Tuesday, September 18, 2007

सोश्यल इंजीनियरिंग के नाम

- अभिषेक

आज एक मित्र का आग्रह था कि सोश्यल इंजीनियरिंग की कुछ बात हो जाए। उन्हीं के आग्रह पर सादर.......

हाल ही में उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव देश की राजनीति को एक नई दिशा औऱ नया नारा दे गए हैं। मतपेटी से निकले जिन्न ने एक और नए जिन्न की रचना कर दी। इस जिन्न का नाम है सोश्यल इंजीनियरिंग। मायावती और सतीश मिश्रा ने भारतीय जातिय समाज और भारतीय आरक्षण प्रणाली के समुचित समानुपातिक मिश्रण से एक ऐसा विलयन तैयार किया है जो लगभग संजीवनी बूटी का सा अहसास दे रहा है। इस जातिय तालमेल का चुनावी रंग और असर चाहे जो हो पर यह कहीं न कहीं हमारी जाति व्यवस्था की नई परिभाषा जरूर गढ़ रहा है।
दरअसल समाज चाहे कोई भी हो कैसा भी हो। उसका एक ढांचा होना आवश्यक है। बिना समुचित ढांचे के विकास या सहजीवन की परिकल्पना मुश्किल है। जीन जैक रुसो की आदर्श बर्बर मानव की बात कुछ ऐसी ही है। हम यदि भारतीय समाज की बात करें तो यह एक स्वयंसिद्दा और स्वयंविकिसत समाज है। जिसने अपरने विकास के साथ साथ अपना मार्ग और अपनी नीतियां तय की हैं। मनुसंहिता के रूप में मनु ने समाज के समुचित संचालन के लिए तालमेल की एक व्यवस्था प्रदान की थी। वह उस समय समाजिक अराजकता को खत्म कर समाज को व्यवस्थित करने की एक कारगर पहल थी। यदि अंग्रेजी का नेशनल मीडिया उस समय होता तो उसे भी सोश्यल इंजीनियरिंग ही कहा जाता।
यह मनुवादी सोश्यल इंजीनियरिंग सदियों तक भारतीय समाज की दशा और दिशा तय करती रही। जाहिर है हर वक्त के बलशाली औऱ विचारवान लोगों ने इसमें अपनी सुविधानुसार इच्छित परिवर्तन किए। भारतीय परतंत्रता के कालखण्ड में आक्रान्ताओ के अनुरूप समाज निर्माण के चलते इसमें जबरदस्त विकृतियां आईं। पर वक्त के साथ उनके इलाज भी हुए। आजादी के साथ ही सामाजिक विकृतियों को दूर करने के लिए सोश्यल इंजीनियरिंग के पुरोधा डॉ। भीमराव अम्बेडकर ने आरक्षण की व्यवस्था की। कालान्तर में यह व्यवस्था ही अपने आप में बहुत बड़ी विकृति बन गई। वंचित वर्ग की तुष्टि के नाम पर कई नए वंचित वर्ग तैयार हो गए।
और हालात वर्तमान स्थितियों तक पहुंच गए। मायावती और सतीश मिश्रा ने हालात की मांग को समझते हुए या यूं कहें की माइनस माइनस इजिक्वल टू प्लस की अवधारणा पर काम करते हुए,विकृत सामाजिक ढांचे के कारण वंचित वर्ग व आरक्षण की व्यवस्था के कारण वंचित हुए नववंचित वर्ग को आपस में जोड़ दिया। यह गठजोड़ वाकई अनूठा है। और कारगर है। वक्त की मांग है औऱ राजनीतिक विश्लेषकों के अनुमान हैं कि इस प्रकार की सोश्यल इंजीनियरिंग अन्य स्थानों पर भी दिखेगी। लेकिन इसके खतरे बहुत हैं। जिस प्रकार आरक्षण में योग्यता की उपेक्षा होती है, इसमें भी योग्यता पीछे धकेली जाएगी। नतीजा पूरा देश चुकाएगा। जाहिर है शॉर्टकट अपनाने का नुक्सान सभी को उठाना ही होगा। यह ज्वार एक बार तो जरूर उठेगा। बस इंतजार करिए इसके उठने औऱ हर चीज के इसके आगोश में समाने का। हर ज्वार के बाद भाटा आता है और समुद्र की रौद्र लहरें शांत हो जाती हैं। हम जैसे कुछ लोगों को आशा है कि समुद्र की सी वह शांति जल्द ही आएगी।
आमीन।

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