Thursday, March 23, 2017

आदित्यनाथ योगी के मुख्यमंत्री बनने पर इतना हल्ला क्यों?

बहुत विचित्र स्थिति है। जो शख्स चुनाव लड़ सकता है। सांसद बन सकता है। एक बार नहीं पांच बार। वो मुख्यमंत्री नहीं बन सकता। क्यों? क्योंकि वो शख्स संन्यासी है? क्योंकि वो शख्स भगवा रंग के वस्त्र पहनता है? जैसे व्यक्ति के कपड़ों का रंग ही सबकुछ होता है? रंगों के विज्ञान में जाएं तो भगवा रंग को लेकर क्या व्याख्याएं हैं यह किसी से छुपी नहीं हैं। और फिर जो सफेद कपड़े पहनते हैं वो और उनके कारनामे क्या हैं यह किससे छुपे हैं? यदि ऐसा ही है तो कोर्ट और कचहरी में काले कोट पहनने वालों को तो जाने क्या समझा जाएगा? खैर। रंग के बरअक्स राजनीतिक रंग देखने वालों को ऐसी राजनीती मुबारक। अपन तो जनता की बात करते हैं जिसने भारतीय जनता पार्टी को उत्तरप्रदेश की कमान सौंपी।पर लोग इतने पर ही
कहां चुप होते हैं। वे कहते हैं यह तो थोपे हुए हैं। थोपे हुए हैं। सही है। थोपा किसने है। नरेन्द्र मोदी ने। मोदी ही चुनाव में घूमे। कहा मुझे अवसर दो। अब उनकी इस बात का मतलब तो हर कोई समझता था। मतलब साफ था कि यदि उनकी पार्टी को जिताया तो वे किसी को अपनी तरफ से मुख्यमंत्री बनाएंगे। यह तो उत्तरप्रदेश का बच्चा भी समझता था कि मोदी स्वयं तो प्रधानमंत्री का जिम्मेदारी छोड़ कर उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बन नहीं जाएंगे। ऐसे में लोगों ने मोदी पर विश्वास जताया। इतना जताया कि किसी के भी समझ नहीं आया कि आखिर इतना भरोसा क्यों जताया। पर अब जब जनता ने जताया तो आप सवाल पूछने वाले कौन? खैर भाई लोकतंत्र है। सवाल पूछना आपका हक है।  पूछो। पूछना भी चाहिए। पर कितनी बार पूछोगे। सवाल ही पूछोगे या उत्तर भी सुनोगे। या नहीं सुनने का ठान लिया है। आप कहते हो योगी पर आपराधिक मुकदमे हैं। तो इसका एक ही जवाब है। जब तक योगी भारतीय संविधान के तहत चुनाव लड़ने के अधिकारी हैं तब तक वे भारतीय संविधान के तहत किसी भी लोकतांत्रिक पद पर निर्वाचित होने के अधिकारी हैं। यह बात योगी पर ही नहीं सभी पर लागू होती है। शशिकला को सुप्रीम कोर्ट से दोष सिद्धी की सजा मिलने तक उस पर भी लागू थी। उन्होंने भी मुख्यमंत्री बनने का दावा किया था और देश का मीडिया उनके दावे को सही भी ठहरा रहा था। इसके तर्क के पक्ष में कई दलीलें हैं। कई तथ्य हैं। बहुत लम्बी फेहरिस्त है। लब्बो लुआब यह कि योगी को भी उतना ही हक है जितना किसी और को। तो कपड़ों का रंग और मुकदमों का दोष उन्हें मुख्यमंत्री बनने के अधिकार से वंचित नहीं करता। वे बन भी गए। लेकिन योगी के लिए असली चुनौती अब शुरू होती है। अब वे दोराहे पर हैं। ऐसे दोराहे पर जो उनका ही नहीं इस जनमत का भी भविष्य तय करेगा।  देखना सिर्फ यह होगा कि वामपंथ की मोरलपुलिसिंग के दबाव में वे अपना नैसर्गिक काम कितना कर पाते हैं। और जाहिर है उनका नैसर्गिक काम होगा उत्तरप्रदेश को सही प्रशासनिक, सामाजिक दिशा देना। उनसे जुड़े विवादों खास तौर पर राममंदिर आंदोलन में उनकी भूमिका और अब उसे लेकर उनकी प्राथमिकताओं पर चर्चा फिर कभी।

Tuesday, March 7, 2017

लड़कियों में हार्मोनल चेंज की लक्ष्मण रेखा खींचने वाली मेनका भी गुजरीं थी उस उम्र से ...

