Friday, February 25, 2011

सवाल हां और ना के बीच पिसती जनता का

मेरे एक सीनियर अक्सर कहा करते थे, चुनाव के बाद बस बैंचे बदल जाती हैं हालात नहीं। राजस्थान विधानसभा के मंगलवार से प्रारम्भ बजट सत्र की कार्रवाई को देखने के बाद वाकई यही लगता है कि हालात बदलने इतने आसान भी नहीं। विधानसभा में उठने वाला हर मुद्दा अपनी अहमियत के बजाय पक्ष विपक्ष की रस्साकसी में उलझ कर रह जाता नजर आता है। विधानसभा के इस सत्र की शुरुआत में राज्यपाल के लम्बे अभिभाषण में जहां आंकड़ों की माया पसरी थी वहीं सुनने वालों को कुछ भी नएपन का अहसास नहीं हो रहा था, कई बार ऐसा भी लगा कि क्या इतनी छोटी-छोटी उपलब्धियां भी अभिभाषण में होनी चाहिए। पर शायद सरकार का कर्तव्य बनता है कि वह अपनी उपलब्धियों को इसी बहाने विधानसभा की कार्रवाई का अंग बनाए और उनका बखान करे। पर इसके बाद जब इस पर करीब पन्द्रह घण्टे की बहस होती है और करीब चालीस से अधिक वक्ता अपने तर्क पेश करते हैं तो वह राजस्थान के विकास या सरकार के कामकाज के विश्लेषण से भटक कर कांग्रेस और भाजपा के आपसी विरोध पर आ टिकती है। हर महारथी यह साबित करने में जुटा नजर आता है कि उसके व्यंग्य बाण सबसे पैने हैं। यहां तक कि सामान्य प्रश्नकाल के दौरान भी मंत्री अपने किए को सही साबित करने की बजाय पिछली सरकारों के कामकाज पर बेजा टिप्पणियां करने में जुटे रहते हैं। पहली बार आए एक विधायक ने तो बहस के दौरान यह कहा भी कि हम हां पक्ष में हैं तो हमें हां और आप ना पक्ष में हो तो आपको ना कहना ही है। क्या वाकई इसी तरह की बहस के लिए यह व्यवस्था की गई थी। पूरी बहस में एक दो वक्ताओं को छोड़कर किसी ने भी अभिभाषण को लेकर बात नहीं कि। भाजपा विधायकों का खास शगल मंत्रीमंडल के बयान रहे तो कांग्रेसी विधायकों ने पिछली भाजपा सरकार की खिंचाई करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। इस बीच जो दो तीन काम के मुद्दे उठे वे बेजा टिप्पणियों और बेकार की बहसबाजी में उलझ कर रह गए। कांग्रेस की ओर से तो खैर कोई ऐसा नाम याद नहीं आता जिसने सरकार के कामकाज की ओवरआल प्रशंसा करने के अलावा कोई खास काम की बात कही हो।हां, रमेश खंडेलवाल ने जरूर विधवाओं की पेंशन की शर्तों को हटाने की मांग की। भाजपा में राव राजेन्द्र सिंह ने आंकड़ों के हवाले से अभिभाषण की कमियां उजागर की तो रोहिताश कुमार ने परिवहन नीति बनाने की मांग की। वाकई उनकी बात में दम था कि क्या रोडवेज की साढे चार हजार बसें पूरे प्रदेश के लिए पर्याप्त हैं और क्यों सरकार रोडवेज को प्रोफिट मेकिंग कारपोरेशन मानता है। जब गांव सड़क से जुड़ गए हैं तो उन पर बस क्यों नहीं चलनी चाहिए। मेरे सीनियर्स का कहना था कि अच्छा है इस बार विधानसभा में कार्यवाही हंगामे की भेंट नहीं चढ़ी कम से कम बहस तो हो रही है,, चलो यदि वे इसे अच्छा कह रहे हैं तो वाकई बुरा इससे और भी बहुत बुरा होता होगा।

Saturday, February 12, 2011

राहुल को वोट का पैमाना,,,,

फेसबुक पर एक साथी ने नवभारत टाइम्स में काम करने वाले शिवेन्द्र कुमार सुमन के ब्लॉग का लिंक पोस्ट किया। शीर्षक था लोग राहुल को वोट क्यों देते हैं। शीर्षक ने सहज उत्सुकता जगाई और जो पाया वो शिवेंद्र के ब्लॉग से साभार कट पेस्ट कर आपको भी पढ़वा रहा हूं। ,,,..


बात 2009 में हुए आम चुनाव की है। दिल्ली में वोटिंग हो गई थी। वोटिंग के दो-तीन बाद मैं ऑफिस कैंटीन में खाना खा रहा था। मेरी बगल में टाइम्स ऑफ इंडिया की एक महिला पत्रकार खाना खाने आई।

चुनाव का सीज़न था तो उसी की चर्चा चल पड़ी। उसने मुझसे पूछा, ‘आपने वोट दिया?’ मैंने सर हिलाते हुए कहा, ‘नहीं।’ वह चौंकी। थोड़ी तेज़ आवाज़ में पूछा, ‘क्यों?’ मेरा उत्तर था कि मेरे पास वोटर कार्ड नहीं है। उसने मुझे हिकारत भरी नज़रों से देखते हुए कहा, ‘गज़ब हैं आप! एक जर्नलिस्ट होकर वोटर कार्ड नहीं बनवा सकते?’ मैंने कहा, ‘2 बार कोशिश की थी, पर बन नहीं पाया। वे जो डॉक्युमेंट्स मांगते हैं, वे मेरे पास हैं ही नहीं।’ फिर वह चुपचाप खाना खाने लगी। मुझे लगा, मुझे भी उनसे कुछ बात करनी चाहिए।

