Sunday, October 19, 2014

दोस्ताना पिच पर शाह-सेना की जीत

6 अक्टूबर के ब्लॉग में भाजपा-शिवसेना के बीच वोटों के ध्रवीकरण और बिखराव के दोस्ताना मैच के बारे में बताया गया था।




शाह आधुनिक चाणक्य तो मोदी चंद्रगुप्त मौर्य

लो जी महाराष्ट्र और हरियाणा में ईवीएम से जिन्न निकल आया। और यह जिन्न कोई अकस्मात नहीं निकला। इसके लिए ईवीएम को भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने बहुत करीने से अलग अलग अंदाज में कई तरीके से घिसा। तब ही तो महाराष्ट्र में भाजपा- शिवसेना की महायुति ने बहुत अच्छे तरीके से दोस्ताना लड़ाई लड़ते हुए अपने प्रतिद्वंद्वियों को चारों खाने चित्त कर दिया। दोनों ने 288 सदस्यों वाले सदन में 177 सीटों पर बढ़त बनाई है जो स्पष्ट बहुमत से कहीं आगे है। यह परिणाम तमाम राजनीतिक पंडितों के लिए भले ही चौंकाने वाले हों पर इस ब्लॉग में गत 6 अक्टूबर को ही यह स्पष्ट कर दिया था कि भाजपा और शिवसेना का गठबंधन टूटना एक सोची समझी रणनीति के तहत उठाया गया कदम है। वोटों के बिखराव और ध्रुवीकरण को ध्यान में रख कर यह बिसात बिछाई गई और वह बिसात पूरी तरह कामयाब साबित हुई। भाजपा ने 112 और शिवसेना 63 सीटों पर बढ़त बना रखी है। पूरे चुनाव अभियान के दौरान इसी वजह से भाजपा ने बाला साहेब ठाकरे के सम्मान के नाम पर शिवसेना के खिलाफ कोई बयानबाजी नहीं की। अमित शाह की रणनीति में शिवसेना अपने आपको ज्यादा सहज नहीं पा रही थी, क्योंकि उसे पहले से ही यह पता था कि उसका कद हर हाल में घटने जा रहा है, इसलिए सेना ने सामना के जरिए नरेंन्द्र मोदी पर जम कर जहर उगलने की कोशिश की और उनकी तुलना अफजल खान तक से कर दी। पर कहते हैं न कि अन्त भला तो सब भला। महाराष्ट्र में भाजपा-सेना का भगवा एक बार फिर से लहरा रहा है।
वहीं हरियाणा में भाजपा अकेले के दम पर सरकार बनाने जा रही है। कभी तीन लाल, देवीलाल-बंसीलाल-भजनलाल, की राजनीति का अखाड़ा रहे हरियाणा में कोई भी भाजपा को स्पष्ट बहुमत की ओर बढ़ता नहीं देख रहा था। वहां कि जातिवादी राजनीति के तार इस तरह से गुंथे हुए हैं कि पार्टी से ज्यादा खाप हावी रहती है इसलिए दशकों तक पहले तीनों लाल और फिर उनके उत्तराधिकारियों ने हरियाणा को अपनी बपौति की तरह बनाए रखा। वहां महज चार विधायकों के साथ बिना किसी चेहरे को आगे कर भाजपा ने जीत दर्ज की है तो इसमें भी सारी रणनीति अमित शाह की ही है। अमित शाह ने ही चुनाव से पहले ही चुन चुन कर नेताओं को भाजपा में शामिल किया। किसी को भी नेता घोषित नहीं किया। कुलदीप विश्नोई की पार्टी से चल रहे गठबंधन को बाहर का रास्ता दिखाया। अकालियों के जरिए आईएनएलडी को हवा दी ताकि वह कांग्रेस के वोट काटे और अंततः भाजपा प्रत्याशी विजयी वोट हासिल करे।
साफ है कि भाजपा ने यह चुनाव विचारधारा, एजेंडे से कहीं ज्यादा पूरी तरह से चुनावी वोट की कतर ब्यौंत के फार्मुले पर लड़ा और मोदी के चेहरे को आगे कर अमित शाह की रणनीति ने भाजपा को एक वटवृक्ष की सी स्थिति दी है। इस जीत का पूरे हकदार सही मायनों में यदि कोई है तो वह केवल और केवल अमित शाह हैं। वे भाजपा के चाणक्य और मोदी चंद्रगुप्त मौर्य हैं। अब साफ तौर पर अमित शाह का अगला अभियान जम्मू कश्मीर में भाजपा के मुख्यमंत्री की ताजपोशी करना होगा। पश्चिम बंगाल और दक्षिण में केरल-तमिलनाडु के अभेद्य गढ़ को भेदने जैसे दुष्कर काम का करना शाह का स्वप्न है।
पिछले पोस्ट में यह जिक्र था कि भाजपा में यह बहुत पहले ही तय हो चुका था कि नतीजे चाहे कुछ भी हों चुनाव के बाद सरकार भाजपा-शिवसेना की ही होगी। और भाजपा शिवसेना को राजनीतिक तोहफा दे कर सारे गिले शिकवे दूर कर देगी। तो भाजपा वह तोहफा देने की और कदम बढ़ा चुकी है और जल्द ही यह सामने आ जाएगा वह तोहफा क्या होगा।