मेनका गांधी एक बार फिर से चर्चा में हैं। पशु अधिकारों को लेकर झंडा बुलंद करने वाली केन्द्रीय मंत्री मेनका गांधी ने इस बार छात्रावास में रह रही लड़कियों के रात में बाहर जाने की अनुमति नहीं देने के पीछे लड़कियों में हो रहे हार्मोनल चेंज से जोड़ा है और इसे लक्ष्मण रेखा भी करार दिया है।
इन्टरनेट पर चल रही खबरों के अनुसार मेनका गांधी से एक टीवी चैनल पर एक कार्यक्रम के दौरान लड़कियों ने कहा कि उन्हें देर रात लाईब्रेरी तक नहीं जाने दिया जाता, इस पर मेनका का जवाब था कि, 16-17 साल की उम्र में आपमें हार्मोनल चेंज आते हैं इसलिए ये लक्ष्मण रेखा बनाई गई है। कार्यक्रम के दौरान जब लड़कियों ने कहा कि लड़कों को क्यों नहीं रोका जाता तो, मेनका का प्रत्युत्तर था कि ये उन्हें एक्सीडेंट्स जैसी बाहरी दुर्घटनाओं से बचाने के लिए है।
जानी मानी पशुअधिकारविद मेनका जिस उम्र को लड़कियों के लिए हार्मोनल चेंज की उम्र बता रही हैं मेडिकल साइंस के अनुसार अधिकांश लड़कियां उससे कहीं पहले हार्मोनल चेंज यानी प्युबर्टी के दौर से गुजर जाती हैं। चिकित्साविज्ञानियों के अनुसार लड़कियों में हार्मोनल परिवर्तन का दौर 7 से 13 साल की उम्र के बीच होता है वहीं लड़कों में यह परिवर्तन 9 से 15 साल की उम्र में होता है। यानी हार्मोनल परिवर्तन के दौर से तो हकीकत में लड़के गुजर रहे होते हैं। लड़कियां तो 16-17 की उम्र तक आते आते उन परिवर्तनों की अभ्यस्त हो कर अपने आपको संभालना सीख लेती हैं।
यहां आपको यह भी बताते चलें कि  16-17 साल को हार्मोनल चेंज की उम्र बता कर उन्हें लक्ष्मण रेखा के दायरे में रखने वाली मेनका गांधी के बारे में इंटरनेट बताता है कि उनकी अपने पति संजय गांधी से पहली मुलाकात 14 दिसम्बर 1973 को हुई थी। जाने माने लेखक खुशवंत सिंह की किताब ट्रूथ, लव एंड लिटल मैलिस के इन्टरनेट पर मौजूद पुस्तकअंश में  मिसेज जी,मेनका एंड द आनन्द्स शीर्षक के तहत इस दिन एक पार्टी में मेनका और संजय की पहली मुलाकात का जिक्र मिलता है। वीकिपीडिया पर मेनका गांधी की जन्मतिथि 26 अगस्त 1956 बताई गई है। इस लिहाज से जब उनकी मुलाकात संजय गांधी से हुई थी तब उनकी उम्र थी 17 साल। यानी मेनका के अनुसार उनकी संजय गांधी से मुलाकात ऐसे दौर में हुई थी जब उन्हें लक्ष्मण रेखा के दायरे में रहना चाहिए था।
इन्टरनेट ही यह भी बताता है कि मेनका गांधी उस दौर तक मॉडलिंग शुरू कर चुकी थीं और उन्होंने एक बाथिंग टॉवल के लिए एड भी किया था। इन्टरनेट पर खोजेंगे तो वह तस्वीर भी मिल जाएगी जिसमें एक युवती बॉब कट बालों में बदन पर सीने से शुरू हो कर टखने तक को ढकता केवल एक लम्बा तौलिया लपेटे है और उस तौलिए पर भी एक महिला का चित्र बना है, और लक्ष्मण रेखा के दायरे से देखा जाए तो वह चित्र भी उस दायरे की सीमाओं को तोड़ता हुआ है। इन्टरनेट के अनुसार मेनका ने बाथिंग टॉवल का वह एड भी 1973 में किया था यानी उम्र भी वही 17 साल।
जब वे स्वयं उस दौर में मॉडलिंग कर सकती हैं, एक युवक से हुई उनकी मुलाकात उनका जीवन बदल सकती है तो लड़कियों का लाइब्रेरी में किताबें पढ़ना कैसे लक्ष्मण रेखा के दायरे में आ जाता है?
हो सकता है कि मेनका गांधी लड़कियों के साथ लगातार हो रही दुर्घटनाओं के कारण चिंतित हों और उन्हें सावधान रहने की हिदायत देना चाह रही हों। उन्होंने कहा भी है कि वे एक अभिभावक के रूप में ऐसा कह रही हैं। पर वे एक केन्द्रीय मंत्री हैं, एक आम अभिभावक नहीं। अव्यवस्थाओं के आगे झुकना उनको शोभा नहीं देता। उन्हें पहल कर के लड़कियों के लिए सुरक्षा के इंतजाम करने चाहिए ना कि उन्हें अपने कमरों में बंद रहने के लिए कहें। एक केन्द्रीय मंत्री के रूप में उन्हें तब ही महिलाओं का पैरोकार माना  जा सकेगा जब वे महिलाओं का जीवन सुगम बनाने का प्रयास करें। पशु पक्षियों के अधिकारों की उनकी चिंता को भी तब ही सार्थक माना जा सकता है जब वो इंसानों के अधिकारों की चिंता करें। जब तक लाईब्रेरी किसी एक भी व्यक्ति के लिए खुली रहे तब तक उसमें जाना और पढ़ना प्रत्येक इंसान का अधिकार है, और मेनका गांधी को लड़कियों के  इस अधिकार की रक्षा करनी चाहिए।


