Monday, November 22, 2010

कुंबले केएससीए के नए अध्यक्ष, श्रीनाथ सचिव

कुंबले केएससीए के नए अध्यक्ष, श्रीनाथ सचिव
आज खबर आई है क्रिकेट के कर्नाटक संघ के अध्यक्ष बने हैं क्रिकेट खिलाडी़ और कम्प्यूटर इंजिनीयर अनिल कुम्बले उनका सहयोग देंगे जवागल श्रीनाथ सचिव के रूप में। तो इसे अब क्रिकेट में एक नए युग की शुरुआत कहा जाना चाहिए। बैडमिंडन में प्रकाश पादुकोण कभी ऐसा प्रयास कर चुके थे। क्रिकेट संघ को राजनेताओं की सैरगाह और पॉवर स्टेटस का सिंबल माना जाता रहा है। जिन राजनेताओँ ने कभी बैट नहीं पकड़ा, बॉल नहीं थामी, जिन्हें यह तक नहीं पता कि बॉल को यदि तराजु में रखा जाएगा तो उसके बदले कितने ग्राम दाल आएगी। पर वे ही इस खेल के भाग्यविधाता बने हुए हैं। उम्मीदों की किरणे लगातार चमकती हैं और बादलों के बीच गाहे बगाहे अपने होने का अहसास करवा जाती है। कुछ ऐसी उम्मीद की यह किरण भी है। शायद इस कर्नाटक किसी बड़े बदलाव का अगुआ बने। वरना राजनेताओं का तो भगवान ही मालिक है और उनके चलाए चलने वाले क्रिकेट संघों से कोई उम्मीद करना बेमानी होगा।

Tuesday, November 2, 2010

ग्ररीबी और कांग्रेस , एक महागाथा

कांग्रेस के युवराज और देश की राजनीतिक गणित को ध्यान मे रखें तो कभी देश के प्रधानमंत्री बनने की संभावना रखने वाले राहुल गांधी ने लम्बे इन्तजार के बाद आखिरकार मुख्यधारा की राजनीति की शुरुआत कर दी है। राहुल का मंत्र और मंतव्य बिल्कुल साप है, वो अपनी दादी, इंदिरागांधी के नक्शेकदम पर राजनीति की बिसात बिछा रहे हैं। इंदिरा गांधी ने नारा दिया, गरीबी हटाओ, राहुल का नारा है गरीब के लिए काम करो। एक आत्मविश्वासी वक्ता के रूप में राहुल ने स्पष्ट संदेश दिया कि गरीब ही कांग्रेस का आधार है। राहुल ने उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में पार्टी के खत्म होने का जिक्र करते हुए कहा कि यहां कांग्रेस पार्टी मरी नहीं है। लेकिन उनका यह स्पष्टीकरण भी सकेत देता है कि कहीं न कहीं कोई तीर है जो दिल में गहरे धंसा हुआ है। राहुल का निशाना साफ है उत्तर भारत औऱ दक्षिण भारत के दो सबसे बड़े राज्य। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इन दोनों राज्यों में देश पर राज करने की कुंजी छीपी है। और दोनों ही जगहों पर कांग्रेस का हाल बेहाल है। पार्टी को फिर से जगाने के लिए राहुल का फार्मुला कहता है कि गरीब की सुनो। क्या राहुल के इस नारे में इंदिरा इज इंडिया की तर्ज पर जब तक गरीब है तब तक कांग्रेस है का भाव छुपा है। सवाल जितना सहज दिख रहा है उतना है नहीं। आखिर राहुल जिन गरीबों के विकास की बात कर रह हैं, वो आजादी के छह दशक बाद भी इतने गरीब क्यों हैं । देश का नब्बे प्रतिशत पैसा महज दस प्रतिशत लोगों के पास ही क्यों हैं। क्या वाकई कांग्रेस गरीबों के लिए काम कर रही है या गरीबी हटाओ के नारे की तरह गरीब का विकास भी एक नारा भर है। कांग्रेस अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती, आखिर पचास साल से अधिक तो कांग्रेस ने ही देश पर राज किया है। सामाजिक विकास के नाम पर नरेगा जैसी कामचलाऊ नीतियां जिनसे देश का छद्म आर्थिक विकास हो रहा है, हमें कहां ले जाएंगी इस पर कोई विचार क्यों नहीं कर रहा। नरेगा ने देश में अकुशल मजदूरों की फौज खड़ी करने में मदद की है। यहां तक कि संगठित क्षेत्र में काम कर रहे मजदूर भी अब नरेगा का रुख कर रहे हैं। नरेगा का अनुदान न तो गांव का विकास कर रहा है और नही इससे किसी को कोई योग्यता हासिल हो रही है। नरेगा की आदत पड़ जाने के बाद जब नरेगा की समीक्षा की जाएगी तब क्या होगा। कहीं यह भी आरक्षण की तरह एक औऱ स्थायी गलफांस न बन जाए। वोट वैंक के चक्कर में हर सरकार के लिए इसे ढोना एक मजबूरी बन जाएगा। अभी नरेगा ने कृत्रिम समृद्धि का बाजार लहलहा दिया है। आर्थिक विकास की दर लगातार बढ़ रही है इसमें भी कहीं न कहीं नरेगा की भूमिका है। लेकिन जब यह बुलबुला फूटेगा तब क्या होगा। इसका सीधा जवाब है, कुछ नहीं होगा बस गांव में गरीब बना रहेगा। मुद्दा बना रहेगा। वोटर बचा रहेगा। क्योंकिं यह समृद्धि अस्थायी है। शायद उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु के गरीब यह सत्य जान गए थे। इसलिए वहां के नतीजे बदले नजर आए लेकिन यह दुर्भाग्य है कि जिन हाथों में भाग्य सौंपा गया उनमें भी वो चाहत नहीं थी कि वे सूरत औऱ सीरत बदलें।

आग और एसीबी

जब एक मंत्री के निर्देशित काम ही नहीं हो रहे हों तो उस विभाग के काम काज से आम आदमी को क्या उम्मीद करनी चाहिए। राजस्थान के नगरीय विकास मंत्री शांति धारीवाल के अनुसार प्रदेश की राजधानी जयपुर के विकास के लिए बना जयपुर विकास प्राधिकरण उनके लिखे पत्रों का ही जवाब नहीं देता। अब इसे क्या कहा जाए जेडीए अधिकारियों की ढिठता या फिर उनकी नकेल कसने में अधिकारियों की ढिलाई। पता नहीं लेकिन यदि वास्तव में ऐसा है तो यह चिंताजनक है, कि कोई विभाग अपने ही मंत्री के पत्रों का जवाब नहीं दे रहा हो, उस मंत्री को खुलेआम कहना पड़ रहा हो कि वे अपने कर्मचारियों अधिकारियों की शिकायत एसीबी में भेज देंगे। इससे तो लगता है कि विभागीय जांच, कार्रवाई के तंत्र को लकवा मार गया है। कुछ तो बात है वरना बिना आग के धुंआ नहीं उठता। अब राख के ढेर में लोग जुटे हैं उस चिंगारी की तलाश में जिसने यह आग लगाई।

Saturday, October 30, 2010

आखिर कौन है जिम्मेदार

प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सरकारें किस तरहकाम करती है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है पृथ्वीराज नगर परियोजना। 22 साल पहले राज्य सरकार ने कल्पना की थी जयपुर में पृथ्वीराज नगर के रूप में एक सुव्यवस्थित कॉलोनी बसाने की। लेकिन आज वो सुव्यवस्थित सपना किस कदर बदरंग हो चुका यह सबके सामने है। कानूनी दांवपेचों, सरकारी नीतियों के चक्र में फंसा रहा तो बस वह आम आदमी जिसने जीवन भर की कमाई जोड़ कर जयपुर में बसने की चाहत में विवाद फंसी सस्ती जमीन खरीद ली। इस विवाद का फायदा यदि किसी को हुआ तो वह सिर्फ भूमाफिया कहलाने वाले प्रॉपर्टी डीलर्स को हुआ। सालों साल पाबंदी के बावजूद जमीन बिकती रही, लोग बसते रहे। विवादित जमीन के पतों पर रह रहे लोगों के नाम मतदाता सूची में जुड़ते रहे। सरकारें आईं और चली गईं। अफसर आए और चले गए। बची रहीं तो बस अखबारी सुर्खियां और विवादित जमीन पर रहने वाले लोग। पाबंदी के नाम पर उन्हें पानी के कनेक्शन नहीं दिए तो निजी पानी माफिया पनप गए, घरों में बोरवेल खुद गए। धरती के सीने में हजारों छेद हो गए। सरकार ने कहा सड़क नहीं बनेगी। तो लोगों ने कहा बिना सड़क जी लेगें औऱ अपने इंतजाम कर लिए। बीच बीच में अपनी उपस्थिति का अहसास करवाने के लिए प्रशासन के लोग बड़ी बड़ी दैत्याकार मशीनों पर सवार हो कर आ पहुंचते। लोगों ने भी इन दानवों से निपटने का मंत्र जान लिया था, और वह था संघे शक्ति कलयुगै। घंटों की टंकार ने सद्भाव का नया सूत्रपात किया था। सवाल उठता है कि जब पाबंदी थी तो सालों साल वहां कैसे मकान बने, कैसे लोग रहने पहुंचे, क्या इस दौरान प्रशासन नाम की कोई चीज वजूद में नहीं थी। अफसरों, कारिन्दों की इतनी बड़ी फौज क्या कर रही थी। क्या इसमें कोई राजनीति नहीं थी। खुद अदालत ने कहा है कि सरकार के निर्णय भूमाफियाओं को फायदा पहुंचाने वाले रहे। अब इसके क्या मायने निकाले जाएं। तब भी यही सरकार थी और आज भी यही सरकार है।
यह प्रकरण दर्षाता है कि सरकार किस प्रकार कामचलाऊ अंदाज में समय गुजारने के लिए काम कर रही है। रोजाना नित नई योजनाओं की घोषणा करने वाले मंत्रियों को पुरानी योजनाओं की सुध लेनी की फुर्सत तक नहीं है। कोई योजना कोर्ट में पहुंची नहीं कि सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाती है। लेकिन क्या सरकारी परियोजनाओं के अपने योजनानुसार उद्देश्य पूरा नहीं कर पाना सरकार और सरकारी अमले की जिम्मेदारी नहीं है। इस पूरे मामले में दोषी कौन रहा, किस किस की लापरवाही रही उन्हें क्यों नहीं जिम्मेदार ठहराया जाता है। क्यों नहीं उनके खिलाफ कार्रवाई होती। इस सवाल का कोई जवाब नहीं है,, या फिर है भी तो ऐसा जिसे सब जानते हैं, पर जुबां पर कोई नहीं लाना चाहता।

