Tuesday, December 16, 2008
हार का हार किसके गले में
अरे यार क्या बताये हम हार ले कर घूम रहे हैं पर कोई मिल ही नही रहा जिसको पहनाएं।
हमने कहा ये क्या बात हुई चच्चा, ऐसे कोई क्यो पहनेगा और फ़िर ये तो बताओ की ये हार है किसका, किस लिए पहनाना चाहते हो ?
अरे ये भी कोई बात हुई भला। हार तो हार है, फ़िर भी जानने को इतना ही बेताब हो तो सुनो की ये है हार का हार । भगवा वालों की सूबे में हार हुई है सो उनके ही नाप का लाया था। खास भगवा फूल भी गुथवाए थे । पर ये तो हद ही हो गई माला पहनने के आदी गले अब इधर का रुख ही नहीं कर रहे। बात में मुझे भी दम लगा। अब हार आ गया है तो पहनाया ही जाएगा। पर चच्चा को इसे लाने की क्या सूझी!
क्या चाचा तुम काहे लाये ?
हम थोड़े ही लाने वाले थे , वो तो सूबे के भगवा अध्यक्ष जी खुद ही बोले । हम हार का विश्लेषण किया हूँ । हमें ही हार पहनाये जायें। पद मुक्त समझा जाए। सो ले आए हम ये हार और लगे पहनाने। पर अब उनके सिपहसलार कहते है, अरे हार उन्हें नही महारानी को पहनाओ आख़िर ज़ंग के सारे सैनिक तो उन्ही के थे। हम कहे वो तो ठीक है भइया फ़िर ये पद मुक्ति का राग क्यों ? वो बोले ऐसा ही होता है। यही दस्तूर है।
उनके दस्तूर के चक्कर में पैसे हमारे ठुक गए। सोचा चलो जिसके सैनिक लड़े उन की देहरी पर सजदा कर उन्हें हार पहनाये। पर वहां गए तो पता चला की वे खुद किसी और ही हार की तलाश में दिल्ली के मंदिरों में धोक लगा रही हैं । और तो और उनके भी दरबारी कम नही थे हाथ में हार देखते ही सारा माजरा समझ गए , तुंरत कह उठे देखो भाई, महारानी जी ने तो पहले ही कह दिया था की सैनिक तो मैदान में लड़ रहे हैं पर सेनाओ का प्रबंध ठीक नही हुआ तो आपकी आप जानो । वोही हुआ महारानी के चुने सनिक तो मैदान जीत गए। हारने वाले क्यों हारे , किसने किसको हराया ? आप ख़ुद ही देख लो। रही बात जिम्मेदारी की तो वो अभी भी हार पहनने के ही चक्कर में डेरा डाले हुए है। सो जो ख़ुद ही हार पहनने की कतार में हो वो पराजय की जिम्मेदारी का हार क्या पहनेगा । सो हम वंहा से भी निकल लिए । कुछ आगे ही गए थे की रास्ते में कुछ लोग मिल गए कहने लगे भाई माला लाये हो तो वापस मत ले जाओ कुछ लोग हैं जो सबका दुःख दर्द बांटते हैं स्वयम आगे बढ़ कर सेवा करते हैं । इस बार भी उन्होंने खूब सेवा की है , उन्हें ही जाकर उनके भवन में ये हार पहना दो । हम वंहा चले गए । लेकिन उनका तो तर्क ही जोरदार था, कहने लगे चचा ये जो राजनीति है , इस से हमारा कोई लेना देना नहीं है । हम तो केवल संगठन और सेवा का काम करते है। माला - वाला से भी हमें कोई मतलब नही है। सो आपकी माला आप ही जानो। तो भतीजे अब ये रही माला तुम ही बताओ इसका क्या करूं....?
कुछ देर सोचने के बाद मैने कहा, चचा एक बात बताओ ये हराने- जिताने का काम कौन करता है ...?
जनता .. न....?
हां,, !
