Friday, July 9, 2010
प्रेम भी परहेज भी
पिछले कुछ दिनों में एक बात तो कम से कम साफ हुई है। देश की अवाम को मंहगाई और भ्रष्टाचार दोनों से ही घोर परहेज है तो उतना ही प्रेम भी है। परहेज ड्राइंग रूम की बहस तक सीमित है तो प्रेम कुलांचे भरता रसोई और जीवन के रंग रंग में समाया है। कहने को महंगाई कमर तोड़ रही है। हर कोई दुहाई दे रहा है कि मंहगाई बहुत है भाई पर बाजारों में से भीड़ है कि कम ही नहीं हो रही। कोई भी दुकानदार, चाहे मॉल का हो या गली का, यह नहीं कह रहा कि लोग कुछ खरीदते क्यों नहीं। महंगा है पर लोग जमकर खरीद रहे हैं। फिर कहां और कैसी है मंहगाई। मेरे एक वरिष्ठ साथी अक्सर कहते हैं कि महंगाई कोई मुद्दा नहीं है, यदि महंगाई मुद्दा होती तो सरकार दुबारा नहीं आती। लोग उसे वोट नहीं देती। इतनी महंगाई के बावजूद कोई भी एक शख्स ऐसा नहीं मिलता जो महंगाई के कारण अपना टूथपेस्ट, साबुन, तेल या और किसी चीज का ब्राण्ड बदलता हो। किसी ने भी महंगी चीनी के चलते चाय के प्यालों में कमी या चीनी की मात्रा में कटौती नहीं की। इतना ही नहीं परिवारों की वीकली, बाईवीकली और मंथली आउटिंग में भी कोई कमी नहीं हुई है। बल्कि बढ़ोतरी ही हुई है। फिर कहां है मंहगाई। जब जीवनशैली पर असर ही नहीं है तो महंगाई का मुद्दा तो खत्म हो ही गया न। पर हां मानव का स्वभाव है ज्यादा से ज्यादा पैसा अपने पास रखना। कमाई ज्यादा हो और खर्चा कम हो तो बेहतर। जो बच जाए वो ही तो अमीर बनाएगा। स्टेट्स देगा। और फिर ज्यादा मंहगी स्टेट्स वाली चीजों की खरीद में काम आएगा। इसलिए लगता है कि अरे एक किलो चीनी में 12 रुपए ज्यादा चले गए। पेट्रोल के खर्च में 200 रुपए बढ़ गए। बच जाते तो कुछ नया खरीद लाते। जैसे एलसीडी टीवी, डबल डोर फ्रीज, या ए.सी.। कार भी अब आठ सौ नहीं चलती, कम से कम वैगनआर तो चाहिए। उसकी फाइनेंस की किश्त ही चुक जाती। तो कुल मिला कर महंगाई अभाव का नहीं असंतोष का पुराण है। इसलिए इसमें गम्भीरता भी नहीं है। हां, जिनके लिए दो जून रोटी का संकट है वो तो जब चीनी ढाई रुपए किलो थी तब भी था, और जब चीनी और ऊंचे पहाड़ पर जा बैठेगी तब भी रहेगा। उनका अभाव भी महंगाई से नहीं बल्कि काम की उपलब्धता से जुड़ा है। इसलिए मंहगाई बहस का मुद्दा है पर परेशानी का नहीं। इसके लिए परेशानी नहीं उठाई जा सकती। इसी कारण कार में बैठा, ऑफिस जाने के लिए तैयार शख्स बंद का समर्थन नहीं करता, और वाकई जब महंगाई से कोई फर्क पड़ ही नहीं रहा तो बंद जैसे कष्टकारक विरोधप्रदर्शनों के मायने क्या हैं। दूसरा मुद्दा है भ्रष्टाचार जिसे करते समय लोग इसे शिष्टाचार मानते हैं और जब इसका जिक्र हो तो इसे निंदाचार मानते हैं। हर कोई अपना काम निकालने के लिए कुछ देने में बुरा नहीं मानता। किसी का काम निकालते समय कुछ लेना उसका हक हो जाता है। पर चौपाल पर गरियाना भी उसका हक है। केतन देसाई (एमसीआई के प्रमुख) या अन्य प्रमुख लोग तो मात्र चावल हैं, पूरा खेत ही घुना हुआ है। किस से और कहां उम्मीद हो कि कुछ सही होगा। हर आदमी जो डायस पर खड़ा हो कर भाषण पेलता है, नीचे उतरते ही व्यवस्था की जुगाड़ में लग जाता है। जब हर कोई ऐसा कर रहा है तो बात क्या है। क्यों नहीं लोगों को भ्रष्टाचार करते समय हिचकिचाहट का अहसास होता है। जो लोग किसी भी कीमत पर न भ्रष्ट होते हैं न किसी को रिश्वत देते हैं उन्हें लोग सनकी कहती है। हंस कर टाल देती है, जमाने के साथ चलने की सीख देती है। अंत में क्या करें जमाना ही ऐसा है, का ब्रह्मास्त्र तो है ही। क्या यह सुविधाचारी और स्वार्थी समाज की निशानियां है। शायद हमारे पुरखे जानते थे कि हम ऐसे ही हैं। इसलिए उन्होंने पंचतंत्र, महाभारत, रामायण व अन्य पुराणों, उपनिषदों के माध्यम से सदाचार की सीखें गढ़ी और निरन्तर इनका पाठ करते औऱ करवाते रहे। ताकि शायद सुन कर ही हम सदाचारी हो जाएं। पर पता नहीं क्यों हो ही नहीं पाते। ...
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1 comment:
शायद हमारे पुरखे जानते थे कि हम ऐसे ही हैं। इसलिए उन्होंने पंचतंत्र, महाभारत, रामायण व अन्य पुराणों, उपनिषदों के माध्यम से सदाचार की सीखें गढ़ी और निरन्तर इनका पाठ करते औऱ करवाते रहे।
काश हम अपने पुरखों की तरह समझदार होते !!
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