Friday, October 29, 2010

पटाखों ने दी खुशी के बदले सजा

अखबार की सुर्खियों के बीच दो खबरें मन को बेचैन कर रही हैं। शहर के दो निजी स्कूलों में पटाखे चलाने पर बच्चों को सजा दी गई है। अब पटाखे चलाना भी जुर्म हो गया है। दीपावली में अब एक सप्ताह बचा है और त्योहारी रंग कहीं नजर नहीं आ रहा।मुझे याद आता है बचपन में हम दशहरे से ही पटाखे छोड़ने की शुरुआत कर देते थे। शाम को जब गली में बच्चों की टोली जमती थी तो हर किसी के पास कोई न कोई पटाखा जरूर होता था। स्कूल में तो टिकड़ियों और हाथगोली की बहार रहती थी। कई बच्चे सुतली बम भी लाते थे। हाथ गोलियां तो खूब जम कर चलाते थे। यहां तक कि कई बार तो खिड़की में से हाथ निकाल बरामदे में गुजर रहे मास्साब के पावों को निशाना बना कर भी हाथगोलियों के धमाके किए थे। लेकिन अब बच्चों में पटाखों को लेकर क्रेज नहीं है या त्योहारों को शिष्टाचार की बेड़ियां पहना रहे हैं। पता नहीं पर कुल मिला कर बच्चों को पटाखे जलाने जैसे अपराध, यदि यह अपराध है तो, के लिए इतनी सजा के बारे में पढ़कर अच्छा नहीं लगा।

Saturday, September 18, 2010

राजस्थान के 23 जिलों में खाद्यान्न असुरक्षा ,food insecurity, rajasthan,

राजस्थान प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्यान्न उपलब्धता एक संकट के रूप में उभर रही है। संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड फूड प्रोग्राम और इन्स्टीट्युट ऑफ ह्युमन डवलपमेंट की खाद्यान्न सुरक्षा एटलस  के अनुसार  राजस्थान के 33 में से 23 जिलों में खाद्यान्न और पोषण के गम्भीर संकट से निपटने के लिए तत्काल कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। प्रदेश के सात जिलों को छोड़कर अन्य में पांच साल से कम आयु की शिशु मृत्यु दर प्रति हजार शिशुओं पर 100 से भी अधिक है। और यह राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। इसी प्रकार पांच जिलों को छोड़ कर प्रदेश के अन्य हिस्सों में हर दूसरा बच्चा औसत से कम वजन का है। हालांकि जहां देश में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों का प्रतिशत 28 है राजस्थान में यह 22 फीसदी ही है।
खाद्यान्न असुरक्षा वाले जिले- बांसवाड़ा, डूंगरपुर, राजसमंद, बाड़मेर, जैसलमेर, पाली, सिरोही, बीकानेर,जालोर,नागौर, जोधपुर,अजमेर, भीलवाड़ा, करौली, सवाईमाधोपुर,टोंक, धौलपुर,बारां, चित्तौड़गढ़, झालावाड़ और बूंदी।  ( नवगठित जिला प्रतापगढ़ भी चित्तौड़गढ़ से अलग होने के कारण इसी सूची में शामिल होगा। इस प्रकार कुल जिले 23 हो जाएंगे।)

Tuesday, September 14, 2010

सही कहा राहुल ने ...,NAREGA.

राहुल गांधी ने स्वीकारा है कि देश में हर स्तर पर भ्रष्टाचार है। उनके पिता राजीव गांधी ने भी स्वीकारा था कि दिल्ली से चला एक रुपया गांव तक जरूरतमंद के पास पहुंचते पहुंचते घिस कर 14 पैसे रह जाता है। उनकी दादी इंदिरा गांधी ने भी भ्रष्टाचार को स्वीकारा था। तो देश का सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य की देश के सबसे शक्तिशाली परिवार के सभी प्रमुख लोग भ्रष्टाचार को स्वीकारते तो हैं पर वह खत्म नहीं होता है। राहुल ने थोड़ी व्यवहारिक बात कही कि आरोप हर कोई लगाता है, पर नियंत्रण के वक्त कोई भी साथ नहीं होता है। नियंत्रण कि बात करने वाला अकेला खड़ा मिलता है। राहुल की यही बात राजस्थान में शत प्रतिशत सच साबित हो रही है। नरेगा में भ्रष्टाचार की गंगा नहीं बल्कि समुद्र बहने के आरोप लगे थे। सामाजिक अंकेक्षणों और राज्य सरकार की जांचों में भ्रष्टाचार होना साबित हो रहा था। इस पर प्रदेश के पंचायती राज मंत्री भरत सिंह ने मुख्यमंत्री की सहमति से भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के उपाय किए थे। लेकिन जैसे उन्होंने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया हो। उनकी ही पार्टी के  विधायक उनका विरोध करने लगे। केकड़ी के कांग्रेसी विधायक रघु शर्मा ने तो विधानसभा में ही भरत सिंह को मानसिक अवसाद ग्रस्त करार देते हुए उनके डॉक्टरी इलाज जैसी गंभीर बात तक कह दी। विधानसभा के बाहर पूरे प्रदेश के सरपंच आंदोलन पर उतारू हो गए यह किसी से छुपा नहीं है। अब खबर है कि राजस्थान सरकार नरेगा में खरीद के अधिकार फिर से ग्राम पंचायत स्तर पर देने पर विचार कर रही है। सरपंचों की मांगों पर विचार करने वाली समिति ने इसकी सिफारिश सरकार को की है। इसी अधिकार को वापस पाने के लिए प्रदेश भर के सरपंच संघर्ष कर रहे थे। यानी जिस भ्रष्टाचार को रोकने की पहल की गई थी। वो पहल अब वापस हो जाएगी। लूट लो जितना चाहो उतना। राहुल की ही बात को उसकी ही पार्टी की एक प्रदेश सरकार साबित कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ पहल करने वाला अकेला ही खड़ा रह जाएगा। अब इसे क्या कहा जाए,,,।

Monday, September 13, 2010

हिन्दी का मौसमी बुखार,hindi divas

कल हिन्दी दिवस है और हम हिन्दी के सिपाही बनने के लिए बेचैन हो रहे हैं। पर पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है जैसे हमें कोई श्मशानिया बैराग जागने लगा हो। मन बहुत बेचैन होने लगा है। कुछ समझ नहीं आ रहा है क्या किया जाए। चलो चचा हंगामी लाल से ही कुछ पूछा जाए। थोड़ी खोज खबर करने पर चचा मिल ही गए।
हमने कहा चचा आज मन कुछ बेचैन हो रहा है।
बोले क्यों लाला क्या बात हो गई।
हमने अपनी व्यथा कथा उन्हें सुनाई। बिना पूरी बात सुने ही उन्होंने कहा,, अरे ऐसी कोई बात नहीं है तुम ज्यादा फसट्रेट मत होओ,, ये टाइमिंग की बात है, ऑटोमेटिकली ठीक हो जाएगी।
उनके इस एक वाक्य में तीन तीन अंग्रेजी के शब्द सुनते ही हमारा सोया हिन्दी प्रेम यकायक जाग उठा। सत्यानाश हो चचा, तुम्ही जैंसे लोगों ने हिन्दी का बेड़ा गर्क किया है।
क्यों भाई मैंने क्या कर दिया।
अरे अभी देखो आपने ही तो इतनी अंग्रेजी झाड़ दी। क्या आप फस्ट्रेट की जगह तनाव और टाइमिंग की जगह समय -समय तथा ऑटोमेटिकली की जगह अपनेआप का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे।
अरे ऐसा क्या,, सॉरी भाई सॉरी अब से ध्यान रखूंगा।
फिर सॉरी,, अंग्रेज चले गए इन्हें छोड़ गए।
अरे गलती हो गई भतीजे, काहे गरम होते हो,, अबकी बार अगर अंग्रेजी का एक शब्द भी बोला तो तुम जो चाहो कर लेना, प्लीज भतीजे मान जाओ।

इतना सुनते ही अपने राम ने कुछ और कहने की बजाय आगे बढ़ना ही उचित समझा,, और साथ ही यह भी समझ आ गया कि हमारा सोचना ठीक ही है,, हमें ये मौसमी बुखार ही हुआ लगता है,, अब तो मौसम के गुजरने के बाद ही पता चलेगा की बुखार आगे भी बरकरार रहता है या नहीं। ,,,, आप सब गवाह हैं,,,। याद रखिएगा

Sunday, September 12, 2010

हिन्दी दिवस,hindi, hindi day,hindi divas,14 september

ham १४ सितंबर को ही हिन्दी दिवस क्यों मनाते हैं...