Friday, March 3, 2017

उत्तर प्रदेश के नतीजे तय करेंगे देश में चुनाव सुधार की दिशा_UP election's will Decide About Mid-Term Elections in India



11 मार्च। कहने को भले ही यह महज कलेण्डर की एक तारीख भर हो। लेकिन यह तारीख भारतीय राजनीति के इतिहास में एक बड़ी तारीख साबित होने जा रही है। यह नोटबंदी के कड़े फैसले के बाद नरेन्द्र मोदी सरकार के पहले लिटमस टेस्ट के नतीजे की तारीख है। 26 मई 2014 को जब केन्द्र में नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में कामकाज संभाला तो उसके बाद से यह यात्रा का एक करीब करीब मध्य पड़ाव है। और इस पड़ाव पर मोदी सरकार के कामकाज, उनके फैसलों पर देश का वह एक बड़ा राज्य अपना फैसला सुनाएगा जिसने 2014 में नरेन्द्र मोदी को झोली भर भर के अपना आशीर्वाद दिया था। इतना दिया कि मोदी को और किसी के आशीर्वाद की फिर जरूरत ही नहीं रही। पिछले पौने तीन साल में नरेन्द्र मोदी सरकार ने कई काम करने के दावे किए। देश – विदेश में कई रैलियां कीं। सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कड़ी कार्रवाई की तो नोटबंदी जैसा कड़ा फैसला लिया जिसने पूरे देश को कतार में खड़ा कर दिया पर राजनीतिक दलों को अलग कर दें तो आम आदमी ने मोदी के इस फैसले को कोसा नहीं, बस तकलीफ जरूर बयान की। लेकिन इस ढाई साल में मोदी सरकार के लिए पहले दिल्ली, जम्मू कश्मीर फिर महाराष्ट्र-गुजरात और बिहार के चुनाव ऐसे रहे जो सरकार की गति को अटकाते रहे। दिल्ली और बिहार के नतीजों ने मोदी को अपने फैसलों, रीति-नीति पर फिर से सोचने पर भी मजबूर कर दिया। इसी बीच नरेन्द्र मोदी सरकार को यह महसूस हुआ कि ये बार बार के चुनाव केन्द्र सरकार को खामख्वाह छोटे-मोटे जनमत संग्रहों जैसे हालात में डाल देते हैं। प्रचंड बहुमत की सरकार को भी एक एक राज्य के नतीजे का मुंह ताकना पड़ता है। और ऐसे में चुनाव सुधार को लेकर सतत चलने वाली बहस फिर से केन्द्र सरकार के जेहन में ताजा हो गई। सुरक्षा, विदेश और आर्थिक मामलों में कड़े फैसले लेने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार को अब 11 मार्च को उत्तर प्रदेश के नतीजों का इंतजार है। ये नतीजे भारत में चुनाव सुधार की नई इबारत लिखेंगे। यदि भाजपा को उत्तर प्रदेश में जीत मिल जाती है तो देश को जल्द ही मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार रहना होगा। और यह मध्यावधि चुनाव होंगे चुनाव सुधार के लिए। अगले साल जनवरी में गुजरात और हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं का कार्यकाल पूरा होने जा रहा है। जिसके बाद मार्च 2018 में मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा की विधानसभाओं का कार्यकाल पूरा होगा। मई 2018 में कर्नाटक का कार्यकाल पूरा होगा वहीं दिसम्बर 2018 में मिजोरम का तो जनवरी 2019 में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान का कार्यकाल पूरा होगा। मई में सिक्किम का और जून 2019 में तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, उड़ीसा का कार्यकाल पूरा होगा। और मई 2019 को ही लोकसभा का कार्यकाल पूरा होगा। अब उत्तर प्रदेश के चुनाव से निपटने के बाद जो इसी साल जो चुनावी कवायद शुरु हो जाएगी वह होगी गुजरात औऱ हिमाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा की। और इनमें गुजरात मोदी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न