.....और तुम भी तो जनता हो, सो ऐसा करो की ये हार का हार तुम ही पहनो। जीत का हार पहनने वाले तो बहुत मिल जायेंगे पर हार का हार तो जनता को ही पहनना होगा।
होम लोन- मन्दी की अनोखी मंडी
हम कहे चाचा , बात ग़रीब या अमीर की नही हैं, सरकार की भी नही हैं, है तो बस प्रोपर्टी बाज़ार के मदारियों की हैं, उनकी डुगडुगी बजेगी और नौकरीपेशा गरीब मारा जाएगा, बैंक वाले मिल कर ताली बजायेंगे।
पाँच साल पहले भी ऐसी ही मण्डी सजी थी, खूब कर्जा सस्ता हुआ था। चौदह से सात फीसदी तक गिर गया था, हर कोई खोमचा लगाये आवाज लगा रहा था मकान ले लो, मकान लेलो और अपने पीछे एक रहाडी पर कर्ज बांटने वाले बैंक के मेनेजर को बिठाये हुए हाथों हाथ नए मकान को गिरवी रखवाने का पूरा प्रबंध किए रहता था। तब लोंगो ने खूब जम के मकान खरीदे । मकान थे की कम नही पड़ते थे बस दाम जरा बढ़ जाते तो बैंक वाले लोन अमाउंट बढ़ा देते और कहते की ई ऍम आई में कुछ सौ रुपये बढ़ जायेंगे बस। सो लोग लगे बड़े और ऊंचे, बढ़िया मकान खरीदने। बेचने वाले तो बेच गए। उल्टा सीधा सब ठेल गए। कुछ खुद रखा कुछ अपने राजनेतिक आकाओं को खिला गए और पार्टी में बढ़िया ओहदा पा गए । पीछे बच गए किराये की रकम में अपने घर का सपना साकार करने वाले लेनदार और उम्रभर किराये के रूप में सूद पाने वाले देनदार।
इतनी बात सुन चाचा से रहा नही गया फ़िर लपक कर बोले देखो ये किरायेदार पुराण हमें मत सुनाओ , मुझे तो बस इतना बताओ की इस सबसे तुम्हारे पेट में क्यों दर्द उठ रहा हैं?
चाचा पहले पूरी बात सुनो, फ़िर कुछ कहना , चलो एक बात बताओ, तुम अभी किराए के मकान में रहते हो?
हाँ।
कितना किराया देते हो?
दो हजार
मान लो तुम्हारा मकान मालिक किराया बढ़ा दे तो ? तीन हज़ार कर दे तो?
में तो मकान बदल लूँगा। तीन हज़ार कोई मेरे जैसा आदमी दे सकता हैं, बच्चों की फीस कंहासे लाऊँगा?ना बाबा न मकान बदलना ही भला।
सही कह रहे हो चाचा तुम तो मकान बदल लोगे पर ये बैंक के किरायेदार और अपन घर के मालिक तो मकान भी नही बदल सकते। समझे ?
सही कह रहे हो। पर फिर भी?
क्या फिर भी? ये बैंक वाले जब चाहे तब कोई न कोई बहाना बना कर ब्याज बढ़ा देते हैं। अब ये जो नया पासा फेंका हैं, सरकार के दबाव में तो इससे पुराने कर्जदारों को तो कुछ मिलना नही हैं, इन्हे लूटने के लिए नए कर्जदार और मिल जायेंगे । मंदी के नाम पर मण्डी का खेल हो रहा हैं। बैंक और बिल्डर चोक छक्के मारेंगे और हम तुम बाउंड्री लाइन के बाहर से बोल ला ला कर देंगे ।
अब के चचा बोले, बात तो तुम्हारी दमदार हैं भतीजे, लेकिन इंसान बेचारा क्या करे सपनो को हकीक़त में बदलते हुए ठगा रह जाना उसका मुकद्दर हैं।
Tuesday, December 2, 2008
शोर थमा अब जोर से चुनो
Saturday, November 29, 2008
धमाका.. धमाका.. धमाका.. धमाका
अब तक का सबसे बड़ा धमाका.,,
१५० मर गए ,,
सवा तीन सौ घायल हो गए,,
५१ घंटों तक मुंबई में गोलियां गूंजती रहीं ...
