ड्राइव पर गए थे। हमारी ऐसी किस्मत कहां? हम जैसे तैसे उन्हें सोने की साइकिल चांदी की सीट आओ चले डार्लिंग डबल सीट सुना कर बहला देते थे। संकट की इंतहा तब होती थी जब कोई मित्र अपने पेट्रोल वाहन चला पाने की हैसियत दिखाने पेट्रोल चलित वाहन पर को घर के दरवाजे पर ला खड़ा करता। तब हम कभी उनकी पेट्रोल से चल रही कार को देखते कभी अपनी बिना पेट्रोल के यूं ही खड़ी कार को देखते। कोई न कोई बहाना बना मामला रफा दफा करते। पर आज मामला कुछ ज्यादा ही गम्भीर होने वाला था, दोस्त की पत्नी हमारी पत्नी की कॉलेज की सहपाठी भी थीं, और उनसे छह माह पहले जब पत्नी की बात होती थी तब पेट्रोल कोई बड़ा संकट नहीं था, सो कार का खूब जिक्र हुआ था। अब वे अपनी कार से आएंगी और हमें कहीं साथ घूमने के लिए कह दिया तो हम अपनी कार कैसे चला पाएंगे। हमने उपाय भी ढ़ूंढ लिया था, पत्नी को कह दिया था कि उनके आते ही अपनी तबियत नासाज होने का बहाना कर लेना, कहीं जाने से बच जाएंगे। लेकिन कहते हैं न कि जिसका कोई नहीं होता उसका खुदा है यारों,,,,, तो भगवान ने हमारी ऐसी रखी कि बस पूछो मत। हुआ यूं कि वे लोग आए तो सही पर ऑटो से। ऑटो भी हमारे पास वाले बस स्टेण्ड का था यानि वे वहां तक बस से आए थे। आते ही कहने लगे, भई यहां की सड़कों पर बहुत ट्रैफिक है, और परकोटे में पार्किंग की प्रॉब्लम तो आप जानते ही हैं, जरा सिटी में शॉपिंग भी करनी थी सो सोचा की कार की जगह बस से ही चला जाए। इसलिए भई हम तो ऐसे ही चले आए। अब बारी हमारी थी, ज्यों ज्यों हमें लगने लगा कि पेट्रोल के सताए एक हम ही नहीं है दुनिया में... त्यों त्यों हमारी चेहरे की चमक बढ़ रही थी। श्रीमती भी स्टेटस कॉम्प्लेक्स से उबरने लगी थीं। हमने मन में जोर से कहा धन्न करतार तु ही सबका राखा, सबका तारनहार, अचानक देखा तो श्रीमती जी हमारी चद्दर खींच रही थीं और कह रही थीं, एक ऑफ का ही दिन तो मिलता है, उस दिन भी पूरी दोपहर सोने में गुजार देते हो,,, चलो कार निकालो घूमने चलना है,,, मैं उनींदा सा उनकी इस बात पर हंसता हूं अभी तो सपना था, पर सच होते कितने दिन लगेंगे,,,

Sunday, June 1, 2008

वॉलीबॉल के मैदान में, फुटबॉल.... लाइनमैन आउट

सूबा सुलग रहा है, लाशों की अर्थी सजी है और राजनीति की चिता में आम नागरिक का अमन स्वाहा हो रहा है। लोकप्रियता की वेदी पर निर्दोष लोगों की बलि तो चढ़ी ही एक काबिल अफसर को भी बड़े बेआबरू हो कर जाना पड़ा। फायरिंग की जवानों को बचाने के लिए और खुद पर ही बैकफायर हो गया। जैसे कप्तान साहब सब कुछ अपनी मर्जी से कर रहे हों, पूरे आंदोलन से खुद ही निपट रहे हों। किसी और का कोई आदेश नहीं, कोई निर्देश नहीं। सूबे का क्या देश भर का बच्चा बच्चा समझ सकता है कि आंदोलन से निपटने के कैसे औऱ कहां से क्या निर्देश मिल रहे हैं। जो खेल दो घंटे में, बड़ी हद कुछ और घंटों में काबू किया जा सके उसे अनावश्यक ढील दे कर लम्बा खींचा गया। कहा जा रहा है कि इलाके के अफसरों ने आंदोलनकारियों को पटरी तक पहुंचने ही क्यों दिया, बिचारे नासमझ थे, नहीं जानते थे कि कर्फ्यु, १४४ भी कुछ चीज होती है.....। उन्हें तो इस सबसे निपटने का कोई ट्रेनिंग नहीं मिला होगा न ........। सो वे भी गए। अब कप्तान साहब गए क्योंकि ये अपने जवानों पर फायरिंग न करने का दबाव बनाए नहीं रख सके। जवान अपनी जान संकट मे देख फायर कर बैठे, औऱ निशाना बन गए खुद उनके कप्तान। जवानों अबकि बार कोई ऐसा मौका आ जाए जब जान के लाले पड़ जाएं तो फायरिंग के भरोसे मत रहना, वर्ना इन कप्तान साहब से भी हाथ धो बैठोगे। बिचारे कप्तान साहब को फायरिंग के जिम्मेदार मानने वाले भी क्या करें......। उनकी मजबूरी है.....। सबको खुश जो रखना है...। अब या तो राज कर लो,,,, तंत्र चला लो,,,, नियम कायदों का पालन करवा लो या...... सबको संतुष्ट कर लो। लोकतंत्र में सबको राजी रखने पर ही तो राजे राज रहता है। पुराना समय तो है नहीं कि जो सही लगा किया,,,, अब तो सही वो होता है जो ज्यादा जनों को रास आए। सब जानते हैं,,, मांग ऐसी है जिसका कोई हल यहां नहीं है,,, कहीं नहीं है ऐसा नहीं है पर जहां है वहां कोई जाता नहीं,,,। जाए तो भी कुछ होगा इसका अंदाजा नहीं क्योंकि वहां का गणित एसा है कि सच का गणित बदल जाता है, ,,, जो यहां सच साबित करवाया जा सकता है उसकी वहां कोई सनद लेने वाला नहीं होगा। क्योंकि वहां देश का गणित होगा, गागर की बूंद वहां सरोवर में विलीन हो जाएगी। उनके लिए इस तरह के सच को मानना कोई मजबूरी नहीं होगा क्योंकि सिर गिनने की गणित में वहां सिर खोजे नहीं मिलेंगे। इसलिए सच की (हक की) लड़ाई लड़ने वालों ने फुटबॉल के खेल के लिए वॉलीबाल का मैदान चुना है। नेट के नीचे से ही बॉल लिए दौड़ रहे हैं, हर शॉट में दम है, मैदान के चारों और खड़े दर्शक बिचारे भुगत रहे हैं, हर बॉल उनके बदन से टकरा रही है, न रैफरी को चिन्ता है न खिलाड़ी को। रैफरी चाहे तो खिलाड़ियों को मैदान से बाहर कर सकता है। उसके पास यलो कार्ड है। दिखा सकता है। चाहे तो कुछ खिलाड़ियों को जबरन मैदान से हटा भी सकता है,लेकिन इस सबमें खिलाड़ी उससे नाराज हो सकते हैं, अगली बार उसे रैफरी बनाने से इन्कार कर सकते हैं। रैफरी बिचारा फंस गया है। खिलाड़ियों को खेलने दे तो दर्शक परेशान, न खेलने दो अगली बार रैफरी बनने का संकट, इसलिए कीसी को नाराज नहीं करने का फॉर्मूला निकाला है, लाइनमैन को ही बाहर कर दो... । एक दो तीन जितने चाहिए उतने बदल देंगे। आखिर कोई नाराज तो नहीं होगा। पर खेल जरा लम्बा ही चल गया है,,, मौका रैफरी के विरोधियों को भी मिल गया है, उन्होंने बोर्ड में आवाज उठा दी है, रैफरी उस ऊंची कुर्सी के लायक नहीं, सही समय पर सिटी तक नहीं बजा पाया। दर्शक मैदान छोड़ देंगे। अगला टूर्नामेंट फ्लॉप हो जाएगा। एक भी टिकट नहीं बिकेगी। रैफरी गिल्ड का अध्यक्ष जो कई सालों से चीफ रैफरी बनने का सपना पाले है, इस खेल से बहुत प्रेम करता है, खेल के लिए घर-बार तक छोड़ चुका है। दबे- छुपे इस मामले को हवा दे सकता है, शायद बात बन जाए, अगले टूर्नामेंट में चीफ रैफरी का दावेदार ही हो जाए.... तो वाकई खेल लम्बा हो गया है....। मामला केवल स्थान सुरक्षित करने तक ही नहीं बचा है अब तो सबकुछ शतरंज हो गया है। किसकी बिसात पर कौन प्यादा बन गया है कुछ नहीं पता। पर हां, इतना जरूर है यह सारा संकट एक कड़ाई से दूर हो सकता था। बॉलीवाल के मैदान में किसी को फुटबॉल नहीं खेलने देना चाहिए था। अब जब खेलने का मौका दे ही दिया है तो भुगतो,,,,। रखो सबको खुश.... शायद एक कड़े नियम की पालना करवाने पर तो राजधर्म निभाने की छूट भी मिलती पर अब तो राजधर्म नहीं यह तो लोकप्रियधर्म के चक्कर में अलोकप्रियकर्म हो गया है....।