हिन्दी दिवस एक बार फिर से सम्मुख है। हम हिन्दी की बात कर रहे हैं। उसको अपनाए जाने की बात कर रहे हैं। पर हिन्दी दिवस मनाते ही क्यों हैं, हिन्दी तो एक शाश्वत भाषा है उसका कोई जन्मदिवस कैसे हो सकता है। पर हमारे यहां है, जिस धरती की वह भाषा है जहां उसका विकास उद्भव हुआ वहां उसका दिवस है। और दिवस भी यों नहीं बल्कि यह दिन याद कराता है कि हिन्दी उसका दर्जा देने के लिए देश की संविधान सभा में जम कर बहस हुई। हिन्दी के पक्षधर भी हिन्दी में नहीं बल्कि अंग्रेजी में बोले।
संविधान सभा में हिन्दी की स्थिति को लेकर 12 सितंबर, 1949 को 4 बजे दोपहर में बहस शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 को दिन में समाप्त हुई। बहस के प्रारंभ होने से पहले संविधान सभा के अध्यक्ष और देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अंग्रेज़ी में ही एक संक्षिप्त भाषण दिया। जिसका निष्कर्ष यह था कि भाषा को लेकर कोई आवेश या अपील नहीं होनी चाहिए और पूरे देश को संविधानसभा का निर्णय मान्य होना चाहिए। भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर उन्हें लगभग तीन सौ या उससे भी अधिक संशोधन मिले। 14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद भाषा संबंधी संविधान का तत्कालीन भाग 14 क और वर्तमान भाग 17, संविधान का भाग बन गया तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा, अंग्रेज़ी से हम निकट आए हैं, क्योंकि वह एक भाषा थी। अंग्रेज़ी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे अवश्य हमारे संबंध घनिष्ठ होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परंपराएँ एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि या तो इस देश में बहुत-सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासंभव बुद्धिमानी का कार्य किया है और मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।
इस प्रकार 14 सितंबर भारतीय इतिहास में हिन्दी दिवस के रूप में दर्ज हो गया।
(अब यह भावी संतति, यानी हम पर है कि हम हिन्दी को यह सम्मान देने के लिए उनकी सराहना करते हैं या नहीं)
संवैधानिक स्थिति के आधार पर तो आज भी भारत की राजभाषा हिंदी है और अंग्रेज़ी सह भाषा है, लेकिन वास्तविकता क्या है यह किसी से छुपी नहीं है।
13 सितंबर 1949 को प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भाषा संबंधि बहस में भाग लेते हुए कहा, किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता। क्योंकि कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बहस में भाग लेते हुए हिंदी भाषा और देवनागरी का राजभाषा के रूप में समर्थन किया और भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय अंकों को मान्यता देने के लिए अपील की। उन्होंने इस निर्णय को ऐतिहासिक बताते हुए संविधान सभा से अनुरोध किया कि वह ''इस अवसर के अनुरूप निर्णय करे और अपनी मातृभूमि में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में वास्तविक योग दे।'' उन्होंने कहा कि अनेकता में एकता ही भारतीय जीवन की विशेषता रही है और इसे समझौते तथा सहमति से प्राप्त करना चाहिए। उन्होंने कहा कि हम हिंदी को मुख्यतः इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि इस भाषा के बोलनेवालों की संख्या अन्य किसी भाषा के बोलनेवालों की संख्या से अधिक है - लगभग 32 करोड़ में से 14 करोड़ (1949 में)। उन्होंने अंतरिम काल में अंग्रेज़ी भाषा को स्वीकार करने के प्रस्ताव को भारत के लिए हितकर माना। उन्होंने अपने भाषण में इस बात पर बल दिया और कहा कि अंग्रेज़ी को हमें ''उत्तरोत्तर हटाते जाना होगा।'' साथ ही उन्होंने अंग्रेज़ी के आमूलचूल बहिष्कार का विरोध किया। उन्होंने कहा, ''स्वतंत्र भारत के लोगों के प्रतिनिधियों का कर्तव्य होगा कि वे इस संबंध में निर्णय करें कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को उत्तरोत्तर किस प्रकार प्रयोग में लाया जाए और अंग्रेज़ी को किस प्रकार त्यागा जाए।

हिन्दी,,हिन्दी में काम करें,,hindi

हिन्दी में काम करें,,
कई दिनों से एक प्रश्न मन में लगातार उठ रहा है। हमारे यहां सरकारी भाषा हिन्दी क्यों नहीं है। क्या कभी गौर किया है थाने में पुलिस का हवलदार जो भाषा काम में लेता है वो अंग्रेजी नहीं होती और न ही वह हिन्दी होती है। वह होती है उर्दुनुमा हिन्दी। इसी तरह कोर्ट में जो भाषा काम में ली जाती है वो होती फारसीनुमा हिन्दी। सरकारी दफ्तरों में जो भाषा काम में ली जाती है वह होती है अंग्रेजी। सभी तरह के परिपत्र अंग्रेजी में जारी होते हैं। सभी नियम उप नियम अंग्रेजी में बनते हैं। सभी एक्ट अंग्रेजी में बनते हैं। ऐसा क्यों..... इसको लेकर हम कोई आंदोलन क्यों नहीं करते।
यहां राजस्थान में राजस्थानी बोली को लेकर तो आंदोलन शुरु हो गया है,पर हिन्दी को लेकर कोई आग्रह क्यों नहीं है। मेरा अंग्रेजी से विरोध नहीं है। वह भी पढ़ाइये बल्कि पूरे मन से पढ़ाइये। ताकि हम प्रतिस्पर्धा के अनुकूल बने रह सकें। पर हमें रोजमर्रा के कामकाज में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को प्रतिस्थापित करना ही होगा। और अंत में मेरा फिर सभी से आग्रह हमें हिन्दी में काम करना चाहिए और इसे कम से कम नारा से ज्यादा एक आंदोलन के रूप में लें।
सादर

Saturday, August 21, 2010

डबल विक्टरी

मैच में सिर्फ पांच ओवर बचे थे और अंशु की टीम को अभी भी 55 रन बनाने थे। नोन स्ट्राइक छोर पर खड़ा अंशु हिसाब लगा रहा था हर ओवर में कम से कम 11 रन चाहिए। सोसायटी पार्क के उनके क्रिकेट ग्राउण्ड के चारों तरफ बच्चो की भीड़ जुटी थी। इन्टर सोसाइटी ट्वेन्टी-20 कप का आज सेमी फाइनल था। अंशु की सोसायटी पिछले दो बार से सेमीफाइनल में पहुंचकर हार चुकी थी, इस बार फाइनल में पहुंचना उनके लिए कप जीतने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण था। अंशु की टीम के पांच विकेट गिर चुके थे, और स्ट्राइक इस समय राजीव के पास थी। वो राजीव जो हमेशा किसी इन्टरनेशनल प्लेयर की कॉपी करने में जुटा रहता था। अंशु कैसे भूल सकता था पिछला सेमीफाइनल जब इसी राजीव ने उसे सेंचुरी से दो रन पहले रन आउट करवा दिया था। वह सोसायटी कप की पहली सेंचुरी होती। नॉन स्ट्राइक एंड से राजीव ने उसे कॉल किया था, वो तुरन्त दौड़ पड़ा था, लेकिन पता नहीं राजीव को क्या हुआ कि वो एकाएक पलटा और वापस अपनी क्रीज में पहुंच गया, हकबकाया अंशु कुछ समझ पाता और पलट कर वापस अपनी क्रीज तक पहुंचता उससे पहले ही डायरेक्ट थ्रो से स्टम्प बिखर गए। उस समय तो उसे कुछ समझ नहीं आया कि राजीव ने ऐसा क्यों किया, वो हाफ पिच तक पहुंच चुका था और आसानी से रन पूरा हो जाता। बाद में उसने एक दिन राजीव को अपने दोस्तों को कहते सुना था कि सोसायटी कप की पहली सेंचुरी तो वही मारेगा। तब उसे समझ आया कि राजीव का उस सेमीफाइनल मैच में एकाएक पलटना यूं ही नहीं था, बल्कि राजीव चाहता था कि वह सेंचुरी नहीं बना पाए इसलिए उसने उसे रन आउट करवा दिया था। उसने तुरन्त राजीव से जा कर इस बारे में बात करनी चाही, लेकिन राजीव ने न केवल इससे साफ इन्कार कर दिया बल्कि उल्टा अंशु से झगड़ने लगा था। बस उस दिन से दोनों में बोलचाल तक बंद हो गई। पूरी सोसायटी जानती थी कि एक ही टीम में खेलने के बावजूद राजीव व अंशु आपस में बात तक नहीं करते। साथ ही सभी यह भी जानते थे कि पूरे इलाके में इसी सोसायटी का पार्क सबसे बड़ा था और यहां बाउंड्री भी सबसे बड़ी थी। जिसमें इन बच्चों में आज तक केवल अंशु ने ही दो छक्के जमाए थे। उसके अलावा ओर कोई यह नहीं कर सका था।
पांचवे ओवर की आखिरी गेंद थी और राजीव ने हल्के से पुश कर रन के लिए कॉल दिया था, अंशु न चाहते हुए भी दौड़ पड़ा। उसे मालूम था कि यह स्ट्राइक अपने पास रखने की राजीव की चाल थी। चार ओवर बचे थे और टीम को अभी भी 47 रन चाहिए थे। और राजीव था कि स्ट्राइक रोटेट ही नहीं कर रहा था। चौथे ओवर में राजीव ने दो बाउंड्री लगाई और फिर लास्ट गेंद पर रन लेना चाहा, लेकिन इस बार अंशु ने रन लेने से मना कर दिया। मैदान में मौजूद हर कोई दोनों के बीच चल रहे विवाद को बखूबी समझ रहा था। अब तीन ओवर में 39 रन चाहिए थे और अंशु ने इस ओवर में तीन बाउंड्री लगाईं। यानी दो ओवर में 27 रन की दरकार थी। राजीव पूरे ओवर में दो बाउंड्री ही लगा पाया। अब मैच का आखिरी ओवर था। छह गेंद और 19 रन। स्ट्राइक अंशु के पास थी। अंशु ने लगातार तीन गेंदों पर तीन बाउंड्री जमाई। तीन गेंदों में सात रन चाहिए थे। अंशु ने फील्ड का जायजा लिया तो उसे स्कवायर लेग पॉजीशन पर कोई फील्डर नजर नहीं आया। अगली बॉल स्वायर लेग की दिशा में खेल कर 93 रन पर खेल रहे अंशु ने दो रन का कॉल कर दिया। एक रन आसानी से पूरा करने के बाद जैसे ही अंशु मुड़ा तो उसका अपने जूते के फीते में पांव उलझ गया और वह दो कदम आगे ही गिर पड़ा। उसे गिरते देख स्ट्राइक एंड पर बॉल कैरी कर रहे विकेट कीपर ने तुरन्त बॉल बॉलर को थ्रो की। उधर दूसरे छोर पर राजीव ने जैसे ही अंशु को गिरते देखा वह एक बारगी तुरन्त ठिठक अपनी क्रीज में लौटने लगा, पर पता नहीं जाने क्या हुआ कि वह तेजी से दौड़ा और पिच पर गिरे अंशु को क्रॉस कर नॉन स्ट्राइक एंड की तरफ चल पड़ा। लेकिन वह पहुंच पाता उससे पहले ही बॉलर ने थ्रो कैरी कर स्टंम्प उड़ा दिए। पार्क में खड़ा हर कोई यह देख उलझन में पड़ गया कि गिरने के कारण साफ अंशु ही रन आउट होता पर राजीव ने एकाएक उसे क्रॉस कर खुद को आउट क्यों करवा दिया। अंशु खुद भी यह देख हैरान था। बहरहाल अब दो गेंद बची थी और स्ट्राइक अंशु के पास थी, अगली गेंद अंशु से बहुत दूर बिल्कुल ऑफ क्रीज के किनारे से निकली जिसे पहले से ही रूम बना चुका अंशु छू भी नहीं पाया। अब अन्तिम गेंद थी, और जीत के लिए चाहिए था एक सिक्स। जो इस बड़े ग्राउण्ड में आसान नहीं था। अंशु ने अपने आपको पूरी तरह गेंद पर कानस्ट्रेंट किया और जैसी ही बॉल पिच पर टिप्पा खाने वाली थी, उससे पहले ही पूरी ताकत से बल्ला घुमा दिया। और यह क्या बॉल बाउण्ड्री पर खडे़ फील्डर के हाथों में, पूरा पार्क स्तब्ध, लेकिन अचानक अंशु के टीम मेट खुशी से चिल्ला पड़े। अम्पायर ने सिक्स के इशारे के लिए दोनों हाथ हवा में उठा दिए थे। फील्डर बॉल कैच करते करते बांउड्री से बाहर जा पहुंचा था। अंशु की टीम पहली बार सोसायटी ट्वेंन्टी-20 कप के फाइनल में पंहुच गई थी, और अंशु सोसाइटी कप में सेंचुरी बनाने वाला पहला बल्लेबाज बन चुका था। पार्क में मौजूद सोसायटी के सभी बच्चे जोश से चिल्लाने लगे थे। हर कोई अंशु की ओऱ बढ़ रहा था, लेकिन अंशु की आंखे किसी को तलाश कर रही थी और वह था राजीव। अंशु जानता था कि राजीव जान बूझ कर खुद आउट हुआ था, लेकिन उसने ऐसा क्यों किया। टीम के अन्य लोगों से दूर अपने दोस्तों के साथ एक पेड़ के नीचे खड़े राजीव के पास पहुंच अंशु डबडबाई आंखों से उसे देखने लगा,, एकाएक उसके मुंह से निकला थैंक्स राजीव,,,। ....पर तुमने ऐसा क्यों किया, ,, । , नहीं यार,, थैंक्स नहीं,, पिछली बार का कर्ज जो उतारना था, और फिर तुम ही हो जो सिक्स मार कर मैच जीता सकते थे। मुझे माफ कर दे यार,, मैं क्रिकेट से दगा कर रहा था,, पर अब मैंने भूल सुधार ली है,, वो खेल ही क्या जिसमें स्पोर्ट्समैन स्पिरिट न हो। ,, और दोनों एक दूसरे के गले में हाथ डाल जीत का जश्न मनाती बाकी टीम की ओर बढ़ चले। दोनों को एक साथ देख टीम दुगुनी खुशी से भर उठी। सही मायने में यह टीम के लिए डबल विक्टरी जो थी।
- अभिषेक सिंघल