पुलिस - सेना - कमांडो सभी ने मिल कर इतना बड़ा हमला नाकाम कर दिया,, चंद लोगों ने पूरा मुंबई जाम कर दिया ,, देश को हिला दिया,, राजनेता हिल गए .,., प्रधानमंत्री संतरी और तमाम जीव जंतरी सभी हिल गए ,,, अब दो -तीन दिन तक हिलते ही रहेंगे ,, बस दो दिन , तीन दिन । बहुत हुआ तो चार दिन हिल लेंगे। देश विदेश के अख़बारों की सुर्खियों पर मुंबई २६ /११ छाया रहेगा,, सरकार के बयान आ गए हैं, और आ जायेंगे ,,, ।
राजनेता अपना काम यानि राजनीती कर रहे हैं , राजनीती नही करने की अपील के साथ, ,,, आतंकी को बख्शा नही जाएगा ,, दुनिया के किसी भी कोने में हो हम नही छोडेंगे ...आतंक का मुहँ तोड़ जवाब देंगे,, (पहले आतंकी को ढूंढ तो लो ) जब हो जाएगा उसे पकड़ लेंगे तो पक्की कारवाई करेंगे ... लेकिन इन सब में एक ही अड़चन है,, पुलिस है, पर कडा कानून नही है,, और कडा कानून हम बना नही सकते ,,, क्योंकि हमारी सरकार का मानना है की कोई भी कडा कानून मानवाधिकारों का हनन हो सकता है,, आप भले ही कहते रहिये की जो मरे हैं उनका भी मानवाधिकार है पर ,,, होता होगा,, मानवाधिकार तो वोटाधिकार से तय होता है। आप जितने बड़े वोट बैंक ....... आपका मानवाधिकार भी उतना ही बड़ा ,,, तो कुल मिला कर आप यह समझ लो की जो कानून है वो तो यही रहेगा,, अब आप इस कानून में कुछ कर सकते हो, उखाड़ सकते हो तो उखाड़ लो ,,। लेकिन हमारे जांबांज पुलिस वालों का क्या कीजिये जो तमाम प्रेशर में भी कुछ कर जाते है आतंक के गुरु को पकड़ लेते हैं । पर वो क्या कहते हैं न की हमारे तो संविधान मैं ही लिखा है की सौ दोषी भले छूट जायें पर एक निर्दोष नही मरना चाहिए सो हम, सो निर्दोषों के खून के बाद भी एक दोषी को बचाने में जुटे रहते हैं ।
अब मुंबई के बाद भी यही होगा। ,, हमारे रहनुमा इसी प्रकार गाल बजा बजा कर बयान देंगे और हमारे पर हुकुम चलते रहेंगे ,। हम मन में सोचेंगे अबकी बार चुनाव आने दो । इन्होने नहीं किया तो हम ही कुछ करेंगे । पर
हम इन्हे ही चुनेगे ,, क्योंकि इनकी पार्टी इन्हे ही टिकेट देगी। हम वोट भी देंगे और गाली भी देंगे ,, पर नाग नाथ या सांपनाथ में से किसी एक को ही चुनेंगे,, । ये हमें कानून की सीख देंगे ,, एकजुट होने को कहेंगे । पर होगा क्या । हम यूँ ही मरेंगे । इस तंत्र मैं यही होना है। कोई निजात नही है। शायद सब नही जानते की क्यों मुंबई ओपरेशन इतना लंबा खिंचा । अन्दर जो बंधक थे वो वो कौन थे जरा नाम सामने आने दीजिये सब सामने आ जयेगा,, । पर हाँ अब इस तंत्र पर ,,शमा चाहूँगा भीड़तंत्र पर भरोसा नही रहा । क्या वाकई ऐ वेडनस डे जैसी बेबसी हो गई लगती है,,, । बस ज्यादा कुछ नही लिखा जा रहा ,, अब कोई तारतम्यता नही बची है बैठना भी नही है,, पर कोई तो समझाओ भाई हमारे वोट लेते हो तो हमारी सुरक्षा भी करो । क्या हमने अपना इंतजाम ख़ुद ही करना होगा ???????