मैंने पूछा, ‘आपने वोट दिया?’ उसने चहकते हुए कहा, ‘हां’ और फिर स्याही लगी हई अपनी उंगली दिखाते हुए बोली, ‘यह देखिए।’ मैंने कहा, ‘गुड।’ वह ऐसे मुस्कुराईं जैसे उसने बहुत बड़ा मैदान मार लिया हो और कोई डरपोक व्यक्ति उनके सामने खड़ा हो जो मैदान में उतरा ही न हो। इससे आगे मुझे और नहीं पूछना चाहिए था, लेकिन मन माना नहीं और मैंने फिर एक निजी सवाल दाग दिया। ‘किसको वोट दिया आपने?’ चहकते हुए बोली, ‘मैं नहीं बताऊंगी।’ फिर कुछ देर बाद खुद बोली, ‘कांग्रेस को।’ मैंने फिर सवाल दागा, ‘क्यों?’ उसका जवाब था, ‘कांग्रेस में राहुल गांधी जो हैं, इसलिए।’

मैंने पूछा, ‘आपको राहुल गांधी अच्छे लगते हैं?’ उसने कहां, ‘बेशक।’ मैंने पूछा,
‘राहुल गांधी की कौन सी बात आपको अच्छी लगती है?’ उसने कहा, ‘राहुल का डिंपल! वह जब मुस्कुराता है तो उसका डिंपल बहुत अच्छा लगता है, मैं उसी की कायल हूं। बाकी नेता (उसने कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं के नाम लिए) तो जानवरों की तरह लगते हैं, पता नहीं क्यों लोग उन्हें वोट देते हैं!
’ मैं चुप हो गया। जैसे एक झटके में मुझे परमज्ञान मिल गया। मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए।

विस्तृत पढ़ने के लिए निम्न पते पर शिवेंद्र कुमार सुमन के ब्लॉग पर जा सकते हैं।

http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/bejhijhak/entry/%E0%A4%AE-%E0%A4%AC-%E0%A4%B0%E0%A4%95-%E0%A4%95-%E0%A4%A4

Friday, February 11, 2011

बासी कढ़ी में वफादारी की सीख का जलजला

राजस्थान की राजनीति की बासी कढ़ी मे इन दिनों उबाल आया हुआ है। प्रदेश के दोनों ही दलों में उठापटक का दौर चल रहा है लेकिन इस दौर के बीच एक जलजला अचानक आया और प्रदेश के एक राज्यमंत्री को जाने अनजाने में की गई एक टिप्पणी के लिए अपने पद की बलि देनी पड़ी। राज्य के सीमान्त इलाके से आए इस राजनेता को तो यह भी पता नहीं चला कि एक अच्छी और भली बात कहने के चक्कर में वे ऐसा क्या कह गए जिसने उनक सिर से लाल बत्ती का साया छीन लिया। बिचारे पार्टी में अपने काम के बदले हक के रूप में राजनीतिक नियुक्तियों का प्रसाद मांग रहे कार्यकर्ताओं को धीरज रखने और कर्म किए जा फल तो आलाकमान देगा की सीख दे रहे थे। इस्तीफे के बाद भी वे पत्रकारों से मासूमियत भरा सवाल करते रहे,, कि मैं कहां और क्या गलत कह दिया। मैं तो लोगों को पार्टी और सोनिया गांधी के प्रति वफादार रहने की सीख ही दे रहा था। मैं भी इसी वफादारी के बूते बकरियां चराते चराते मंत्री बना हूं और यही मैंने कहा था। अब ये तो कांग्रेस और उनकी पार्टी जाने की उनका एक मंत्री किस बात को और क्यों वफादारी मान रहा है। खैर इस इस्तीफे ने पार्टी के अन्य बड़बोले मंत्रियों में आशंकाओं के बादल गहरा दिए हैं। अब तो सरकार के होशिया मंत्री भी मीडिया से ऑफ द रिकार्ड ब्रीफिंग में जबरदस्त टिप्पणियां करने के बाद धीरे से पूछ लेते हैं,, कहीं कैमरे ऑन तो नहीं है,, पता चला शाम तक इस्तीफा देना पड़ जाएगा। ...बहरहाल मंत्रीमंडल में फेरबदल की हवाएं फिर तेज हो गई हैं पर विधानसभा सत्र और बजट की गहमागहमी के चलते यह अभी दूर की कौड़ी लगता है।
उधर भाजपा एक बार फिर बिना विधायक दल के नेता की सदारत में विधानसभा में उतरेगी जिससे जाहिर है विपक्ष की धार कुंद ही रहेगी। लेकिन डेढ़ साल के लम्बे अंतराल में एक सर्वमान्य नेता तक नहीं चुन पाना भाजपा के एक लोकतांत्रिक संगठन होने और पार्टी विद ए डिफरेंस के नारे को खोखला ही करता है। अब देखना होगा कि क्या वाकई भाजपा अपने अन्तरविरोधों से निपट कर एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभा पाती है या नहीं ।