Thursday, October 1, 2015

हिन्दी पढ़ने के लिए पड़ेगी विशेषज्ञों की जरूरत

शिला लेखों में छिपे अर्थ को जानने के लिए इन दिनों विशेषज्ञों की जरूरत होती है। पर शायद उन दिनों जबकि उन शिलाओं पर वो लेख खोद कर कोई संदेश लिखा गया होगा तब उस संदेश जानने के लिए विशेषज्ञों की जरूरत नहीं रही होगी। तब वो भाषा आम बोलचाल की भाषा होगी। वो लिपि लिखित अभिव्यक्ति की आम लिपि होगी। आज हमारी हिन्दी की तरह। तब भी लोग हमारी ही तरह के रहे होंगे। जो अपनी भाषा लिपि के प्रति जागरुक नहीं रहे होंगे। और नतीजा यह है कि आज उन शिला लेखों को पढ़ने के लिए उसी धरा पर जहां कभी वह भाषा लोकप्रिय रही होगी वहां विशेषज्ञों की जरुरत पड़ रही है। मेरी यह बात भले ही आज अतिश्योक्ति लग रही हो पर आंकड़े जो कहानी कह रहे हैं वह तो इसी खतरे की आहट दर्शा रहा है। नई पीढ़ी हिन्दी से दिन ब दिन दूर होती जा रही है। यह पीढ़ि दुभाषी होने की बजाय महज एक भाषी यानी अंग्रेजी भाषी ही होती जा रही है। हाल ही में आई एक रिपोर्ट बता रही है अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वर्ष 2008-09 से 2013-14 में अंग्रेजी माध्यमों के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या दोगुनी हो गई। हालांकि इस दौरान हिन्दी माध्यमों में छात्रों की संख्या बढ़ी पर महज 25 प्रतिशत की दर से। यानी अंंग्रेजी माध्यमों की  एक चौथाई। जरा हिन्दी भाषी राज्यों की स्थिति पर भी नजर डालिए बिहार में पांच साल में अंग्रेजी माध्यम में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या में 47 गुना यानी 4700 प्रतिशत की वृद्धि हुई तो उत्तर प्रदेश में दस गुना यानी 1000 प्रतिशत और हरियाणा में 525 और झारखंड में 458 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। राजस्थान में यह वद्धि 209 प्रतिशत की रही।

 भले ही एक बात से हम संतुष्ट हो जाएं कि अभी भी हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वालों से ज्यादा हैं पर यह साधारण सा नियम हर कोई जानता समझता है कि दोनों की वृद्धि दर का यह अन्तर आने वाले कुछ दशकों में स्थिति को किस कदर बदल कर रख देगा। अंग्रेजी स्कूलों की पढ़ाई महंगी नहीं होती तो यह अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या और भी कहीं अधिक हो सकती थी। अधिकांश अभिभावक तो हिन्दी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाते ही इसलिए हैं कि उनकी आर्थिक स्थिति उन्हें इसकी इजाजत नहीं देती। हालांकि यह कतई हेय नहीं है कि वे अंग्रेजी के स्कूलों में अपने बच्चों को क्यों पढ़ा रहे हैं? वर्तमान परिदृश्य में शिक्षा के बूते आजीविका चलाने वालों को अच्छी अंग्रेजी आना अनिवार्य है। जिसकी अंग्रेजी जितनी अच्छी उसके लिए अवसर भी उतने ही ज्यादा।
जाहिर है नीतिकारों को यह समझना होगा कि हम हिन्दी पढ़ने वालों के लिए अच्छे रोजगार के अवसर कैसे महुया करवाएं। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब भारत में ही हिन्दी में लिखे को पढ़ने के लिए भी विशेषज्ञ बुलाए जाएंगे।