Wednesday, May 14, 2008

जयपुर में आतंक की दस्तक

अब तक दुनिया की चिल्लपौं से दूर एक शांत शहर के रूप में जाने जाते रहे जयपुर शहर की मानो किसी की नजर लग गई। जयपुर भी मंगलवार शाम सवा सात बजे आतंकी निशाने पर आ गया। यहां महज बारह मिनट के वाकये और दो किलोमीटर की परिधि में नौ बम ब्लास्ट हुए। इन ब्लास्ट से हताहत होने वालों की संख्या पैंसठ पार कर चुकी है, इस फेहरिस्त के अभी और लम्बा होने की आशंका है। एक ही अंदाज में हुए ये विस्फोट किसी न किसी आतंकी संगठन की कारगुजारी हैं। जयपुर ने ऐसा हादसा पहले नहीं झेला पर जयपुर में इतने बरस रहने से यह अंदाज हो गया है, कि कोई भी हादसा यहां ज्यादा दिन तक अपना असर नहीं छोड़ता। हां, कुछ दिन लग सकते हैं जिंदगी की गाडी़ को पटरी पर आने पर, जल्द ही पहले से बेहतर तरीके से फिर गाड़ी दौड़ेगी इसमें कोई शक नहीं। जो लोग इस हादसे का शिकार हुए हैं उन्हें मेरी श्रद्धाजंलि। सभी से अनुरोध है कि इस प्रकार बिना किसी दोष के द्वेष का शिकार हुए लोगों को श्रद्धा सुमन जरूर अर्पित करें।

Friday, May 9, 2008

क्या पत्रकार भगवान होते हैं?

