Friday, September 28, 2007

हर फिक्र को धुंए में उड़ाने वाले देवआनंद


हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया, मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया, बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया.....हम दोनों फिल्म का यह गीत और इस पर देव साहब की अदाकारी का ही कमाल है कि आज भी जाने कितने लोग जब हाथ में सिगरेट थामते हैं तो अपने आप को देव आनंद की शैली में बर्बादी पर जश्न मनाने का सा अहसास कराते हैं। कभी बुड्ढे नहीं होने का दम भरने वाले देव आनंद वाकई बुड्ढे नहीं हुए हैं। 85 बरस की इस उम्र में जब अच्छे लोग जवाब दे जाते हैं, देव साहब रोमांसिंग विद देवआंनद के साथ एक बार फिर चर्चा में हैं। उनकी यह सदा जवान बने रहने की कोशिश कहीं सच से मुहं चुराने की जुगत तो नहीं लगती..नहीं देव साहब एक ऐसे शख्स के रूप में सामने आए हैं जो हर वक्त अपनी पहचान के आस पास रहना चाहता है। कुछ लोग इसे भले ही कुछ भी कहें पर मैं तो इसे जीवटता को सलाम ही कहूंगा। टीवी पर जब भी उनकी फिल्म देखता हूं लगता है, जैसे अपनों के बीच से कोई आम इंसान सा नायक। जो बहुत रोमानी है, पर हम सा ही है। जिसमें यदि कुछ खास है तो अंदाज...।यही तो अंदाज है देवअंदाज...यह सब कुछ केवल उनके आदर में.....सम्मान में.....
- अभिषेक

Tuesday, September 25, 2007

स्वागत है युवराज

- अभिषेक
सूबे कि रिआया इस समय बुहत खुश है, युवराज को राजसभा में औपचारिक तौर पर एक जिम्मेदार ओहदेदार के रूप में मनोनीत कर दिया गया है। और उन्हें सूबे के भावी सेनानायकों को तैयार करने वाली महत्वपूर्ण सेना की कमान सौप दी गई है। युवराज की ताजपोशी का रिआया को बेसब्री से इन्तजार था। साम्राज्ञी ने गाहे बगाहे यह संकेत दे दिए थे कि उनके बाद रिआया यदि किसी पर भरोसा कर सकती है तो वो केवल उनके लख्ते जिगर ही हो सकते हैं। दरअसल वे ये बात इतिहास को नजीर रखते हुए कहती हैं, इसलिए बेआवाज रिआया के लिए यह पूर्ण सत्य है। इतिहास गवाह है जब भी रिआया ने परिवार से बाहर नेतृत्व की कमान सौंपने की हिम्मत की है, रिआया का अपना अस्तित्व ही संकट में आ गया। विश्व भर की राजनीती मं में देश की साख बनाने वाले, बच्चों को देश का भविष्य बताने वाले, चक्रवर्ती से प्रतापी सम्राट के इस संसार से जाने के बाद जरूर रिआया को जो नेतृत्व मिला था वह परिवार से ताल्लुक नहीं रखता था। और परिवार के न होने के बावजूद उस नेतृत्व ने रिआया को सुकून और देश को विजेता का गर्व दिया था। पर देश का दुर्भाग्य था कि वे नेतृत्व कर्ता रहस्यमयी परिस्थितियों में असमय ही रिआया के बीच से उठ गए। इसके बाद रिआया फिर से परिवार के भरोसे हो गई। फिर रिआया काफी जद्दोजहद और इंडीकेट और सिडीकेट के चक्कर के बाद पूरी तरह परिवार के ही आसरे पर जिन्दा रह गई। नेतृत्व के उस दौर में भी युवराज का दौरे दौरा था। कहते हैं देश में कई अकल्पनीय लगने वाले काम और योजनाएं, पूरे परिवार नियोजन के साथ लागू के करवाने का श्रेय उस समय के युवराज को जाता है। रिआया तो युवराज के हाथ में पूरी बागडोर थमाने की बात से ही रोमांचित हो जाती थी। पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था और वे युवराज राज की कमान संभालने से पहले ही दघर्टना में चल बसे। तात्कालीन स्रामाज्ञी जिसे प्रखर विरोधी भी दुर्गा कहते थे, कालान्तर में वीर गति को प्राप्त हुईं। तो रिआया के सामने फिर से संकट खड़ा हुआ की अब कमान किसे सौंपी जाए। अन्त में दो -तीन घन्टे की जहमत के बाद परिवार के भरोसेमंद अमात्यों ने मशवीरा कर युवराज को ही रिआया और देश की कमान सौंपना उचित समझा। कालान्तर में यह युवा सम्राट भी वीरगति को प्राप्त हुए। लेकिन अब परिवार का शासन से मोह भंग हो गया था। परिवार ने इस बार कमान संभालने से इंकार दिया परिवार के नौनिहाल अभी पूरी तरह से वयस्क नहीं थे। राजमाता इन चक्करों में उलझना नहीं चाहती थीं। कुल मिला कर रिआया को विवश हो परिवार से बाहर के नेतृत्व पर भरोसा करना पड़ा। लेकिन क्या करें। बात परिवार से बाहर आते ही सारे सामन्त सरदार आपस में ही लड़ने लगे। नतीजा रिआया का अस्तित्व संकट में आ गया। रिआया के भरोसेमंद लोग रिआया का साथ छोड़ने लगे। स्थिति इस कदर विकट हो गई कि रिआया के चुनिंदा सामन्तों को राजमाता से कमान संभालने की गुजारिश करनी पड़ी। और उन्हें यह स्वीकारना पड़ा कि परिवार के बिना रिआया का अस्तित्व ही संकट में आ जाएगा। शुरुआती ना नुकूर के बाद राजमाता ने ने रिआया की कमान संभाल ही ली। तो रिआया की किस्मत भी सुधर गई। इस बीच शासन के नाम से घबराने वाले युवराज ने भी शासन की कला सीख ली और वे भी सभासद बन कर देश के तंत्र के अंग बन गए। अब रिआया में औपचारिक ओहदेदार हो गए हैं। तो परिवार के भरोसेमंद अमात्यों को चैन आ गया है। आखिर उनके परिवार की अमात्य परम्परा भी तो इसी प्रकार बरकरार रहेगी। राजमाता ने भविष्य की टीम बनाकर इसको सुनिश्चित कर दिया है। दिवंगत सम्राट के भरोसेमंद अमात्यों के बेटों को ही युवराज के साथ कंधे कंधा मिलाकर चलने के लिए चुना गया है। रिआया को भी करार है कि चलो परंपरा का पालन होगा। इस समय रिआया के हर कंठ से एक ही नाद गूंज रहा है......

...............स्वागत है युवराज...............

Tuesday, September 18, 2007

सोश्यल इंजीनियरिंग के नाम

- अभिषेक

आज एक मित्र का आग्रह था कि सोश्यल इंजीनियरिंग की कुछ बात हो जाए। उन्हीं के आग्रह पर सादर.......

हाल ही में उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव देश की राजनीति को एक नई दिशा औऱ नया नारा दे गए हैं। मतपेटी से निकले जिन्न ने एक और नए जिन्न की रचना कर दी। इस जिन्न का नाम है सोश्यल इंजीनियरिंग। मायावती और सतीश मिश्रा ने भारतीय जातिय समाज और भारतीय आरक्षण प्रणाली के समुचित समानुपातिक मिश्रण से एक ऐसा विलयन तैयार किया है जो लगभग संजीवनी बूटी का सा अहसास दे रहा है। इस जातिय तालमेल का चुनावी रंग और असर चाहे जो हो पर यह कहीं न कहीं हमारी जाति व्यवस्था की नई परिभाषा जरूर गढ़ रहा है।
दरअसल समाज चाहे कोई भी हो कैसा भी हो। उसका एक ढांचा होना आवश्यक है। बिना समुचित ढांचे के विकास या सहजीवन की परिकल्पना मुश्किल है। जीन जैक रुसो की आदर्श बर्बर मानव की बात कुछ ऐसी ही है। हम यदि भारतीय समाज की बात करें तो यह एक स्वयंसिद्दा और स्वयंविकिसत समाज है। जिसने अपरने विकास के साथ साथ अपना मार्ग और अपनी नीतियां तय की हैं। मनुसंहिता के रूप में मनु ने समाज के समुचित संचालन के लिए तालमेल की एक व्यवस्था प्रदान की थी। वह उस समय समाजिक अराजकता को खत्म कर समाज को व्यवस्थित करने की एक कारगर पहल थी। यदि अंग्रेजी का नेशनल मीडिया उस समय होता तो उसे भी सोश्यल इंजीनियरिंग ही कहा जाता।
यह मनुवादी सोश्यल इंजीनियरिंग सदियों तक भारतीय समाज की दशा और दिशा तय करती रही। जाहिर है हर वक्त के बलशाली औऱ विचारवान लोगों ने इसमें अपनी सुविधानुसार इच्छित परिवर्तन किए। भारतीय परतंत्रता के कालखण्ड में आक्रान्ताओ के अनुरूप समाज निर्माण के चलते इसमें जबरदस्त विकृतियां आईं। पर वक्त के साथ उनके इलाज भी हुए। आजादी के साथ ही सामाजिक विकृतियों को दूर करने के लिए सोश्यल इंजीनियरिंग के पुरोधा डॉ। भीमराव अम्बेडकर ने आरक्षण की व्यवस्था की। कालान्तर में यह व्यवस्था ही अपने आप में बहुत बड़ी विकृति बन गई। वंचित वर्ग की तुष्टि के नाम पर कई नए वंचित वर्ग तैयार हो गए।
और हालात वर्तमान स्थितियों तक पहुंच गए। मायावती और सतीश मिश्रा ने हालात की मांग को समझते हुए या यूं कहें की माइनस माइनस इजिक्वल टू प्लस की अवधारणा पर काम करते हुए,विकृत सामाजिक ढांचे के कारण वंचित वर्ग व आरक्षण की व्यवस्था के कारण वंचित हुए नववंचित वर्ग को आपस में जोड़ दिया। यह गठजोड़ वाकई अनूठा है। और कारगर है। वक्त की मांग है औऱ राजनीतिक विश्लेषकों के अनुमान हैं कि इस प्रकार की सोश्यल इंजीनियरिंग अन्य स्थानों पर भी दिखेगी। लेकिन इसके खतरे बहुत हैं। जिस प्रकार आरक्षण में योग्यता की उपेक्षा होती है, इसमें भी योग्यता पीछे धकेली जाएगी। नतीजा पूरा देश चुकाएगा। जाहिर है शॉर्टकट अपनाने का नुक्सान सभी को उठाना ही होगा। यह ज्वार एक बार तो जरूर उठेगा। बस इंतजार करिए इसके उठने औऱ हर चीज के इसके आगोश में समाने का। हर ज्वार के बाद भाटा आता है और समुद्र की रौद्र लहरें शांत हो जाती हैं। हम जैसे कुछ लोगों को आशा है कि समुद्र की सी वह शांति जल्द ही आएगी।
आमीन।

एकाधिकार का जमाना नहीं

खबर है कि यूरोपियन यूनियन ने माइक्रोसॉफ्ट को बाजार एकाधिकार मामले में पूर्व में सुनाया गया फैसला बरकरार रखते हुए उसे बाजार एकाधिकार का दुरुपयोग करने का दोषी पाया है। कई मायनों में यह एक बहुत जोरदार खबर है, खासकर भारत के मायने में जहां हम माइक्रोसॉफ्ट के कई सॉफ्टवेयर्स या ओएस को बिना उसके अधिकृत किए ही जबरदस्त तरीके से काम में ले रहे हैं। इस फैसले से भले ही माइक्रोसॉफ्ट की बाजार एकाधिकार प्रवृति पर अंकुश नहीं लग पाए लेकिन उसे अब अन्य उत्पादों का सम्मान तो करना ही होगा।