Monday, October 27, 2008
सुनो, बाजार कह रहा है, दीपावली आ गई है

लो जी एक बार फिर करीब तीन सौ साठ (कुछ कम या ज्यादा हो सकते हैं) दिन बाद दीपावली एक बार फिर से आ गई है। महंगाई की आंधी के बीच मंदी के दियों में जल रहा बोनस का तेल कब तक उल्लास के दीपक को जलाए रख पाएगा सबको बस यही इन्तजार है। आप और हम भले ही इस मंदी औऱ महंगाई के दोहरे दैत्य से घबरा रहे हों लेकिन बाजार इस बार राम बना बैठा है और ठान चुका है कि इन दोनों दैत्यों का संहार कर के ही दम लेगा। ऑफर के न्यौतों से सजा धजा बाजार ग्राहकों का इन्तजार कर रहा है। ग्राहक भी तैयार हो कर बाजार जा रहा है। सब कुछ देख रहा है, परख रहा है,पर खरीद कुछ नहीं पा रहा। बोनस का तेल तो पूजा और मिठाई के दिये जलाने में ही खर्च जो हो गया है। आम आदमी की तो क्या कहिए जब बड़ी कंपनियां अपनी स्थापित परंपराओं से पीछे हट रही हैं। कम्पनियां केवल बोनस दे कर ही दीपावली शुभ हो कह रही हैं। लेकिन आप चिन्ता नहीं करें आप घर नहीं सजा सकते कोई बात नहीं बाजार सज रहा है। आप वहां जाइए शौक से घूमिए चमक दमक और रौनक का अहसास करिए जम कर पटाखों की आवाज सुनिए, बच्चों को भी सुनाइए। और दीपावली मनाइये। एक खबर में पढ़ा था इस बार बाजार की बिक्री घटी है और विंडो शॉपिंग करने वालों की तादात बढ़ी है। विग्यापन बाजार में खींच तो सकते हैं पर कुछ खरिदवा नहीं सकते। तो अपना तो सारे प्रसून जोशियों और पीयूष पाण्डेयों से यही कहना है कि भाई अब ऐसा विग्यापन बनाओ जो खरीदने की इच्छा के साथ ही ताकत भी दे। हमारी तो भगवान से यही प्राथॆना है कि वह सभी को खरीदने की ताकत बक्शे ताकि वे तन के साथ ही मन से भी दीपावली शुभ हो कह सकें। अन्ततः एक बार फिर से दीपावली शुभ हो।
Saturday, September 20, 2008
रेलवे का नल, पानी और हवा

ट्रेन अपनी पूरी गति से भागी चली जा रही थी। पत्नी बच्चों के साथ घर लौट रहा श्याम खाली पड़े रिजर्वेशन डिब्बे में चैन से एक बर्थ पर पसर कर सो रहा था। अचानक बच्चे के झिंझोंड़े से उसकी नींद टूटी। बच्चा हाथ में पानी की खाली बोतल ले, कह रहा था, पापा पानी ला दो। ट्रेन एक स्टेशन पर खड़ी थी, और स्टेशन उस इलाके के अच्छे स्टेशनों में से एक था। नींद से उठा श्याम बोतल ले कर डिब्बे से बाहर निकला तो सामने ही शीतल जल लिखी ग्रेनाइट के पत्थर मे सजी, टोंटी देख उसके चेहरे का तनाव गायब हो गया। तुरन्त टोंटी को उठाया और बोतल उसके नीचे। पर यह क्या, टोंटी में से पानी नहीं सूं सूं की आवाज ही आ रही थी। इधर उधर नजर उठाई तो दूर एक खम्भे के चारों औऱ चार टोंटियां लगीं दिखीं। इस बीच स्टेशन पर हर तरफ रेहड़ीयों पर ठण्डा पानी जोर शोर से बिक रहा था। पर नलों में से नदारद था। जाहिर है उस खम्भे के साथ लगीं टोंटियों में भी पानी की जगह हवा ही बह रही थी। पास से गुजर रहे एक स्टेशन कर्मी से पूछा, भाईसाहब यहां पानी नहीं मिलेगा क्या? अरे इतनी बोतलें बिक रही हैं। खरीद लो। ये नहीं स्टेशन पर पानी नहीं है क्या? है, वहां आगे एक प्याऊ है। श्याम भागते भागते प्याऊ तक गया तो पाया कुछ सेवाभावी बुजुर्ग लोगों को पानी पिला रहे थे, बोतलों को कीप से भर रहे थे। पानी क्या था मानों शरबत था, श्याम का मन तृप्त था। पर स्टेशनल की टोंटियों में पानी की कमी अखर रही थी, जाने क्या सूझा। वह सीधा स्टेशन मास्टर के कमरे में घुस गया और कहा, आपके स्टेशन पर कहीं भी पानी नहीं है, आप कुछ करते क्यों नहीं. अरे प्याऊ लगवा तो रखी है, और क्या करें, इससे ज्यादा कुछ चाहिए तो चिठ्ठी लिख देना, रेलमंत्री के नाम, उनका बहुत नाम है, बड़े बड़े कॉलेज में मैनेजमेंट पढ़ा रहे हैं. इसे भी मैनेज करवा देंगे। इन टोंटियों में हवा की जगह पानी बहा देंगे। क्या समझे। श्याम कुछ समझता उससे पहले इंजन की सीटी सुन वह लपका और भागता भागता अपने डिब्बे में चढ़ा। उसकी पत्नी का कहना था, बहुत देर लगा दी आपने, दस रुपए की बोतल ही खरीद लेते। ,,,,,,,
Wednesday, July 23, 2008
हाथ लहराते हुए हर लाश चलानी चाहिए
hअन ये कुछ दिन बरस से ही लगे हैं.