आज एक समाचार पत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर जाने माने पत्रकार और फिल्म निर्माता प्रीतीश नंदी का एक लेख प्रकाशित हुआ है। लेख में नंदी ने बीस साल पहले इलस्ट्रेड वीकली में अमिताभ बच्चन पर लिखे एक लेख फिनिश्ड का जिक्र किया है। नंदी ने इस लेख को लिखने के लिए अफसोस जताया है। यह लेख कई मायनों में बेहद जोरदार है, सबसे ज्यादा तो इस मायने में कि यह पत्रकारों को उनकी औकात दिखा रहा है। एक पत्रकार होने के नाते मैं भी नंदी जी के इस कथन से सहमत हूं कि पत्रकारों को श्रद्धांजलियां लिखने में मजा आता है। उन्हें लगता है कि वे लोगों को बना और बिगाड़ सकते हैं। लेकिन सच है कि हस्तियों को बनाना या बिगाड़ना मीडिया के हाथ में नहीं है। हां, मीडिया के हाथ में एक ही बात है और वह है इस्तेमाल होना। मैने अपने पत्रकारिय अनुभव के दौरान यह बात बहुत अच्छे से जानी है कि जिन लोगों के लिए मीडिया अच्छा अच्छा लिख रहा है,यकीन जानिए की अपनी उपलब्धियों के साथ ही उनमें मीडिया को बेहतर तरीके से मैनेज करने की जबरदस्त क्षमता भी है। और जिन की बुराई मीडिया में आ रही है कहीं न कहीं वे मीडिया मैनेजमेंट में बुरी तरह विफल रहे हैं। ऐसा होने के पीछे का कारण भी बहुत साफ है कि हम अपने आपको भगवान समझने लगते हैं औऱ जो भी किसी भक्त की तरह मीडिया की सेवा या सत्कार करता है उसे प्रसिद्धी का वरदान देना अपना कर्तव्य मानते हैं। इसी के उलट जो मीडिया की यानी पत्रकार की सेवा नहीं करता, उसे ठीक से एन्टरटेन नहीं करता उसका बैंड बजाने और दो की चार लगाने में , या यूं कहें कि उसकी धृष्टता की उसे सजा देना भी मीडिया कर्मी का अधिकार माना जाने लगा है। नंदी भी अपने लेख में पत्रकारों को सम्बोधित करते हुए लिखते हैं, मेरे ख्याल में हम अपने मौजूदा परिवेश के बारे में लिखने की बजाय खुद को भगवान समझते हुए भविष्य के पूर्वानुमान लगाने में ज्यादा उत्सुक होते हैं। हम लोगों के बारे में कहा जाता है कि हम इसलिए हीरो बनाते हैं ताकि बाद में उन पर किचड़ उछाल सकें। नंदी ने यह लेख फिल्म निर्देशक अनुराग बासु की अमिताभ पर की गई एक टिप्पणी को लेकर लिखा है,लेकिन पत्रकार जगत को लेकर की गई उनकी यह टिप्पणी वाकई हकीकत से दो चार करवाती है। समूचे पत्रकार जगत के लिए उनका यह लेख पढ़ने लायक है, खासकर पत्रकारिता के तमाम विद्यार्थियों को भी यह लेख जरूर पढ़ना चाहिए ताकि वे इस सच से दो चार हो, कुछ लिखने से पहले समझ लें कि वे हकीकत में भगवान नहीं बल्कि एक टूल हैं जिसका काम सिर्फ इस्तेमाल होना ही है। श्री प्रीतीश नंदी जी को इस लेख के लिए साधुवाद।

Thursday, April 3, 2008

रेडलाइट स्टॉप बचपन......

सड़क पर गिरते ही वह जमीन पर हाथ टिका कर खड़ी हो गई। दूर होती नई होण्डा सिटी के मालिक के लिए एक गन्दी सी गाली उसके होठों से निकली और हवा में विलीन हो गई। सड़क पर गिर गया अपना कपड़ा सम्भाल वह फुटपाथ पर जा खड़ी हो गई। एक के बाद एक गाड़ियां उसके पास से सर्र-सर्र कर निकली जा रही थीं। का रधिया, लागी तो कोन, गाडी पे ध्यान सूं लूम्यां कर , उसका भाई लक्ष्मण, जो उससे कुछ ही बड़ा होगा, पास आता हुआ बोला। उरे उ तो दे रह्यो छो, पण उं की लुगाई न देबा दी। मं देखी की दे ही दे लो, पण साळो एक दम सूं ई दौड़ाई दी, थन कित्ता मिल्या? एक, बड़ी मुश्किल सूं दियो छो। इसी दौरान सामने वाली लाइट के लाल होने के बाद रामूड़ा दौड़ता हुआ आया और रधिया के कंधे पर लटक सा गया। जीजी, कांई हो ग्यो, ले मन खांड की बोरी खेला। रधिया उसे पूरी तरह कंधे पर ले गोल-गोल घूमने लगी। थोड़ी देर पहले गिरने से उसके चेहरे पर उपजा दर्द अब जाने कहां चला गया। मैले चीकटे बालों से घिरे उसके चेहरे पर आत्मसंतोष की चमक नजर आने लगी थी। रधिया के गोल घूमने से रामूड़ा जोर-जोर से हंसने लगा था। उसकी हंसी रधिया को औऱ जोर से घूमा रही थी। अचानक लक्ष्मण की आवाज गूंजी, गाडियां रुकगी। इतना सुनते ही रधिया को जैसे ब्रेक लग गए हों। रामूड़ा भी हंसना भूल गया। तीनों हाथ में कपड़ा थामे ट्रैफिक लाइट के लाल होने से रूकी गाड़ियों के बोनट, शीशे साफ करने के बाद, एक रुपया दे दो, भगवान भला करेगा, का जाप करने लगे। बत्ती हरी हुई, गाड़ियां आगे बढ़ीं लेकिन इस बार सड़क पर गिरने वाली रधिया नहीं, रामूड़ा था। एक भद्दी सी गाली उछाल अपने हाथ पैर झटकता वह सड़क के बीच डिवाइडर की ओर बढ़ने लगा। जहां उसे कुछ देर के लिए ही सही उसे अपना बचपन वापस मिलने वाला था।