Saturday, September 19, 2015

हिन्दी पत्रकारिता में भाषा की शुद्धताः अशुद्धियां बनाम भाषा की प्रवाहशीलता

विश्व हिन्दी सम्मेलन 2015, भोपाल में आलेख प्रस्तुति के लिए चयनित आलेख(दिनांक 11.09.2015 को सम्मेलन के राजेन्द्र माथुर सभागार में प्रस्तुत)
 - अभिषेक सिंघल
हिन्दी पत्रकारिता यानी आमजन तक पहुंचने वाला हिन्दी का सबसे विस्तृत स्वरूप। अखबार, टीवी, रेडियो, वेब साइट्स के माध्यम से रोजाना हजारों-लाखों शब्द सामान्य जन को हिन्दी से रूबरू कराते हैं। जो वे पढ़ते -देखते और सुनते हैं वही उनके लिए मानक हिन्दी है। पत्रकारिता के माध्यम से प्रचलित शब्द सामाजिक मान्यता प्राप्त कर मानकीकरण की दावेदारी में भी आ खड़े होते हैं। अंग्रेजी शब्दकोशों में हर अद्यतन के समय कई हिन्दी शब्दों का समायोजन इसका उदाहरण है। हिन्दी एक विस्तृत भूभाग की भाषा है। "इसका प्रयोग विभिन्न कार्यों में होने से उसकी शैलियां अथवा रूप सभी स्तरों पर एक प्रकार की नहीं होंगी। सरकारी कामों में प्रयुक्त हिन्दी एक प्रकार की, बोलचाल की हिन्दी दूसरे प्रकार की, विज्ञापन की हिन्दी तीसरे प्रकार की तो व्यापार में प्रयुक्त हिन्दी चौथे प्रकार की, साहित्य में प्रयुक्त हिन्दी पांचवें प्रकार की तो पत्रकारिता में प्रयुक्त हिन्दी छठे प्रकार की है। अतएव भाषा की एकरूपता पर बल देना सैद्धांतिक अधिक है, व्यावहारिक कम।”1.