Monday, September 17, 2007

लालू की हो़ड़ में मुशर्रफ और पाकिस्तान का लोकतंत्र

अभिषेक
इन दिनों पाकिस्तान से कई खबरें लगातार आ रही हैं। पहले नवाज शरीफ की घर वापसी को लेकर कई दिनों से हंगामा मचा रहा फिर बात बेनजीर भुट्टो के मियां मुशर्रफ के साथ कथित समझौते के किस्से हवा में तैर रहे थे। कि हवा में एक नया ही शगूफा छिड़ गया है,लेकिन अबकि बार मामला थोड़ा गम्भीर हो गया है।दरअसल बात पाकिस्तान तक ही रहती तो ठीक थी, पर बात हिन्दुस्तान तक आ गई है। पाकिस्तानी हुक्मरान हमारी लोकतांत्रिक परंपराओं का अनुकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। सुना है मुशर्रफ लालू की तर्ज पर अपनी बेगम सबिहा को प्रेसीडेंट का चुनाव लड़ाना चाहते हैं। बस यहीं से मामला गम्भीर हो गया है। बड़े बड़े मसलों पर गम्भीर होने से इंकार कर देने वाले आईआईएम के कॉरपोरेट ट्रेनर लालू भी गम्भीर लग रहे हैं।
कहने लगे ये भी भला कोई बात हुई। ये हमारा लोकतांत्रिक तरीका मुशर्रफ को नहीं अपनाना चाहिए। अरे भाई उसे का जरुरत है, ये सब करने की। उस पर थोड़े ही न कोई गयैन का चारा खाबै का केस चल रहा है। केवल कपड़न का ही तो मामला है। क्या फर्क पड़ता है जो हरा नहीं सफेद पहन ले। पर हमारा फार्मुला तो नहीं चुराए। हम कितनी मुश्किल से ये लोकतांत्रिक टूल डिजाइन किए थे। राबड़ी को रसोई से निकाल कर कुर्सी पर बैठा दिये। सबकुछ कितना मुस्किल था। हम तो इस फार्मुला को पेटेंट भी नहीं करवा सके मुशर्रफ इसे अपनाने चला है। पर कोई नहीं अभी कुछ नहीं बिगड़ा है हम तुरन्त ही इसे पेटेंट करवा देते हैं। ऊ को बिना रॉयल्टी लिए नहीं छोड़े। रॉयल्टी भी लेनी जरूरी है। दरअसल असल बात है कि हमें रुपए पैसे का लालच नहीं है। वो तो चारा जैसे कई मामलों में बहुत सारा इकट्ठा हो गया है। बात है हमारी परम्पराओं की। वो पाकिस्तान के लोग कैसे एक दम से हड़प लेंगे। बात हमारे स्वाभिमान की है, आज मेरा फार्मुला चुराया है कल को कोई रथ यात्रा निकालने लगा तो। कोइ और नहीं तो हमारे यहां जैसा लाल सलाम वाला मामला वहां भी हो गया तो हमारे यहां के लाल सलाम वालों का क्या होगा। अभी तो वे संसार में लाल सलाम वालों कि प्रजाति के गिने चुने प्राणियों में कुछ हैं। उन्हें संसार में लाल सलाम के पुरावशेष होने का गर्व है पर यदि उनसे यह गर्व का भाव छिन गया तो सोचो क्या होगा। वे कई मामलों की पैरोकारी करनी बंद कर देंगे। और देश को उनके से सजग पैरोकारों से मरहम रहना पड़ सकता है। यदि एसा हो जाएगा तो संसद नियमित चलने लगेगी। सांसदों को सदन में बैठना पड़ेगा, एसा हो गया तो अक्सर क्षेत्र के दौरे के नाम पर किसी रमणीय सथल की यात्रा करने वाले नेता जी को संसद में बैठना पड़ेगा। देश के जाने कितने आलतू फालतू के मसलों को पारित करना पड़ेगा। सरकार ने अब तक जिन मुद्दों को लोकहित में अटका रखा था उन्हें बाहर निकालना पड़ेगा। और भी पता नहीं क्या क्या हो जाएगा। इसलिए यदि कोई इसे पाकिस्तान का घरेलु मामला कहे तो वह गलत होगा। कैसे भी करके उसे इस से रोकना होगा। पर फिर क्या गारंटी है वह इसी प्रकार के परिणाम वाला मनमोहनीय डिप्लोमेटिक डेमोक्रेटिक टूल का इस्तेमाल नहीं कर देगा। उसमें तो ज्यादा फायदे है। खुद तो त्याग कर दो और सारा खेल किसी ओऱ के हाथ में दे दो। खुद को केवल अपने हाथों की कुछ उंगलियों में डोर बांधनी होगी और समय समय पर उसको हलका हलका दायें बायें भर करना है । कुल मिला कर हमारे लोकतांत्रिक टूल्स पर पाकिस्तानी हुक्मरानों की नजर पड़ चुकी है। देखना है तो सिर्फ ये कि हमारे अपने हुक्मरान किस प्रकार इस चक्रव्यूह से बचते हैं या अपना अनूठापन और विश्वगुरू की पदवी बरकरार रखने के लिए कोई नया लोकतांत्रिक मॉ़डल प्रस्तुत करते हैं।

Sunday, September 16, 2007

ये नया खेल है....

Technorati प्रोफाइल

राम सेतु मामले में अब लड़ाई सरकारे अपने सिपहसालरों के बीच जंग में बदल गई है। देखें क्या नतीजा निकलता है।

Saturday, September 15, 2007

सेतु समुद्रम के बहाने ही सही ....

- अभिषेक

भारतीय राजनीति एक बार फिर से राम के इर्द गिर्द ध्रुवित होने लगी है। पहले राजीव के राम और बाद में भाजपा के राम को मनमोहन के राम ने पीछे छोड़ दिया है। यह नव वैश्विकरण का एक और आयाम है, इससे आम तौर पर भारतवासी अनभिज्ञ थे। माना यही जाता था कि भारत में राम और कृष्ण के अस्तित्व पर बात करना यह कहना होगा कि सूरज रात्रि में निकलता है। पर यह मनमोहन सरकार का ही कमाल है कि अब तक सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों की ठीक प्रकार से देखभाल तक नहीं कर पाने वाली आर्कियोलॉजी सर्वे अब राम के होने ना होने का हिसाब लगा रही है। जहां दिन की शुरुआत ही राम- राम से होती है, वहां राम ही नहीं हैं। वाकई कितनी बड़ी चिन्ता की बात हो गई। है। पर सरकार को सद्बबुद्धी आ गई। गलती सुधर गई है। अब राम हैं। एक दिन पहले नहीं थे। पर अब हैं। सेतुसमुद्रम से होने वाले फायदे नुकसान का तो पता नहीं पर हां अगले चुनाव के लिए राम एक बार फिर मतदाताओं के निर्णय को प्रभावित करने के लिए हाजिर हो गए हैं। अब किसे परवाह है महंगाई की या मंत्री महोदय के रिश्वतखोर होने की । अब तो सबकुछ भगवान राम ही तय करेंगे।
पहले भी कई बार राम ने ही कईयों की चुनावी वैतरणी को तारा था। इस बार भी कईयों को चुनावी समुद्र से पार उतारने के लिए राम सेतु के रूप में सामने आ गए हैं। इसे भी विडम्बना ही कहेंगे कि राम को सामने लाने और उन्हें सकुशल (वनपीस)बनाए रखने का श्रेय इस बार जिस दल को जाता है, उस दल का तो दावा ही राम से दूरी बनाए रखने का है। और जो दल अब तक राम को कभी आगे तो कभी पीछे रख कर अपना काम और नाम चला रहा था उसका इस सारे खेल में केवल दर्शक का सा नाता रहा। हमेशा गरीब का हाथ कहलाने वाले हाथ ने ही इस बार सारा कमाल दिखा दिया। पहले कहा राम कभी थे ही नहीं। फिर कहा राम पर कोई सवाल नहीं। यानी हमने राम को बचा लिया। देश के लिए बचा लिया। पर इस सबसे राम के नाम को आधार बना कर जी रही पार्टी को जीवनदान मिल गया। बरसों तक लौहपुरुष होने का विश्वास पाले रथ के सवार जो सब कुछ त्याग कर वनवास को चले गए थे। यकायक वनवास से लौट कर आ गए। तुरन्त हुंकार भरी। लौहपुरुष सा लौहत्व दिखाया। उनकी इस हुंकार ने एक और त्याग की मूर्ति का मन द्रवित कर दिया। अब तक केवल रोम की चिन्ता करने वाली नारी को राम की चिन्ता होने लगी। नतीजा रहा कि राम नववैश्विक करण के नए मॉडल बनने से बच गए। और अगले चुनाव तक तो सब को तार गए। अब कोई चिन्ता नहीं, चीनी, प्याज भले ही कोई भाव मिले उन्हें कोई फिकर नहीं।
मनमोहन राम में रम गए हैं, प्रकाश और सीताराम को भी राम भा गए हैं, वन टू थ्री अब नौ दो ग्यारह हो गया है।



सच ही हैराम नाम की लूट है लूट सके तो लूट........

राहुल द्रविड़ का इस्तीफा

भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान राहुल द्रविड ने अचानक कप्तानी से इस्तीफा दे दिया है।
राहुल कल भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष शरद पवार से मिलने गए थे।
खबरों के मुताबिक उन्होंने यह कह कर कप्तान पद से इस्तीफा दे दिया कि वे “अपने खेल पर पूरा ध्यान लगाना चाहते हैं।“
बी सी सी आई के सचिव निरंजन शाह का कहना है कि “द्रविड फैसले पर पुनर्विचार के लिए नहीं कहा गया क्योंकि हर खिलाड़ी को अपने बारे में फैसला लेने का हक है।”
बात सीधी सी यह है कि गुरु ग्रेग की विदाई के बाद द्रविड के दिन भी गिनती के रह गए थे।
ग्रेग के जमाने में वरिष्ठ और कनिष्ठ- हर खिलाड़ी के साथ राहुल द्रविड ने वैसा ही (बुरा) बर्ताव किया जैसा ग्रेग ने कहा। इसलिए अब उनके साथ टीम में किसी की सहानुभूति नहीं है।
हाल ही में खत्म हुए इंग्लैण्ड दौरे में द्रविड ने मैदान पर जितने गलत निर्णय लिए, उसके बाद बोर्ड के हाथ बहाना लग गया था उन्हें चलता करने का।
अब कप्तानी किसकी होगी? सचिन? या सौरव?
इंतजार करिए बोर्ड के “जल्द ही होने वाले” फैसले का।