दिनांक १ जून २००६ को लिखा गया।

Saturday, March 1, 2008

बहस छोड़ें, बस ब्लॉगिंग करें

हिन्दी ब्लॉग एग्रीगेटर्स पर इन दिनों काम की पोस्ट ढूंढ़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। कुछ लोग बहस में जुटे हैं, अभद्र भाषा है, आरोप हैं, प्रतिबंध लगाने की बात है और कहीं दबी छुपी गुट बंदी की बात भी। मैंने कहीं मन में पक्का कर रखा था कि मैं ब्लॉगिंग पर होने वाली इस प्रकार की किसी भी आपसी छिंटाकशी से दूर रहूंगा और बस जो अच्छा लगेगा वह पढूंगा, सुनूंगा। मेरा मानना है कि ब्लागिंग स्वतंत्र अभिव्यक्ति का एक ऐसा मंच है जो संपादकीय कतर ब्यौंत से परे औऱ मन की अपने विचारों की, सोच की अभिव्यिक्ति है। इसके चलते पिछले कुछ समय में( मैं पिछले लम्बे अर्से से यहां हूं) एकाएक हिन्दी ब्लॉगसॆ की संख्या में अच्छी खासी बढोतरी हुई। कई अच्छे ब्लॉग्स हैं। जिन पर बहुत कुछ ऐसा आता है जो मन को भाता है। इसके चलते लग रहा है कि चलो अच्छा है इन्टरनेट ही सही एक मंच तो मिल रहा है लोगों की भावनाओँ, लेखन को जानने का। हां, कुछ ब्लॉग ऐसे भी हैं जिन पर जाने का कोई मन नहीं होता, इन्फेक्ट वहां जाता भी नहीं हूं। हिन्दी ब्लॉगिंग की इस समृद्धता से मन प्रसन्न है। कुछ ब्लॉग अपनी राग गाते हैं, उनका अपना चरित्र है, वहां जाने वालों को वह अच्छा भी लगता होगा। यही तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। यहां लोग अपनी बात कर रहे हैं, समाज की बात कर रहे हैं, अपने अंदाज में कर रहे हैं, अपनी पहचान से कर रहे हैं, छद्म पहचान से कर रहे हैं, पर कर रहे हैं। अब सवाल उठता है निजी मान अपमान का? तो एक बात तो हम सभी ब्लॉगर्स को समझ लेनी चाहिए की हम यहां अपनी रिस्क पर हैं। किसी ने भी हमें ब्लॉग बना कर अपने बात पोस्ट करने के लिए जबरन नहीं उकसाया है। हर कोई जो भी लिख रहा है अपनी इच्छा से लिख रहा है। सारी समस्या है, प्रतिक्रिया की। हम अपने लिखे की टिप्पणी चाहते हैं और साथ चाहते हैं कि हर कोई हम से सहमत हो। असहमत होने पर हम अपनी सफाई भी देते हैं। बस यहीं से विवाद शुरु हो जाते हैं। मुझे तरकश वाले संजय जी की एक पोस्ट में इस टिप्पणी पुराण का महत्व, साइड इफेक्ट, समझ आया और मैंने उसी समय से अपने ब्लॉग पर से टिप्पणी का ऑप्शन हटा दिया। यानी अपने ब्लॉग पर जो मैं लिख रहा हूं अपनी अभिव्यक्ति के लिए है न की किसी अन्य से प्रशंसा पाने के लिए। अन्य से प्रशंसा पाने के लिए नौकरी ही बहुत है। इन दिनों ब्लॉगवल्डॆ में चल रहे सारे झगड़े की जड़ यही टिप्पणी आकांक्षा है। लोग मिलने चाहिये अपने बौद्धिक विचारों को आपस में बांटने और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए लेकिन शायद यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर धड़े बंदी हो गई है। ऐसा नहीं है कि मैं किसी को गाली दिए जाने या किसी का अपमान करने का पक्षधर हूं। यह अधिकार किसी को भी नहीं होना चाहिए। जो लोग ऐसा कर रहे हैं वे गलत हैं, पर इन्हें तरजीह देना भी गलत है। इनकी ओर ध्यान दिए बिना यथावत अपने अनुसार पोस्टिंग करते रहें तो ही हिन्दी ब्लॉगिंग का बढ़ता कारवां अनवरत बढ़ता रह सकता है।
आप कहेंगे कि जब मैंने इस विषय पर नहीं लिखने का सोच रखा था तो ऐसा क्या हो गया कि इतना लम्बा लेख दे मारा। दरअसल आज इरफान के लेख में मैंने हिन्दी ब्लॉगिंग की ओर एक निराशा का भाव देखा। इरफान एक बहुत अच्छे ब्लॉगर हैं और उनकी बहुत सारी पोस्ट, पॉडकास्ट ने हिन्दी ब्लॉगजगत को समृद्ध किया है। उनका या उनके जैसे लोग यदि इस प्रकार की बहसों से विचलित होजाएंगे तो ब्लॉगिंग का नुक्सान हो सकता है। इसलिए सभी लोगों से खासकर इस प्रकार की बहसों में हिस्सा लेने वालों से एक ही आग्रह है कि जिसे जो पोस्ट करना है उसे उसके ब्लॉग पर पोस्ट करने दें। आपकी उससे मतभिन्नता है तो अपने ब्लॉग पर उसे जाहिर करें। लेकिन प्रतिबंध की बात न करें। यह तय है कि सनसनी बिकती है और उसकी टीआरपी भी ज्यादा होती है लेकिन हर कोई उसका रुख करेगा तो ब्लॉगजगत भी हिन्दी न्यूज चैनलों की राह पकड़ लेगा। इस विवाद पर ये मेरा पहला और आखिरी पोस्ट है। बस सबसे गुजारिश है कि धड़े बंदी करने की बजाय अभिव्यक्त करते चलें। जितनी ज्यादा अभिव्यक्तियां होंगी ब्लॉग्स उतने ही लोकप्रिय होंगे। अभी प्रश्न किसी एक को रोकने का नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को बुलाने का है। तो बस ऐसा लिखें की अन्य लोग भी ब्लॉग बनाएं औऱ ब्लॉग एग्रीगेटसॆ की २४ घण्टे की सूची में पोस्टिंग की सूची लम्बी होती जाए। सादर....


पुनश्चः यहां किसी को निजी तौर पर प्रताड़ित करने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए,इसके लिए सम्बंिधत को तुरन्त साइबर कानून का सहारा भी लेना चाहिए। निजी जानकारी को सार्वजनिक करना एक घृणित कृत्य है। मेरी नजर में किसी के नम्बर को उसकी अनुमति के बिना सार्वजनिक करना भी ऐसा ही है। इस प्रकार की ब्लॉगिंग करने वाले कृपया ऐसा न करें।