    भाषा एक ऐसी सरस सलिला सरिता है जो अपने प्रवाह के दौरान निरन्तर नूतन शब्दों को जोड़ती चलती है। 1829 में पादरी आदम ने पहला शब्दकोश संपादित किया तो शब्द थे बीस हजार, 1894 में श्रीधर भाषा कोश में शब्द हुए 25 हजार, वृहद हिन्दी कोश के तीसरे संस्करण में शब्द हैं एक लाख अड़तीस हजार तो हिन्दी शब्द सागर (1965-75) में शब्दों की संख्या है दो लाख। शब्दों का यह वृद्धिमान संकेत भाषा में नए शब्दों के प्रचलन को मान्यता मिलने की पुष्टि करता है। भाषा विज्ञान का सिद्धान्त है कि कोई भी भाषा अपने मूल शब्दों के केवल 81 प्रतिशत शब्द ही रख पाती है, शेष लुप्त हो जाते हैं।2. ऐसे में वर्तमान दौर में पत्रकारिता ही भाषा को नए शब्दों के प्रयोग से यह आधुनिकता प्रदान करती है। वस्तुतः पत्रकारीय भाषा में पूर्व निर्धारित मानकों द्वारा तय शुद्धता को बनाए रखना भाषा की प्रवाहशीलता को एक दायरे में बांधना है। साथ ही यह भी एक तथ्य है कि भाषाई आधुनिकता के नाम पर पत्रकारिता के कतिपय लापरवाह प्रयोग भाषा की विकृति में भूमिका निभाते हैं। यह विकृति अंग्रेजी शब्दों के बढ़ते प्रयोग के साथ ही, व्याकरण के सिद्धान्तों के उल्लंघन और अपभ्रंश शब्दों के प्रचलन के कारण ज्यादा गंभीर हो जाती है। अस्तु पत्रकारीय हिन्दी इन विकृतियों को एक प्रकार से सामाजिक मान्यता दिलाने का काम करने लगती है। भाषा की शुद्धता पर हिन्दी पत्रकारिता में सदैव से चिंता का वातावरण रहा है। आज जब हम विश्व हिन्दी सम्मेलन में इस पर चर्चा कर रहे हैं तो 80 वर्ष पूर्व ही आचार्य शिवपूजन सहाय ने 7 अगस्त 1946 के हिमालय में लिखा था, "प्रचार के नाम पर संस्कार का संहार असह्य अनाचार है। जान पड़ता है भाषा- संहार का युग है। पत्रकारों का न इधर ध्यान है, न इसमें अनुराग ही।"3 पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी पत्रकारिता के व्याप में वृद्धि के कारण पत्रकारिता की हिन्दी में अशुद्धियों की संख्या में एकाएक बढ़ोतरी हुई है। अखबारों के साथ ही इसमें चौबीस घंटे के समाचार चैनल और हिन्दी वेबसाइट्स की भी बड़ी भूमिका है। अखबारों में तो फिर भी भाषा के मानकीकृत स्वरूप को बनाए रखने और एकीकृत प्रयोग के लिए स्टाइल शीट का प्रचलन है, किन्तु चैनल और वेबसाइट में ऐसा प्रचलन कम है। ऐसे में हिन्दी पत्रकारिता में भाषायी अशुद्धता तीन प्रकार की है, एक प्रूफ रीडिंग व अज्ञानता की, दूसरी नवीनता के प्रभाव के लिए वाक्य रचना में फेरबदल की और तीसरी अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की। पहले प्रकार की अशुद्धता वैयक्तिक है और इसका निदान पत्रकारिता में मानव संसाधन के स्तर को सुधारने से ही होगा। नई पीढ़ी के पत्रकारों को बोल चाल के स्तर की हिन्दी का ही ज्ञान होने से अज्ञानता की अशुद्धियां बढ़ रही हैं। पत्रकारों के लिए भाषा ज्ञान का मानक तय होने पर सुधार दृष्टिगोचर हो सकता है। वहीं दूसरे प्रकार की अशुद्धता को अशुद्धि माना जाए या नहीं यह विचारणीय है क्योंकि यही प्रभावोत्पादकता भाषा को नवीनता भी देती है। दरअसल पत्रकारिता की भाषा समाज की भाषा का प्रतिबिम्ब है। आचार्य विनोबा भावे ने भी इसे रेखांकित किया है, “शब्दों की अधोगति समाज की चारित्रिक गिरावट का सबूत है।” 4वहीं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भाषा की अशुद्धता को भी उसके हित में देखते हैं, वे कहते हैं, “ हिन्दी को विकृत करना भी एक लाक्षणिक प्रयोग है। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि हिन्दी में अनुचित शब्दों का अनुचित ढंग से प्रयोग कर कोई उस भाषा को बिगाड़ता है।"5 सबसे खतरनाक है तीसरे प्रकार की अशुद्धता जो गंभीर है। इस समय अभिजात्य वर्ग के बीच अंग्रेजी के शब्दों से युक्त हिन्दी यानी हिंग्लिश का प्रचलन है। मध्यम वर्ग भी अभिजात्य वर्ग की देखादेखी इसी ओर बढ़ रहा है। वर्तमान पीढ़ी की शिक्षा का अधिकांश माध्यम अंग्रेजी है और इसी वजह से उसका हिन्दी शब्द-भंडार कमजोर है और उसे अभिव्यक्ति के लिए अंग्रेजी के शब्दों का सहारा लेना होता है। यही असर पत्रकारिता की भाषा पर भी है, क्योंकि अंततोगत्वा पत्रकारिता की भाषा लोक की भाषा है। किन्तु कभी कभी इस पत्रकारीय हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग सायास भी होता है और ऐसा अक्सर क्लिष्ट शब्दों के स्थान पर आवश्यक हो जाने पर नये शब्दों/पदबंधों की रचना करने अथवा अन्य भाषाओं से शब्द आयातित करने के संदर्भ में किया जाता है।