(बालहंस के अगस्त द्वितीय 2010 अंक में प्रकाशित)

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Thursday, July 29, 2010

हिन्दी सिनेमा का नया शो मैन ....

हिन्दी सिनेमा में शो मैन का खिताब अब तक केवल राजकपूर के लिए ही सुरक्षित माना जाता रहा है। बाकी सब स्टार, सुपर स्टार, मिलेनियम स्टार, बॉलीवुड किंग और नम्बर वन के ताजों से नवाजे जाते रहे हैं। पर अब है एक शख्स जो इन खिताबों से परे राजकपूर की तर्ज पर ग्रेट शो मैन का खिताब का हकदार बन गया है। वो बेहतरीन एक्टर है,, प्रोड्युसर है, और निर्देशक भी,,,। यहां तक की स्क्रीन राइटर भी। और अपनी पहली ही फिल्म के निर्देशन के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देसक का पुरस्कार भी जीता। बिल्कुल आप सही जा रहे हैं, बात हो रही है आमिर खान की। 1973 में यादों की बारात में बाल कलाकार और 88 में कयामत से कयामत तक में चॉकलेटी हीरो, जो 2008 में गजिनी का माचो नायक बन कर स्क्रीन पर जलवे बिखेरता है वही शख्स तारे जमीन पर और पीपली लाइव जैसे संवेदन शील विषयों पर न केवल फिल्में बनाता है बल्कि उन्हें कला फिल्म के टैग से बचा कर कॉमर्शियली वाइबल भी बनाता है, बिना नायिका को पानी में भिगोए,,,। तो क्या कहना है आपका। मेरा दिल तो कहता है,, साला मैं तो आमिर का फैन हो गया।...

Wednesday, July 28, 2010

निशाना हमेशा एक तरफ क्यों

अजहरुद्दीन इन दिनों मीडिया के निशाने पर हैं। आम तौर पर राजनेताओं और खिलाड़ियों की निजी जिन्दगी में दखल नहीं देने वाला मीडिया अजहर के बेडमिंटन प्रेम के कारण खोज रहा है। इसकी गहराई में ज्वाला गुट्टा की अजहर से नजदीकियां नजर आईं। फिर सामने आया कि बिजलानी भी काफी समय से अजहर के साथ नहीं हैं। तो खबर बनी की अजहर अब फिर अपने से करीब 20 साल छोटी ज्वाला से ब्याह रचाने की तैयारियों में हैं। तमाम देश चिंतित है। खासकर मीडिया और समाजशास्त्री इसलिए क्योंकि अजहर एक सांसद हैं, स्टार हैं। वे यूं बार बार शादियां रचाएंगे तो समाज में क्या संदेश जाएगा। समाज किस दिशा में जाएगा। संगीता बिजलानी यानी एक नारी का बसा बसाया घर उजड़ जाएगा। हां ये चिन्ताएं मौजूं हैं, पर मेरा सवाल जरा दूसरा है। क्यों ऐसे हर मामले में पुरुष ही समाज के निशाने पर होता है। क्यों किसी पहले से किसी के बसे बसाए घर पर नजर लगाने वाले नारी उनका निशाना नहीं होती। यदि अजहर और ज्वाला की नजदीकियों की बात सही है,( हालांकि ज्वाला इससे लगातार इनकार कर रही हैं,) तो क्या यह संभव है कि अजहर उस जैसी अन्तरराष्ट्रीय खिलाड़ी जिसने दुनिया देखी है, को फुसला सकता है। क्या ज्वाला को नहीं पता है कि अजहर पहले से शादीशुदा है और संगीता से उसकी दूसरी शादी है। जब वो यह सब जानती बूझती है तो फिर निशाना केवल अजहर की क्यों। शायद नारीवादियों को मेरी बात में पुरुषवाद की बू आए।

खेल भी अब खेल हो गया

हम हिन्दुस्तानियों की बड़ी गजब आदत है। हर चीज को हम खेल बना लेते हैं। बात चाहे खेल की हो वह भी हमारे लिए खेल हो गया है। खेलने को और कुछ नहीं मिला तो लगे कॉमनवेल्थ खेलों से ही खेलने। अब जब की बारात दरवाजे पर आने के लिए खड़ी है, घराती कह रहे हैं कि शादी भी होनी चाहिए थी कि नहीं। एक दो घराती तो यहां तक कह रहे हैं कि शादी बिगड़ ही जाए तो बेहतर। क्या हो रहा है यह। हम कब अपनी आदत से बाज आएंगे। अरे देश की गरीबी,बच्चों के हित की इतनी चिन्ता थी तो जब खेलों की मेजबानी का न्यौता लेने गए थे तब क्यों नहीं विरोध किया। और यदि अब सरकार ने यह तय कर दिया कि हमें मेजबान होना है तो फिर जम कर मेजबानी करो। आने वाले भी तो याद करें की हिन्दुस्तान गए थे। लेकिन हम बाज नहीं आएंगे। हमें तो अपना झण्डा लहराना है। मीडिया की सुर्खियां बटोरनी हैं। कौन हैं मणिशंकर यह कहने वाले की खेल का आयोजन बिगड़ ही जाए तो अच्छा। आज की स्थिति में तो देश के साढ़े सात सौ सांसदों में से एक सांसद । क्यों मीडिया उनकी बात को तवज्जो देता है। ठीक है आप आजाद देश में, स्वतंत्र जनतंत्र में काम कर रहे हैं। आप को जो भी मसालेदार मिलता है आप छापते हैं, दिखाते हैं। कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर भी खूब नकारात्मक रिपोर्टिंग हो रही है। अच्छा है यह देश हित में है, कम से कम इस रिपोर्टिंग के बहाने ही सही काम में तेजी आएगी। पर ये बेकार की बयानबाजी क्यों दिखाई, पढ़ाई जाए। इससे तो केवल बयान देने वालों का ही फायदा होगा। मणिशंकर आज कह रहे हैं, कि इतने पैसों में हम पदकों का ढेर लगा सकते थे। मणि बाबू आप भी तो खेल मंत्री रहे थे, जरा देश को बताइए आपने कितने पदक कारखाने बनाए। क्या किया जो देश के खेल जगत को कुछ फायदा पंहुचा हो। बेकार के बयानों से बचिए। आपको एक पढ़े लिखे राजनेता के रूप में जाना जाता है। आप से ऐसे ओछे बयानों की उम्मीद नहीं है। जरा हमारे पड़ौसी चीन को देखिए हाल ही ओलम्पिक आयोजित करवाए हैं पूरी दुनिया वाह वाही कर रही है। क्या गड़बड़ियां वहां नहीं हुई होंगी..। जरूर हुई होंगी। माना वहां सरकारी मीडिया का असर है,पर फिर भी चीन विश्वभर में अपनी छवि बनाने में कामयाब रहा। यहां क्यों हम पहले ही अपनी मिट्टी पलीत करने में लगे हैं। सामूहिक नेतृत्व और सामूहिक जिम्मेदारी भी कोई चीज है। यदि सरकार ने आयोजन का जिम्मा उठाया है तो यह हर भारतीय का कर्तव्य बनता है कि इस आयोजन को सफल बनाने मे प्राण पण से जुट जाए।
मुझे याद आता है मेरी मम्मी जिस स्कूल की प्रधानाचार्य थीं वहां संभाग स्तरीय टूर्नामेंट आयोजित हुए थे। ऐसे टूर्नामेंटों के लिए सरकारी बजट बहुत रस्मी सा होता है। समुचित व्यवस्थाओं के लिए काफी पैसा खर्च होना था। जाहिर है मम्मी अपने स्कूल के अन्य सदस्यों के साथ जनसहयोग के लिए दो तीन जनों से मिलने गईं। छोटा होने के नाते मैं यूं ही साथ था। गांव के जिन भी लोगों से वे मिली सभी ने एक ही बात कही थी, मैडम आप तो बता देना क्या कैसे करना है। गांव की बात है। हमारे गांव में बाहर की छोरियां (लड़कियां) आएंगी। सबको अच्छा लगना चाहिए। गांव की बात खराब नहीं होनी चाहिए।,,,, तो ये थी उस छोटे से गांव के लोगों की भावनाएं। जिन्होंने अपनी जेब से एक खेल आयोजन के लिए पैसा दिया। और राष्ट्रीय स्तर के ये नेता बेकार की बयानबाजी में उलझे हैं।