रहेगा। यानी उत्तर प्रदेश के बाद बमुश्किल 3-4 महीने काम करने के बाद फिर से मोदी सरकार का इलेक्शन मोड शुरू हो जाएगा। फिर बारी होगी कर्नाटक की। और फिर उत्तरप्रदेश के बाद सबसे महत्वपूर्ण हिन्दी हार्टलैंड कहे जाने वाले छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश और राजस्थान की बारी आएगी। ये तीनों राज्य भी मोदी के लिए या यूं कहें कि भाजपा के लिए बहुत ज्यादा अहम हैं क्योंकि इन तीनों राज्यों में भाजपा की सरकार है। इन राज्यों के नतीजों के तुरन्त बाद लोकसभा के चुनाव होंगे और चार अन्य राज्यों यानी तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और अरूणाचल प्रदेश भी इसी के साथ होंगे। तो राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश के नतीजों का सीधा असर लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा। एक तरीके से लोकसभा से पहले का सेमीफाइनल होगा। और गुजरात का चुनाव प्री क्वार्टर फाइनल तो कर्नाटक को क्वार्टरफाइनल की संज्ञा दी जा सकती है।
मोदी सरकार के एक धड़े में यह विचार बहुत तेजी से जोर पकड़ रहा है कि ये बार बार के लीग मैचों, प्री क्वार्टर फाइनल,  क्वार्टर फाइनल और सेमीफाइनल का चक्कर ही खत्म कर दिया जाए। और इसके लिए चुनाव सुधारों का एक बड़ा और कड़ा फैसला ले लिया जाए। लेकिन यह फैसला नोटबंदी पर उत्तर प्रदेश की जनता के फैसले पर टिका होगा। यदि उत्तर प्रदेश की जनता ने किसी भी तरह से कमल खिला दिया और वहां भाजपा सरकार बना पायी तो तय मानिए कि देश जल्द ही एक ऐसे महाचुनाव में उतरेगा जिसमें लोकसभा के साथ ही करीब 9 विधानसभाओं के चुनाव हो जाएं। उत्तर प्रदेश ने ज्यादा ही झोली भर दी तो विधानसभाओं की संख्या 15 भी हो सकती है। मतदाता एक ही बूथ में दो मशीनों पर लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनाव के लिए बटन दबा कर आएगा। हालांकि अभी मोदी सरकार को यह तय करना है कि वो इसके लिए कौन सा समय चुनेगी। सबसे समीचीन जो समय मोदी सरकार के सलाहकार बता रहे हैं वो है दिसम्बर 2018 का। इसके लिए लोकसभा को छह माह पहले भंग करना होगा। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़, मिजोरम के चुनाव इसी समय होने हैं। लोकसभा के साथ ही तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और अरूणाचल के चुनाव भी इन्हीं के साथ करवाए जा सकते हैं।
कुछ राजनीतिक पंडितों का तर्क है कि यदि उत्तर प्रदेश में जीत के आधार पर ही एक साथ चुनाव करवाए जाने हैं तो दिसम्बर 2018 और मार्च 2017 में बहुत फासला है। उत्तर प्रदेश की जीत सीधे सीधे नोटबंदी की जीत होगी और करीब पौने दो साल तक नोटबंदी की जीत से बने माहौल बनाए रखना चुनौती होगा। ऐसे में गुजरात चुनाव को ही आधार बना कर आगे बढ़ा जाए। पर ऐसे में बहुत सी विधानसभाओं को समय से पहले ही चुनाव में जाना पड़ेगा। लोकसभा का कार्यकाल भी करीब डेढ़ साल कम हो जाएगा। पर चुनाव सुधार को एक त्याग के रूप में दिखाने के लिए मोदी सरकार यह कड़ा फैसला भी ले सकती है। लेकिन ध्यान रखने वाली बात यह है कि यह सारा अगर मगर उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजे पर टिका है। यदि उत्तर प्रदेश के नतीजे मोदी सरकार के खिलाफ गए तो सरकार को वैसे ही अपने तेवर बदल कर बैकफुट पर आना होगा और फिर कम से कम चुनाव सुधारों को लेकर कोई बड़े कदम की तत्काल तो उम्मीद नहीं की जा सकेगी।