Thursday, February 28, 2008

शून्य का आकार

विशेष भंगिमाओं और चहरे के भावों से शून्य के केनवास पर कोई आकार उकेर देना असंभव नहीं पर मुश्किल बहुत होता है। पर जब भी ऐसा होता है, दर्शक स्तब्ध और मंत्रमुग्ध हो जाता है। कुछ ऐसा ही नजारा था, मंगलवार की शाम जयपुर के रवीन्द्र मंच पर । कथक नर्तकी उमा डोंगरें ने वात्सल्य का रस सभागार में घोला तो मानो पूरा सभागार ही एक मां के दुलार रम गया। गोदी में झूलता बाल गोपाल और उसकी अदाओं पर रीझती मां। कोई मां जब अपने बालक को नहलाती और तैयार करती होगी तो कितनी आत्मतुष्टी मिलती होगी, इन मनोभावों को किसी अभिनेत्री के प्रदर्शन में भी इतनी सुघड़ता से नहीं उभारा गया होगा जितनी कुशलता से उमा डोगरे ने कथक की प्रस्तुति में साकार किया। होठों की स्मित मुस्कान बालक की दिखाई जा रही बालक्रिड़ाओं का अहसास करवा रहे थे। बच्चे की मालिश के दृश्य उसके हुष्ट-पुष्ट होने का अहसास करवा रहे थे। वाकई बिना किसी बालक के मंच पर उपस्थित हुए उमा ने एक ऐसे बालक का अहसास करवा दिया जो न केवल चंचल था बल्कि नटखट भी था। जिसकी सुन्दरता को अहसास करते हुए उसे काला टिका लगाने का हर दर्शक का मन कर रहा था। जो जब तब मां का आंचल खींच लेता था, और काग के ग्रास खा जाने का भय दिखाने पर ही कौर खा रहा था। मैंने अपनी सहकर्मी के आग्रह पर पहली बार ही कथक की कोई प्रस्तुति देखी थी और इन वात्सल्य प्रस्तुति से पहले तक पूरा कार्यक्रम मुझे कुछ खास प्रभावित नहीं कर पा रहा था। शायद इसीलिए बाज लोग पहुंचे हुए कलाकारों को उस्ताद कहते हैं जो चंद क्षणों में ही ऐसा समां बांध देते हैं कि लगता है कि यदि यह नहीं देखा होता तो कभी नहीं लगता कि ऐसा भी होता है। पर मुझे फिर भी लगता है कि इन कलाकारों को अपनी वरिष्ठता को मंच पर जाहिर नहीं करना चाहिए। अक्सर लोग नहीं चाहते फिर भी कुछ अव्यवस्थाएं हो जाती हैं, लेकिन वे इन्हें तुच्छ मान लें तो ही उनकी हस्ती दर्शकों और प्रशंसकों के मध्य बनी रहती है।

Wednesday, February 20, 2008

बजट बसंती से रंग दे बसंती

हा सखी बसंत आयो,बजट आयो। अबके फागुन तो चुनावी बयार है तो बजट भी बसंती टच लिए होगा। बसंत की ये बयार जिस ओर भी बहेगी, बस निहाल कर देगी। रुपया आएगा और खो जाएगा। हमें इक्कीसवीं शती में ले जाने वाले हमारे एक स्व. भारत रत्न तो कह भी गए थे कि जो रुपया दिल्ली से चलता है वो अपने गंतव्य तक पहुंचने पर घिस कर चौदह पैसे मात्र का रह जाता है। और ये होता है जनकल्याणकारी योजनाओं में। तो भाई इसमें बुराई भी क्या है, जब योजना जन कल्याणकारी है तो उसे बनाने और अमलीजामा पहनाने वाले भी तो जन ही हैं उनका कल्याण क्यों जरूरी नहीं होना चाहिए। हां, लेकिन एसी जनकल्याणकारी योजनाओँ की गुंजाइश बसंत वाले बजट में ही होती है।इस बार तो डबल झटका है, हमारा सूबा औऱ केन्द्र का निजाम दोनों ही जन अदालत में जाने वाले हैं तो मिलकर लुटाने का इरादा है। देखिए क्या क्या लुटता है। पर सवाल है कि पिछले बजट में हुई घोषणाओं का क्या होने वाला है। वैसे यह सवाल बेमानी है क्योंकि हर नए सवाल के उठने पर पुराना सवाल खारिज हो जाता है। यह भी वैसे ही खारिज है, क्योंकि हमसे पहले भी बहुतों ने उठाया था आगे भी उठाया जाएगा। नियति हर बार एक ही होनी है। पता चला है कि सालों पहले आंध्रप्रदेश में सुपर स्टार एनटीआर का आजमाया फार्मुला इस बार सूबे में भी आजमाया जा सकता है। चावलों के भरोसे आंध्रा की गद्दी पाने वाले एनटीआर का प्रतिपादित किया हुआ सस्ता अनाज फार्मुला कई जगह जम कर चला। अबके सूबे की रिआया को भी एसे ही किसी फार्मुले के जरिए लुभाने की कवायद हो सकती है। पर सवाल उठता है कि क्या दिनों दिन बिगड़ते घर के बजट को नियंत्रित करने की कोई कवायद इन बजटों में होगी? पट्रोल, रसोई गैस को सरकार ने कमाई का साधन क्यों समझ रखा है। क्या ये कोई विलासिता की वस्तु है। केन्द्र और राज्य दोनों ही सरकारें इस इंधन पर जमकर कमाई करते हैं। जैसे लोग इसे मजे के लिए उड़ाते हैं। अब जबकि हर घर में साइकिल नहीं मोटरसाइकिल है, औसतन हर मध्यम वर्गीय घर में एक छोटी कार है, क्यों नहीं सरकार इन पर लगा टैक्स हटा देती और इन्हें पूरी तरह बाजार के हवाले कर देती। हमें नारा मिलता है सब्सिडी का। ये खेल है दस रुपए छीन कर दो रुपए एहसान के साथ वापस देने का।क्या कोई हमें इस खेल से मुक्ति दिलाएगा। सही मायनों में तो बजट का बसंत तभी बहारों वाला होगा जब हर साल बढ़ती पैट्रोल डीजल की किमतों पर से सरकार अपना हिस्सा लेना बंद कर दे। क्या होगा एसा रंग दे बसंती बजट?????????? नहीं तो ये बसंत भी हा हंत ही साबित होगा।

Saturday, February 16, 2008

दुनिया के सारे पुरुषों एक हो जाओ....