अब सोचते हैं की कुछ लिखा जाए ॥
पर सवाल है की क्या लिखा जाए...
मित्र कहते हैं बहुत सरे मुद्दे हैं,,,
लोकसभा मैं नोटों की बरसात से लेकर डील के डील डोल तक।
सेना से लेकर ऐना तक।
माल्लिका से लेकर करीना ke अक्षय से लेकर दस के दम वाले सलमान तक , सचिन से लेकर धोनी तक और इन सब का बाप मुद्दा है मंहगाईजितना मर्जी आए उतना लिखो हर कोई कलम रगड़ रहा है आप भी रगदो पर हम हैं की चाह कर भी कुछ रगड़ नही पा रहे है,,, एक अजगाह पढ़ाआख़िर इस दर्द की दावा क्या है हमारा जवाब था,,,,
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलानी चाहिए।
बस भाई हम तो बहुत मेहनत के बाद दुष्यंत जी की इन पंक्तियों को एक बार फ़िर रगड़ सके है, आप कुछ रगड सके तो रगड़ दे, ....
ये पोस्ट भी आज एक मित्र के आग्रह पर,,,
Tuesday, June 3, 2008
होई है सोई जो राम रचि राखा.....
Monday, June 2, 2008
पेट्रोल का स्टेटस स्टेटमेंट, तेरा क्या होगा रे....
Sunday, June 1, 2008
वॉलीबॉल के मैदान में, फुटबॉल.... लाइनमैन आउट
सूबा सुलग रहा है, लाशों की अर्थी सजी है और राजनीति की चिता में आम नागरिक का अमन स्वाहा हो रहा है। लोकप्रियता की वेदी पर निर्दोष लोगों की बलि तो चढ़ी ही एक काबिल अफसर को भी बड़े बेआबरू हो कर जाना पड़ा। फायरिंग की जवानों को बचाने के लिए और खुद पर ही बैकफायर हो गया। जैसे कप्तान साहब सब कुछ अपनी मर्जी से कर रहे हों, पूरे आंदोलन से खुद ही निपट रहे हों। किसी और का कोई आदेश नहीं, कोई निर्देश नहीं। सूबे का क्या देश भर का बच्चा बच्चा समझ सकता है कि आंदोलन से निपटने के कैसे औऱ कहां से क्या निर्देश मिल रहे हैं। जो खेल दो घंटे में, बड़ी हद कुछ और घंटों में काबू किया जा सके उसे अनावश्यक ढील दे कर लम्बा खींचा गया। कहा जा रहा है कि इलाके के अफसरों ने आंदोलनकारियों को पटरी तक पहुंचने ही क्यों दिया, बिचारे नासमझ थे, नहीं जानते थे कि कर्फ्यु, १४४ भी कुछ चीज होती है.....। उन्हें तो इस सबसे निपटने का कोई ट्रेनिंग नहीं मिला होगा न ........। सो वे भी गए। अब कप्तान साहब गए क्योंकि ये अपने जवानों पर फायरिंग न करने का दबाव बनाए नहीं रख सके। जवान अपनी जान संकट मे देख फायर कर बैठे, औऱ निशाना बन गए खुद उनके कप्तान। जवानों अबकि बार कोई ऐसा मौका आ जाए जब जान के लाले पड़ जाएं तो फायरिंग के भरोसे मत रहना, वर्ना इन कप्तान साहब से भी हाथ धो बैठोगे। बिचारे कप्तान साहब को फायरिंग के जिम्मेदार मानने वाले भी क्या करें......। उनकी मजबूरी है.....। सबको खुश जो रखना है...। अब या तो राज कर लो,,,, तंत्र चला लो,,,, नियम कायदों का पालन करवा लो या...... सबको संतुष्ट कर लो। लोकतंत्र में सबको राजी रखने पर ही तो राजे राज रहता है। पुराना समय तो है नहीं कि जो सही लगा किया,,,, अब तो सही वो होता है जो ज्यादा