Tuesday, October 7, 2014

बयानबाजियों से गर्म हो रहा महाराष्ट्र


 महाराष्ट्र का चुनाव दिन ब दिन दिलचस्प होता जा रहा है। गठबंधन के टूटने का दंश शिवसेना को कुछ ज्यादा ही साल रहा है या मामला कुछ और ही है। दरअसल चुनाव से बहुत पहले ही महाराष्ट्र की तस्वीर बहुत साफ हो गई थी। उस साफ तस्वीर ने ही शिवसेना- भाजपा को आमने सामने ला खड़ा किया और साफ तस्वीर धुंधली हो गई। वो साफ तस्वीर जो कह रही थी उसका संदेश था कि कांग्रेस एनसीपी की सरकार एंटी एन्कम्बैंसी और मोदी लहर के चलते दरवाजा देखेगी और प्रदेश में भाजपा-शिवसेना की सरकार बनेगी। अब शुरू होती है इस साफ तस्वीर के धुंधला जाने की कहानी। भाजपा और शिवसेना में पिछले सालों से जो गठबंधन चल रहा है उसमें एक शर्त साफ होती है, और वह यह कि जिसके भी ज्यादा सदस्य चुन कर आएंगे, उसी पार्टी का व्यक्ति मुख्यमंत्री या नेता प्रतिपक्ष होगा। यही फार्मुला निकाय चुनावों में भी चलता रहा है। तो इस बार जब सरकार साफ साफ आती नजर आ रही थी तब सबसे बड़ा सवाल जो मुंबई के मातोश्री और दिल्ली के 11, अशोक रोड में चक्कर काट रहा था वह था कि कौन बनेगा मुख्यमंत्री। बाला साहब ठाकरे के जमाने की शिवसेना में इस सवाल को कभी उठाया नहीं जाता था। जिसे बाला साहब चाहते वह मुख्यमंत्री हो जाता। लेकिन सत्ता की डोर अन्ततः बाला साहब के ही हाथ में रहती थी। यदि भाजपा का मुख्यमंत्री होता तब भी डोर अन्ततः बाला साहब के ही हाथ में रहती। पर बाला साहब के बाद के युग में हालात बदले हुए हैं। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को अग्निपरीक्षा से गुजरना है। उद्धव का कद शिवसेना में तो निर्विवाद है पर भाजपा के नेता उनको बाला साहब की जगह नहीं देखते। ऐसे में शिवसेना किसी भी स्थिति में यह सुनिश्चित कर देना चाहती थी कि सरकार आने की स्थिति में उसी का मुख्यमंत्री हो। इसके लिए उसने बकायदा उद्घव ठाकरे का नाम भी चला दिया।  उद्घव ने भी कह दिया कि वक्त आने पर वे जिम्मेदारी से भागेंगे नहीं। यानी शिवसेना ने अपना दांव खेल दिया। पर भाजपा के सामने संकट की स्थिति बन गई।भाजपा के पास प्रदेश इकाई में उद्धव के कद का नेता नहीं है। जो हैं वो केन्द्र में कोई न कोई जिम्मेदारी निभा रहे हैं। ऐसे में उद्धव के मुकाबले वो कोई चेहरे घोषित करने से बच रही थी।  परम्परा के अनुसार तो जिसके ज्यादा विधायक उसका मुख्यमंत्री होता, पर उद्धव के घोषणा करने से ऐसा संदेश जाने लगा था कि भाजपा ने भी उद्धव को गठबंधन का मुख्यमंत्री स्वीकार कर लिया है। और चुनाव के बाद संख्या बल की बात करना महज एक औपचारिकता भर रह जाता। महाराष्ट्र में वैसे भी शिवसेना भाजपा की तुलना में कहीं अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही थी। ऐसे में संभवतया उसके विधायक ज्यादा हो सकते थे, पर भाजपा का सफलता का प्रतिशत ज्यादा था, और भाजपा पहले भी सेना की तुलना में ज्यादा विधायक जितवा कर ला चुकी है। मुख्यमंत्री पद की दौड़ को खुला रखने के लिए भाजपा ने ज्यादा सीटों पर लड़ने की मांग की। जाहिर है इससे शिवसेना की सीटों में कमी आती और अन्ततः इसका असर चुनाव के बाद शिवसेना के विधायकों की संख्या पर दिखाई देता। ज्यादा विधायकों की स्थिति में भाजपा स्वाभाविक तौर पर मुख्यमंत्री पद का दावा करती और उद्धव का दावा कमजोर पड़ जाता। मुख्यमंत्री पद को लेकर जब संकट ज्यादा गहराना भाजपा के रणनीतिकारों को  अपने लिए मुफीद ही लगा। उनकी गणित में वोटों का बिखराव ही भाजपा के लिए फायदेमंद होना था। तो इसी रणनीति पर चल रही भाजपा गठबंधन के टूटने में एक तीर से दो निशाने साधते दिख रही है। वोटों का बिखराव न केवल उसकी संभावनाओं को बढ़ाता है बल्कि चुनाव के बाद उसकी अपनी सरकार की स्थिति भी बनती है। शिवसेना को यह स्थिति पूरी तरह नागवार गुजर रही है और इसीलिए दिनोंदिन उसके तेवर तीखे होते जा रहे हैं। शिवसेना के निशाने पर अब एनसीपी कांग्रेस की जगह भाजपा है। ज्यों ज्यों चुनावी चौसर बिछ रही प्रचार में जुटे भाजपा नेता खासे उत्साहित होते जा रहे हैं। एक उत्साहित भाजपा नेता की अपनी गणित के मुताबिक पार्टी वहां 140 सीटों को जीतने की स्थिति में पहुंच चुकी है। यदि ऐसा होता है तो शिवसेना के लिए यह एक तरह का झटका ही होगा। हालांकि उन्हीं भाजपा नेता का यह भी कहना है कि महाराष्ट्र की सरकार शिवसेना और भाजपा मिल कर ही चलाएंगे। हो सकता है चुनाव के बाद भाजपा शिवसेना को ऐसा बड़ा तोहफा भी दे दे जिसकी राजनीतिक पंडितों तक ने उम्मीद नहीं की हो।