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Friday, September 14, 2007

निगरानी
कहानी
निगरानी

- राजनारायण बोहरे

पंछी राम बड़ा तुर्रम खाँ है । पूरे पैंतीस बरस से वह कलेक्टर के हाथ के नीचे काम कर रहा है, सो बड़े -बड़े हाकिम-हुक्कामों से बोलने बतियाने और उनकी सेवा करने का अच्छा तज़ुर्बा है उसके पास । इस हुनर और तज़ुर्बे के दम पर अपने साथी चपरासियों के साथ बैठकर वह खूब लंबी लंबी गप्पें मारता है । बाकी लोग, चुप बैठ कर उसकी बातें मुंह बाये सुनते रहते हैं और उसकी हाँ में हाँ मिलाते हैं ।लेकिन इस दफा पंछीराम ऐसा फंसा कि सारी चौकड़ी भूल गया ।
दरअसल हुआ कुछ ऐसा , कि उन दिनों चारों ओर घनघोर बदरा छाये थे । सावन का महीना था । पूरे देश में झमाझम बरसात हो रही थी । छोटे-साधनहींन और दूर के इलाके में बसे गाँवों की कौन कहे, खूब ठीकठाक कस्बों और ख़ासे बड़े, तरक्की पा गये गाँवों तक पहुंचने के रास्ते गोबर और कीचड़ की गहरी लम्बी नदियों में तब्दील हो चुके थे ।
ऐसे बसकारे के टप्प-टप्प मौसम में दिल्ली बैठे एक आला हुक्काम ने हुकुम दागा कि अगले माह देश में आम-चुनाव कराये जायेंगे । जिस दिन अखबारों में यह खबर छपी, देश भर के प्राइमरी स्कूलों के मास्टर, तमाम दफ्तरों के बाबू-चपरासी, तहसीलों के पटैल-पटवारी और कोटवार तथा पुलिस थानों के दरोगा और सिपाही समेत अनेक कर्मचारी मन-ही-मन दहल उठे । ब्याह के डला-टिपरियों सी चुनाव की पेटी, थैली और तमाम सामग्री माथे पर लादे, अन्जान डगर और अजनबी गांवों में जाकर, भूखे-प्यासे और नींद के सताये रहकर ,भय और दहशत के माहौल में उनने अब तक की नौकरी में जितने भी चुनाव कराये थे , वे सब एक-एक कर उन्हें याद आने लगे । चुनाव तो वैसे भी भय कारी होता है, चाहे सूखा मौसम और ऐन शहर का पोलिंग क्यों न हो, फिर इस बार तो बारिश का घुटन भरा मौसम होगा । तो कैसे क्या होगा , इस चिन्ता में कई अफसर-अहलकारों की वह रात जगते हुये बीती । उधर यही खबर जब छोटे-बड़े नेताओं ,बिल्ला-परचा और पोस्टर छापने वाले प्रेसमालिकों, छुटमुट पेन्टरों ,माईकवालों और बेरोजगार गुण्डे-मवालियों ने पढ़ी, वे सब खुशी से नाच उठे-अब पांच साला कुम्भ आ गया था उनका ।
इधर चाय की दुकानों और दफ्तरों की खुली सभाओं में बारिश के मौसम में चुनाव हो पाने की संभाव्यता पर बहस चल रही थी और उधर दिल्ली में चुनावों की व्यवस्था समझाने के लिए बैठक बुलायी गयी बैठक में देश भर के आला हाकिम रबर के गूंगे गुवें की तरह चुनाव-व्यवस्था संभाल लेने के प्रश्न पर हामी में सिर हिला रहे थे- अब तक हर काम के लिए हामी में सिर हिलाते-हिलाते उनकी गरदन की हड्डी सिर्फ आगे-पीछे सिर हिलाने लायक ही रह गयी थी शायद, दांये-बांये यानी कि इन्कार में सिर हिलाना इस अवस्था में संभव नहीं था ।
दिल्ली में सब ''यस सर'' कह कर लौट आये और घर आ के इस चिंता में डूब गये कि अब इन झमेलों से कैसे निपटें- दूबरी और दो अषाड़ ! अलबत्ता प्रदेश कार्यालयों से कागजी कबूतर नाना प्रकार के सन्देश और परवाने लेकर उड़े तथा जिला कार्यालयों के सुस्त पड़े चुनाव-दफ्तरों में प्राण फूंकने लगे । सोये-अलसाये अंगड़ाई लेकर उठे और हुंकारा भर के आंखों का कांटा बने पुराने कई कर्मचारियों को अपने यहां अटैच करने के हुक्मनामे पहली ही फुरसत में जारी कर डालें ।
कलेक्टर के खासलुखास होने से चपरासी पंछी राम की ड्यूटी कभी भी चुनाव कार्यालय में नहीं लगी थी । लेकिन इस बार जाने कैसे जब उसे चुनाव कार्यालय में अटैच किया गया तो उसका माथा ठनका । मन ही मन उसने दिल्ली के आला हुक्काम से लेकर चुनाव कार्यालय के बड़े बाबू तक को खूब गरियाया ।
कीचड़ और गन्दगी से घिरे गांवों में बैठे भोले और निश्छल किसानों को बसकारे के नीरस मौसम में वक्त काटने का नया शिगूफ़ा हाथ लगा तो वे लोग अफ़सरों ,नेताओं और पुलिस वालों के भाग-दौड़ को बड़ी उत्सुकता से निहारने लगे । सबको कौतूहल था कि बरसात के इस झलाझल मौसम में अफसर लोग कैसे चुनाव करा पायेंगें ?
कलेक्टर के चैम्बर में उस समय केवल दो लोग थे -चपरासी पंछी राम और नायब तहसीलदार तोता राम उर्फ टी0 आर0 खुर्राट ।
कलेक्टर साहब एक फाइल में सिर गड़ाये बैठे थे, जबकि नायब साब पूरी तन्मयता से अपने सामने रखा एक अखबार पढ़ रहे थे । पीछे खड़े पंछीराम को उत्सुकता हुई, तो वह भी कलेक्टर साहब की नजर से बचते हुए ऐड़ियों के बल आहिस्ता से ऊंचा उठा और इस तरह खुर्राट साहब की आंखों के आगे फैली खबर को बांचने लगा । समाचार इस प्रकार छपा था -
चुनाव सुधार का नया फार्मूला
दिल्ली (संवाद एजेंसी ) चुनावों में लगातार बढ़ रहे खून-खराबे तथा फिजूल खर्ची पर एक अरसे से देश के बड़े कानूनविद चिंता जताते रहे है । इस चिन्ता से सहमत होते हुए केन्द्र सरकार ने अभी हाल में एक महत्वपूर्ण
निर्णय लिया है । इस निर्णय के तहत चुनावी माहौल को साफ-सुथरा करने की दृष्टि से खून-खराबे व फिजूल खर्ची रोकने के लिए देश में नया फार्मूला लागू किया जायेगा । आइंदा से हर चुनाव में प्रत्येक क्षेत्र में एक बाहरी निगरानी अफसर तैनात किया जायेगा, यह अफसर क्षेत्र में हाजिर रहकर सारी चुनाव प्रक्रिया पर निगरानी रखेगा, उसे जहां भी किसी तरह की धांधली या नियम विरुद्ध काम दिखेगा, वह सारा चुनाव रद्द करा सकेगा । इस नये फार्मूले से देश के चुनावी इतिहास में क्रांतिकारी फेर बदल होने की संभावना है । आशा है कि हर तरह की धमकी-लालच और प्रचार-प्रसार के शोर-शराबे, हिंसक झड़पों तथा बेशुमार चुनावी खर्च पर ये अफसर नकेल डाल देंगे और मतदाता निडर होकर मतदान करेगा । जिसके कारण देश में जनतंत्र का वास्तविक स्वरूप उभरेगा, और चुनावों की पवित्रता पुन: स्थापित होगी ।
सहसा कलेक्टर साहब ने सिर उठाया, और वे बड़ी विनीत मुद्रा में कहने लगे - कहने-सुनने में ये सब चीजें अच्छी लगती हैं । शायद सैद्धांतिक रूप से भी यह इंतजाम ठीक होंगे। लेकिन प्रेक्टिकली बड़ी दिक्कत है,दिल्ली में बैठे लोग क्या जानें कि जाने-अनजाने हम लोग बहुत-सी अनदेखी अपरिहार्य गलतियां और लापरवाही करते रहे हैं,जो अब शायद नुकसानदायक हो जायें । ........खैर । आप लोगों ने देख ही लिया कि अपने ऊपर दिल्ली से एक बाहरी अफसर तैनात किया जा रहा है, जो बिला-वजह अपने को परेशान करने के लिए हमारी छाती पर बैठा रहेगा । पर आप दोनों पुराने अनुभवी आदमी हो । मुझे विश्वास है कि आप लोग सब संभाल ही लेंगे । मैं आप दोनों को अपना आदमी मान के उस अफसर के साथ लगा रहा हूं । देखना उसकी सेवा सत्कार में कोई कमी न रह जाये । अपने को जैसे-तैसे केवल दस दिन का समय निकालना है । यदि इस पीरियड में उस अफसर को कोई शिकायत रह गई तो वो मेरा कैरियर ही चौपट हो जायेगा ।
कलेक्टर की बात सुनते समय पंछी राम मन ही मन बड़ा खुश हो रहा था, क्योंकि बात-बात में शेर सा दौंकी मारने वाला कलेक्टर इस वक्त भीगी बिल्ली सा म्याऊं म्याऊं कर रहा था ?
लेकिन भीतर ही भीतर एक अज्ञात सा भय उसे खाये जा रहा था, कि जिस अफसर से कलेक्टर डर रहा है उसके लिये नायब और पंछीराम तो मक्खी - मच्छर हैं । गलती से दिल्ली वाला अफसर कहीं उनसे नाराज हो गया तो नौकरी जाने में सेकंड नहीं लगेंगे । वह सोचने लगा कि महीना भर पहले से उसने छुट्टी क्यों नहीं ले ली ! अब इस वक्त किसी को छुट्टी मिलने से रही । इस समय तो बाकी सारे काम व्यर्थ हैं । इस समय सब अफसर छोटे हैं । इस समय तो मात्र दिल्ली वाला अफसर ही बहुत ताकतवर है । वो जो लिख देगा, दिल्ली से वैसा ही हुकुम आ जायेगा । उसकी दिल्ली जाने वाली रोज-रोज की रपट बड़ी महत्वपूर्ण है ,इस कारण कलेक्टर की भी फूंक सरकती है इन दिनों ।
कलेक्टर के चेम्बर से बाहर निकला तो बाकी चपरासियों ने पंछी राम को घेर लिया -कलेक्टर ने अकेले में क्या बात करी ?
पंछीराम को भरपूर मौका मिला ,सो उसने गप्पें ठोंकने में कोताही नहीं की और लंतरानियां मारना शुरु कर दीं, कि किस तरह कलेक्टर ने उसे बगल की कुर्सी पर बिठा कर चाय पिलाई और दिल्ली से आने वाले हुक्काम के साथ एक ख़ास अफसर के रुप में काम करने का अनुरोध किया वगैरह वगैरह । बाकी लोग विस्मय में डूबे पंछीराम की आड़ी-तिरछी उड़ान के नजारे देखते रहे ।
