Wednesday, January 30, 2008

साहित्य के नाम पर सनसनी...

पिछले दिनों जयपुर में साहित्य के नाम पर एक जोरदार मजमा जमा, मजमा इसलिए कि यहां साहित्यकार भी थे, साहित्यप्रेमी भी थे, साहित्यचर्चा भी थी, पर निष्कर्ष नहीं थे। पहले ट्रांसलेटिंग भारत औऱ फिर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के रूप में यह जमावड़ा करीब सात दिन चला। देशी विदेशी साहित्यकारों की भीड़ में जयपुर जैसा टूरिस्ट डेस्टिनेशन जाहिर है विदेशियों के लिए ज्यादा मुफिद रहा औऱ अंग्रेजी के सत्र, साहित्य पर खूब कहकहों औऱ मानसिक विलासिता के दौर चले। पर इसका अंत कुछ अजीब रहा। चंद साहित्यकारों ने भाषा के गौरव की बात कर इस आयोजन से जुड़ीं एक प्रमुख साहित्यकार को ही निशाना बना डाला। फेस्टिवल में किस भाषा के कितने सत्र होने चाहिए, या किसे कितना समय मिलना चाहिए ये प्रश्न अलग हैं जिनका जवाब आयोजन औऱ उसके उद्देश्य के साथ केवल आयोजकों के पास ही होते हैं पर किसी छोटी सी बात को बढ़ा चढ़ा कर कहना या तिल का ताड़ बना देने से तो एसे सवालों का जवाब नहीं मिल सकता। हां, इस सारे विवाद, एक समाचार पत्र ने तो हद ही कर दी न केवल समय पर सत्र पूरा करने के आग्रह को, जो की किसी भी आयोजन में आयोजक की ओर से करना अपेक्षित होता है, अतिरंजित किया गया बल्कि प्रदेश भर के कई साहित्यकारों को ,जिन्होंने शायद इस घटना का केवल वह पक्ष देखा था जो उन्हें दिखाया गया था,भी इस सब में घसीट लिया गया। मानो किन्हीं दो लोगो को समय पर या संक्षेप में कुछ कहने के आग्रह से कोई ललकार मिल गई हो। हकीकत में अतिवादिता आयोजक की नहीं बल्कि इस घटना को ऐसा रूप देने वाले दुराग्रही की है। मैं इसे दुराग्रह ही कहूंगा। हालांकि आयोजक ने विवाद को अनावश्यक तूल नहीं देते हुए अपनी और से खेद व्यक्त किया गया। इसे भी आयोजक का बड़प्पन ही मानना चाहिए। क्या ये अतिरन्जना प्रदेश के छोटे साहित्यजगत में पनप रही किसी समूह विशेष को बढ़ावा देने या प्रश्रय देने की शुरुआत तो नहीं है। अक्सर मुझे साहित्य जगत में इस प्रकार के समूहों की बू तो आती है जो, तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाऊं की रणनीति पर काम करते हैं। एक निरपेक्ष पाठक के तौर पर केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि भाषा का गौरव उसमें अपना अमूल्य योगदान देने से बढ़ता है न कि इस प्रकार के थोथे मुद्दों को उछालने से। अच्छा होता ये साहित्यकार इसी समय को एक दो बढ़िया रचनाओँ में लगाते तो साहित्य भी समृद्ध होता औऱ वे भी।

2 comments:

surjeet said...

अभिषेक जी, साहित्य को लेकर आपकी घोर चिन्ताओं से पाठक रूबरू हुए। आपसे भी ज्यादा घोर चिन्ता हुई, यकीन मानिए। ज्यादा चिन्ता इस बात को लेकर थी कि आपने इंगित किया है कि प्रदेश में कोई छोटा-मोटा साहित्य समूह पनपने की आशंका है। इस सामन्त मानसिकता का यहीं दमन होना चाहिए, इसे मिशन की तरह आगे बढ़ाइए। सभी ब्लॉगर आपके साथ हैं।

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

बहुत प्रखर टिप्पणी के लिए मेरी बधाई लीजिए. आपने सही बातों की तरफ इंगित किया है. हालांकि मैं यह मानता हूं कि कोई भी साहित्यिक आयोजन निष्कर्ष नहीं दे सकता, न उसे देने की कोशिश ही करनी चाहिए. आयोजन विमर्श के लिए मंच उपलब्ध कराते हैं, इतना ही पर्याप्त है. दूसरी बात यह कहना चाह्ता हूं कि इस प्रसंग ने कोई साहित्यकार समूह नहीं पनपाया है. पक्ष विपक्ष सब जगह होते हैं, वैचारिक प्रतिबद्धताएं भी होती हैं, और उन पर शर्मिन्दा होने की भी कोई ज़रूरत मुझे तो नहीं लगती. बस इतना होना चाहिए कि मैं आपकी बात भी सुनूं और मुझमें इतना खुलापन हो कि अगर वह सही हो तो उसे स्वीकार भी करूं. इस प्रसंग ने साहित्यकारों की खेमेबाजी को तो क़तई उजागर नहीं किया. पत्रकारिता की दुनिया के बारे में मैं जानता नहीं, इसलिए उस पर कोई टिप्पणी करने का मेरा अधिकार नहीं है. समझदार को इशारा काफी है.