Sunday, June 1, 2008

वॉलीबॉल के मैदान में, फुटबॉल.... लाइनमैन आउट

सूबा सुलग रहा है, लाशों की अर्थी सजी है और राजनीति की चिता में आम नागरिक का अमन स्वाहा हो रहा है। लोकप्रियता की वेदी पर निर्दोष लोगों की बलि तो चढ़ी ही एक काबिल अफसर को भी बड़े बेआबरू हो कर जाना पड़ा। फायरिंग की जवानों को बचाने के लिए और खुद पर ही बैकफायर हो गया। जैसे कप्तान साहब सब कुछ अपनी मर्जी से कर रहे हों, पूरे आंदोलन से खुद ही निपट रहे हों। किसी और का कोई आदेश नहीं, कोई निर्देश नहीं। सूबे का क्या देश भर का बच्चा बच्चा समझ सकता है कि आंदोलन से निपटने के कैसे औऱ कहां से क्या निर्देश मिल रहे हैं। जो खेल दो घंटे में, बड़ी हद कुछ और घंटों में काबू किया जा सके उसे अनावश्यक ढील दे कर लम्बा खींचा गया। कहा जा रहा है कि इलाके के अफसरों ने आंदोलनकारियों को पटरी तक पहुंचने ही क्यों दिया, बिचारे नासमझ थे, नहीं जानते थे कि कर्फ्यु, १४४ भी कुछ चीज होती है.....। उन्हें तो इस सबसे निपटने का कोई ट्रेनिंग नहीं मिला होगा न ........। सो वे भी गए। अब कप्तान साहब गए क्योंकि ये अपने जवानों पर फायरिंग न करने का दबाव बनाए नहीं रख सके। जवान अपनी जान संकट मे देख फायर कर बैठे, औऱ निशाना बन गए खुद उनके कप्तान। जवानों अबकि बार कोई ऐसा मौका आ जाए जब जान के लाले पड़ जाएं तो फायरिंग के भरोसे मत रहना, वर्ना इन कप्तान साहब से भी हाथ धो बैठोगे। बिचारे कप्तान साहब को फायरिंग के जिम्मेदार मानने वाले भी क्या करें......। उनकी मजबूरी है.....। सबको खुश जो रखना है...। अब या तो राज कर लो,,,, तंत्र चला लो,,,, नियम कायदों का पालन करवा लो या...... सबको संतुष्ट कर लो। लोकतंत्र में सबको राजी रखने पर ही तो राजे राज रहता है। पुराना समय तो है नहीं कि जो सही लगा किया,,,, अब तो सही वो होता है जो ज्यादा जनों को रास आए। सब जानते हैं,,, मांग ऐसी है जिसका कोई हल यहां नहीं है,,, कहीं नहीं है ऐसा नहीं है पर जहां है वहां कोई जाता नहीं,,,। जाए तो भी कुछ होगा इसका अंदाजा नहीं क्योंकि वहां का गणित एसा है कि सच का गणित बदल जाता है, ,,, जो यहां सच साबित करवाया जा सकता है उसकी वहां कोई सनद लेने वाला नहीं होगा। क्योंकि वहां देश का गणित होगा, गागर की बूंद वहां सरोवर में विलीन हो जाएगी। उनके लिए इस तरह के सच को मानना कोई मजबूरी नहीं होगा क्योंकि सिर गिनने की गणित में वहां सिर खोजे नहीं मिलेंगे। इसलिए सच की (हक की) लड़ाई लड़ने वालों ने फुटबॉल के खेल के लिए वॉलीबाल का मैदान चुना है। नेट के नीचे से ही बॉल लिए दौड़ रहे हैं, हर शॉट में दम है, मैदान के चारों और खड़े दर्शक बिचारे भुगत रहे हैं, हर बॉल उनके बदन से टकरा रही है, न रैफरी को चिन्ता है न खिलाड़ी को। रैफरी चाहे तो खिलाड़ियों को मैदान से बाहर कर सकता है। उसके पास यलो कार्ड है। दिखा सकता है। चाहे तो कुछ खिलाड़ियों को जबरन मैदान से हटा भी सकता है,लेकिन इस सबमें खिलाड़ी उससे नाराज हो सकते हैं, अगली बार उसे रैफरी बनाने से इन्कार कर सकते हैं। रैफरी बिचारा फंस गया है। खिलाड़ियों को खेलने दे तो दर्शक परेशान, न खेलने दो अगली बार रैफरी बनने का संकट, इसलिए कीसी को नाराज नहीं करने का फॉर्मूला निकाला है, लाइनमैन को ही बाहर कर दो... । एक दो तीन जितने चाहिए उतने बदल देंगे। आखिर कोई नाराज तो नहीं होगा। पर खेल जरा लम्बा ही चल गया है,,, मौका रैफरी के विरोधियों को भी मिल गया है, उन्होंने बोर्ड में आवाज उठा दी है, रैफरी उस ऊंची कुर्सी के लायक नहीं, सही समय पर सिटी तक नहीं बजा पाया। दर्शक मैदान छोड़ देंगे। अगला टूर्नामेंट फ्लॉप हो जाएगा। एक भी टिकट नहीं बिकेगी। रैफरी गिल्ड का अध्यक्ष जो कई सालों से चीफ रैफरी बनने का सपना पाले है, इस खेल से बहुत प्रेम करता है, खेल के लिए घर-बार तक छोड़ चुका है। दबे- छुपे इस मामले को हवा दे सकता है, शायद बात बन जाए, अगले टूर्नामेंट में चीफ रैफरी का दावेदार ही हो जाए.... तो वाकई खेल लम्बा हो गया है....। मामला केवल स्थान सुरक्षित करने तक ही नहीं बचा है अब तो सबकुछ शतरंज हो गया है। किसकी बिसात पर कौन प्यादा बन गया है कुछ नहीं पता। पर हां, इतना जरूर है यह सारा संकट एक कड़ाई से दूर हो सकता था। बॉलीवाल के मैदान में किसी को फुटबॉल नहीं खेलने देना चाहिए था। अब जब खेलने का मौका दे ही दिया है तो भुगतो,,,,। रखो सबको खुश.... शायद एक कड़े नियम की पालना करवाने पर तो राजधर्म निभाने की छूट भी मिलती पर अब तो राजधर्म नहीं यह तो लोकप्रियधर्म के चक्कर में अलोकप्रियकर्म हो गया है....।