घर जाकर उस दिन पंछी राम को रात भर नींद नहीं आई । उसने कलेक्टर को रात भर खूब गालियां दी, जिसका अंग विशेष इस कारण फट रहा था, कि दिल्ली से आने वाला अफसर बड़ा कड़क है । दिल्ली के आला हुक्कामों को भी निगरानी अफसर तैनात करने के नये चलन पर पंछी राम ने नहीं बख्शा-अरे भैया चालीस साल से जिस ढंग से चुनाव चल रहे थे वैसे ही चलने देते । ये क्या कि सारे देश को उलट पुलट दो और इधर के अफसर इधर, उधर के अफसर इधर की जगहों पर तैनात कर डालो । जाने कहां का फिजूल चलन शुरु दिया, यूं ही बैठे ठाले । जैसे प्रदेश और जिले के अफसरों पर कोई विश्वास ही नहीं बचा हो ।
''शताब्दी एक्सप्रेस का खर्चा या तो सरकारें उठातीं हैं या फिर विधान सभायें, और पार्लियामैण्ट । या तो अटैची हाथ में लिये मोटा चश्मा,भारी तोंद और गर्मी में भी सूट डाटे बैठे घाघ अफसर इस चलते फिरते महल में यात्रा करते हैं, या फिर एम0 पी0 और विधायक ।'' पंछी राम की इस धारणा को सच साबित करता पचपन-छप्पन साल का एक अध गंजा खड़ूस -सा आदमी शताब्दी एक्सप्रेस के डिब्बे से उतर के स्टेशन पर अनाथ सा खड़ा था । वह नाक-भौ सिकोड़े आसपास के यात्रियों को तुच्छ नजरों से घूरता हुआ अपने दो सूटकेस संभाले इधर-उधर ताक रहा था । नायब साहब ने अन्दाजा लगाया कि यही होगा दिल्ली वाला निगरानी अफसर ।
नायब साहब उसके बगल में पहुँचे, अपने आगे निकले पेट को जितना वे दबा सकते थे उतना दबाते हुये अधझुके से होकर उस खडूस से आदमी से बड़े मीठे स्वर में वे पूछने लगे-आप कोहली साहब हैं ना सर ।
''हूँ !!!'' एक लम्बे हुंकारे ने नायब साब को और झुका दिया, ''नमस्ते सर । मैं आपकी कॉस्टीटयूऐन्सी का लायजनिंग अफसर हूँ - नायब तहसीलदार टी.आर.खुर्राट । ''
''तुम्हारा कलेक्टर कहाँ है ? उसे फुरसत नहीं मिली मुझे लेने आने की ।'' कोहली की त्यौरियां चढ़ गयी ।
''सर'' नायब साब ने ऐसा शब्द कहा, जिसके मनमाने अर्थ निकाले जा सकते थे, यानी कि ''जी सर'' भी या फिर ''नहीं सर'' भी, या फिर आप माई बाप हैं हुजूर, जो कुछ कहें वही सच है श्रीमान'' । नायब साब की चालाकी पर मन ही मन हंसा - पंछीराम ।
''चलो '' कोहली ने हुकुम दागा ।
और नायब साब ने एक सूटकेस उठा लिया तो दूसरा पंछीराम ने लाद लिया ।
स्टेशन के बाहर लाल बत्ती लगी वातानुकूलित कार खड़ी थी, नायब साब ने ड्रायवर को इशारा किया, तो उसने पिछला दरवाजा खोल दिया । ड्रायवर ने डिग्गी खोलकर पीछे दोनों सूटकेस जमा दिये ।
नायब साब खिड़की से झांकते हुये बोले ''हम अगली गाड़ी में हैं सर, अभी होटल चल रहे हैं, फिर फील्ड के लिये चलेंगे । अपना एरिया यहां से चालीस किलो मीटर बाद शुरु होगा सर और डेढ़ सौ किलोमीटर तक रहेगा''
''हँ !!!''फिर लम्बा हुंकारा गूंजा, तो नायब साब वहां से हट गये । चपरासी पंछी राम उनके पीछे था । आगे एक और कार खड़ी थी, वे दोनों उसमें बैठ गये पिछली कार को संकेत देती हुई वह कार चल पड़ी ।
होटल में पंछीराम को कुछ भी नहीं करना पड़ा । वर्दीधारी बैरे ने कोहली की अटैची उठाने से लेकर भोजन परोसने तक का सारा काम अपने हाथों निपटाया । तब तक पंछीराम ने बरसात में भीग गये अपने कपड़े सुखा डाले ।
दोपहर दो बजे दिल्ली वाले अफसर ने नायब साब को तलब किया और ढाई बजे दोनों कारें होटल छोड़कर चल पड़ी । तब भी हल्की बूंदाबांदी हो रही थी । जिला मुकाम यहाँ से अस्सी किलोमीटर दूर था ।
रास्ते में वे लोग कहीं नहीं रूके सीधे कलेक्ट्रेट पहुँचे ।
खबर लगी तो कलेक्टर दौड़े-दौड़े बाहर आ पहुंचे - ''आइये सर ! मैं आई.सी. घोष !''
''इलैक्सन का ऑफिस कहाँ है ?'' कोहली के स्वर में उपेक्षा का भाव था,और कलेक्टर समेत सारे कर्मचारी डरे से दिख रहे थे । पंछीराम मन ही मन खुश हुआ - अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे । इस पल वह अपने आपको इस दफ्तर का कर्मचारी नहीं मान रहा था, उसे लग रहा था, कि मानो वह भी दिल्ली से आया है और कलेक्टोरेट के कर्मचारी उस के लिये कीड़े मकोड़े हैं ।
कलेक्टर साब स्वयं आगे आगे चलते हुये कोहली साब को चुनाव के दफ्तर में ले गये । कोहली ने डिप्टी साब की घूमने वाली गद्देदार कुर्सी देखी तो नाक-भौं चढ़ा लिये - ''इसे हटाओ यहाँ से । ''
पंछीराम ने तुरंत ही वह कुर्सी हटा दी और कोहली की नजर को भांपते हुए एक साधारण सी कुर्सी उस जगह रख दी । कोहली बैठे तो पंछीराम बाहर खिसक आया और भीतर को कान लगाके दरवाजे के बाहर खड़ा हो गया ।
''कितने पोलिंग सेंटर हैं इस कांस्टीटयूएंसी में ?'' कोहली की तीखी आवाज में प्रश्न उछला था ।
''बारह सौ सैंतीस'' कलेक्टर साब का स्वर रिरियाहट लिये था ''आठ सौ बीस इस जिले में, और चार सौ सत्रह अटैच जिले में ।''
''सैंसिटिव कितने हैं ?''
''सात सौ पाँच !''
''व्हाट ? सेवन हण्डरेड फाईव !''
''यस सर, दिस इज ए डैकेट इनफैरेटेड एरिया । टोटल कांस्टीटयूएंसी इज सेसंटिव, वट सेविन हन्ड्रेड बूथ्स आर वेरी सेंसिटिव । पिछले चुनाव में पचास पोलिगं सेंटर पर दुबारा चुनाव कराना पड़े थे सर । सत्रह आदमी मारे गये थे । इसलिये पिछली बार की तुलना में इस साल दुगने सुरक्षा गार्ड तीन हजार लगा रहे हैं और सी आर पी भी बुला रहे हैं हम।''
'' जहां-जहां हिंसा हुई थी, वहां क्या बंदोबस्त है आपका ?''
'' वहां हर पोलिंगबूथ और गांव में सी आर पी के जवान तैनात कर रहे हैं।''
'' इस बार दूसरे जिलों से भी तो चुनाव पार्टियां आयेंगी, उनके रूकने और खाने पीने के इन्तजाम हैं इस कस्बे में !''
''हां सर, कुछ भोजनालय है। ठहरने के लिए सिविल लाइंस के स्कूल में इंतजाम करा रहे है।''
''गिव मी ए मैप आफ दि कांस्टीटयूएंसी एण्ड लिस्ट ऑफ पोलिंग बूथ्स ।''
''जस्ट ए मिनट सर'' कहते कलेक्टर दरवाजे की और मुड़ करके बोले ''खुर्राट नक्सा और वो लिस्ट लाओ ''। फिर वे कोहली साब से बोले -सर पिछली बार का ही तो डर है कि हर कर्मचारी इस बार चुनाव से बचना चाहता है ।''
बाहर खड़े खुर्राट साहब ने अपना ब्रीफकेस खोल कर कुछ कागजात निकाले और खुला ब्रीफ केस पंछी राम को पकड़ा के दफ्तर में दाखिल हो गये । पंछीराम को इस वक्त खुर्राट का चेहरा उस बकरे जैसा लग रहा था, जिसे तुरन्त ही ज़िबह किया जाना है । पंछी राम को खुद की औकात मुर्गे से भी बदतर लग रही थी । घोस साहब खुद को क्या समझ रहे होंगे, पंछीराम इसका अंदाज नहीं लगा पा रहा था । अलबत्ता कोहली साब उसे जल्लाद से लग रहे
थे । हिन्दी फिल्मों में जल्लाद का रुप कुछ अलग ही गेट अप के साथ दिखाया जाता है - कमर में काली सलवार पहने, माथे पर काले कपड़े से खोपड़ी बांधे, हट्टे-कट्टे बदन को उघारा करके मसल दरसाता एक क्रूर सा व्यक्ति । पंछीराम ने मन ही मन कल्पना करी कि कोहली साहब को यदि वह ड्रेस पहना दी जाये तो कैसे लगेंगे ।
पंछीराम की कल्पना को झटका देते हुये कलेक्टर अचानक बाहर आये और खुर्राट को एक तरफ ले गये । पंछीराम के कान उधर ही लगे थे । कलेक्टर पूछ रहे थे- खुर्राट तुमने इस अफसर की पसंद-नापंसद तो पता कर ली ना । देखना अपना प्लान फेल न हो जाये । ये तो सचमुच कड़क आदमी है। बहुत सारी कमियाँ ढूंढ़ लेगा ।
आप चिंता न करें सर, मैं सब निपटा लूंगा । खुर्राट कलेक्टर के चरणों में झुके जा रहे थे ।
मतदान दलों के पहुंचाने के इंतजामात यानी कि बसें, ट्रक, ट्रेक्टर, बैलगाड़ी और नाव तथा ऊंट भी, सुरक्षा यानी कि पुलिस वालों की संख्या, मतदान दलों की नियुक्ति और दूसरे जिलों से आने वाले दलों के ठहरने आदि के साधन वगैरह की कार्यवाहियाँ देखने में कोहली साब को चार घंटे लगे ।
फिर एकाएक कुछ याद आया तो वे कलेक्टर से बोले -'' मुझे एस डी एम और एसडीओपी दो जरा जल्दी से, मैं कस्बे में जाके संपत्ति-विरूपण के कुछ प्रकरण बनाना चाहूंगा ।''
पंछीराम एक अलग जीप में था । कस्बे के चौराहे पर कोहली साब रूके और रोड पार करके टांगे गये कपड़े के अनेक बैनरों पर नाराजी व्यक्त करनेलगे । पंछीराम को इशारा मिला तो उसने उछल-उछल कर वे सारे के सारे बैनर खींच लिये । दीवारों पर लिखे चुनाव प्रचारों के बारे में भी उनने एसडीएम को प्रकरण बनाने का आदेश दिया । पंछीराम ने देखा कि कोहली साब की इस कार्यवाही पर, चौराहे से गुजर रहे तमाम राहगीर बड़े खुश दिख रहे थे ।
सर्किट-हाउस में सारी व्यवस्था चाक-चौबंद थी । साफ और बदबू रहित बाथरूम , बेदाग चादरें, उम्दा ए.सी., फोन, फैक्स, टी.वी. और कम्प्यूटर से सजे कमरे को देख इत्मीनान हुआ, तो कोहली साब ने पंछीराम को छुट्टी दे दी ।
शाम को उनकी कार कस्टीटूयेंसी के दूसरे जिले को रवाना हुई तो पंछीराम और खुर्राट साब कार की अगली सीट पर ठुंसे हुये थे जबकि पिछली सीट पर कोहली साब अजीब से तरीके से लेटे हुये आराम फरमा रहे थे । कलेक्टर साब ने आग्रह किया तो कोहली साब ने सुरक्षा गार्ड लेने से कतई मना कर दिया था । बोले थे - रहने दो । आय एम स्ट्रांग । मैंने नक्सली इलाके में चुनाव कराये हैं ।