Monday, October 6, 2014

आखिर महाराष्ट्र में चल क्या रहा है?

क्या सफलता वाकई इतनी मदमस्त कर देने वाली होती है कि सफलता के नशे में चूर शख्स अपने दुःख के साथियों को भी भूल जाए? कम से कम शिवसेना का तो महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भाजपा के साथ गठबंधन टूटने के बाद यही मानना है कि, हां शायद ऐसा ही होता है। भारतीय जनता पार्टी को केंद्र में अपने बूते स्पष्ट बहुमत क्या मिला उसने पच्चीस साल पुराना साथ एक झटके में तोड़ दिया। वो भी तब जब शिवसेना को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। मराठी ह्रदय सम्राट माने जाने वाले बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद यह शिवसेना का पहला विधानसभा चुनाव है। ऐसे में अपने वर्चस्व को साबित करने के लिए शिवसेना के पास यह एक महत्वपूर्ण मौका है। आखिर पच्चीस सालों का साथ कैसे एक झटके में टूट गया। और वह भी एक सीट के लिए।
       और एक सीट भी कौन सी? भुसावल। भुसावल वह सीट थी जो सालों से शिवसेना के खाते में चलती आ रही है। पिछली बार इस सीट पर एनसीपी ने जीत हासिल की थी और शिवसेना का उम्मीदवार महज तीन हजार वोटों से हारा था। उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों के परिणामों से चहुं ओर चुनावी रणनीति के महारथी साबित हो चुके उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रीति नीति पर चलते हुए महाराष्ट्र में भी पार्टी ने जब विरोधी दलों में सेंध लगा कर उनके नेताओं को पार्टी में शामिल करना शुरू किया तो भुसावल के विधायक और पूर्व मंत्री  एनसीपी के संजय सावकर को भी भाजपा की सदस्यता दिलवा दी। इसी के साथ पार्टी ने इस सीट को शिवसेना से लेकर यहां अपना प्रत्याशी उतारने की कवायद शुरू कर दी। शिवसेना इस पर राजी नहीं हुई और अन्ततः गठबंधन टूटने का यही एक दिखता सा कारण बना। हालांकि घोषणा सीटों की संख्या के बंटवारे पर सहमति नहीं होने को आधार बना कर की गई।
        गठबंधन टूटने की यह घटना क्या वाकई इतनी सरल है, जितनी यह दिख रही है? क्या वाकई भाजपा का शीर्ष नेतृत्व, जिसमें संघ की राय को भी शामिल मानें, महाराष्ट्र इकाई के नेताओं के तर्कों को इस कदर मानने पर उतर आया है जिसमें वह उद्धव और आदित्य ठाकरे की भावुक अपीलों, हमने 272 का साथ दिया अब आप 151 का साथ दो, को ही नकार दे? क्या नरेन्द्र मोदी गुजरात दंगो और उसके बाद देश भर में केवल शिवसेना की ओर से मिले समर्थन का इस तरह का सिला दे सकते हैं?