Tuesday, July 27, 2010

किसके लिए हुए वे शहीद


कल करगिल विजय दिवस था। करगिल कश्मीर में कबायलियों के नाम पर छद्म पाकिस्तानी सैनिकों का घुसपैठ और कब्जे का प्रयास। 1999 में हुई इस बड़ी लड़ाई में देश के सवा पांच सौ से अधिक जवान शहीद हुए और करीब सवा हजार जवान घायल हुए। लड़ाई को ग्यारह साल गुजर गए हैं। पर आश्चर्य करगिल विजय दिवस पर सरकार की ओर से कोई आयोजन नहीं हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने कई जगहों पर शहीदों की विधवाओं को सम्मानित किया। सरकारी स्तर पर कोई कार्यक्रम नहीं होना गहरे सवाल खड़े करता है। क्या करगिल की लड़ाई एनडीए सरकार के कार्यकाल में हुई इसलिए कांग्रेस सरकार उन शहीदों का सम्मान नहीं करना चाहती, और क्या इसीलिए भाजपा सम्मान के कार्यक्रम आयोजित कर रही है। सम्मान समारोह भाजपा आयोजित कर रही है, तो इसका कोई ज्यादा गलत संदेश नहीं है। सम्मान होना चाहिए भले ही बैनर कोई भी हो। पर शहीदों को लेकर राजनीति क्यों। राजीव गांधी, इंदिरागांधी, जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिवस, पुण्यतिथि सहित अन्य अवसरों पर अखबारों को विभिन्न मंत्रालयों के सरकारी विज्ञापनों से भर देने वाली सरकार का क्या देश की सीमा की रक्षा कर प्राण गंवाने वालों के प्रति कोई कर्तव्य नहीं बनता। करगिल के इतिहास को लेकर सेना में चलने वाली लड़ाई को दरकिनार करिए। सोचिए सवा पांच सौ जिंदगियां कम नहीं होती। देश के लिए प्राण गंवाने वालों ने कभी नहीं सोचा होगा की यूं वे हमारी छीछली राजनीति में दल विशेष के शहीद हो कर रह जाएंगे।
करगिल शहीदों को मेरी विनम्र श्रद्धाजंली, प्रभु उनके परिवारों को संबल प्रदान करे।


पुनश्चः हां एक बात का संतोष है, कम से कम से करगिल लड़ाई में शहीद होने वाले जवानों के परिजन बहुत ज्यादा कष्ट में नहीं है। उन्हें जो पैकेज मिला वो उनके सम्मानजनक जीवन के लिए वाकई जरूरी था। हां, कुछ गड़बड़ियां, इन मामलों में भी जिन्हें सरकार त्वरित गति से सुलझाए। जहां परिवारों का मामला हैं वहां भी सरकार को कुछ दखल देना चाहिए।

Monday, July 26, 2010

कामचलाऊ अंदाज

सरकार राज्य में जल प्राधिकरण बनाने का मन बना रही है। प्रदेश में मानसून के उम्मीद से कमतर रहने पर अब सरकार को यह खयाल आया है कि पानी का संरक्षण आवंटन करने के लिए कोई व्यवस्था होनी चाहिए। ठीक है यदि सरकार को अब यह खयाल आया है कि पानी का इस्तेमाल सोच समझकर होना चाहिए और इसके लिए कोई नियामक होना चाहिए। पर सवाल उठता है कि विषम भौगोलिक परिस्थितयों वाले प्रदेश के लिए सरकार के अब तक किए गए सारे उपाय निष्फल क्यों हो गए। पानी जैसे संसाधन का संरक्षण अब तक केवल नारों के दायरे से बाहर क्यों नहीं निकल सका। हर माह सैकड़ों करोड़ रुपए की पेयजल योजनाओं की घोषणा और फिर सालों की देरी से पूरे होने के बाद विफल हो रही योजनाओं की जिम्मेदारी किसकी है। क्या नए प्राधिकरण की घोषणा से सरकार यह कहना चाहती है कि इस काम में लगे उसके विभाग पूरी तरह नाकाम रहे हैं। इतने सालों से इतने इंजीनियरों का अमला क्या कर रहा था। उन्हें सही दिशा में काम करवाने के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों को क्या हो गया था। यदि हम पानी का सही आकलन और आवंटन ही नहीं कर पा रहे हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है। पहले सरकार ने ही एनीकट बनाने की बात की। गांव गांव में जगह जगह एनीकट बने। इसके लिए सरकारी योजनाएं बनीं। और अब कहा जा रहा है कि इन एनीकटों ने बड़े बांधों, पेयजल योजनाओं का गला घोंट दिया। क्या इंजीनियरों को पहले पता नहीं था कि किस एनीकट में रुकने वाले पानी की मंजिल कौन सा बांध है। और कितने एनीकटों के बाद बांध तक पानी पहुंचेगा ही नहीं। हद तो तब है जब सरकार अवैध एनीकटों को हटाने की बात तो करती है पर इसे हटाने के लिए जिम्मेदार कौन है यह स्पष्ट ही नहीं करती। सारे विभाग मिल कर ढपली बजानें में लगे हैं। हकीकत तो यह है कि अमृत कहने वाले पानी के प्रति सरकार कभी गम्भीर रही ही नहीं, चाहे किसी भी दल की सरकार रही हो। अधिकारी काम चलाऊ योजनाएं पेश करते हैं और विशेषज्ञ उन पर उसी अंदाज में ठपा लगा देते हैं। और फिर इसकी क्या गारण्टी है कि यह कामचलाऊ अंदाज प्राधिकरण के गठन के बाद खत्म नहीं हो जाएगा। आखिर इन प्राधिकरणों में भी रिटायर्ड आईएएस अफसर ही लगाए जाएंगे। सरकार हर साल लगातार बढ़ते डार्क जोन का रोना रोती है, पर एक भी जगह पर नए ट्यूबवैल खोदने से रोकने की कारगर कार्रवाई नहीं कर पा रही। सरकार चाहे तो क्या नहीं हो सकता। पानी और कुछ नहीं केवल भ्रष्टाचार की गंगा बहाने के काम आ रहा है। हर बार एक नई योजना और नया तखमीना। आखिर यह कामचलाऊ अंदाज कब खत्म होगा।

Saturday, July 10, 2010

केसर क्यारीःपीढ़ी का दर्द, और पथराव

लम्बे समय बाद कश्मीर में सेना सड़कों पर गश्त कर रही है। 11 जून से शुरू हुआ प्रदर्शनों का सिलसिला एक माह बाद भी थमने का नाम नहीं ले रहा। जब लगने लगा था कि केसर क्यारी में अमन का माहौल है, पंजाब के बाद एक और मोर्चे पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की जीत होती नजर आ रही थी। फिर एकाएक क्या हुआ कि सालों की मेहनत से जमा विश्वास यूं बहता दिखने लगा। क्यों लोग यूं सड़कों पर उतर, अपना आक्रोश जाहिर कर रहे हैं। सुरक्षा बलों की जांच के तथ्य कहते हैं इसमें पाकिस्तानी हाथ है। पाकिस्तान में बैठे हुक्मरान यहां पर उनके पिट्ठू नेताओं के जरिए हालात को हवा देने में लगे हैं। पथराव के लिए लोगों को पैसे दिए जा रहे हैं। इस तरह की बातचीत को रिकॉर्ड किया जा रहा है। इस सबमें शामिल लोगों की पहचान कर उनसे सच जानने का प्रयास किया जा रहा है। ये तथ्य अपनी जगह हैं, पर कहीं न कहीं एक बात तो तय है कि घाटी में काम कर रही जनता की सरकार से कोई गलती जरूर हुई है। पिछले एक माह में केन्द्र सरकार ने कई बार कहा कि कश्मीर में राजनीतिक पहल की जरूरत है, फिर कहां है वो राजनीतिक पहल। क्यों नहीं है वहां के नेताओं में अवाम के बीच जाने की हिम्मत। क्यों नहीं वो लोगों का विश्वास लौटा पाते। एक ओर कश्मीरी युवक आईएएस जैसी परीक्षाओं में सफल हो रहे हैं। तो दूसरी तरफ महज तेरह साल के मासूम पथराव जैसे कामों में क्यों कर जूनून का अनुभव कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि शांति बहाली के दौर में पुनर्निर्माण की जो प्रक्रिया तेजी से चलनी चाहिए उसमें कमी रह गई। लोगों के जीवन के लिए जरूरी इमदाद को उन तक पहुंचाने में कसर रह गई। और कहीं यही कसर तो असंतोष को भड़काने के लिए बारूद नहीं बन गया। क्यों छोटे बच्चे और युवा पथराव में, प्रदर्शन में जुटे हैं। जिस उम्र में स्कूल कॉलेज जाना चाहिए, करियर की चिन्ता करनी चाहिए वहां वो क्यों विध्वंसात्मक गतिविधियों में इन्वॉल्व हैं। क्यों अपने ही लोगों के खिलाफ पथराव को बहादूरी समझ रहे हैं। तेरह साल के मासूम पत्थरमार को तो पता भी नहीं होगा कि वो क्यों पथराव कर रहा है। दरअसल कहीं कश्मीर की एक पूरी नई पीढ़ी स्वविकास की राह पर चलने से वंचित तो नहीं हो गई। खबरें आ रही हैं कि कश्मीर में कई प्रमुख नेता उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व से खुश नहीं हैं। क्या हो गया कि महज कुछ साल पहले जो नेतृत्व नई हवा का झोंका लग रहा था अब गर्मी में ओढ़ा हुआ सा कम्बल लगने लगा है। बहुत देर होने से पहले सही इलाज करना जरूरी होगा। हालात काबू में आ चुके थे, उन्हें बिगड़ने देने का खतरा उठाना मूर्खता होगा। अवाम को स्वविकास के अवसर देने होंगे। स्कूल, कॉलेज और फिर सम्मानित नौकरी। वैसा ही सम्मानित जीवन जो भारत की पहचान है, सुनिश्चित करना होगा। तभी पिछले चुनाव में बढ़िया जीवन की आस में आतंकी बंदूकों की परवाह किए बिना मतदान के लिए उमड़ी जनता का भरोसा कायम रह पाएगा।

