Thursday, February 28, 2008

शून्य का आकार

विशेष भंगिमाओं और चहरे के भावों से शून्य के केनवास पर कोई आकार उकेर देना असंभव नहीं पर मुश्किल बहुत होता है। पर जब भी ऐसा होता है, दर्शक स्तब्ध और मंत्रमुग्ध हो जाता है। कुछ ऐसा ही नजारा था, मंगलवार की शाम जयपुर के रवीन्द्र मंच पर । कथक नर्तकी उमा डोंगरें ने वात्सल्य का रस सभागार में घोला तो मानो पूरा सभागार ही एक मां के दुलार रम गया। गोदी में झूलता बाल गोपाल और उसकी अदाओं पर रीझती मां। कोई मां जब अपने बालक को नहलाती और तैयार करती होगी तो कितनी आत्मतुष्टी मिलती होगी, इन मनोभावों को किसी अभिनेत्री के प्रदर्शन में भी इतनी सुघड़ता से नहीं उभारा गया होगा जितनी कुशलता से उमा डोगरे ने कथक की प्रस्तुति में साकार किया। होठों की स्मित मुस्कान बालक की दिखाई जा रही बालक्रिड़ाओं का अहसास करवा रहे थे। बच्चे की मालिश के दृश्य उसके हुष्ट-पुष्ट होने का अहसास करवा रहे थे। वाकई बिना किसी बालक के मंच पर उपस्थित हुए उमा ने एक ऐसे बालक का अहसास करवा दिया जो न केवल चंचल था बल्कि नटखट भी था। जिसकी सुन्दरता को अहसास करते हुए उसे काला टिका लगाने का हर दर्शक का मन कर रहा था। जो जब तब मां का आंचल खींच लेता था, और काग के ग्रास खा जाने का भय दिखाने पर ही कौर खा रहा था। मैंने अपनी सहकर्मी के आग्रह पर पहली बार ही कथक की कोई प्रस्तुति देखी थी और इन वात्सल्य प्रस्तुति से पहले तक पूरा कार्यक्रम मुझे कुछ खास प्रभावित नहीं कर पा रहा था। शायद इसीलिए बाज लोग पहुंचे हुए कलाकारों को उस्ताद कहते हैं जो चंद क्षणों में ही ऐसा समां बांध देते हैं कि लगता है कि यदि यह नहीं देखा होता तो कभी नहीं लगता कि ऐसा भी होता है। पर मुझे फिर भी लगता है कि इन कलाकारों को अपनी वरिष्ठता को मंच पर जाहिर नहीं करना चाहिए। अक्सर लोग नहीं चाहते फिर भी कुछ अव्यवस्थाएं हो जाती हैं, लेकिन वे इन्हें तुच्छ मान लें तो ही उनकी हस्ती दर्शकों और प्रशंसकों के मध्य बनी रहती है।