       इन सब सवालों का जवाब कल खुद मोदी ने दे दिया है। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे शिवसेना के खिलाफ नहीं बोलेंगे। क्यों नहीं बोलेेंगे? क्योंकि यह उनकी बाला साहेब ठाकरे के प्रति श्रद्धांजलि है। यानी वह नेता जिसकी बात आज देश में सबसे ज्यादा सुनी और मानी जा रही है उस महाराष्ट्र के चुनावों में जिसमें उनकी पार्टी पिछले 15 सालों से सत्ता से दूर है, मैदान में विरोधी बन कर खम ठोक रही एक पार्टी के खिलाफ कुछ नहीं बोलेगा।
       शायद मोदी के इस बयान ने सारी उलझी गुत्थियों को सुलझा दिया होगा। नहीं सुलझाया तो जरा एक बार इस नजरिए से सोचिए।
       उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा ने प्रदर्शन किया क्या उसकी किसी ने उम्मीद की थी?  नहीं ना। फिर कैसे संभव हुआ। मोदी लहर से? परिणाम के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने लड़ रही पार्टियों ने जिस शख्स को सबसे ज्यादा कोसा वो कौन था? वो नरेन्द्र मोदी नहीं थे। वो शख्स थे अमित शाह। क्यों? कहते हैं उन्होंने सीट दर सीट वोटों का इस तरह से बिखराव और ध्रुवीकरण किया कि ईवीएम के बटनों ने जिन्न बाहर निकाल दिया।
बस यही  वो कड़ी है जिसने पच्चीस सालों के गठबंधन को तोड़ दिया। टूटे गठबंधन के बावजूद शिवसेना केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल है। नरेन्द्र मोदी शिवसेना के खिलाफ कुछ नहीं बोलेंगे। और चुनाव बाद के गठबंधन से इनकार नहीं किया जा रहा।
       दरअसल अमित शाह ने जब महाराष्ट्र की सीटों का गहन विश्लेषण किया तो उन्हें समझ आया कि कई सीटों पर मतों का ध्रुवीकरण इस कदर गहराया हुआ है कि सीधे मुकाबले में भाजपा-शिवसेना उन सीटों को कभी नहीं जीत सकती। इन सीटों को बहुकोणिय मुकाबला बनाने के बाद ही जीता जा सकता है। बस इसके बाद शुरू हो गई मुकाबले को बहुकोणिय बनाने की रणनीति। शिवसेना और भाजपा एक तरह से दोस्ताना मैच खेल रही हैं। जहां शिवसेना का उम्मीदवार भारी है, वहां भाजपा का उम्मीदवार इस तरह से खड़ा है कि वह शिवसेना के विरोध कांग्रेस या एनसीपी के प्रत्याशी के वोट बैंक में सेंध लगा दे। और जहां भाजपा का उम्मीदवार मजबूत है वहां विपक्षी के वोटों में सेंधमारी का काम शिवसेना का प्रत्याशी करेगा। अब यह रणनीति कितनी सफल रहती है और कहीं इस रणनीति की एक खिलाड़ी शरद पवार की एनसीपी भी तो नहीं है, यह तो परिणामों के बाद ही सामने आएगा। पर एक बात तय है कि ये चुनाव अमित शाह के राजनीतिक कौशल को कसौटी पर कस रहे हैं। यदि यहां चुनाव के बाद भाजपा- शिवसेना की सरकार जबरदस्त बहुमत के साथ बने तो हिन्दुस्तान जम्मू कश्मीर के चुनाव परिणामों में भी ऐसा अभूतपूर्व बदलाव देखने की उम्मीद कर सकता है जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की होगी।