दुनिया के सारे पुरुषों एक हो जाओ....
एक बेरोजगार आत्महत्या के बाद जब परालोक में पहुंचता है तो जब वहां अपनी मृत्यु का कारण बेरोजगारी बताता है, तो कारण लिख रहे क्लर्क ने एकाएक अपने हाथ रोक लिए और कहने लगा, तुम नए लोगों को कुछ समझ नहीं आता, प्रगति के नाम पर जाने क्या कर रहे हो। इन दिनों ऊपर आने वालों लड़कों में बेरोजगारी ही एक बड़ा फैक्टर है। ससुरे समझते ही नहीं हैं जाने कौनसी समानता का राग अलाप रहे हैं। अब झेलो समानता, छोकरियां ही नौकरियां ले रही हैं और इनके पास तो कोई काम नहीं है। खैर भाई आ गए हो तो अन्दर चलो, पर यहां समानता का राग मत अलापना। युवक को अन्दर जाते ही घोड़े पर विराजमान बालों को पीछे चोटी की तरह बांधे हुए एक शख्स के दर्शन हुए, तलवार हाथ में लिए कुछ चिन्तातुर सा यह शख्स पहला सवाल दागता है, सुपर ट्युसडे का क्या रहा? ये क्या होता है? अरे भाई वहां मेरे सिंहासन पर कौन बैठने वाला है? आपका सिंहासन? हां वही जिसे बड़ी मुश्किल से बनाया था। अब तक तो सब ठीक था, पर लगता है इस बार कोई गड़बड़ है, या तो कोई लेडी होगी या कोई ब्लैक. पूरा सिस्टम तहस नहस करने पर तुले हैं, पता नहीं क्या हो गया है धरती के पुरुषों को जो अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने चले हैं। हमें पता था कि एक बार यदि इन लेडिजों,यही कहा गया था, (महिलाओं) को यदि घर से बाहर निकलने दिया तो सारे जेन्टसों की जरुरत ही नहीं रहेगी। पहले कहा पढ़ाओ, पढ़ाया तो नतीजा देख लो, सारे काम धन्धों में हर तरफ महिलाएं ही महिलाएं नजर आ रही हैं,तुम कहते थे, इन्हें सॉफ्ट काम देंगे, ऐसा सॉफ्ट काम दिया कि खुद ही सॉफ्ट हो गए। अब देखो हर हार्ड काम पर ये सोफ्ट गल्सॆ ही दिख रही हैं। सेना से लेकर सोफ्टवेयर तक। दुकान से लेकर मकान तक। और अब राजनीति में भी ये ही दीखेंगी। हम तो जानते थे कि ये जो मादा है यह आदम से ज्यादा समझदार है,इसलिए तरकीब लगाई और इसे घर तक ही रखा था। इसीका नतीजा था कि सबसे ज्यादा सभ्य होने का दम भरने वाले देश में भी आज तक कोई महिला नेतृत्व करने के लिए तरस रही है। पर अब देखो क्या होगा? संकट ये नहीं है कि लड़कियां राज करेंगी। संकट ये कि फिर ये बिचारा मर्द करेगा क्या। लड़कियां तो घर का काम करके और बच्चे पालकर ही खुश थीं। क्योंकि उन्हें लगता था कि कुदरत ने उसे इन्हीं कामों के लिए बनाया है, पर मर्द क्या करेगा? नौकरियां सारी आधी दुनिया के हवाले होती जा रही हैं। घर चलाना औऱ बच्चे पालना मर्द को कभी आ नहीं सकता। क्योंकि उसमें वो सहज संभाल करने की आदत नहीं होती। और फिर अब तो विग्यान ने ऐसा काम कर दिया है कि बच्चे पैदा करने के लिए भी लड़कियों को लड़कों की जरुरत नहीं होने वाली। राज और काज करेंगी लड़कियां और लड़कों को घर के काम करवाएंगी। यदि ऐसा नहीं हुआ तो लड़कों को बेरोजगारी के चलते मर कर ऊपर ही आना है। तुम भी ऐसे ही आए हुए लगते हो।
लड़का बेचारा अवाक, वाकई उसे याद आने लगा कि वह जहां जहां भी नौकरी के लिए गया हर जगह किसी न किसी लड़की का ही सलेक्शन हुआ। उसकी महिला मित्र भी एक बैंक में अच्छे पैकेज पर काम करती थी। चाहती थी कि लिव इन रिलेशन में वह ही सारे काम करे। बर्तन, कपड़ों और खाना बनाने तक तो ठीक था। पर उसकी दोस्तों के सामने पानी सर्व करने और , बड़ा अच्छा है, कहां से लाईं? जैसी बातें सुन कर ही तो उसने मरने का मन बनाया था, ये अलग बात है कि सुसाइड नोट में उसने बेरोजगारी का जिक्र किया था। ये चोटी वाला बात तो ठीक कह रहा है। इसका इलाज क्या हो यह भी इससे ही पूछना चाहिए। सर इसका कोई हल? हल मेरे पास नहीं है,हल वो सामने जो दाढ़ी वाला है, वो ही हल निकालने का दावा करता है, उसी से पूछो?
लम्बी सफेद हल्की काली दाढ़ी वाले ने एक ही मंत्र दिया- दुनिया के सारे मर्दों एक हो जाओ.

Friday, February 1, 2008

धोनी को धोया मीडिया ने

कहते हैं क्रिकेट बाय चांस, पर मीडिया टेक्स नो चांस। जी हां कुछ ऐसा ही होता है जब क्रिकेट में जीत होती है, धोनी का बल्ला चमकता है तो हैडलाइन होती है मैदान के सूरमा,धोनी के शेरों ने जीता जग लेकिन जब हार होती है तो हैडलाइन बनती है बन गया चूरमा, धोनी के शेर कागज के शेर। कुछ यही हाल है हमारे मीडिया का। हर दिन नई कहानी औऱ नई इबारत लिखता है, जो आज कहा जा रहा है वह कल नहीं कहा जाएगा, जो कल कहा जाएगा उसकी खबर खुद कहने वाले को ही नहीं है। आत्मविश्वास से लबरेज महेन्द्र सिंह धोनी ने कहा प्रेक्टिस मैच हो जाएगा, तो मीडीया भी यही कह रहा था, विश्वचैम्पियनों के लिए बहुत आसान साबित होगा २०२० का यह खेल। मैच हुआ नतीजा आया वो हम सब जानते हैं, लेकिन मीडिया के सुर बदले और पूरी टीम के धराशायी होने के चलते हारने वाले इण्डिया के मीडिया का निशाना बने धोनी। अब हर चैनल के अपने अपने विशेषग्य हैं, एक महिला विशेषग्य है, क्रिकेट विश्लेषक हैं और अपने क्रिकेट प्रेमी तो हैं ही, सब मिल कर ठोंकना शुरु करते हैं, दे दना दन। नतीजा होता है हर नया बोलने वाला पहले वाले से कुछ ज्यादा बोलता है,सनसना कर बोलता है क्यों सनसनी बिकती है। कार्यक्रम जब अन्त तक पहुंचता है तो कार्यक्रम के साथ ही किसी का क्रियाकर्म हो जाता है। ये तो शुक्र है कि हमारी टीम का चयन मैदान के प्रदर्शन और बोर्ड के संबंध के तालमेल से होता है, कहीं जनमत या इन विश्लेषकों के भरोसे होता तो सोचिए कब क्या हो जाता किसी को भी दूसरा मौका तो मिलता ही नहीं। खैर अपनी बात तो बहुत हुई पर एक सवाल है, ये इलेक्ट्रोनिक वाले इतना क्यों बोलते हैं, इतना बोलना जरूरी है तो ऐसा क्यों बोलते हैं, भई आपको चाहे ये ट्रेड ट्रिक लगती हो पर यकीन मानिए हिन्दुस्तानी घरों में तो आप किसी लाफ्टर शो के कैरेक्टर से ज्यादा तवज्जो नहीं पा रहे हैं। आपकी हर अतिरंजित टिप्पणी पर एक ठहाका होता है और रिमोट अगले चैनल की तरफ कदम बढ़ा देता है। पर यदि फिर भी इलेक्ट्रोनिक के इस कारनामे में आपको कोई तर्क नजर आता हो भई मुझे जरूर बताना कुछ ग्यान वृद्धि ही सही................