कार इत्मीनान से दौड़ रही थी । तब ,आधा घण्टा हो चुका था । सहसा वे बोले ''रास्ते में कोई सैंसिटिव सेन्टर दिखे तो गाड़ी रोकना । मैं चैक करूंगा ।''
और रास्ते में चार मतदान केन्द्रों पर उनकी गाड़ी रूकी, सब जगह एस.ए.एफ. के जवान तैनात थे । कोहली साब सिर्फ कार की खिड़की से बाहर झांकते रहे, खुर्राट साब ने ही हर जगह तहकीकात की ।
एक गांव के निकट पहुंचते-पहुंचते सड़क पर भारी भीड़ दिखी तो ड्रायवर ने गाड़ी धीमी कर ली । वे लोग कुछ समझ पाते कि अचानक उनकी गाड़ी को उस भीड़ ने घेर लिया । खुर्राट साब तो घबरा ही गये जब भीड़ में मौजूद दर्जन भर बन्दूक धारियों ने धड़ाधड हवाई फायर कर डाले । उनने जैसे तैसे हिम्मत बांधी और उन्हें डाँटते हुये पूछा ''ये क्या नाटक है ? गाड़ी क्यों घेर ली है । चलो दूर हो जाओ सब ! बन्द करो ये बन्दूकें ।''
पंछीराम ने पीछे देखा कोहली साब थर-थर काँपते नीचा सिर किये बैठे थे ।
''पहले कलेक्टर को बाहर निकालो'' भीड़ में से एक नेतानुमा आदमी ने खुर्राट साब को डाँटते हुये जवाब दिया तो कोहली साब की जान में जान आई ।
''गाडी में कलेक्टर साहब नहीं हैं, दिल्ली वाले अफसर हैं'' खुर्राट साब ने नर्म पड़ते हुये जानकारी दी ।
''फिर तो और अच्छा है ये तो कलेक्टर से भी बड़े होगें । उनसे कहो बाहर निकल के हमारी बात सुन ले, नहीं तो हम आज यह रास्ता आज चालू नहीं होने देगें । देखते हैं कैसे चुनाव कराओगे तुम हमारे एरिया में ।''
खुर्राट साब भीड़ को बहलाना चाहते थे पर शायद कलेक्टर से बड़ा हुक्काम होने का प्रमाण देना जरूरी समझ कर अचानक कोहली साब कार का दरवाजा खोल कर बाहर निकल पड़े और पूछने लगे ''क्या प्रॉबलम है ?''
एक नेता होता तो बताता, भीड़ का हर आदमी अपनी बात सुनाने के लिये कोहली साब की तरफ लपक पड़ा तो कोहली साब घबरा उठे । खुर्राट साब उतरे, अब तक भीड़ ने कोहली साब को खूब धकिया लिया था ।
जैसे तैसे लोगों को दूर कर शांत किया गया तो पता लगा कि गांव में बिजली और पानी न मिलने के कारण इस गांव के लोग रास्ता जाम कर बैठे हैं । इलाके के कई गांव के लोग चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं । खुर्राट साब के कहने पर कोहली साब ने गांव वालों को झूठा-सच्चा आश्वासन दिया और ऐन केन प्रकारेण वे लोग वहां से आगे बढ़े तो पंछीराम को लग रहा था कि अब कोहली साब ठण्डे पड़ जायेंगे । लेकिन उसे ताज्जुब हुआ कि उनके नथुने अब भी फड़क रहे थे । वे फुंफकारते हुये कह रहे थे - ''देखा ! ये हैं तुम्हारे कलेक्टर का लॉ एण्ड आर्डर । इतनी बन्दूकें बाहर हैं । आर्म्स तक जमा नहीं कर पाये । मैं तो आज ही दिल्ली को लिख दूँगा कि ये कलेक्टर चुनाव नहीं करा पायेंगा । ही इस डफर एण्ड फैल्यूअर डी.एम. एज रिटर्निंग ऑफीसर । ''
दयनीय मुद्रा बनाते हुये खुर्राट साब ''सौरी सर'' ''सौरी सर'' की तोता रटन्त बोलने लगे तो पंछीराम इस पहेली को बूझने लगा कि खुर्राट साहब किस बात की माफी माँग रहे हैं ।
''मैं तुम सबको सस्पैण्ड करता हूँ । तुम लोग एकदम जाहिल और नाकारा हो ।'' कोहली साब ज्यादा ही अकड़े तो पंछीराम की मूँछ फड़क उठी । वह खुद को रोक न सका बोला - ''ये डकैतों का इलाका है हुजूर ! इधर तो दिन दहाड़े गोली चल जाती है । यहाँ न कलेक्टर कुछ कर पायेगा न एस.पी. । यहां के तो खून में ही गर्मी रहती है । हमारे यहाँ चुनाव कराना बड़ी टेढ़ी खीर है हुजूर, कोई तुर्रम खाँ चला आये यही होगा।''
''यू शटप'' चीखते हुये कोहली ने उसे डांटा ।
पंछीराम का बदन फड़का, लेकिन खुर्राट साहब ने इशारा किया तो वह अपने होंठ ही कस कर बैठ गया । वह सोचने लगा कि चुनाव में अभी सात दिन बाकी हैं,और इतने दिन खुद को जप्त कैसे रख पायेगा वह । निश्चित ही इस बार के चुनाव उसकी नौकरी ले जायेंगे । चुनाव तो दूर है आज ही नौकरी बच जाये तो बजरंग की कृपा होगी ।
उसके इशारे पर कार ने मुख्य मार्ग छोड़ा और एक सूने से रोड़ पर चल पड़ी । अंधेरा घिरता जा रहा था । मार्ग एकदम सूना और सन्नाटे में डूबा दिख रहा था । कोहली साहब की तो बोलती ही बन्द थी । फिर भी वे बुदबुदाते हुये से बोले -'' ये रास्ता कहाँ जाता है ? ''
''यह रास्ता शॉर्टकट है सर'' खुर्राट साहब ने कहा ।
वे लोग दस किलोमीटर ही चल पाये होंगे कि ड्रायवर ने कार रोक दी । पंछीराम ने देखा कि बीच सड़क पर चार-पांच भैंस खड़ी हैं । उसे मन ही मन डर सा लगा । इस क्षेत्र के लोग किसी कार को लूटते समय ऐसे ही रोड जाम कर देते हैं । फिर भी अपनी सजगता दर्शाते हुये उसने कांच उतार के गरदन बाहर निकाली और चिल्लाया-'' काहे रे लला ! ये चौंपे को छोड़ गयो इते । हटाओ तो सड़क से !''
'' को लफ्टेंट है जा कार में ?'' डांटते से स्वर में अंधकार को पार करते हुए एक बन्दूक धारी अचानक प्रकट हो गया और उसने ऐसा प्रश्न पूछा, कि जिसका जवाब देना किसी के वश में न था । सब चुप सुनते रहे । पंछीराम ने तो बाकायदा हनुमान-चालीसा का पाठ शुरू कर दिया ।
लेकिन संकट अपने आप ही टल गया । उस बन्दूक धारी ने स्वयं ही वे भैंसे रोड से हटा दीं और उनकी कार को निकालने का संकेत दिया तो ड्रायवर ने गियर बदला और एक्सीलेटर दबाकर गाड़ी को हवा कर दिया ।
उनकी गाड़ी रात दस बजे सर्किट हाउस पहुंची । जिले के सर्किट हाउस में न तो कलेक्टर मौजूद मिले न डिप्टी कलेक्टर, इसके भी ऊपर तुक्का यह हुआ कि सर्किट हाउस का वी आई पी वाला वातानुकूलित कमरा खाली नहीं मिला-उसमें कोई मंत्री रुके हुये थे । सर्किट हाउस पर मौजूद गरीब से दिखते एक नायब तहसीलदार ने कोहली साहब से एक दूसरे नॉन ए.सी. कमरे में पहुंचने की प्रार्थना की तो उनका क्रोध फट पड़ा -''डू यू नो , दैट आई एम सुप्रीम अफसर । यू आर टेकिंग मी अदर साइड आई विल टेक यू टू टास्क । ''
बेचारा वह नायब तहसीलदार तो कुछ बोल ही नहीं पा रहा था हकलाते -अटकते हुये उसके मुंह से जो स्वर टपके, उनका आशय था कि........हजूर कृपा करें........हमारी मजबूरी है.......हम विवश हैं छोटे कर्मचारी हैं............हजूर माई बाप हैं ! आला हुक्काम है.!........ जो कहें ठीक है क्षमा करें.........माफी दें ।
अपने कमरे में घुस के कोहली साब ने कुर्सी पर बैठकर टेबल पर रखा फोन अपनी ओर खींचा और जाने कहां का नम्बर डायल करने लगे । अगले ही पल उनका गुस्सा और ज्यादा धधक उठा था ''खुर्राट कम हियर ।''
खुर्राट साब शायद रसोई घर में जाकर साहब के खाने के लिये खानसामा को चीजें बता थे सो पंछी राम अपना कर्तव्य समझकर कोहली साब के कमरे में घुस बैठा ।
यकायक उसने महसूस किया कि उसके माथे पर आ कर कोई गोला सा टकराया है, और उसकी आंखों के आगे तारे नाच उठे हैं । शायद कोहली साहब ने कोई चीज उठाकर फेंकी थी, जो उछलती हुई पंछीराम के माथे से आकर लगी है । वह घबरा कर पीछे पलटा । बाहर निकलते निकलते उसने देखा कि उसके माथे से टकराने वाली चीज टेलीफोन है । जो अब दरवाजे के बीचों बीच क्षत-विक्षत सा बिखरा पड़ा है । वह क्षुब्ध हो उठा, नाराजी का यह कौन-सा तरीका है । ये तो साला नाक में दम कर रहा है,जैसे ससुराल में दामाद नखरे दिखा रहा हो ।
खुर्राट साब उस वक्त कोहली साब के कमरे में प्रवेश कर रहे थे , दूसरे नायब साब जाने कहां गायब हो गये थे । सारे सर्किट हाउस में अफरा तफरी थी । कुछ देर बाद पंछी राम को अपनी चोट का अहसास कुछ कम हुआ तो वह स्थानीय नायब साब को तलाशने लगा ताकि उन्हें और यहां के चपरासी को अपनी बला सौंप कर वह किसी कोने में आराम से लम्बी तान कर सो जाये ।
उसने सोचा कि जिस तरह से कोहली साब की एण्ट्री हुई है, उसका परिणाम तो यही लग रहा है ,कि नायब साब को अचानक ही सर्किट हाउस के किसी संडास में घुसना पड़ा होगा, सो पंछीराम उन्हें उधर ही ढूढ़ने लगा ।
तब तक 'सोंई-सोंई' करती दो कारें सर्किट हाउस में आ पहुंची थीं । चौकीदार ने बताया कि एक में कलेक्टर आये हैं, और शायद दूसरी कार में चुनाव खर्च देखने वाले अफसर हैं । कलेक्टर एक जवान सा लड़का था जबकि दूसरा अफसर एक प्रौढ़ दक्षिणी व्यक्ति दिख रहा था । वे लोग सीधे कोहली के कमरे में प्रवेश कर गये ।
पंछी राम दरवाजे से सट के खड़ा हो गया - देखें कोहली साहब जैसे परशुराम से इस नयी उम्र के लक्ष्मण जैसे कलेक्टर का क्या संवाद होता है पर उसे निराशा ही हाथ लगी । कुछ देर दरवाजा बंद रहा फिर खुला । पता नहीं तीनों अफसरों ने किस भाषा में क्या बात की, कि कोहली साहब के कमरे से बजाय गालियों के, हँसी के ठहाके गूँजते सुने पंछीराम ने । उसने पूरी प्रशासनिक बिरादरी को गरियाना शुरू कर दिया - साले सब हरामी और मादर.......हैं । छोटे कर्मचारियों को गाली देंगे पर बड़ों की गांड़ में................।
