ज़माने की दोपहर हो चली थी और हमारी सुबह। अख़बारों का जायजा लिया जा चुका था। चाय का दौर चल रहा था। अचानक गेट का दरवाजा खुला और चाचा हंगामी लाल दनदनाते हुए घुसे चले आए। उनका चेहरा थोड़ा तमतमाया सा लग रहा था. मैंने कहा, चचा क्या बात है, काहे गर्म हुए जा रहे हो।
अरे यार क्या बताये हम हार ले कर घूम रहे हैं पर कोई मिल ही नही रहा जिसको पहनाएं।
हमने कहा ये क्या बात हुई चच्चा, ऐसे कोई क्यो पहनेगा और फ़िर ये तो बताओ की ये हार है किसका, किस लिए पहनाना चाहते हो ?
अरे ये भी कोई बात हुई भला। हार तो हार है, फ़िर भी जानने को इतना ही बेताब हो तो सुनो की ये है हार का हार । भगवा वालों की सूबे में हार हुई है सो उनके ही नाप का लाया था। खास भगवा फूल भी गुथवाए थे । पर ये तो हद ही हो गई माला पहनने के आदी गले अब इधर का रुख ही नहीं कर रहे। बात में मुझे भी दम लगा। अब हार आ गया है तो पहनाया ही जाएगा। पर चच्चा को इसे लाने की क्या सूझी!
क्या चाचा तुम काहे लाये ?
हम थोड़े ही लाने वाले थे , वो तो सूबे के भगवा अध्यक्ष जी खुद ही बोले । हम हार का विश्लेषण किया हूँ । हमें ही हार पहनाये जायें। पद मुक्त समझा जाए। सो ले आए हम ये हार और लगे पहनाने। पर अब उनके सिपहसलार कहते है, अरे हार उन्हें नही महारानी को पहनाओ आख़िर ज़ंग के सारे सैनिक तो उन्ही के थे। हम कहे वो तो ठीक है भइया फ़िर ये पद मुक्ति का राग क्यों ? वो बोले ऐसा ही होता है। यही दस्तूर है।
उनके दस्तूर के चक्कर में पैसे हमारे ठुक गए। सोचा चलो जिसके सैनिक लड़े उन की देहरी पर सजदा कर उन्हें हार पहनाये। पर वहां गए तो पता चला की वे खुद किसी और ही हार की तलाश में दिल्ली के मंदिरों में धोक लगा रही हैं । और तो और उनके भी दरबारी कम नही थे हाथ में हार देखते ही सारा माजरा समझ गए , तुंरत कह उठे देखो भाई, महारानी जी ने तो पहले ही कह दिया था की सैनिक तो मैदान में लड़ रहे हैं पर सेनाओ का प्रबंध ठीक नही हुआ तो आपकी आप जानो । वोही हुआ महारानी के चुने सनिक तो मैदान जीत गए। हारने वाले क्यों हारे , किसने किसको हराया ? आप ख़ुद ही देख लो। रही बात जिम्मेदारी की तो वो अभी भी हार पहनने के ही चक्कर में डेरा डाले हुए है। सो जो ख़ुद ही हार पहनने की कतार में हो वो पराजय की जिम्मेदारी का हार क्या पहनेगा । सो हम वंहा से भी निकल लिए । कुछ आगे ही गए थे की रास्ते में कुछ लोग मिल गए कहने लगे भाई माला लाये हो तो वापस मत ले जाओ कुछ लोग हैं जो सबका दुःख दर्द बांटते हैं स्वयम आगे बढ़ कर सेवा करते हैं । इस बार भी उन्होंने खूब सेवा की है , उन्हें ही जाकर उनके भवन में ये हार पहना दो । हम वंहा चले गए । लेकिन उनका तो तर्क ही जोरदार था, कहने लगे चचा ये जो राजनीति है , इस से हमारा कोई लेना देना नहीं है । हम तो केवल संगठन और सेवा का काम करते है। माला - वाला से भी हमें कोई मतलब नही है। सो आपकी माला आप ही जानो। तो भतीजे अब ये रही माला तुम ही बताओ इसका क्या करूं....?
कुछ देर सोचने के बाद मैने कहा, चचा एक बात बताओ ये हराने- जिताने का काम कौन करता है ...?
जनता .. न....?
हां,, !
.....और तुम भी तो जनता हो, सो ऐसा करो की ये हार का हार तुम ही पहनो। जीत का हार पहनने वाले तो बहुत मिल जायेंगे पर हार का हार तो जनता को ही पहनना होगा।
11 comments:
shandaar kataksh.. bahut khoob.. aglee post ka intezaar hai
thanks aashish ji
acha vyang kiya he bhai abhishek...lage raho...is bahane hum bhi apni jaipur ki yaden taza kar liya karenge.
thanks sachin jeee
इसे कहते हैं व्यंग्य. तीखा और तिलमिला डालने वाला. व्यंग्य अगर चुभे नहीं तो फिर बात कुछ बनती नहीं. आपका व्यंग्य कुछ ल्गों को बुरी तरह चुभेगा, और यही इसकी सफलता और सार्थकता है. उम्मीद है कि अपनी कलम की व्यंग्य की स्याही सूखने नहीं देंगे.
achchha hai.... badhai
बहुत अच्छा लिखा है।
aap sabhi ka dhanyawaad
good one........jinpe vyanga likha hai jara un tak pahunch pata kisi trha to maza aata...acha likha hai...
suchita.
बढ़िया व्यंग्य। जीत गए तो मुद्दे अच्छे थे, प्रचार बढ़िया था। और हार गए तो जनता का फैसला सिर आंखों पर.... सच राजनीति का खेल भी निराला है।
wah ustad wah
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