Friday, July 9, 2010

प्रेम भी परहेज भी

पिछले कुछ दिनों में एक बात तो कम से कम साफ हुई है। देश की अवाम को मंहगाई और भ्रष्टाचार दोनों से ही घोर परहेज है तो उतना ही प्रेम भी है। परहेज ड्राइंग रूम की बहस तक सीमित है तो प्रेम कुलांचे भरता रसोई और जीवन के रंग रंग में समाया है। कहने को महंगाई कमर तोड़ रही है। हर कोई दुहाई दे रहा है कि मंहगाई बहुत है भाई पर बाजारों में से भीड़ है कि कम ही नहीं हो रही। कोई भी दुकानदार, चाहे मॉल का हो या गली का, यह नहीं कह रहा कि लोग कुछ खरीदते क्यों नहीं। महंगा है पर लोग जमकर खरीद रहे हैं। फिर कहां और कैसी है मंहगाई। मेरे एक वरिष्ठ साथी अक्सर कहते हैं कि महंगाई कोई मुद्दा नहीं है, यदि महंगाई मुद्दा होती तो सरकार दुबारा नहीं आती। लोग उसे वोट नहीं देती। इतनी महंगाई के बावजूद कोई भी एक शख्स ऐसा नहीं मिलता जो महंगाई के कारण अपना टूथपेस्ट, साबुन, तेल या और किसी चीज का ब्राण्ड बदलता हो। किसी ने भी महंगी चीनी के चलते चाय के प्यालों में कमी या चीनी की मात्रा में कटौती नहीं की। इतना ही नहीं परिवारों की वीकली, बाईवीकली और मंथली आउटिंग में भी कोई कमी नहीं हुई है। बल्कि बढ़ोतरी ही हुई है। फिर कहां है मंहगाई। जब जीवनशैली पर असर ही नहीं है तो महंगाई का मुद्दा तो खत्म हो ही गया न। पर हां मानव का स्वभाव है ज्यादा से ज्यादा पैसा अपने पास रखना। कमाई ज्यादा हो और खर्चा कम हो तो बेहतर। जो बच जाए वो ही तो अमीर बनाएगा। स्टेट्स देगा। और फिर ज्यादा मंहगी स्टेट्स वाली चीजों की खरीद में काम आएगा। इसलिए लगता है कि अरे एक किलो चीनी में 12 रुपए ज्यादा चले गए। पेट्रोल के खर्च में 200 रुपए बढ़ गए। बच जाते तो कुछ नया खरीद लाते। जैसे एलसीडी टीवी, डबल डोर फ्रीज, या ए.सी.। कार भी अब आठ सौ नहीं चलती, कम से कम वैगनआर तो चाहिए। उसकी फाइनेंस की किश्त ही चुक जाती। तो कुल मिला कर महंगाई अभाव का नहीं असंतोष का पुराण है। इसलिए इसमें गम्भीरता भी नहीं है। हां, जिनके लिए दो जून रोटी का संकट है वो तो जब चीनी ढाई रुपए किलो थी तब भी था, और जब चीनी और ऊंचे पहाड़ पर जा बैठेगी तब भी रहेगा। उनका अभाव भी महंगाई से नहीं बल्कि काम की उपलब्धता से जुड़ा है। इसलिए मंहगाई बहस का मुद्दा है पर परेशानी का नहीं। इसके लिए परेशानी नहीं उठाई जा सकती। इसी कारण कार में बैठा, ऑफिस जाने के लिए तैयार शख्स बंद का समर्थन नहीं करता, और वाकई जब महंगाई से कोई फर्क पड़ ही नहीं रहा तो बंद जैसे कष्टकारक विरोधप्रदर्शनों के मायने क्या हैं। दूसरा मुद्दा है भ्रष्टाचार जिसे करते समय लोग इसे शिष्टाचार मानते हैं और जब इसका जिक्र हो तो इसे निंदाचार मानते हैं। हर कोई अपना काम निकालने के लिए कुछ देने में बुरा नहीं मानता। किसी का काम निकालते समय कुछ लेना उसका हक हो जाता है। पर चौपाल पर गरियाना भी उसका हक है। केतन देसाई (एमसीआई के प्रमुख) या अन्य प्रमुख लोग तो मात्र चावल हैं, पूरा खेत ही घुना हुआ है। किस से और कहां उम्मीद हो कि कुछ सही होगा। हर आदमी जो डायस पर खड़ा हो कर भाषण पेलता है, नीचे उतरते ही व्यवस्था की जुगाड़ में लग जाता है। जब हर कोई ऐसा कर रहा है तो बात क्या है। क्यों नहीं लोगों को भ्रष्टाचार करते समय हिचकिचाहट का अहसास होता है। जो लोग किसी भी कीमत पर न भ्रष्ट होते हैं न किसी को रिश्वत देते हैं उन्हें लोग सनकी कहती है। हंस कर टाल देती है, जमाने के साथ चलने की सीख देती है। अंत में क्या करें जमाना ही ऐसा है, का ब्रह्मास्त्र तो है ही। क्या यह सुविधाचारी और स्वार्थी समाज की निशानियां है। शायद हमारे पुरखे जानते थे कि हम ऐसे ही हैं। इसलिए उन्होंने पंचतंत्र, महाभारत, रामायण व अन्य पुराणों, उपनिषदों के माध्यम से सदाचार की सीखें गढ़ी और निरन्तर इनका पाठ करते औऱ करवाते रहे। ताकि शायद सुन कर ही हम सदाचारी हो जाएं। पर पता नहीं क्यों हो ही नहीं पाते। ...

Wednesday, June 2, 2010

अब दुख भरे दिन बीते रे भैया ,.

फोन की घंटी बजी,,, जो बजती ही चली गई,,, अटेंड किया तो चचा की आवाज आई।
अरे भतीजे,, खुश हो जा,, अब दुख भरे दिन बीते रे भैया ,, अब सुख आने वाला है,,,,।
अचकचाते हुए अनमने मन से मैंने चचा से पूछ ही लिया,, कैसा सुख,, हमने तो बस सुना ही सुना है, कि सुख भी कुछ होता है,, तुम किस सुख के बारे में बात कर रहे हो,,चचा।
अरे वो अपनी शान है न अपना कोहीनूर, बस वो वापस आ रहा है,, बुरा हो आततायियों का जो यहां से ले गए,,,,।
अरे तो चचा इसमें खुश होने वाली क्या बात है,, कोहीनूर आए या जाए ,, हमारे यहां क्या कुछ बदल जाएगा,,, तुम काहे परेशान हो रहे हो...।
बस यहीं तो मात खा जाता है हमारा देस भतीजे,, अब तुम जैसे लोग ही तो हैं जिनके कारण सब बेड़ा गर्क हुआ जा रहा है.,. तुमको कोहीनूर से कुछ लेना देना नहीं,,तुम कोई कोई फर्क ही नहीं पड़ता, वहां देश की इज्जत नीलाम हुई जा रही है,, और यहां इन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता,,,,,अजीब आदमी हो,,।
क्या अजीब आदमी हैं,,, देश की इज्जत एक कोहीनूर से नीलाम हो जाएगी,, यहां रोज हर चौराहे, हाइवे और गली मोहल्ले में नीलाम हो रही है जो,, देश में आधे से ज्यादा लोग ठीक से पढ़ नहीं पा रहे और तुम कह रहे हो इज्जत नीलाम हो रही है,,,। बताओं देश के लोग ठीक अंग्रेजी तक तो बोल नहीं पाते और तुम कह रहे हो इज्जत नीलाम हो रही है।,,। कोहीनूर आ कर क्या कर लेगा,,। कहीं किसी लॉकर में बंद ही हो जाएगा न। हमारे देस में कई सरकारी अफसरों के बैंक लॉकरों में वैसे कई कोहीनूर खरीदने लायक माल पड़ा होगा। ये अलग बात है कि अब तुम उसे काला धन कहोगे,,। कोहीनूर न हो गया जी का जंजाल हो गया।
अरे भतीजे इतना काहे गर्म हो रहे,,, खाली कोहीनूर थोड़े ही ला रहे हैं, उसके साथ सुल्तानगंज की बुद्घ प्रतिमा भी ला रहे हैं।,,वैसे ये अंग्रेजी वाली बात तो तुम सही कह रहे हो,, ससुरों का पता नहीं क्या जाता है अंग्रेजी सीखने में,,, सीख लें तो आदमी बन जाएं,,, पर तुम बात भटका रहे हो..।
अरे चचा बुद्ध प्रतिमा की बात कर रहे हो,, हमारे देस में पड़ी मूरतें ही संभाल लें तो बहुत हैं,, यहां तो जिंदा आदमी मूरत हुआ जा रहा है,, वो क्या कहते हैं,, पुरातत्व वाले पता नहीं कितनी जगहों पर मूर्तियों को निकाल निकाल कर यूं ही पटक दिए हैं,, उनको रखने का ठौर नहीं,, बाहर से और ला रहे हैं,, अच्छा बताओ ले भी आओगे तो क्या उनसे बेहतर संभाल पाओगे।
अरे भतीजे तुम्हारी समझ में तो नहीं आएगी,, पर बाकी लोग तो मेरी बात से सहमत होंगे ही,, आखिर हमारा कोहीनूर हमारे पास ही होना चाहिए। बोलो है कि नहीं।

