Monday, October 29, 2007

यह कारवां तो अब बिखरने लगा है...

- अभिषेक

भारतीय जनता पार्टी का कारवां लगता है बिखरने लगा है। पार्टी विद ए डिफरेन्स का नारा बुलंद करने वाली यह पार्टी अब पार्टी विद डिफरेन्सेज हो गई लगती है। भाजपा की यह अधोगति केवल भाजपा के ही हित या अहित को प्रभावित करती हो, ऐसा नहीं है,बरसों से सम्भाला संवारा लोकतंत्र भी इससे कहीं अन्दर तक आहत हो रहा है। सालों के प्रयास के बाद 90 के दशक में जा कर लगने लगा था कि अब देश में सही मायने में लोकतंत्र की स्थापना होगी और देश में दो दलीय व्यवस्था सुदृढ़ होगी। लेकिन शायद भाजपा के लौहपुरुषों और कर्णधारों को यह मंजूर नहीं था। तभी तो अपने बाद उन्होंने किसी अन्य की वह हस्ती नहीं बनने दी जो पार्टी को संभाल सके। न संघ यह समझ पाया और न भाजपा कि नेता नियुक्त नहीं होते,वे तो बनते हैं। प्रमोद महाजन औऱ साहिब सिंह जैसों को विधाता ने छीन लिया तो उमाभारती जैसों को प्रक्रिया और स्वाभिमान, जैसा वे कहती हैं, की लड़ाई ने। कल्याण सिहं राजनाथ सिंह की आपसदारी ने यूपी को डुबोया तो केन्द्र में वैंकया नायडु,सुषमा स्वराज, अरुण जेटली जैसों की महत्वकांक्षा ने सबकुछ लुटाने की सी स्थिति बना दी। भाजपा शासित राज्यों की तो बात ही क्या करें। चाहे मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ हो या राजस्थान हर जगह कुलड़ी में गुड़ फोड़ा जा रहा है। नेताओं की कतार खड़ी है दूसरे नेताओँ की जड़ों मे मट्ठा दालने में। वैसे असंतोष कोई नई बात नहीं है,सवर्दा ही वंचित वर्ग असंतुष्ट रहता है।पर उसका समय पर इलाज हो जाना जरूरी है,निरंकुशता स्थितियों को विकृत कर देती है। कुल मिला कर भाजपा की स्थिति निराश करती है। इन सबसे उपर संघ की भूमिका भी बदलने लगी है।पहले वहां निपटारे होते थे। मनोमालिन्य दूर होते थे अब वहां पेशियां होती हैं, फैसले होते हैं, सबसे बड़ी बात कई बार तो उसके न्यायकर्ता की भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं। और सिद्धान्तों का चोला भी लगता है अब उतर गया है। तभी कर्नाटक मे पहले इतनी छिछालेदार के बाद अब फिर से कुमारस्वामी का साथ मंजूर कर सरकार बनाने का दावा कर लिया है। कहते हैं राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता पर इतना जल्दी तो गिरगिट भी नहीं बदलता। कुमारस्वामी को पहले पता नहीं था क्या कि उनका दल टूट सकता है। दल टूटा तो चले भाजपा की गोद मे और ये भी इतने बे मुरोव्वत की तुरन्त बैठा लिया और पहुंच गए राजभवन।खैर यह तो वक्त की बात है, लेकिन इस और इस जैसी अन्य कई घटनाएं एक बात साफ कर रही हैं,कि हमारे यहां दो दलीय व्यवस्था का सितारा बुलंद होना बहुत संभव नहीं लगता।और हम कांग्रेस के इर्द-गिर्द छोटे-छोटे तात्कालिक महत्वकांक्षाओं वाले राजनैतिक घटकों से ही त्रस्त रहेंगे जो देश की किसी भी बड़ी परियोजना को सफल होने देने मे भरसक रोड़े अटकाएंगे।क्योंकि उन्हें पूरे देश से कोई मतलब नहीं, उन्हें तो सिर्फ अपने से मतलब है। और यह सब होगा देश की किमत पर। बात जहां तक भाजपा के कारवां के बिखरने की है तो मुझे एक कहावत याद आ रही है...
राम किसी को मारे नहीं, नहीं हत्यारा राम,
पापी खुद ही मर जाए कर कर खोटे काम,,,,,,

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