Tuesday, January 12, 2010

उतिष्ठत् जाग्रत प्राप्यवरानिबोधत्

आज स्वामी विवेकानंद की जयंती है, यानी युवा दिवस। विवेकानंद ने युवाओं को किसी देश की तकदीर और भविष्य कहा था। उन्होंने ध्येय वाक्य दिया था, उतिष्ठत् जाग्रत् प्राप्यवरानिबोधत्। अर्थात, उठो जागो और तब तक मत रूको जब तक की लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाए। उठने, जागने औऱ लक्ष्य प्राप्त होने तक नहीं थमने की यह प्रक्रिया हर किसी के जीवन में महत्वपूर्ण परिणाम लाती है। पर सवाल उठता है कि कितने लोग अपने लक्ष्य के बारे में जानते हैं, और कितनों को यह अनुभूति हो पाती है कि वे वास्तव में सो रहे हैं। जब उन्हें अपने सोने का अहसास ही नहीं हो पाएगा तो जागने और लक्ष्य पाने की बात तो बहुत दूर है। हम क्या कर रहे हैं, और उसका क्या परिणाम है यह अनुमान लगा पाना बहुत कठिन है। नामुमकिन है ऐसा मैं नहीं कहता। क्योंकि नामुमकिन तो कुछ भी नहीं है। पर सवाल अपनी जगह है, कि यह कैसे पता चले कि हम सो रहे हैं और हमें जागना है। मैंने कुछ जनों से यह सवाल पूछा तो उनका कहना था कि तुमने बचपन में क्या करने और क्या बनने का सोचा था..। मैंने उन्हें बताया। और यह भी बताया कि वह तो मैंने काफी हद तक पाया,, पर अब प्यास बढ़ती जा रही है,, और यही तो अन्तिम सत्य नहीं,, अन्तिम इच्छा नहीं है,, अब जो चाहता हूं वो मिल जाएगा तो कुछ और पाने की चाह जगेगी।,,,मन अक्सर क्लान्त ही रहता है। फिर यदि आप जानते भी हैं कि आप क्या चाहते हैं और उसे पाने का रास्ता भी जाग्रत मस्तिष्क में कहीं दिखने लगता है , लेकिन लक्ष्य प्राप्ति के लिए जो कुछ कर गुजरने वाला जज्बा चाहिए वो कहां से लाया जा सकेगा। लोग कहते हैं कि हिम्मत करके देखो शायद कुछ बात बन जाए,, पर फिर वे ही कहते हैं यार, डर लगता है,, अभी जो जिम्मेदारियां है उन्हें कैसे निभाया जाएगा। जिम्मेदारियों का बोझ ही शायद हरेक को हमेशा सोते रहने पर विवश करता है। वरना कौन नहीं चाहता जागना औऱ लक्ष्य पा लेना,,। पर हां, आज एक बार फिर से स्वामी जी का कथन याद आया औऱ याद आए लक्ष्य। कहां से चले औऱ कहां पहुंच गए.. अभी पता नहीं कहां कहां से गुजर होगा। पर हां, आज फिर कुछ सोचा है,, पूरी तरह से सोने से बेहतर है, कुछ जाग जाया जाए, मंथर गति से ही सही लक्ष्य की ओऱ बढ़ा तो जाए,,। कच्छप शैली में ही आज नहीं तो फिर कभी,, कभी न कभी तो लक्ष्य प्राप्त होगा ही। तो एक बार फिर से उतिष्ठत् जाग्रत् प्राप्यवरानिबोधत्।