     सायास अशुद्धता का एक कारण बढ़ती प्रतिस्पर्धा भी है। यह दबाव प्रारम्भ से ही है, 12 जनवरी 1895 को उचित वक्ता के संपादक लिखते हैं, "लेखक ग्राहकों की खोज में भाषा को भी भटकाते रहते हैं और लेख प्रणाली को स्थिर नहीं रख सकते।" 6. पत्रकारिता में नई पीढ़ी को जोड़ने के लिए भाषा के साथ प्रयोग हो रहे हैं। अखबारों में शहरी आभिजात्य वर्ग के युवा द्वारा बोली जाने वाली भाषा का प्रयोग हो रहा है। आम बोल चाल की भाषा के इस दबाव के आगे अखबारों के सम्पादकीय विभाग के लोग भी घुटने टेक रहे हैं और बिना किसी सुसंगत तर्क के अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग पर विवश हो रहे हैं। साहित्यिक, कठिन, उर्दू, फारसी शब्दों एवं अलंकृत वाक्यों का प्रयोग अब काफी कम हो गया है। भाषाई शुद्धता के अनुशासन को कुछ ही अखबार अपनाते हैं। अधिकतर अखबार और माध्यम इस ओर लचीला रुख ही रखते हैं। निस्संदेह इससे भाषा का विकृत स्वरूप लोकप्रिय हो रहा है। इस पूरे परिदृश्य को संपादक और लेखक कमलेश्वर बड़ी पैनी नज़र से देखते हैं। वे कहते हैं कि "सवाल भाषा का नहीं है कि किस का प्रयोग किया जाय और किस का नहीं सवाल देश की पहचान का है।”7.

     पत्रकारिता की हिन्दी यद्यपि कई विसंगतियों से ग्रस्त है परन्तु हिन्दी के प्रचार-प्रसार से इसके विकास के उत्साह तत्व भी वहाँ मिलते हैं। हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार हिन्दी भाषी लोगों के आधार में निरन्तर वृद्धि कर रहा है। अब आवश्यकता है तो भाषा के सरल मानकीकरण के काम को द्रुत गति देते हुए इसे आमजन तक पहुंचाया जाए। भाषा में परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है। "भाषा के प्रति संवेदित समाज अगर इस परिवर्तन की निगहबानी करे और स्वयं इतना उदार और संवेदनशील हो कि परिवर्तन को परिवर्तन की तरह ले तो एक व्यावहारिक पुनर्मानकीकरण संभव हो सकता है।" 8. सही शब्दों, प्रयोगों के बारे में जागरूकता लाई जाए तब ही पत्रकारिता में भी हिंग्लिश का प्रयोग हतोत्साहित होगा और हिंग्लिश की चुनौती से हिन्दी विजय प्राप्त कर पाएगी। वस्तुतः पूरक प्रकृति के होने के कारण समाज की हिन्दी में सुधार से ही पत्रकारिता की हिन्दी की अशुद्धियां भी दूर होगी।

संदर्भ
1.भाषा का समाज शास्त्र, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, पृष्ठ-74
2.भाषा का समाज शास्त्र, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, पृष्ठ -75
3.पत्रकारिताःइतिहास और प्रश्न- कृष्ण बिहारी मिश्र, पृष्ठ-127
4.पत्रकारिताःइतिहास और प्रश्न- कृष्ण बिहारी मिश्र, पृष्ठ-128
5. वही
6. हिन्दी पत्रकारिता-जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण भूमि- कृष्ण बिहारी मिश्र, पृष्ठ-468.
7. ‘मीडिया, भाषा और संस्कृति’ लेखक कमलेश्वर
8. हिन्दीः कल आज और कल, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृष्ठ -166

Tuesday, March 24, 2015

बोल की लब आज़ाद हैं तेरे

आज़ादी क्या होती है? सही मायने में अभिव्यक्ति की आज़ादी ही सच्ची आज़ादी होती है। यानी जो सोचते हैं कि सही है उसे सही कह सकने का और जो आपकी नजर में गलत है उसे गलत कह पाने का अधिकार ही अभिव्यक्ति की आजादी है। सोश्यल मीडिया आम आदमी के लिए बदलते दौर में स्वयं की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बन कर उभरा है। यहां लोग खुल कर अपनी राय जाहिर कर रहे हैं, ऐसे में आज सुप्रीम कोर्ट का आई टी एक्ट की धारा 66ए को हटाने का आदेश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की न केवल रक्षा करता है बल्कि इसे मजबूत भी करता है।  जाहिर है  यह स्वतंत्रता कर्तव्य की मांग करेगी और अभिव्यक्ति को स्वविवेक से जिम्मेदार होना होगा।