कलेक्टर तो लौट गये, दूसरे अफसर को एक और कमरा खुलवाया गया ।
रात को मेहमानों के लिए मुर्गा और विदेशी व्हिस्की का इंतजाम एक्साइज अफसर की ओर से था । खर्च देखने वाले दक्षिणी अफसर ने सिर्फ मछली पसंद की, जबकि कोहली साहब ने मेजबान को निराश नहीं किया, न केवल मुर्गा खाया बल्कि उसके पहले पीना पसंद किया,इसके बाद उसने एक वीडियो सेट और लाने को कहा ।
उसका आदेश बजाया गया । वीडियो लगा, जिसके सामने बैठ कर वह जाने कितनी रात तक बंद किवाडों के पीछे कोई खास फिल्म देखता रहा । पंछीराम को इसमें भला क्या आपत्ति होती, उसे और खुर्राट साहब को भी उचित पथ्य मिल गया था और रात भर के लिए कोहली से छुटकारा भी ।
सुबह आठ बजे कलेक्टर खुद ही अपनी गाड़ी चलाते हुये सर्किट हाऊस आ पहुँचे वे खुर्राट को एक ओर ले गये । पंछीराम ने सुना वे खुर्राट से कह रहे थे - ''इस खूंसट को चुनाव तक कैसे झेलेगें खुर्राट ! ऐसा करो कि इसे वहीं घुमा-फिरा लाओ'' ।
'वहां तो बहुत खर्च होगा सर, मेरे पास तो केवल पांच-छ: हजार........फिर इन्हें तो सिग्नेचर व्हिस्की के साथ तीतर का मांस पसंद है और मिल जाये तो कुछ और भी.........यानी कि..............। इतने कम पैसे में इनके शाही-शौक कैसे............।''
''इसकी चिन्ता तुम मत करो । हम एक एक्साइज इंसपेक्टर तुम्हारे साथ भेज रहे हैं ।''
''ठीक है सर, आप उनसे एक बार कह दीजिये फिर मैं उन्हें तैयार कर लूंगा ।''
दिन में कोहली साब कुछ देर को कलेक्टर के चुनाव कार्यालय में बैठे तो शिकायत बाजों का तांता लग गया । उन्हें जैसे तैसे निपटा के कोहली साब ने राहत की सांस ली ही थी कि खर्च देखने वाले पर्यवेक्षक शिवरामन वहीं आ बैठे ।
पंछीराम ने सुना, कोहली साब अजीब सी आवाज में उनसे कह रहे थे - ''कमीशन ने इस कौन से जंजाल में फंसा दिया शिवरामन साब ? इतने दिनों से जो हो रहा था वही ठीक था ।''
शिवरामन साहब कह रहे थे ''यह तो लोकतंत्र का पवित्र यज्ञ है साहब । हमारे चुनाव पर सारे विश्व की निगाह रहती है । इसलिये निगरानी अफसर रखना मुझे तो कतई गलत नहीं लगता । देश की सर्वोच्च निष्पक्ष और गरिमामयी संस्था के इस नवाचार में भी बड़ा विवेक छिपा है । हमें भी निष्पक्ष चुनाव कराने का प्रयत्न करना चाहिये । आखिर दिल्ली के बड़े अफसर जनहित की बात कर रहे हैं । आप ही कहें हमारे गरीब देश में अरबों का सरकारी खर्च और एक महीने तक चलने वाले भयानक शोर-शराबे प्रचार-प्रसार, जनसंपर्क, बैनर बिल्ले, पैम्पलेट, जीपों, आम-सभाओं में पार्टियों के अगणित खर्च कुल मिला कर कितना नुकसान होता होगा । प्रचार-प्रसार में बढ़ रहे व्यय को देख कर हम सोच सकते हैं कि अब गरीब आदमी तो उम्मीदवार बन ही नहीं पायेगा । शायद इसीलिये ज़नतंत्र का लाभ हर जन तक पहुंचाने के लिये यह नई व्यवस्था की गई है ।''
पंछीराम ने देखा कि यहां की बातें उसके सिर के ऊपर से गुजर रही हैं । वह बाहर चला आया। दफ्तर के बाहर डिप्टी कलेक्टर और तहसीलदारों की पूरी की पूरी भीड़ इस प्रयत्न में थी कि चुनाव प्रक्रिया के किसी काम की शिकायत न होने पावे । इसके लिये वे राजनैतिक पार्टियों के छुटभैया नेताओं के गले लग-लग जा रहे थे । दफ्तर से दुत्कार कर भगाये जाने योग्य छोटे-मोटे कार्यकर्ता भी इस वक्त प्रशासनिक अफसरों के सगे-सहोदर जैसा सम्मान पा रहे थे । पंछीराम को रेवेन्यू अफसरों का वह रूप याद आया, जब वे अपने सिंहासन पर बैठकर गांव-देहात के गरीब किसानों को देखकर दहाड़ उठते हैं, और कुछ वैसे ही हिंस्र भाव चेहरे पर ले आते हैं, जैसे कोई गीदड़ मोटा-ताजा शाकाहारी निरीह पशु देखकर उसे खाने को ललचा उठे । उनके चेहरे पर इस वक्त बड़ी कातरता दिख रही थी, जैसे दुनिया के सबसे दीन-हीन और अकिंचन व्यक्ति ये ही लोग हों ।
वे लोग एक साथ डबल रोल कर रहे थे । कर्मचारियों से अलग और राजनैतिक कार्यकर्ताओं से अलग व्यवहार था उनका । वहां उनके पास जब कोई कर्मचारी अपनी चुनाव डियूटी निरस्त कराने आ जाता तो वे अपनी गर्दन फिर अकडा लेते, रीढ़ की हड्डी फिर सीधी कर लेते और आवाज में फिर वही क्रूरता ले आते जो इस वक्त चुनावी अफसरों में होनी चाहिये ।
ऐसे में कुछ रोचक नजारे भी देखे पंछीराम ने, हुआ ये कि किसी चुनावी अफसर की तरफ जब एक मरघिल्ला सा आदमी हाथ में कागज ले के आगे बढ़ा, तो अफसर ने समझा कि वह चुनाव ड्यूटी निरस्त कराने वाला कोई कर्मचारी है, सो वह झल्ला उठा और उसे भाग जाने का हुकुम दे डाला । पर दुर्भाग्य से वह मरघिल्ला सा आदमी किसी पार्टी का चुनावी कार्यकर्ता निकल बैठा । फिर क्या था चुनाव आयोग और अफसर से शिकायत करने की धमकी देता वह व्यक्ति खूब जोर से चिल्लाने लगा तो अफसर लपक के उसके चरणों में गिरने तक को तैयार हो गया । ऐसा भी हुआ कि कुर्ता धोती धारी जिस बुजुर्ग को व्यक्ति को अफसर ने नेता समझ कर मन का सारा सम्मान और अपनापन उंडेल डाला, वह एक दफ्तर का बड़ा बाबू निकला, तो अफसर का क्रोध फट बैठा ।
एक बड़ा हादसा तो तब होते-होते टल गया जब एक प्रत्याशी के प्रचार में लगी बिना झंडा की अट्ठाइस जीपों के नम्बर दूसरा प्रत्याशी सौंप रहा था कि पहला प्रत्याशी आ गया । उसका तो पारा ही चढ़ गया और वह क्रोध में चीखते-चिल्लाते हुये दूसरे प्रत्याशी तरफ झपटा तो दूसरे व्यक्ति ने अपनी जेब में रखा कट्टा निकाल कर धाँय से हवाई फायर कर डाला ।
गोली चलने का स्वर गूंजा तो दोनों पक्षों के महारथियों के हाथों में नाना प्रकार, नाना रंग और नाना आकृतियों के कट्टे चमक उठे ।
डरता हुआ पंछीराम यह सोच रहा था कि हमारे देश में और चीजें भले न बनती हों पर कट्टा जैसे खतरनाक चीजें बनाने का कुटीर उद्योग खूब पनप गया है । यही नहीं कट्टा उत्पादन में हमारे यहाँ कितनी सरलता, कैसी कलाकारी, कितनी दूर दर्शिता और कितनी विविधता आ गई है कि दिल वाह-वाह करने लगता है ।
उधर दोनों प्रत्याशी आपस में भिड़ रहे थे,और इधर दोनों अफसर भीतर बैठे थर-थर कांप रहे थे । दिन में सुरक्षा संबंधी बंदोबस्त की बैठक में पेश किये गये डी.एम. और एस.पी. के सारे बन्दोबस्त और सारे तथ्य उन्हें मिथ्या लगने लगे थे, जब चुनाव कार्यालय का ये नजारा है-तो बूथ्स पर क्या होगा ? कुछ देर बाद कलेक्टर और एस.पी. अपने दलबल के साथ वहां आये तो दोनों पक्ष अलग अलग-अलग हुये, फिर किसी तरह से दोनों अफसर वहां से सर्किट हाउस ले जाये गये । कुछ ही देर में सारी कलेक्टोरेट पुलिस छावनी में तब्दील हो चुकी थी ।
पंछीराम ने वहां से स्टार्ट होती एक जीप में छलांग लगा दी और उसमें लद कर वह भी सर्किट हाउस की ओर भाग निकला था । नायब साब का कहीं कोई पता नहीं था ।
उसी शाम अंधेरा होते-होते उनकी कार पर्यटन स्थल पहुंच गई । पता नहीं खुर्राट साहब के पास कितनी बंधनी बंधी थी कि एक बहुत उम्दा होटल में कोहली साहब को ठहराया गया, और वो लॉज भी सस्ता नहीं था, जिसमें एक्साइज इंसपेक्टर, पंछीराम और खुर्राट साब ठहरे थे । पंछीराम को अपनी जैसी कई टीम दिखीं वहां, तो उसने उत्सुकतापूर्वक पता लगाया । पता चला कि आस पास के तमाम चुनाव क्षेत्रों के निगरानी अफसर इन दिनों यहीं आराम फरमा रहे हैं ,सो कई बारातें ठहरी हैं यहां के जनवासों में।
सुबह वे लोग जब मंदिर देखने निकले तो कोहली साहब के साथ थे ।
मंदिर में घुसने के पहले दीवारों पर बनी हजारों पत्थर की मूर्तियां दिखीं। मूर्तियां तो सदैव भगवान की बनती हैं सो पंछीराम ने बड़ी श्रद्धा से उनके भी हाथ जोड़े और दर्शन की लालसा से उन पर नजर डाली तो पानी-पानी हो गया । ऐसी मूर्तियां ! उफ्फो, भीतर भगवान और बाहर च्चचच । फिल्म और टीवी पर जरा सा अंग उघरता देख के समाज के लोग इतनी हाय तौबा मचाते हैं, और यहां तो अंग ही अंग थे, कपड़ा थे ही नहीं । बापरे ! घर के अंधियारे में होने वाले पति-पत्नी के बीच के सारे काम यहां तो बड़े ऐलानिया ढंग से मूर्ति बनाकर खडे क़रे गये थे कै ऐसे करो लला सिग काम, और यहां तो एक एक औरत ,कित्ते कित्ते आदमी!
अधेड़ कोहली साब अपना चश्मा साफ कर करके मूर्तियों को कामुक नजरों से घूर रहा था लेकिन पंछीराम वहां से तुरंत ही भाग निकला । वह अपने लॉज में लौट आया और उसका माथा जोर से खदबदा उठा था । आंख मूंदता तो बार-बार उन हंसती खिलखिलाती नौजवान औरतों के पुष्ट स्तन और नंगे शरीर दिखने लगते जो पत्थर की मूरत बनी इन मंदिरों की बाहरी दीवारों पर किलक रही थीं । उन्हें देखके कोहली साहब गदगद भाव से खुर्राट साहब से कह रहे थे - ''ओ माई गॉड, एक्सीलेंट मोनुमेंट्स'' । देखा तुमने यह है आर्ट, आजकल के मूर्तिकार कहां बना पायेंगे ऐसी मूर्तियां ?''