Tuesday, June 1, 2010

सुर सुर की बात

चचा हंगामी लाल आज बहुत दिनों बाद नजर आए तो हमने कहा चचा कहां चले गए थे, इतने दिन।
अरे कहीं नहीं, बस यूं जरा मन नासाज था इतने दिनों तक बड़े परेशान हो रहे थे।
क्यों चचा क्या बात हो गई थी.
बस यूं ही, पर आज जरा मन ठीक है, देश तरक्की कर रहा है न, इसलिए।
चचा की बात सुन हम जरा चौंके, देश तरक्की कर रहा है... आपको कैसे पता चला चचा और तुमको ये एकाएक देश की फिकर क्यों होने लगी।
अरे वाह भतीजे हमें फिकर नहीं होगी तो और किसे होगी। वो मनमोहन ने हमें तो ही सारा भार सौंप रखा है, इसी में जरा बिजी रहे थे। इतने दिनों। अब आज देखो खबर आ गई न की उम्मीद से ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है देश,.।
चचा एक बात तो समझ में आ गई की तुम विकास दर के नतीजों की बात कर रहे हो,, पर ये मनमोहन वाली बात समझ में नहीं आई। जरा खोल कर समझाओ।
अच्छा तो सुनों,, पर किसी से कहना मत,, तुम तो जानते हो ये सुपर कॉन्फिडेन्शियल है,, देश का सवाल जो है,,,।
ठीक है चचा पर अब बता भी चुको...।
वो क्या है न कि पिछली 22 तारीख को जब मनमोहन सिंह की दूसरी पारी का एक साल पूरा हो गया न तब वो हम से मिला था। क्या हुआ न कि उस रात को जब हम सो गए तब हमारे ऊ 4जी टेक्नीकवाले फोन पर ऊ का फोन आया रहा। हमसे बोला चचा तुम तो पुराने पत्रकार हो,,आज सुबह हम खूब पत्रकारों से बतियाए पर मन नहीं भरा,, कुछ मन की कह सुन नहीं पाए। बहुत पता लगाया तब लगा कि चचा हंगामी लाल ऐसा पुराना पत्रकार है जिससे बात की जा सकती है,,सो हम तुमको फोन लगएं हैं,, तुम से कुछ मन की कहना चाहते हैं,,, ।
अब देस का प्रधानमंत्री कहे तो हम कौन जो ना कह दें,,, हमने कहो ,,, डॉक्टर साब,,,। बस इतना सुनते ही वो तो झूम गया,,, देखा यही न ,, यही अन्तर है पुराने औऱ समझदार पत्रकार में अब तुम समझदार हो तभी जानते हो हमारी डॉक्टरी का मतलब,, इसलिए न हमें डॉक्टर कहा,,, भई वाह,, दरअसल हंगामी जी,, अब मैं बहुत खुश हूं,, मैं अटल जी से भी ज्यादा प्रधानमंत्री रह कर नेहरु जी के वंश के अलावा इस देश सबसे लम्बे समय तक प्रधानमत्री रहने वाला आदमी हो रहा हूं,,,। बताओ औऱ क्या चाहिए,, जब से प्रधानमंत्री बना हूं लोग मेरे पीछे ही पड़ गए हैं राहुल को प्रधानमंत्री कब बना रहे ,, । अरे भाई वो बने जब बने...। मुझ से क्यों पूछते हो,, यह तो वही बात हुई न की घुमा फिरा कर पूछ लिया कि गद्दी से कब उतर रहे हो,,,, बताओ मैंने इस देश के लिए क्या नहीं किया। सबकुछ किया। लोग कहते थे कि कभी इस देश में दूध दही की नदियां बहती थी, मैंने तो नोटों की नदी बहा दी है,,, नरेगा नदी। नरेगा मैया बिल्कुल गंगा सी पवित्र है,,जो भी इसमें डुबकी लगाएगा उसकी सारी गरीबी ये हर लेगी...। अब पूछोगे यह तो केवल गांवों में बहने वाली नदी है,,। अरे शहरो में नदी बहाने की जगह नहीं है,,, वहां नालियां बहाई है,, अरबन रिन्युअल की,,, हर जगह नए नए तरीके की मोरी है,, जिसके जिधर जैसे चाहे मोड़ लो। अब देखो हंगामी लाल जी ,,, सारी दुनिया मंदी के चक्कर में पड़ी थी,... हम बचे या नहीं,, बोलो,, बचे की नहीं,, फिर भी जो है सो पीछ पड़े रहते हो,, हर समय सोनिया जी का डर दिखाते हो,, अरे माना उन्होंने पीएम बनाया है,,.. पर काम तो मैंने ही किया है,, वो तो केवल पब्लिक इन्ट्रेस्ट की बात करती है.. देश की बात तो मैं ही करता हूं।,,, चलो हंगामी जी अब एक बात करना मेरी सबसे बड़ी प्रोब्लम महंगाई है,, मैं चाह कर भी इसे कम नहीं कर पा रहा हूं,, । तुम ठहरे पुराने पत्रकार मुझे जरा महंगाई कम करने का कोई फामुर्ला बताओ,, कहीं से कोई रिसर्च करो,, कोई जप तप करो,, कोई गंडा ताबीज करवाओ,, कुछ करो,, प्लीज,, ।
उनकी इतनी बात सुन कर मैंने कहा,, मनमोहन जी ,, इसको कोई काबू में नहीं कर पाया,, अब आप कहते हो तो मैं कुछ ढूंढता हू,,,। आप मुझे दुबारा फोन करना।..
तब से मैं लगातार कई बाबाओं,, तांत्रिकों ,, पुराने लोगों,, से मिल कर महंगाई को काबू में करने का तोड़ ढूंढ़ रहा हूं,,। पर अब तक तो कुछ मिला नहीं,, भतीजे आज सोचा तुमसे कुछ पूछ लूं तो चला आया तुम्हारे पास,,तुम्हें यदि पता तो तुम ही बताओ,,..।
देखो चचा इसका तो एक ही इलाज है,, जो अभी तुम ही कह रहे थे,,
वो क्या...
महंगाई के अलावा हर बात का ढोल बजाओ,, बस महंगाई की बात पर चुप्पी साध जाओ,,
अभी बढ़ी हुई विकास दर का राग अलवाओ,, महंगाई का सुर अपने आप नीचा हो जाएगा,, ।
लगता है हमारी बात चचा को एकदम से जंच गई और वे तुरन्त अपना चमकता चेहरा ले आगे बढ़ गए। शायद मनमोहन को फोन घुमाने,,,।

Saturday, April 10, 2010

इस्तीफे के साइड इफेक्ट

कई दिन हो गए हमें चचा हंगामी लाल के कुछ समाचार नहीं मिल रहे थे। सो आज हम सवेरे उनके कमरे पहुंच गए। वहां पहुंचे तो क्या देखते हैं, चचा बड़ी गम्भीर मुद्रा में अखबार हाथ में लिए पता नहीं क्या सोच रहे हैं, हम कहे सलाम चचा, कैसे हैं। हमारी आवाज सुन कर उदास से चचा के चेहरे पर कुछ चमक आई, बोले आओ भतीजे, बस ठीक हैं,,,,। चचा का जवाब कुछ गड़बड़ लगा, सो दुबारा पूछा, बात क्या है चचा कुछ तो बताओ,,। अरे यार अब क्या बताऊं, बेटा बस ये जरा आजकल माओवादियों की खबरों से चिन्ता हो रही है। हम कहे, सो तो है चचा, बात ही ऐसी है चिन्ता होनी ही चाहिए,,,इतने लोग जो मर गए,,। अरे नहीं भतीजे इतने लोग मर गए इससे चिन्ता नहीं हो रही है,, दरअसल वो अपने धोतीधारी गृहमंत्री की हालत देख कर चिन्तित हो रहा हूं। बेचारे के पास देने के लिए और कुछ नहीं तो इस्तीफा ही दे दिया। ,,, पर चचा इससे तुम क्यों चिन्तित हो,, । ,, देखो भतीजे,, तुम नहीं समझोगे,, तुम्हारा राजनीति से कोई लेना देना नहीं है न इसलिए ऐसा कह रहे हो। ये इस्तीफा देने की बात कोई आसान या सहज बात नहीं है, ,, इससे बहुत ज्यादा फर्क पड़ने वाला है,, इसके बहुत से साइड इफेक्ट सामने आएंगे,,,। राजनीति में जो लोग हैं उन्हें भुगतना पड़ेगा..। अब तुम देखो ,, ये बताओ,, ये जो देश है,, ये इतना बड़ा है कि क्या बताऊं,,,, यहां रोज कुछ न कुछ होता रहता है,, कहीं ट्रेन टकरा जाती है,, कहीं पुल गिर जाता है,, कहीं चीन सीमा में घुस आता है,, लब्बो लुआब ये कि कहीं भी कुछ भी हो जाता है,, यूं बात बे बात पर इस्तीफा देने लगे तो हो गया।,,,,, और संकट इस्तीफे का नहीं है,, संकट तो इस्तीफे के बाद का है,, मान लो तुम जैसे नासमझों ने इसे ठीक मान लिया,, इसे परंपरा बना लिया तो सोचो सारे राजनेताओं को इस्तीफा देना पड़ जाएगा, फिर मंत्री बनेगा कौन,, और कैसे,, भइया तुम समझ लो ,, बिना मंत्री देश कैसे चलेगा,, प्रदेश कैसे चलेगा,,। है ही नहीं कोई दूसरा उपाय हमारे सिस्टम में....। इनसे पहले शिवराज जी ऐसे ही थोड़े न अड़ गए थे,, कि नहीं देंगे इस्तीफा,, बहुत सही किया था,, उन्हें देश की चिन्ता जो थी.,। अब सोचो यदि शिबु गुरु जी सोच लेते की भाई मुकदमा चल रहा है,, हम कैसे मुख्यमंत्री बन जाएं,, तो क्या होता,, झारखंड कैसे चलता,, कोई मुख्यमंत्री ही नहीं बनता,, बिना मुख्यमंत्री कैसा प्रदेश। पूरे झारखंड पर संकट आ जाता। ,,, वो तो भला हो जो शिबु गुरु जी सोच समझ कर राज्यहित में डटे रहे कि , चाहे कोई संकट आ जाए मैं कर्तव्य पालन से नहीं हिचकूंगा,, डटा रहूंगा..। लालू जी भी बहुत कोशिश किए, डटे रहे,, शिवराज जी भी डटे रहे ,, तमाम लोग डटे रहे,, इन सबन ने मिल कर बड़ी मुश्किल से राजनेताओं को हर परिस्थिति में उनका काम करते रहने का मार्ग प्रशस्त किया था। अब ये चिदम्बरम फिर से उस लीक को बिगाड़ रहे हैं,,, अरे ऐसे नहीं होता,, वो तो भला हो मनमोहन का जो सब समझते हैं,, स्वीकार ही नहीं किया,, जो स्वीकार लेते तो बड़ी मुसीबत हो जाती ,,। अरे मैं देश के हिसाब से नहीं कह रहा, वो तो जो होगा सो होगा,, नक्सलियों से भिड़ने के लिए जो लोग हैं वो जुटेंगे,, उनका काम है,, हम सब उनके साथ हैं,,, । पर मैं राजनेताओं के हिसाब से कह रहा हूं,, हर राजनेता के लिए बड़ी मुसीबत हो जाती,, चलो अन्त भला तो सब भला,,,।
चचा की बात सुन,, हम क्या कहें हमें कुछ नहीं,, आया,, आपको समझ आया हो तो बताना,,,।

