हम हिन्दुस्तानियों की बड़ी गजब आदत है। हर चीज को हम खेल बना लेते हैं। बात चाहे खेल की हो वह भी हमारे लिए खेल हो गया है। खेलने को और कुछ नहीं मिला तो लगे कॉमनवेल्थ खेलों से ही खेलने। अब जब की बारात दरवाजे पर आने के लिए खड़ी है, घराती कह रहे हैं कि शादी भी होनी चाहिए थी कि नहीं। एक दो घराती तो यहां तक कह रहे हैं कि शादी बिगड़ ही जाए तो बेहतर। क्या हो रहा है यह। हम कब अपनी आदत से बाज आएंगे। अरे देश की गरीबी,बच्चों के हित की इतनी चिन्ता थी तो जब खेलों की मेजबानी का न्यौता लेने गए थे तब क्यों नहीं विरोध किया। और यदि अब सरकार ने यह तय कर दिया कि हमें मेजबान होना है तो फिर जम कर मेजबानी करो। आने वाले भी तो याद करें की हिन्दुस्तान गए थे। लेकिन हम बाज नहीं आएंगे। हमें तो अपना झण्डा लहराना है। मीडिया की सुर्खियां बटोरनी हैं। कौन हैं मणिशंकर यह कहने वाले की खेल का आयोजन बिगड़ ही जाए तो अच्छा। आज की स्थिति में तो देश के साढ़े सात सौ सांसदों में से एक सांसद । क्यों मीडिया उनकी बात को तवज्जो देता है। ठीक है आप आजाद देश में, स्वतंत्र जनतंत्र में काम कर रहे हैं। आप को जो भी मसालेदार मिलता है आप छापते हैं, दिखाते हैं। कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर भी खूब नकारात्मक रिपोर्टिंग हो रही है। अच्छा है यह देश हित में है, कम से कम इस रिपोर्टिंग के बहाने ही सही काम में तेजी आएगी। पर ये बेकार की बयानबाजी क्यों दिखाई, पढ़ाई जाए। इससे तो केवल बयान देने वालों का ही फायदा होगा। मणिशंकर आज कह रहे हैं, कि इतने पैसों में हम पदकों का ढेर लगा सकते थे। मणि बाबू आप भी तो खेल मंत्री रहे थे, जरा देश को बताइए आपने कितने पदक कारखाने बनाए। क्या किया जो देश के खेल जगत को कुछ फायदा पंहुचा हो। बेकार के बयानों से बचिए। आपको एक पढ़े लिखे राजनेता के रूप में जाना जाता है। आप से ऐसे ओछे बयानों की उम्मीद नहीं है। जरा हमारे पड़ौसी चीन को देखिए हाल ही ओलम्पिक आयोजित करवाए हैं पूरी दुनिया वाह वाही कर रही है। क्या गड़बड़ियां वहां नहीं हुई होंगी..। जरूर हुई होंगी। माना वहां सरकारी मीडिया का असर है,पर फिर भी चीन विश्वभर में अपनी छवि बनाने में कामयाब रहा। यहां क्यों हम पहले ही अपनी मिट्टी पलीत करने में लगे हैं। सामूहिक नेतृत्व और सामूहिक जिम्मेदारी भी कोई चीज है। यदि सरकार ने आयोजन का जिम्मा उठाया है तो यह हर भारतीय का कर्तव्य बनता है कि इस आयोजन को सफल बनाने मे प्राण पण से जुट जाए।
मुझे याद आता है मेरी मम्मी जिस स्कूल की प्रधानाचार्य थीं वहां संभाग स्तरीय टूर्नामेंट आयोजित हुए थे। ऐसे टूर्नामेंटों के लिए सरकारी बजट बहुत रस्मी सा होता है। समुचित व्यवस्थाओं के लिए काफी पैसा खर्च होना था। जाहिर है मम्मी अपने स्कूल के अन्य सदस्यों के साथ जनसहयोग के लिए दो तीन जनों से मिलने गईं। छोटा होने के नाते मैं यूं ही साथ था। गांव के जिन भी लोगों से वे मिली सभी ने एक ही बात कही थी, मैडम आप तो बता देना क्या कैसे करना है। गांव की बात है। हमारे गांव में बाहर की छोरियां (लड़कियां) आएंगी। सबको अच्छा लगना चाहिए। गांव की बात खराब नहीं होनी चाहिए।,,,, तो ये थी उस छोटे से गांव के लोगों की भावनाएं। जिन्होंने अपनी जेब से एक खेल आयोजन के लिए पैसा दिया। और राष्ट्रीय स्तर के ये नेता बेकार की बयानबाजी में उलझे हैं।
3 comments:
bahut sahi farmaya hain aapne
wah abhishek ji wah...khel ke khel mai aap bhi apne lekh se khel gaye.....sounds good !!!!!
थैंक्यू,, संजल जी,,, धन्यवाद किशोर जी,,
Post a Comment