वे मन ही मन कुछ और बुदबुदाते रहे थे, फिर बोले थे - इन मूर्तियों का एलबम मिलता होगा यहाँ, ! तुम तलाश करो । बेसिकली आइ एम एकेडमिक परसन । तुम ऐसा करो कि कोई नर्तकी ढूंढो यहां । मैं चाहता हूँ कि इन मूर्तियों के सामने इसी एक्शन में खड़ा करके नर्तकी के कुछ फोटो ले लूं और यहां के शानदार स्मृति चिन्ह अपने साथ ले जाऊँ ।
शाम ढले उनके लॉज में जब खुर्राट साहब लौटे थे तो बेहद झुंझलाये हुये थे । आते ही बोले- साले इन अफसरों के लिये जाने क्या-क्या करना पड़ेगा हमें ।
रात शुरू हो रही थी और उनकी कार खुर्राट साहब के निर्देशन में पर्यटन बस्ती को बाहर निकल रही थी । पंद्रह-बीस किलोमीटर दूर एक गांव में जाकर वे लोग रूके । बस्ती से बाहर एक उम्दा पक्का मकान था जिस पर एक बड़ा सा साइन बोर्ड टंगा था - '' नृत्य कला संरक्षण गृह '' ।
उस संस्था की मालकिन से खुर्राट साहब इतने सयानेपन से बतियाना शुरू हुये कि पंछीराम मुंह बायें देखता रह गया ।
दस मिनिट में ही दर्जन भर नौजवान लड़कियां उनके सामने खड़ी हो गईं थीं । नायब साहब ने छांट कर उनमें से तीखे नाक-नक्श वाली , एक गोरी सी, रूबी नामक लड़की को पसंद किया।
कुछ देर बाद वह लड़की उनके साथ कार में बैठकर होटल लौट रही थी ।
पंछीराम ने छिपी नजरों से रूबी को ताका जो इस वक्त किसी कॉलेज में पढ़ने वाली शहराती युवती सी लग रही थी । उसने आसमानी रंग का चुस्त चूड़ीदार पैजामा और कूल्हे के ऊपर से खुल-खुल जाता लम्बा सा कुर्ता पहन रखा था । उसके कुर्ते का कपड़ा इतना पारदर्शी था कि भीतर पहनी गई ब्रेसरी का नंबर भी पढ़ सकता था पंछीराम । गले में लपेटे गये दुपट्टे का होना न होना बराबर था क्योंकि वह जिन अवयवों को छिपाने के लिये डाला गया था,वे तो वैसे ही कुर्ता फाड़कर बाहर आने को कसमसा रहे थे ।
कोहली साहब के पास एक दूसरे कमरे में रूबी की अटैची पहुंचा के पंछीराम बाहर निकल ही रहा था कि कोहली साहब ने उसे टोका - '' पंछीराम तुम आज मेरे दरवाजे के बाहर बैठना, स्पेशल ड्यूटी है तुम्हारी ।''
''जी हुजूर'' कहता पंछीराम वहां से बाहर निकल आया । उसे अब भी कोहली साहब का रागड़ समझ में नहीं आ रहा था ।
नायब साहब को नया हुकुम था कि वे दो कैमरों का इंतजाम करें - एक वीडियो कैमरा और दूसरा सादा स्टिल कैमरा । बेचारे खुर्राट साहब उसी तरह सिर झुकाये हर आज्ञा सिर माथे धर रहे थे । जैसे बेटी का बाप दूल्हे की सेवा में घूमता रहता है ।
रात के दस बजे होंगे जब नायब साहब ने कोहली साहब के कमरे में कैमरे पहुंचाये । फिर रूबी अपने कमरे से निकली और कोहली साब के कमरे में चली गयी । हुकम मिला तो पंछीराम ने रूबी का सूटकेश भी कोहली साब के पास पहुंचा दिया । कुछ देर बाद खुर्राट साहब बाहर आये तो उनके हाथों में कागजों का एक पुलिंदा था । पंछीराम के पास आकर वे बोले - ''जि हैं हमाये इलाके की उम्दा निगरानी तहरीरें । बस अब अपुन को रोज एक तहरीर दिल्ली के काजे फैक्स कर देनो है । इनमें कोहली ने लिख दियो है के जि इलाके में सब अमन चैन है ।''
नायब साहब गये तो अधखुले दरवाजे से पंछीराम ने भीतर झांका । अब चम्पा सोफे की बैंच पर अधलेटी सी पड़ी थी और उसके पास उकड़ूं से बैठे कोहली जानबूझ कर उसके कुर्ते के बड़े गले से झांकती गोलाईयों को ताकने की कोशिश कर रहे थे । इस समय कोहली साहब ने आधी आस्तीन की पीली बनियान और घुटनों तक पसरी रंगबिरंगी बड़ी चड्डी डाट रखी थी । टेबिल पर बाज के आकार की एक बड़ी सी काली बोतल और कुछ खाली गिलास भी सजे धरे थे ।
यकायक पंछीराम को बड़ी तेज प्यास सी लगी, उसने गौर किया कि यह प्यास नहीं तलब है, शराब की तलब । ऐसे शाही सरकारी दौरों में वह प्राय: दो तीन गिलास दारू खींच लेता है और बिना डगमग हुये नशे का मजा लेता है । पर इस वक्त कहां धरा है ये मजा !
इस वक्त तो वह स्पेशल ड्यूटी पर है......। एकाएक उसकी बुद्धि ने उसे याद दिलाया ।
उसका मन हमेशा उल्टा सोचता है.........इस वक्त की ड्यूटी काहे की ड्यूटी है उसने खुद से प्रश्न किया - घंट पर मारी ऐसी ड्यूटी ।
होटल की गैलरी में सन्नाटा था । खाली बैठा पंछीराम बुरी तरह ऊब चुका था, वह कुछ क्षणों में उठना ही चाहता था कि एकाएक उसे कुछ खयाल आया तो उसने कोहली साहब के किवाड़ों में बने चाबी के छेद से आंख लगा दी ।
अंदर रूबी इस वक्त घाघरा चोली पहन कर अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन कर रही थी - नृत्यकला काहे की वह वैसी ही मुद्रा में फोटो खिंचा रही थी जो दिन में देखी मिथुन मूर्तियों में बनाई गयीं थीं । रूबी कभी दोनों हाथ पीछे कर अपने दोनों उरोज तान लेती और ऊपर देखने लगती तो बगल में बैठे कोहली साहब नीचे झुककर उसका फोटो लेने लगते । कभी वह अपनी अधनंगी पीठ कोहली साहब तरफ कर खड़ी हो जाती और मुड़ के उन्हें देखने लगती - कुछ इस तरह कि तेरे जैसे लल्लू पंजू मैंने बहुत देखे हैं, तू क्या बिगाड़ पायेगा मेरा ।
उधर कोहली गिलास पर गिलास दारू पिये जा रहा था और रूबी के पैरों में गिर गिर जा रहा था ।
पंछीराम को इस बात से बड़ा सुख मिल रहा था कि तीन दिन से कटखने कुत्ते की तरह उन्हें डपटने वाला कोहली इस वक्त खुद किसी पालतू कुत्ते सा व्यवहार कर रहा है । इसके लिये उसने मन ही मन रूबी को खूब सा धन्यवाद दिया ।
कोहली साहब को जाने क्या सूझी वे रूबी से चिरौरी करने लगे कि वह कुछ और कपड़े उतार दे । पंछीराम की नजर इस वक्त रूबी के चेहरे पर थी । जो अपने होंठ तिरछे कर के विंहस रही थी - शायद मरदों की जल्दबाजी का उसे अच्छा ज्ञान था, इसलिये लग रहा था कि वह कोहली साहब के बावलेपन का मजा ले रही थी ।
केवल दो कपड़ों में कैद उसका मांसल बदन अब किरणें सी छोड़ रहा था, जिसे देख कोहली फोटो खींचना भूल कर तिरछी खड़ी रूबी के चिकने बदन पर अपनी मोटी हथेली फेर रहा था । उधर बंदर को नचाते मदारी की तरह रूबी सिर्फ उसकी हरकतें देख रही थी । उसकी आंखों में जाने कितने भाव थे - विजेता सा, स्वामित्व सा और कुछ-कुछ कोहली जैसे अधबूढ़े कामुक व्यक्ति के प्रति दयार्द्रता का ।
एकाएक कोहली ने रूबी को जकड़ लिया और उसे नीचे फर्श पर गिरा लिया । आगे का दृश्य चाबी के छेद से दिखना संभव न था सो सब कुछ गंवाने के भाव से पंछीराम दरवाजे से हटा और अपने स्टूल पर आ बैठा । वह मन ही मन कल्पना कर रहा था कि अब क्या हो रहा होगा । जाने क्यों उसे बार-बार विश्वास हो रहा था कि कोहली साहब शुरूआत करने के पहले ही अंटागफील हो गये होंगे ।
रात बारह बजे पंछीराम अपने लॉज लौटने लगा तब कमरे के अंदर से कोहली साहब के भद्दे से खर्राटे गूंज रहे थे और चाबी के छेद से रूबी कहीं नजर नहीं आ रही थी ।
अगले दिन सुबह रूबी नये फैशन के स्कर्ट टॉप में कमरे से निकल कर कोहली साहब के साथ मूर्ति वाले मंदिर में चली गई थी । खुर्राट साहब को कैमरे पहुंचाने का आदेश देकर कोहली ने पंछीराम को शाम समय इसी होटल में आने को कहा था । वे रूबी के साथ अपनी बेडौल सी तोंद उचकाते चले गये थे और इस बेतुकी जोड़ी पर पंछीराम को खूब हंसी आई थी । बाद के तीन-चार दिन पंछीराम ने मजे मारे, न कोई काम, न धन्धा । वह डट के खाता और सो जाता ।
वही शताब्दी एक्सप्रेस थी, वही स्टेशन ! पर इस बार नजारा बदला हुआ था । ट्रेन में बैठता अफसर चुप-चुप तो था, पर कड़क मिजाज न था । ट्रेन में चलते समय कोहली साहब अफसर ने खुर्राट साहब और पंछीराम से बाकायदा हाथ मिला कर थैंक्यू कहा ।
पंछीराम चकित था । एक आदमी में इतना परिवर्तन ! गजब है ! वह देर तक अपना हाथ सहलाता रहा, ताकि यह अहसास बना रहे कि सचमुच कोहली साहब ने उससे हाथ मिलाया था ।
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रचनाकार परिचय-
राजनारायण बोहरे
जन्म
बीस सितम्बर उनसठ को अशोकनगर मध्यप्रदेश में
शिक्षा
हिन्दी साहित्य में एम. ए. और विधि तथा पत्रकारिता
में स्नातक
प्रकाशन
' इज्ज़त-आबरू ' एवं ' गोस्टा तथा अन्य कहानियां'
दो कहानी संग्रह और किशोरों के लिए दो उपन्यास
पुरस्कार
अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता 96 में पच्चीस हजार रूपए
के हिन्दी में एक कहानी पर अब तक के सबसे बड़े पुरस्कार से
पुरस्कृत
सम्पर्क
एल आय जी 19 , हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी दतिया-475661
फोन - 07522-506304