जनों को रास आए। सब जानते हैं,,, मांग ऐसी है जिसका कोई हल यहां नहीं है,,, कहीं नहीं है ऐसा नहीं है पर जहां है वहां कोई जाता नहीं,,,। जाए तो भी कुछ होगा इसका अंदाजा नहीं क्योंकि वहां का गणित एसा है कि सच का गणित बदल जाता है, ,,, जो यहां सच साबित करवाया जा सकता है उसकी वहां कोई सनद लेने वाला नहीं होगा। क्योंकि वहां देश का गणित होगा, गागर की बूंद वहां सरोवर में विलीन हो जाएगी। उनके लिए इस तरह के सच को मानना कोई मजबूरी नहीं होगा क्योंकि सिर गिनने की गणित में वहां सिर खोजे नहीं मिलेंगे। इसलिए सच की (हक की) लड़ाई लड़ने वालों ने फुटबॉल के खेल के लिए वॉलीबाल का मैदान चुना है। नेट के नीचे से ही बॉल लिए दौड़ रहे हैं, हर शॉट में दम है, मैदान के चारों और खड़े दर्शक बिचारे भुगत रहे हैं, हर बॉल उनके बदन से टकरा रही है, न रैफरी को चिन्ता है न खिलाड़ी को। रैफरी चाहे तो खिलाड़ियों को मैदान से बाहर कर सकता है। उसके पास यलो कार्ड है। दिखा सकता है। चाहे तो कुछ खिलाड़ियों को जबरन मैदान से हटा भी सकता है,लेकिन इस सबमें खिलाड़ी उससे नाराज हो सकते हैं, अगली बार उसे रैफरी बनाने से इन्कार कर सकते हैं। रैफरी बिचारा फंस गया है। खिलाड़ियों को खेलने दे तो दर्शक परेशान, न खेलने दो अगली बार रैफरी बनने का संकट, इसलिए कीसी को नाराज नहीं करने का फॉर्मूला निकाला है, लाइनमैन को ही बाहर कर दो... । एक दो तीन जितने चाहिए उतने बदल देंगे। आखिर कोई नाराज तो नहीं होगा। पर खेल जरा लम्बा ही चल गया है,,, मौका रैफरी के विरोधियों को भी मिल गया है, उन्होंने बोर्ड में आवाज उठा दी है, रैफरी उस ऊंची कुर्सी के लायक नहीं, सही समय पर सिटी तक नहीं बजा पाया। दर्शक मैदान छोड़ देंगे। अगला टूर्नामेंट फ्लॉप हो जाएगा। एक भी टिकट नहीं बिकेगी। रैफरी गिल्ड का अध्यक्ष जो कई सालों से चीफ रैफरी बनने का सपना पाले है, इस खेल से बहुत प्रेम करता है, खेल के लिए घर-बार तक छोड़ चुका है। दबे- छुपे इस मामले को हवा दे सकता है, शायद बात बन जाए, अगले टूर्नामेंट में चीफ रैफरी का दावेदार ही हो जाए.... तो वाकई खेल लम्बा हो गया है....। मामला केवल स्थान सुरक्षित करने तक ही नहीं बचा है अब तो सबकुछ शतरंज हो गया है। किसकी बिसात पर कौन प्यादा बन गया है कुछ नहीं पता। पर हां, इतना जरूर है यह सारा संकट एक कड़ाई से दूर हो सकता था। बॉलीवाल के मैदान में किसी को फुटबॉल नहीं खेलने देना चाहिए था। अब जब खेलने का मौका दे ही दिया है तो भुगतो,,,,। रखो सबको खुश.... शायद एक कड़े नियम की पालना करवाने पर तो राजधर्म निभाने की छूट भी मिलती पर अब तो राजधर्म नहीं यह तो लोकप्रियधर्म के चक्कर में अलोकप्रियकर्म हो गया है....।
Wednesday, May 14, 2008
जयपुर में आतंक की दस्तक
Friday, May 9, 2008
क्या पत्रकार भगवान होते हैं?
