Tuesday, August 16, 2011

लोकतंत्र, भ्रष्टाचार का संरक्षक या उन्मूलक

पैंसठवा पड़ाव किसी भी जीवन में एक अहम पड़ाव होता है,सामान्यतौर पर यह जीवन पर पुनःदृष्टिपात कर जीवन में अर्जित अनुभव से समाज को लाभान्वित करने के क्रम में एक मील का पत्थर माना जाता है। स्वाधीन भारत ने भी कल इस पड़ाव में कदम रखा है,लेकिन जीवन की धारणाओं के विपरीत लोकतंत्र के जीवन में यह पड़ाव परिपक्वता की दृष्टि से अहम बनता जा रहा है। अन्ना हजारे जन लोकपाल बिल की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं। उनके प्रखर आंदोलन के तेज तले खुद को अंधकार में पा रही देश की सरकार को उन्हें संतुष्ट करने का उपाय नजर नहीं आ रहा है,नतीजतन एक बार फिर वह कांग्रेस की परिपाटियों के अनुसार दमन की नीति पर चल पड़ी है और उसने अन्ना व उसके सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया है। जब भारत की राष्ट्रपति भ्रष्टाचार को कैंसर बता चुकी हों और प्रधानमंत्री स्वंय लाल किल्रे की प्राचीर से यह स्वीकार चुके हों कि सरकारी योजनाओं का पैसा बाबुओं अधिकारियों की जेब में जा रहा है,सरकारी ठेके गलत लोगों को गलत तरीके से दिए जा रहे हैं तो ऐसे में भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने का उपाय लेकर जो भी जनता के सामने आएगा उसे जननेतृत्वकारी बनने से कोई नहीं रोक सकता। फिर चाहे वो अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव हों। इसमें कोई शक नहीं कि अन्ना की गिरफ्तारी देश में बड़ी उथल पुथल मचाएगी। सवाल उठता है इस उथलपुथल को न्यौतने जरूरत क्यों कर पड़ गई। जहां हम यह दावा करते हैं कि हमारी संसद जनमत की अभिव्यक्ति है और वहां पारित होने वाले कानून जनता की सार्वभौमिक स्वीकृति से पारित होते हैं तो फिर जो काम हमारे सांसदों को करना चाहिए वह करने की जरुरत किसी और को क्यों। क्यों हमारे संसद अपने उद्देश्यों में ही विफल हो रही है। मैं यहां अन्ना के जनलोकपाल के पक्ष या विपक्ष में अपनी बात नहीं रख रहा हूं, मैं जरा तंत्र की स्थिति पर बात कर रहा हूं, अन्ना अकेले नहीं हैं जो संसद पर एक बिल को हू बहू पारित करने का दबाव बना रहे हैं, अन्ना के अलावा एक और समूह भी है जिसे लगता है कि वो भी देश को कानूनों का मसौदा दे सकता है, और वह समूह है एनएसी के प्रगतिशील विचारक।जो मनमाने तरीके मनमानी व्याख्याओं के साथ नए मसविदे प्रस्तुत कर रहे हैं। जहां एक ओर अन्ना के साथ जनबल की ताकत है, वहीं दूसरी ओर एनएसी के साथ सत्ता बल की ताकत है। पर सवाल यह है कि अन्ना और एनएसी को यह आवश्यकता क्यों पड़ रही है है जो काम सांसदों का है जिसे सदन के अन्दर होना चाहिए वह सदन के बाहर करें।
असल में हमारी व्यवस्था में सबसे बड़ी खामी है सांसद का अपनी पार्टीलाइन में बंधे रहने की अनिवार्यता, इसी वजह से अपने क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद निर्वाचित सांसद को सदन में वही कहना और करना होता है जो उसकी पार्टी के चंद हुक्मरान तय करते हैं, और सीधे तौर पर इसमें कहीं भी जनमत नहीं होता बल्कि यह तो चंदमत होता है, पर व्यवस्था ऐसी है कि हम इसी चंदमत को जनमत मानने पर विवश हैं। इसी वजह से अन्ना के प्रस्ताव के समर्थन में इतनी जनअभिव्यक्ति होने के बावजूद जनलोकपाल संसद का मुंह देख पाने से वंचित है जबकि वहीं दूसरी और चंदमत के आशीर्वाद के चलते एनएसी की ओर से प्रस्तावित लक्षित हिंसा के नाम पर बनाए जाने वाले मसौदे को सरकार कानूनी जामा पहनाने की पूरी तैयारी में है।
कांग्रेस अन्ना को चुनौती देती है कि वे कहीं से चुनाव लड़कर आएं। हमारी व्यवस्था में यदि अन्ना चुनकर आ भी गए तो क्या कर लेंगे।संसद में एक निर्दलीय सांसद की क्या हैसियत होती है,,,। यदि कोई व्यक्तिगत बिल ले भी आया गया तो पार्टी व्हिप जारी कर उस बिल के परखच्चे उड़ा दिए जाएंगे। क्या कांग्रेस यही चुनौती एनएसी के उन विचारकों को भी दे सकती है जो कि कांग्रेस के शब्दों में कानून बनाने का शौक रखते हैं,,,।
बहरहाल अन्ना गिरफ्तार हो चुके हैं, जनमानस अवाक है,, देखें वक्त किस करवट लेता है.....पर एक बात तय है कि यह मुद्दा तय कर देगा कि लोकतंत्र,भ्रष्टाचार का संरक्षक है या उन्मूलक