प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सरकारें किस तरहकाम करती है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है पृथ्वीराज नगर परियोजना। 22 साल पहले राज्य सरकार ने कल्पना की थी जयपुर में पृथ्वीराज नगर के रूप में एक सुव्यवस्थित कॉलोनी बसाने की। लेकिन आज वो सुव्यवस्थित सपना किस कदर बदरंग हो चुका यह सबके सामने है। कानूनी दांवपेचों, सरकारी नीतियों के चक्र में फंसा रहा तो बस वह आम आदमी जिसने जीवन भर की कमाई जोड़ कर जयपुर में बसने की चाहत में विवाद फंसी सस्ती जमीन खरीद ली। इस विवाद का फायदा यदि किसी को हुआ तो वह सिर्फ भूमाफिया कहलाने वाले प्रॉपर्टी डीलर्स को हुआ। सालों साल पाबंदी के बावजूद जमीन बिकती रही, लोग बसते रहे। विवादित जमीन के पतों पर रह रहे लोगों के नाम मतदाता सूची में जुड़ते रहे। सरकारें आईं और चली गईं। अफसर आए और चले गए। बची रहीं तो बस अखबारी सुर्खियां और विवादित जमीन पर रहने वाले लोग। पाबंदी के नाम पर उन्हें पानी के कनेक्शन नहीं दिए तो निजी पानी माफिया पनप गए, घरों में बोरवेल खुद गए। धरती के सीने में हजारों छेद हो गए। सरकार ने कहा सड़क नहीं बनेगी। तो लोगों ने कहा बिना सड़क जी लेगें औऱ अपने इंतजाम कर लिए। बीच बीच में अपनी उपस्थिति का अहसास करवाने के लिए प्रशासन के लोग बड़ी बड़ी दैत्याकार मशीनों पर सवार हो कर आ पहुंचते। लोगों ने भी इन दानवों से निपटने का मंत्र जान लिया था, और वह था संघे शक्ति कलयुगै। घंटों की टंकार ने सद्भाव का नया सूत्रपात किया था। सवाल उठता है कि जब पाबंदी थी तो सालों साल वहां कैसे मकान बने, कैसे लोग रहने पहुंचे, क्या इस दौरान प्रशासन नाम की कोई चीज वजूद में नहीं थी। अफसरों, कारिन्दों की इतनी बड़ी फौज क्या कर रही थी। क्या इसमें कोई राजनीति नहीं थी। खुद अदालत ने कहा है कि सरकार के निर्णय भूमाफियाओं को फायदा पहुंचाने वाले रहे। अब इसके क्या मायने निकाले जाएं। तब भी यही सरकार थी और आज भी यही सरकार है।
यह प्रकरण दर्षाता है कि सरकार किस प्रकार कामचलाऊ अंदाज में समय गुजारने के लिए काम कर रही है। रोजाना नित नई योजनाओं की घोषणा करने वाले मंत्रियों को पुरानी योजनाओं की सुध लेनी की फुर्सत तक नहीं है। कोई योजना कोर्ट में पहुंची नहीं कि सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाती है। लेकिन क्या सरकारी परियोजनाओं के अपने योजनानुसार उद्देश्य पूरा नहीं कर पाना सरकार और सरकारी अमले की जिम्मेदारी नहीं है। इस पूरे मामले में दोषी कौन रहा, किस किस की लापरवाही रही उन्हें क्यों नहीं जिम्मेदार ठहराया जाता है। क्यों नहीं उनके खिलाफ कार्रवाई होती। इस सवाल का कोई जवाब नहीं है,, या फिर है भी तो ऐसा जिसे सब जानते हैं, पर जुबां पर कोई नहीं लाना चाहता।
Saturday, October 30, 2010
Friday, October 29, 2010
पटाखों ने दी खुशी के बदले सजा
अखबार की सुर्खियों के बीच दो खबरें मन को बेचैन कर रही हैं। शहर के दो निजी स्कूलों में पटाखे चलाने पर बच्चों को सजा दी गई है। अब पटाखे चलाना भी जुर्म हो गया है। दीपावली में अब एक सप्ताह बचा है और त्योहारी रंग कहीं नजर नहीं आ रहा।मुझे याद आता है बचपन में हम दशहरे से ही पटाखे छोड़ने की शुरुआत कर देते थे। शाम को जब गली में बच्चों की टोली जमती थी तो हर किसी के पास कोई न कोई पटाखा जरूर होता था। स्कूल में तो टिकड़ियों और हाथगोली की बहार रहती थी। कई बच्चे सुतली बम भी लाते थे। हाथ गोलियां तो खूब जम कर चलाते थे। यहां तक कि कई बार तो खिड़की में से हाथ निकाल बरामदे में गुजर रहे मास्साब के पावों को निशाना बना कर भी हाथगोलियों के धमाके किए थे। लेकिन अब बच्चों में पटाखों को लेकर क्रेज नहीं है या त्योहारों को शिष्टाचार की बेड़ियां पहना रहे हैं। पता नहीं पर कुल मिला कर बच्चों को पटाखे जलाने जैसे अपराध, यदि यह अपराध है तो, के लिए इतनी सजा के बारे में पढ़कर अच्छा नहीं लगा।
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