Thursday, April 3, 2008
रेडलाइट स्टॉप बचपन......
दिनांक १ जून २००६ को लिखा गया।
Saturday, March 1, 2008
बहस छोड़ें, बस ब्लॉगिंग करें
आप कहेंगे कि जब मैंने इस विषय पर नहीं लिखने का सोच रखा था तो ऐसा क्या हो गया कि इतना लम्बा लेख दे मारा। दरअसल आज इरफान के लेख में मैंने हिन्दी ब्लॉगिंग की ओर एक निराशा का भाव देखा। इरफान एक बहुत अच्छे ब्लॉगर हैं और उनकी बहुत सारी पोस्ट, पॉडकास्ट ने हिन्दी ब्लॉगजगत को समृद्ध किया है। उनका या उनके जैसे लोग यदि इस प्रकार की बहसों से विचलित होजाएंगे तो ब्लॉगिंग का नुक्सान हो सकता है। इसलिए सभी लोगों से खासकर इस प्रकार की बहसों में हिस्सा लेने वालों से एक ही आग्रह है कि जिसे जो पोस्ट करना है उसे उसके ब्लॉग पर पोस्ट करने दें। आपकी उससे मतभिन्नता है तो अपने ब्लॉग पर उसे जाहिर करें। लेकिन प्रतिबंध की बात न करें। यह तय है कि सनसनी बिकती है और उसकी टीआरपी भी ज्यादा होती है लेकिन हर कोई उसका रुख करेगा तो ब्लॉगजगत भी हिन्दी न्यूज चैनलों की राह पकड़ लेगा। इस विवाद पर ये मेरा पहला और आखिरी पोस्ट है। बस सबसे गुजारिश है कि धड़े बंदी करने की बजाय अभिव्यक्त करते चलें। जितनी ज्यादा अभिव्यक्तियां होंगी ब्लॉग्स उतने ही लोकप्रिय होंगे। अभी प्रश्न किसी एक को रोकने का नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को बुलाने का है। तो बस ऐसा लिखें की अन्य लोग भी ब्लॉग बनाएं औऱ ब्लॉग एग्रीगेटसॆ की २४ घण्टे की सूची में पोस्टिंग की सूची लम्बी होती जाए। सादर....
पुनश्चः यहां किसी को निजी तौर पर प्रताड़ित करने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए,इसके लिए सम्बंिधत को तुरन्त साइबर कानून का सहारा भी लेना चाहिए। निजी जानकारी को सार्वजनिक करना एक घृणित कृत्य है। मेरी नजर में किसी के नम्बर को उसकी अनुमति के बिना सार्वजनिक करना भी ऐसा ही है। इस प्रकार की ब्लॉगिंग करने वाले कृपया ऐसा न करें।
Thursday, February 28, 2008
शून्य का आकार
Wednesday, February 20, 2008
बजट बसंती से रंग दे बसंती
Saturday, February 16, 2008
दुनिया के सारे पुरुषों एक हो जाओ....