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हिन्दी, हिन्दी, कैसी हिन्दी
लेख

-डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

न्यूयॉर्क में सम्पन्न हुए आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन पर हुआ शोर-शराबा पूरी तरह थमा भी नहीं है कि हिन्दी दिवस आ गया है. जो लोग इस सम्मेलन में जाने का जुगाड करने में कामयाब हुए उनकी मानें तो अब हिन्दी को विश्व भाषा बनने से कोई रोक नहीं सकता, और जो नहीं जा पाए उनमें से अधिकांश की सुनें तो यह कि हिन्दी जहां थी उससे पीछे ही गई है, और इस तरह के सम्मेलनों से कुछ होना जाना नहीं है. और अब आ गया है यह हिन्दी दिवस, जिसे दिल-जले हिन्दी का श्राद्ध दिवस कह कर अपनी भडास निकाला करते हैं.
भारत की संविधान सभा ने 14 सितम्बर को हिन्दी को राजभाषा बनाने का फैसला किया था, उसी को याद करते हुए हिन्दी दिवस मनाया जाता है. कहने को हिन्दी हमारे देश की राजभाषा है भी सही, लेकिन इससे अधिक मिथ्या कथन और कोई शायद हो नहीं सकता. हिन्दी कितनी राजभाषा है, बताने की ज़रूरत नहीं. फिर भी, इस दिन हिन्दी प्रेमी इकट्ठा होते हैं, हिन्दी की शान में कसीदे पढते हैं, हिन्दी के लिए जीने-मरने की कसमें खाते हैं, और शाम होते-होते ये पर उपदेश कुशल वीर फिर से अपनी उस दुनिया में लौट जाते हैं जहां हिन्दी या तो होती नहीं, या बहुत ही कम होती है. घर में अंग्रेज़ी के अखबार, अंग्रेज़ी की पत्र-पत्रिकाएं, बातचीत और अगर वह किसी ‘बडे’ आदमी से हो तो अनिवार्यत: अंग्रेज़ी में, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा अंग्रेज़ी में. यानि हिन्दी के प्रयोग का उपदेश दूसरों को. उपदेश देने वाला भी इस हक़ीक़त से वाक़िफ, लेने वाला भी. इतना ही नहीं, हिन्दी के प्रति दिखावटी अनुराग का यह भाव भी क्रमश: फीका पडता जा रहा है. आज़ादी के बाद के कुछ सालों में हिन्दी के प्रति जिस तरह का लगाव नज़र आता था और लोग जिस उत्साह और भावना से हिन्दी के लिए खून-पसीना बहाने की बातें किया करते थे, अब धीरे-धीरे उसका भी लोप होता जा रहा है. अब हिन्दी दिवस महज़ एक गैर-ज़रूरी रस्म अदायगी बन कर रह गया है. राजभाषा विभाग या उसके अधिकारी को एक दिन यह ढोल बजाना है सो जैसे-तैसे बजा दिया जाता है.
निश्चय ही यह स्थिति लाने में सबसे बडी भूमिका हिन्दी वालों की रही है. मुझे लगता है कि हिन्दी का सबसे बडा अहित उसके राजभाषा बन जाने से हुआ. इसे गलत न समझा जाए. राजभाषा किसी न किसी भाषा को बनना ही था. हिन्दी का राजभाषा बनना उचित था. लेकिन गलत यह हुआ कि इसे हिन्दी वालों ने दादागिरी के भाव से ग्रहण किया: सारे देश को अब हिन्दी में काम करना पडेगा. अगर हम लोगों ने अन्य भाषाओं के प्रति अपनत्व रखा होता, अगर दूसरी भाषाओं को सीखने में ज़रा भी रुचि दिखाई होती तो हिन्दी के प्रति अन्य भाषा-भाषियों में वैसी अरुचि न होती जैसी गाहे-बगाहे प्रकट हो जाती है. आखिर कितने हिन्दी भाषी होंगे जो दक्षिण की भी, बल्कि किसी भी हिन्दीतर प्रदेश की कोई भाषा जानते हैं? प्रभाष जोशी ने ठीक ही कहा है “अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों को हिन्दी से तभी ऐतराज़ होता है जब हिन्दी भाषी, भाषा द्वारा सत्ता को संचालित करना चाहते हैं. यानि सत्ता पर सिर्फ हिन्दी क एकाधिकार देखना अन्य भारतीय भाषी लोग पसन्द नहीं करते.”
दूसरी बात, हिन्दी समर्थक ‘निज भाषा उन्नति’ की केवल बात ही करते हैं, उसे क्रिया रूप में परिणत करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते. आज हिन्दी में अधिकांश किताबें 200 के संस्करण से आगे नहीं जा पाती, इससे अधिक क्रूर टिप्पणी हमारे भाषा प्रेम पर क्या होगी? बडे-से-बडे शहर में हिन्दी किताबों की दुकान का होना अपवाद ही होगा. यह कहना अर्ध सत्य है कि प्रकाशक या पुस्तक विक्रेता की रुचि किताब बेचने में नहीं है. आखिर वह तो बेचने को बैठा है, आप खरीदने को निकलिये तो सही. लेकिन दस हज़ार का मोबाइल, दो हज़ार का जूता और दो सौ का पिज़्ज़ा खरीदने वाले को दो सौ रुपये की किताब महंगी लगती है. न केवल अधिसंख्य हिन्दी प्रेमी खरीदते नहीं पढते भी नहीं. वे अपनी कूपमण्डूकता में ही मगन रहते हैं. हिन्दी लेखकों की स्थिति भी, जो अपने आप को हिन्दी का सबसे बडा पैरोकार मानते हैं, कोई बेहतर नहीं है. हिन्दी का बडा (बल्कि छोटा भी) लेखक किताब खरीदकर पढना अपमान की बात मानता है. अगर आप चाहते हैं कि वह आपकी किताब पढे तो आप उसे भेंट कीजिए. फुरसत होगी तो पढ लेंगे. और फुरसत होगी, इसकी ज़्यादा उम्मीद कीजिये मत. हिन्दी लेखक अपना लिखा ही नहीं पढता औरों पर क्या कृपा करेगा!
भाषा के प्रति उसका रवैया भी कम अधिनायकवादी नहीं है. वह चाहता है कि सब उससे पूछ कर, जैसी वह कहे वैसी भाषा का प्रयोग करें. इसीलिए कभी वह अखबारों की भाषा पर कुढता है, कभी टी वी की भाषा पर नाक-भौं सिकोडता है. वह खुद चाहे अपने जीवन में चाहे जैसी मिश्रित भाषा बोलता हो, आपसे चाहता है कि आप अपनी भाषा निहायत शुद्ध, परिष्कृत, प्रांजल, संस्कृतनिष्ठ वगैरह रखें. उसके लिए भाषा पण्डित का चौका है जहां काफी कुछ वर्जित रहता है. मज़े की बात कि यही भाषाविद इस बात पर खूब गर्व करता है कि ऑक्सफॉर्ड डिक्शनरी में इस साल इतने हिन्दी शब्द शामिल हो गए. हां, उसकी भाषा के चौके में अगर एक भी शब्द अंग्रेज़ी का आ गया तो चौका अपवित्र! इस संकुचित-संकीर्ण भाव को रखते हुए बात की जाती है हिन्दी को विश्व भाषा बनाने की. घर में नहीं दाने, अम्मां चली भुनाने!
हम हिन्दी अपनाने की बात तो बहुत करते हैं पर हिन्दी कैसी हो, इस पर कोई विमर्श नहीं करते. यह समझा जाना चाहिए कि जब हमारे दैनिक जीवन की भाषा बदली है, यह बदलाव सब जगह दिखाई देगा. जिस भाषा में साहित्य रचा जाता है, वह भाषा आम आदमी की नहीं हो सकती. किसी भी काल में नहीं रही, हालांकि भवानी प्रसाद मिश्र ने कहा था, ‘जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख’. वैसे, नई तकनीक के आने से साहित्य की दुनिया में भी आम आदमी और उसकी भाषा की आमद-रफ्त बढी है, इसे भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. कम्प्यूटर और इण्टरनेट के लगातार सुलभ और लोकप्रिय होने से आज हममें से बहुत सारे लोग अपने लिखे के खुद ही प्रकाशक भी हो गए हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है. अब साहित्य कुछ खास लोगों तक सीमित नहीं रह गया है. आज हिन्दी में ही लगभग 500 ब्लॉग चल रहे हैं. इनमें से अधिकतर की भाषा उस भाषा से बहुत अलग है जिसे आदर्श भाषा के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है. यहां दूसरी भाषाओं से शब्दों की खुली आवाजाही है और व्याकरण के नियमों में भारी शिथिलता है. दलित साहित्य ने भी भाषा को एक हद तक आज़ाद किया है.
इधर तकनीक ने भाषा के प्रचार-प्रसार में बहुत बडी भूमिका अदा की है. कम्प्यूटर पर लगभग सारा काम हिन्दी में करना सम्भव हुआ है और बहुत सारे हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को तकनीक के लिए स्वीकार्य बनाने में वह काम किया है जो सरकारों को करना चाहिये था. लेकिन आम हिन्दी लेखक ने तकनीक से एक दूरी ही बना रखी है. नई तकनीक के विरोध में उनके पास अनगिनत तर्क हैं. ‘मैं कम्प्यूटर नहीं जानता’ इस बात को संकोच से नहीं, गर्व से कहने वाले ‘एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं.’ इस परहेज़ से न उनका भला है न हिन्दी का. सुखद आश्चर्य तो यह कि ऐसे लोगों के बावज़ूद तकनीक की दुनिया में हिन्दी फल-फूल रही है. दर असल पारम्परिक साहित्यकारों से अलग एक नई पीढी इण्टरनेट के माध्यम से साहित्य द्वार पर ज़ोरदार दस्तक दे रही है. इनके भाषा संस्कार भिन्न हैं और अलग है साहित्य को लेकर इनका नज़रिया. नेट पत्रिकाओं और ब्लॉग्ज़ में इनके तेवर अलग से देखे-जाने जा सकते हैं. कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अगले कुछ सालों में ये ही साहित्य की मुख्यधारा का रूप ले लें. आखिर कहां हिन्दी की एक किताब का 200 का संस्करण और कहां नेट की असीमित दुनिया!
हिन्दी फल-फूल बाज़ार में भी रही है. यह वैश्वीकरण का युग है. सबको अपना-अपना माल बेचने की पडी है. शहरों में बेच चुके तो अब कस्बों का रुख किया जा रहा है. और कस्बों की जनता को, बल्कि कहें उपभोक्ता को, तो हिन्दी में ही सम्बोधित किया जा सकता है, सो बाज़ार दौड कर हिन्दी को गले लगा रहा है. यह बात अगर गर्व करने की नहीं है तो स्यापा करने की भी नहीं है. आखिर हिन्दी का प्रसार तो हो ही रहा है. वैसे वैश्वीकरण की भाषा, एक बडे भू भाग में अंग्रेज़ी है, लेकिन भारत में उसने बाज़ार के दबाव में आकर हिन्दी के आगे घुटने टिकाये हैं. इसी प्रक्रिया में हिन्दी और अंग्रेज़ी के रिश्ते भी पहले की तुलना में अधिक सद्भावपूर्ण बने हैं. ज़रूरत इस बात की है कि आज इन नए बने रिश्तों को समझा जाए और पुरानी शत्रुताओं को भुलाया जाए. आज जो अंग्रेज़ी हमारे चारों तरफ है उसे ब्रिटिश साम्राज्य से जोड कर देखना उचित नहीं. हमें इस नई अंग्रेज़ी के साथ रहना है, इसे स्वीकार कर अपनी भाषा के विकास की रणनीति तैयार की जानी चाहिए.
आज भाषा और हिन्दी भाषा के प्रश्न पर न तो भावुकता के साथ सही विचार हो सकता है और न अपने अतीत के प्रति अन्ध भक्ति भाव रखते हुए. ऐसा हमने बहुत कर लिया. अब तो ज़रूरत इस बात की है कि बदलते समय की आहटों को सुना जाए और भाषा को तदनुरूप विकसित होने दिया जाए. इसी में हिन्दी का भला है, और हमारा भी.
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