Monday, July 26, 2010

कामचलाऊ अंदाज

सरकार राज्य में जल प्राधिकरण बनाने का मन बना रही है। प्रदेश में मानसून के उम्मीद से कमतर रहने पर अब सरकार को यह खयाल आया है कि पानी का संरक्षण आवंटन करने के लिए कोई व्यवस्था होनी चाहिए। ठीक है यदि सरकार को अब यह खयाल आया है कि पानी का इस्तेमाल सोच समझकर होना चाहिए और इसके लिए कोई नियामक होना चाहिए। पर सवाल उठता है कि विषम भौगोलिक परिस्थितयों वाले प्रदेश के लिए सरकार के अब तक किए गए सारे उपाय निष्फल क्यों हो गए। पानी जैसे संसाधन का संरक्षण अब तक केवल नारों के दायरे से बाहर क्यों नहीं निकल सका। हर माह सैकड़ों करोड़ रुपए की पेयजल योजनाओं की घोषणा और फिर सालों की देरी से पूरे होने के बाद विफल हो रही योजनाओं की जिम्मेदारी किसकी है। क्या नए प्राधिकरण की घोषणा से सरकार यह कहना चाहती है कि इस काम में लगे उसके विभाग पूरी तरह नाकाम रहे हैं। इतने सालों से इतने इंजीनियरों का अमला क्या कर रहा था। उन्हें सही दिशा में काम करवाने के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों को क्या हो गया था। यदि हम पानी का सही आकलन और आवंटन ही नहीं कर पा रहे हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है। पहले सरकार ने ही एनीकट बनाने की बात की। गांव गांव में जगह जगह एनीकट बने। इसके लिए सरकारी योजनाएं बनीं। और अब कहा जा रहा है कि इन एनीकटों ने बड़े बांधों, पेयजल योजनाओं का गला घोंट दिया। क्या इंजीनियरों को पहले पता नहीं था कि किस एनीकट में रुकने वाले पानी की मंजिल कौन सा बांध है। और कितने एनीकटों के बाद बांध तक पानी पहुंचेगा ही नहीं। हद तो तब है जब सरकार अवैध एनीकटों को हटाने की बात तो करती है पर इसे हटाने के लिए जिम्मेदार कौन है यह स्पष्ट ही नहीं करती। सारे विभाग मिल कर ढपली बजानें में लगे हैं। हकीकत तो यह है कि अमृत कहने वाले पानी के प्रति सरकार कभी गम्भीर रही ही नहीं, चाहे किसी भी दल की सरकार रही हो। अधिकारी काम चलाऊ योजनाएं पेश करते हैं और विशेषज्ञ उन पर उसी अंदाज में ठपा लगा देते हैं। और फिर इसकी क्या गारण्टी है कि यह कामचलाऊ अंदाज प्राधिकरण के गठन के बाद खत्म नहीं हो जाएगा। आखिर इन प्राधिकरणों में भी रिटायर्ड आईएएस अफसर ही लगाए जाएंगे। सरकार हर साल लगातार बढ़ते डार्क जोन का रोना रोती है, पर एक भी जगह पर नए ट्यूबवैल खोदने से रोकने की कारगर कार्रवाई नहीं कर पा रही। सरकार चाहे तो क्या नहीं हो सकता। पानी और कुछ नहीं केवल भ्रष्टाचार की गंगा बहाने के काम आ रहा है। हर बार एक नई योजना और नया तखमीना। आखिर यह कामचलाऊ अंदाज कब खत्म होगा।

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