एक बेरोजगार आत्महत्या के बाद जब परालोक में पहुंचता है तो जब वहां अपनी मृत्यु का कारण बेरोजगारी बताता है, तो कारण लिख रहे क्लर्क ने एकाएक अपने हाथ रोक लिए और कहने लगा, तुम नए लोगों को कुछ समझ नहीं आता, प्रगति के नाम पर जाने क्या कर रहे हो। इन दिनों ऊपर आने वालों लड़कों में बेरोजगारी ही एक बड़ा फैक्टर है। ससुरे समझते ही नहीं हैं जाने कौनसी समानता का राग अलाप रहे हैं। अब झेलो समानता, छोकरियां ही नौकरियां ले रही हैं और इनके पास तो कोई काम नहीं है। खैर भाई आ गए हो तो अन्दर चलो, पर यहां समानता का राग मत अलापना। युवक को अन्दर जाते ही घोड़े पर विराजमान बालों को पीछे चोटी की तरह बांधे हुए एक शख्स के दर्शन हुए, तलवार हाथ में लिए कुछ चिन्तातुर सा यह शख्स पहला सवाल दागता है, सुपर ट्युसडे का क्या रहा? ये क्या होता है? अरे भाई वहां मेरे सिंहासन पर कौन बैठने वाला है? आपका सिंहासन? हां वही जिसे बड़ी मुश्किल से बनाया था। अब तक तो सब ठीक था, पर लगता है इस बार कोई गड़बड़ है, या तो कोई लेडी होगी या कोई ब्लैक. पूरा सिस्टम तहस नहस करने पर तुले हैं, पता नहीं क्या हो गया है धरती के पुरुषों को जो अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने चले हैं। हमें पता था कि एक बार यदि इन लेडिजों,यही कहा गया था, (महिलाओं) को यदि घर से बाहर निकलने दिया तो सारे जेन्टसों की जरुरत ही नहीं रहेगी। पहले कहा पढ़ाओ, पढ़ाया तो नतीजा देख लो, सारे काम धन्धों में हर तरफ महिलाएं ही महिलाएं नजर आ रही हैं,तुम कहते थे, इन्हें सॉफ्ट काम देंगे, ऐसा सॉफ्ट काम दिया कि खुद ही सॉफ्ट हो गए। अब देखो हर हार्ड काम पर ये सोफ्ट गल्सॆ ही दिख रही हैं। सेना से लेकर सोफ्टवेयर तक। दुकान से लेकर मकान तक। और अब राजनीति में भी ये ही दीखेंगी। हम तो जानते थे कि ये जो मादा है यह आदम से ज्यादा समझदार है,इसलिए तरकीब लगाई और इसे घर तक ही रखा था। इसीका नतीजा था कि सबसे ज्यादा सभ्य होने का दम भरने वाले देश में भी आज तक कोई महिला नेतृत्व करने के लिए तरस रही है। पर अब देखो क्या होगा? संकट ये नहीं है कि लड़कियां राज करेंगी। संकट ये कि फिर ये बिचारा मर्द करेगा क्या। लड़कियां तो घर का काम करके और बच्चे पालकर ही खुश थीं। क्योंकि उन्हें लगता था कि कुदरत ने उसे इन्हीं कामों के लिए बनाया है, पर मर्द क्या करेगा? नौकरियां सारी आधी दुनिया के हवाले होती जा रही हैं। घर चलाना औऱ बच्चे पालना मर्द को कभी आ नहीं सकता। क्योंकि उसमें वो सहज संभाल करने की आदत नहीं होती। और फिर अब तो विग्यान ने ऐसा काम कर दिया है कि बच्चे पैदा करने के लिए भी लड़कियों को लड़कों की जरुरत नहीं होने वाली। राज और काज करेंगी लड़कियां और लड़कों को घर के काम करवाएंगी। यदि ऐसा नहीं हुआ तो लड़कों को बेरोजगारी के चलते मर कर ऊपर ही आना है। तुम भी ऐसे ही आए हुए लगते हो।
लड़का बेचारा अवाक, वाकई उसे याद आने लगा कि वह जहां जहां भी नौकरी के लिए गया हर जगह किसी न किसी लड़की का ही सलेक्शन हुआ। उसकी महिला मित्र भी एक बैंक में अच्छे पैकेज पर काम करती थी। चाहती थी कि लिव इन रिलेशन में वह ही सारे काम करे। बर्तन, कपड़ों और खाना बनाने तक तो ठीक था। पर उसकी दोस्तों के सामने पानी सर्व करने और , बड़ा अच्छा है, कहां से लाईं? जैसी बातें सुन कर ही तो उसने मरने का मन बनाया था, ये अलग बात है कि सुसाइड नोट में उसने बेरोजगारी का जिक्र किया था। ये चोटी वाला बात तो ठीक कह रहा है। इसका इलाज क्या हो यह भी इससे ही पूछना चाहिए। सर इसका कोई हल? हल मेरे पास नहीं है,हल वो सामने जो दाढ़ी वाला है, वो ही हल निकालने का दावा करता है, उसी से पूछो?
लम्बी सफेद हल्की काली दाढ़ी वाले ने एक ही मंत्र दिया- दुनिया के सारे मर्दों एक हो जाओ.
Friday, February 1, 2008
धोनी को धोया मीडिया ने
Thursday, January 31, 2008
सावधान मा बदौलत पधार रहे हैं...
Wednesday, January 30, 2008
साहित्य के नाम पर सनसनी...
Thursday, January 10, 2008
सड़क सुरक्षा सप्ताह में घर से बाहर निकलने के टिप्स
