Wednesday, April 6, 2011

गांधी फिर सत्याग्रह पर हैं,,,

अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। उस भ्रष्टाचार के खिलाफ जो हमारी रगों में बहते खून के विभिन्न अवयवो में समाहित हो गया है। जीवन में भ्रष्ट कोशिकाओं की मात्रा जानने के लिए किसी लेबोरेट्री टेस्ट की जरूरत नहीं है। जहां भी हाथ रख दो वही नब्ज भ्रष्टाचार के पेट्रोल से दौड़ती महसूस होगी। कोशिश करके देखें। तंत्र की इस प्राणवायु के बिना तंत्र निष्प्राण हो जाता है। कोमा में चला जाता है। कैसा भी काम हो भ्रष्टाचार अपने चरम रूप में नजर आएगा। ऐसे में अन्ना हजारे एक मुहीम ले कर निकले हैं। उनका और उनके सहयोगियों का मत है कि लोकपाल विधेयक का उनका प्रारूप भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सकता है। उनकी यह धारणा कितनी सही है या समय के साथ सही साबित होगी इस पर बात किए बिना सबसे पहले अन्ना के आंदोलन को समर्थन। आखिर गांधी के देश में एक बार फिर गांधी सड़क पर हैं और इस बार मुकाबला परायों से नहीं अपनों से है। और एक सत्य यह भी है कि यह लड़ाई फैसला करेगी कि लोकतंत्र के इस भीड़तंत्र में क्या वाकई नैतिकता सम्मान के साथ जी सकेगी या बलशालियों की रंगशाला में दरबान बनना ही नैतिकता की किस्मत है। और क्या मांग है अन्ना की। वे किसी भी अमीर उद्योगपति के गैराज में फालतू खड़ी कार तो नहीं मांग रहे ताकि जिंदगी भर बस तक में नहीं बैठ सकने वाला गरीब उस कार के पेट्रोल भर से यात्रा कर सके। या उसके वार्डरोब में जीवन में बस एक बार पहना गया कपड़ा भी नहीं मांग रहे। वे यह भी नहीं कह रहे कि धनपतियों क्यों जरूरत से ज्यादा धन अपनी तिजोरियों में भर कर गरीबों की आंतों को सूखा रहे हो, क्यों उन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होने दे रहे। नहीं वे किसी से भी कुछ नहीं मांग रहे, वे इतना ही तो कह रहे हैं कि भाई गड़बड़ी की जांच कर सके ऐसा तंत्र बना दो। इसमें भी उन्हें एतराज क्यों है। क्यों डरती है सरकार गड़बड़ी की जांच के पारदर्शी तंत्र से। आखिर ये मांग ऐसी तो नहीं तो जिसे पूरा नहीं किया जा सके। या फिर ये इसलिए पूरी नहीं हो सकती क्योंकि इसमें कोई जाति वर्ग का वोट नहीं जुड़ा। इसका समर्थन करने वाले पटरियों पर डेरा नहीं जमा सकते। वो दिल्ली की आपूर्ति ठप नहीं कर सकते। वो लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी को डसने वाले भ्रष्ट तंत्र पर नकेल कसने के लिए उनकी ही जिंदगी के चक्के को थाम नहीं सकते। तो सरकार और नौकरशाहों को गलतफहमी है कहीं। अन्ना ने सोए हिन्दुस्तान की कुंभकर्णी नींद को तोड़ने का काम कर दिया है। जितना इसे टाला जाएगा उतना लावा जनता के सीने में जमा होता जाएगा। सरकार जागे न जागे हिन्दुस्तान जागने लगा है। देश की कमान थामने वालो को चिंता करनी चाहिए कि कहीं यह लावा जनता के सीने से निकल कर न बहने लगे। अन्ना के रूप में गांधी ने इस देश को फिर से अपना सहारा दिया है।,,,गांधी फिर सत्याग्रह पर हैं,,, देश को फिर आजाद करवाने के लिए जुट जाएं।

5 comments:

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

अभिषेक जी वाकई भ्रष्टाचार हमारे सिस्टम के शरीर में वायरस की तरह समा चुका है और इस वायरस से निजात पाना काफी मुश्किल है, लेकिन ये नामुमकिन नहीं है और अन्ना हजारे जैसे लोग इस बात में हमारा विश्वास पुख्ता करते हैं।

abhishek said...

धन्यवाद, आप सही कर रही हैं नीलिमा जी,, अन्ना दम तोड़ते विश्वास के बीच उम्मीद की एक किरण हैं

Main Hoon Na .... said...

देश की कमान थामने वालो को चिंता करनी चाहिए कि कहीं यह लावा जनता के सीने से निकल कर न बहने लगे। .....
अभिषेक जी आपकी इन लाइनों ने बहुत कुछ कह दिया है . समय रहते देश की ठेकेदारों को समज लेना चाइये की अब देश की जनता समज चुकी है और इम्तिहान न ले.

Murari Gupta said...

bahut badiya...click this link

http://www.youtube.com/watch?v=pL9ZkOW51yY

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

बहुत उम्दा और प्रखर टिप्पणी है यह. अब यह साफ हो रहा है कि जनता एक तरफ है सरकार दूसरी तरफ. यह शायद 'हो गई है पीर पर्वत-सी' की ही परिणति है. लेकिन अभिषेक क्या आपको यह नहीं लगता है कि अन्ना हजारे के इस अभियान को जितना जन समर्थन, मीडिया समर्थन मिलना चाहिये था, उतना अभी दिखाई नहीं दे रहा ह? जब अपने देश की जनता के बारे में सोचता हूं ( और इस तरह अपने बारे में भी सोचता हूं) तो मुझे एक ग्रीक मिथकीय चरित्र प्रमथ्यु की बहुत याद आती है. हमारे लिए भी जो करना है दूसरे करें, हम तो चैन की बंशी बजाएंगे.हमारा सरोकार वर्ल्ड कप है, आईपीएल है...
आप क्या सोचते हो?