Thursday, January 31, 2008

सावधान मा बदौलत पधार रहे हैं...

मीडिया भी कई बार बेईमान बलम सा व्यवहार करता है, जब जिसे जिस तरह की कवरेज की जरूरत होती है तब तो करता नहीं, पर कभी बिना मांगे ही इतनी कवरेज देता है कि बस निहाल कर देता है। करोंड़ों का एडवर्टाइजिंग बजट एक ही दिन में पूरा कर देता है। कुछ यही हाल इन दिनों आशुतोष गोवारीकर का है। जब वे नहीं चाहते थे की फिल्म की ज्यादा चर्चा हो, मीडिया उनका पीछा करे तब वे जयपुर के महलों औऱ खुले मैदानों में मीडियाकर्मियों से दूरी बनाए चलते थे। लेकिन एश अभिषेक के किस्सों का दीवाना मीडिया एश की तलाश में आशुतोष की यूनिट का पीछा ही नहीं छोड़ रहा था। और अब जबकि फिल्म प्रदर्शन के लिए तैयार है, मीडिया है कि जोधा अकबर को पूछ ही नहीं रहा। लेकिन अपने आशुतोष भाई को भी लगता है किसी तगड़े पीआर मैनेजर का साथ मिल गया है। जिसने और कुछ नहीं तो जयपुर के पूर्व राजघराने के लोगों को फिल्म दिखाने की सलाह दी औऱ आशुभाई एसा कर गुजरे।बस फिर क्या था, जोधा अकबर खबरों में, राजघराने ने फिल्म को क्लीन चिट दी, अऱे भाई जैसे राजघराना अब सेंसर बोर्ड हो गया हो। मानो यदि फिल्म के निर्माण के बाद राजघराना आपत्ति करता तो आशुभाई तो फिल्म को डिब्बा बंद ही कर देते। लेकिन आप यकीन मानिए आशु भाई का टोटका चला औऱ जमकर चला। खबरिया चैनलों ने तो बड़ी सी स्टोरी कर दी। राज्य के एक राजपूत धड़े को भी इसके विरोध में खड़ा कर दिया। कोई बड़ी बात नहीं कि फिल्म आने से पहले एक दो धरने प्रदर्शन औऱ हो जाएँ तो खबर की गुणवत्ता बढ़ जाएगी। टाइम स्पेस भी ज्यादा मिल जाएगा। जोधा अकबर के फुटेज तो आशुभाई ने दे ही दिए हैं। कुल मिलाकर विवाद की उंगली थाम कर फिल्म चलाना औऱ प्रचार करना अब आशुतोष गोवारीकर को भी आ गया है। तो अब तैयार हो जाइए न्यूज बुलेटिन में एक न एक स्टोरी आपको मा बदौलत से जुड़ी मिलेगी.....

Wednesday, January 30, 2008

साहित्य के नाम पर सनसनी...

पिछले दिनों जयपुर में साहित्य के नाम पर एक जोरदार मजमा जमा, मजमा इसलिए कि यहां साहित्यकार भी थे, साहित्यप्रेमी भी थे, साहित्यचर्चा भी थी, पर निष्कर्ष नहीं थे। पहले ट्रांसलेटिंग भारत औऱ फिर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के रूप में यह जमावड़ा करीब सात दिन चला। देशी विदेशी साहित्यकारों की भीड़ में जयपुर जैसा टूरिस्ट डेस्टिनेशन जाहिर है विदेशियों के लिए ज्यादा मुफिद रहा औऱ अंग्रेजी के सत्र, साहित्य पर खूब कहकहों औऱ मानसिक विलासिता के दौर चले। पर इसका अंत कुछ अजीब रहा। चंद साहित्यकारों ने भाषा के गौरव की बात कर इस आयोजन से जुड़ीं एक प्रमुख साहित्यकार को ही निशाना बना डाला। फेस्टिवल में किस भाषा के कितने सत्र होने चाहिए, या किसे कितना समय मिलना चाहिए ये प्रश्न अलग हैं जिनका जवाब आयोजन औऱ उसके उद्देश्य के साथ केवल आयोजकों के पास ही होते हैं पर किसी छोटी सी बात को बढ़ा चढ़ा कर कहना या तिल का ताड़ बना देने से तो एसे सवालों का जवाब नहीं मिल सकता। हां, इस सारे विवाद, एक समाचार पत्र ने तो हद ही कर दी न केवल समय पर सत्र पूरा करने के आग्रह को, जो की किसी भी आयोजन में आयोजक की ओर से करना अपेक्षित होता है, अतिरंजित किया गया बल्कि प्रदेश भर के कई साहित्यकारों को ,जिन्होंने शायद इस घटना का केवल वह पक्ष देखा था जो उन्हें दिखाया गया था,भी इस सब में घसीट लिया गया। मानो किन्हीं दो लोगो को समय पर या संक्षेप में कुछ कहने के आग्रह से कोई ललकार मिल गई हो। हकीकत में अतिवादिता आयोजक की नहीं बल्कि इस घटना को ऐसा रूप देने वाले दुराग्रही की है। मैं इसे दुराग्रह ही कहूंगा। हालांकि आयोजक ने विवाद को अनावश्यक तूल नहीं देते हुए अपनी और से खेद व्यक्त किया गया। इसे भी आयोजक का बड़प्पन ही मानना चाहिए। क्या ये अतिरन्जना प्रदेश के छोटे साहित्यजगत में पनप रही किसी समूह विशेष को बढ़ावा देने या प्रश्रय देने की शुरुआत तो नहीं है। अक्सर मुझे साहित्य जगत में इस प्रकार के समूहों की बू तो आती है जो, तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाऊं की रणनीति पर काम करते हैं। एक निरपेक्ष पाठक के तौर पर केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि भाषा का गौरव उसमें अपना अमूल्य योगदान देने से बढ़ता है न कि इस प्रकार के थोथे मुद्दों को उछालने से। अच्छा होता ये साहित्यकार इसी समय को एक दो बढ़िया रचनाओँ में लगाते तो साहित्य भी समृद्ध होता औऱ वे भी।