Thursday, February 18, 2010

जिंदगी

कतरा कतरा जिंदगी

लम्हा लम्हा बंदगी

क्या है,क्यूं है ये बंदगी
न समझ, न समझा पाई ये जिंदगी 

Monday, February 15, 2010

सड़क पर दौड़ता आतंक

पूना में विस्फोट हो गया...। आतंक की एक ओर दास्तां लिख गया.....। खबरों की सुर्खियां कह रही हैं,,,। इन हमलों की योजना बनाने वाले विदेशी थे.....। पर इन्हें अंजाम देने वाले हाथ,, हिन्दुस्तानी हो सकते हैं,,,। गृहमंत्री कह रहे हैं,, हमला और भी बड़ा हो सकता था, पर कम नुकसान हुआ है,, सुरक्षाबलों को बधाई,,,। किसी का कयास है कि  25 तारीख को होने वाली भारत -पाक बातचीत नहीं हो इसलिए हुए हैं हमले ....। तो कोई कह रहा है कि विदेशियों को निशाना बनाने की खातिर हो रहे हैं हमले।  हमला चाहे किसी भी कारण हुआ हो,, लेकिन हुआ है,,। किसने किया क्यों किया ये बात दिगर ,, पर हर आम इंसान की चाह की हमले नही हों,, हमलावरों की पहचान हो,, और दोषियों को बख्शा नहीं जाए। फिर से आतंक का जलजला नहीं उठे। फिर ऐसे मौके नहीं आएं की अमनपसंद लोगों को बेवजह सियासतदाओं की लड़ाई में अपनी जान गंवानी पड़े। चिन्ता बहुत बड़ी है,, और उसके सरोकार उससे भी बड़े.....। पर आजाद हिन्दुस्तान की सरजमीं पर इस वाकये की गम्भीरता को बनाए रखते हुए दिल एक और सवाल उठाना चाह रहा है। और वो सवाल आतंक की इस घटना से कहीं कोई ताल्लुक नहीं रखता पर हां हर आम हिन्दुस्तानी की जिन्दगी से जरूर ताल्लुक रखता है। 

क्या किसी ने सोचा है कि सुबह जब कोई आम हिन्दुस्तानी घर से अपने दुपहिया वाहन पर सवार हो कर ऑफिस के लिए निकलता है तब उसके या उसे खुशी-खुशी विदा कर रहे उसके परिजनों में से किसी के मन में लेश मात्र भी आशंका नहीं होती कि उसका परिजन सही सलामत घर वापस नहीं पहुंच पाएगा। लेकिन बिना किसी बम धमाके या आतंकी हमले की चपेट मे आए भी उसके परिजन हमेशा हमेशा के लिए उसका इन्तजार करते रह सकते हैं। और इसके लिए कोई विदेशी हाथ, कोई षडयंत्र  जिम्मेदार नहीं होता। जिम्मेदार होती हैं तो बस कोलतार की वो सड़कें जो लोगों को मंजिल तक पहुंचाने के लिए बनी होती है। या फिर वो वाहन जो उन सड़कों पर फर्राटे भर मंजिल को लोगों के करीब लाते हैं। जी आप सही समझ रहे हैं मैं बात कर रहा हूं सड़क हादसों में जान गंवाने वाले उन लोगों की जो कहने भर को हादसे का शिकार होते हैं, पर सोचिए क्या वाकई सड़क हादसा ऐसी आपदा हैं जिन्हें टाला नहीं जा सकता । ड्ब्लयू एच ओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) की  रिपोर्ट के अनुसार भारत ऐसा देश है जहां विश्व भर में सर्वाधिक लोग सड़क हादसों में जान गंवाते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 (रिपोर्ट में उसी वर्ष के आंकड़ों की तुलना की गई है) में भारत की सड़कों पर एक लाख 14 हजार लोगों ने प्राण गंवाए थे। (आतंकियों को इतने लोगों को शिकार बनाने के लिए जाने कितने हमले करने पड़ें।) इतना ही नहीं हर घण्टे देश में तेरह लोग सड़क हादसों में जान गंवा देते हैं। अमरीका में 2006 में 42,642 लोगों ने सड़क हादसों में जान गंवाई तो इंग्लैण्ड में कुल 3298 लोग सड़क हादसों का शिकार हुए।चीन में करीब 89000 लोग हादसों का शिकार हुए । भारत में यह आंकड़ा और भी ज्यादा हो सकता है,क्योंकि यहां बहुत सारे मामले तो दर्ज ही नहीं होते। 

Friday, February 5, 2010

जय युवराज,,

आज चचा हंगामी लाल बहुत जोर से चिल्ला रहे थे,,, मिल गया ,, मिल गया,, मिल गया,,
चाचा को यूं बेसाख्ता चिल्लाते देख हमसे रहा नहीं गया,,,,,,, अरे चचा क्या मिल गया,,, भतीजे हमें देश का सही वारिस मिल गया,,, क्यों चचा क्या बात हो गई,,, अरे देखते नहीं ,, देखते नहीं अपने युवराज ने क्या कमाल कर दिया,,मुम्बई में,, दिखा दिया की देश एक है,,,, सारे ठेकेदारों को समझा दिया,,, सबको संदेसा दे दिया ,,, कि देश एक है और अब यह सब नहीं चलेगा,,,, मुम्बई में घूम लिए,, लोकल में घूम लिए,,, इसे कहते हैं युवराज,,, कहो क्या कहते हो,,,

Tuesday, January 12, 2010

उतिष्ठत् जाग्रत प्राप्यवरानिबोधत्

आज स्वामी विवेकानंद की जयंती है, यानी युवा दिवस। विवेकानंद ने युवाओं को किसी देश की तकदीर और भविष्य कहा था। उन्होंने ध्येय वाक्य दिया था, उतिष्ठत् जाग्रत् प्राप्यवरानिबोधत्। अर्थात, उठो जागो और तब तक मत रूको जब तक की लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाए। उठने, जागने औऱ लक्ष्य प्राप्त होने तक नहीं थमने की यह प्रक्रिया हर किसी के जीवन में महत्वपूर्ण परिणाम लाती है। पर सवाल उठता है कि कितने लोग अपने लक्ष्य के बारे में जानते हैं, और कितनों को यह अनुभूति हो पाती है कि वे वास्तव में सो रहे हैं। जब उन्हें अपने सोने का अहसास ही नहीं हो पाएगा तो जागने और लक्ष्य पाने की बात तो बहुत दूर है। हम क्या कर रहे हैं, और उसका क्या परिणाम है यह अनुमान लगा पाना बहुत कठिन है। नामुमकिन है ऐसा मैं नहीं कहता। क्योंकि नामुमकिन तो कुछ भी नहीं है। पर सवाल अपनी जगह है, कि यह कैसे पता चले कि हम सो रहे हैं और हमें जागना है। मैंने कुछ जनों से यह सवाल पूछा तो उनका कहना था कि तुमने बचपन में क्या करने और क्या बनने का सोचा था..। मैंने उन्हें बताया। और यह भी बताया कि वह तो मैंने काफी हद तक पाया,, पर अब प्यास बढ़ती जा रही है,, और यही तो अन्तिम सत्य नहीं,, अन्तिम इच्छा नहीं है,, अब जो चाहता हूं वो मिल जाएगा तो कुछ और पाने की चाह जगेगी।,,,मन अक्सर क्लान्त ही रहता है। फिर यदि आप जानते भी हैं कि आप क्या चाहते हैं और उसे पाने का रास्ता भी जाग्रत मस्तिष्क में कहीं दिखने लगता है , लेकिन लक्ष्य प्राप्ति के लिए जो कुछ कर गुजरने वाला जज्बा चाहिए वो कहां से लाया जा सकेगा। लोग कहते हैं कि हिम्मत करके देखो शायद कुछ बात बन जाए,, पर फिर वे ही कहते हैं यार, डर लगता है,, अभी जो जिम्मेदारियां है उन्हें कैसे निभाया जाएगा। जिम्मेदारियों का बोझ ही शायद हरेक को हमेशा सोते रहने पर विवश करता है। वरना कौन नहीं चाहता जागना औऱ लक्ष्य पा लेना,,। पर हां, आज एक बार फिर से स्वामी जी का कथन याद आया औऱ याद आए लक्ष्य। कहां से चले औऱ कहां पहुंच गए.. अभी पता नहीं कहां कहां से गुजर होगा। पर हां, आज फिर कुछ सोचा है,, पूरी तरह से सोने से बेहतर है, कुछ जाग जाया जाए, मंथर गति से ही सही लक्ष्य की ओऱ बढ़ा तो जाए,,। कच्छप शैली में ही आज नहीं तो फिर कभी,, कभी न कभी तो लक्ष्य प्राप्त होगा ही। तो एक बार फिर से उतिष्ठत् जाग्रत् प्राप्यवरानिबोधत्।