Thursday, January 10, 2008

सड़क सुरक्षा सप्ताह में घर से बाहर निकलने के टिप्स


इन दिनों यातायात पुलिस सड़क सुरक्षा सप्ताह मना रही है। जैसा की पुलिस वालों की खासियत होती है कि या तो वे दोस्त होते हैं या फिर.... आप समझ लें। सड़कों की सुरक्षा के इस अभियान के दौरान हर वाहन चालक उनके लिए दोस्त की श्रेणी में तो कतई नहीं आता। सवाल सड़क की सुरक्षा का होता है इसलिए सड़क पर चलने वाला हर शख्स उनका दुश्मन नम्बर वन होता है। ऐसे में वे चाहे जिसे पकड़कर दुश्नमन करार दे सकते हैं, यदि आप ऐसी किसी दुश्मनी से बचना चाहते हैं तो पेश हैं कुछ सुझाव जिन पर अमल कर आप सकुशल बिना चालान घर वापसी कर सकते हैं। - घर से निकलते समय अपने वाहन को हर ओर से चैक करें। सारे नम्बर दुरुस्त हैं या नहीं यह जरुर देखे। उनका आकार प्रकार नियमों के अनुसार है या नहीं, भले ही आपके सामने वाले शर्मा जी जो ट्रैफिक पुलिस में हवलदार हैं, की मोटरसाइकिल के नम्बर अगड़म बगड़म शैली में हों, आप अपनी चिन्ता किजिएगा,क्योंकि भाई सवाल सड़क की सुरक्शा का है।- अपने वाहन की लाइट जला कर देख लें, रोशनी पूरी है या नहीं, भले ही आप शाम चार बजे ही घर लौट आते हों, पर अभी इसका जलना जरूरी है। सप्ताह खत्म होने के बाद आपकी लाइट भले ही खराब हो जाए कोई फर्क नहीं पड़ेगा पर अभी तो सप्ताह चल रहा है....।- वाहन के सारे कागज ठीक प्रकार से ढूंढ कर निकाल लें और सम्भालकर साथ में रख लीजिएगा। फोटोप्रति के साथ ही मूल प्रति भी। कुछ ट्रैफिक वाले भाई फोटो प्रति को मूल प्रति का सा सम्मान नहीं देते। सप्ताह खत्म होने के बाद आपसे कोई कागजात के बारे में नहीं पूछेगा इसलिए उन्हें अगले साल तक आप कहीं भी भूल सकते हैं, पर अभी हर्गिज नहीं भूलें। - फिर बारी आती है प्रदूषण की। आपकी गाड़ी चाहे धुंआ देती हो या नहीं, आपके वाहन पर स्टीकर होना चाहिए औऱ पर्स में पॉल्यूशन अण्डर कंट्रोल का प्रमाणपत्र। सप्ताह के दौरान यह बहुत जरूरी है।- हेलमेट की सेहत पर जरा गौर फरमा लीजिएगा।- हां, ड्राइविंग लाइसेंस भी जरूरी है। यूं तो हमारी सड़कों पर हजारों लोग बिना लाइसेंस के वाहन चला रहे हैं पर यदि आपके पास लाइसेंस नहीं है तो आप इन सात दिन तक पिछली सीट पर ही बैठें।यानी अब आप पूरी तैयारी के साथ सड़क सुरक्षा सप्ताह में काम पर जाने के लिए तैयार हैं। पर सड़क पर भी ध्यान रखें यदि आपको किसी सफेद जिप्सी के पास दस पन्द्रह दुपहिया वाहन खड़े नजर आएं तो समझ लीजिए की वे सभी सड़क सुरक्षा का पाठ पढ़ रहे होंगे। न वहां कोई उन्हें नही बताता कि क्या सही है, क्या गलत बस बीच सड़क पर रोका जाता है, और दनादन सवालों की झड़ी लगा दी जाती है। कागज हैं? लाइसेंस है? पॉल्यूशन है? इतनी तेज क्यों चला रहे हो? अन्तिम सवाल सबसे अन्त में आता है और ब्रह्मास्त्र होता है। सारे सवालों का जवाब होता पर इसका जवाब नहीं होता है। इंटरसेप्टर हैं, पर वो इंटरसेप्टर ही आपको यकीन दिला देते हैं कि आप कहीं न कहीं तो गलत ही थे। बस आपका चालान हो गया औऱ आपने सीख ली सड़क सुरक्षा। तो एक बात याद रखिए कि आप चाहे साल भर ट्रैफिक नियमों का पालन करते हों या नहीं पर इस समय जबकि सड़क सुरक्षा सप्ताह चल रहा है आपको पुलिस नामक ,प्राणी, हां शायद प्राणी, को देखते ही उनका पालन शुरु कर देना चाहिए। पर फिर भी आप तय मानिए की आप सही ट्रैफिक नियमों का पालन करना जरूर सीखेंगे और इसका एक ही तरीका है, चालान। तो घर से निकल रहे हैं बस एक ही टिप है चालान के लिए तैयार रहें। या सात दिन के लिए गाड़ी घर रख दें औऱ बस में जीवन असुरक्शा सप्ताह के लिए निकल पड़िए।