Saturday, February 27, 2016

बजट से क्या वाकई बनता बिगड़ता है आम आदमी का बजट? Budget For common Man?

लीजिए, फिर आ गए हैं हम एक सालाना रस्मों रवायतों के और पड़ाव पर। पड़ाव यानी बजट। हर साल फरवरी माह के आखिरी दिन यह मौका आता है जब देश के वित्त मंत्री देश के अगले वित्त वर्ष का बजट पेश करते हैं। मीडिया में पिछले 17 सालों में लगातार किसी न किसी रूप में इस बजट उत्सव का अंग रहा हूं। तो कह सकता हूं कि हर बार एक सी उम्मीदें लिए बजट पर निगाहें टिकी रहती हैं। हर बार बहुत सारी पुरानी योजनाओं को नए लबादे में, नए नामों के साथ पेश होता देखता आया हूँ। और उन घोषणाओं में बहुत कम को हकीकत में धरातल पर उतरते भी देखा है। हर बार बजट पेश होने के साथ ही पक्ष के लोगों की शाबाशी औऱ प्रतिपक्ष की कमियों भरी त्वरित प्रतिक्रिया से भी दो चार होता रहा हूं। पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह बजट सही मायनों में आम आदमी के लिए कितना असरकारक होता है? कोई कोई बजट होता है जो वास्तव में पूरे देश की दिशा ही बदल देता है, जैसा अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने 1991 में जब अपना पहला बजट पेश किया था, तब उन्होंने आज के भारत की तस्वीर रखी थी। उदारवाद की उस लहर ने हमारी हर युवा पीढ़ी को नए सपने दिए। पर अब कई सालों से जो बजट भाषण सुनाई देते आ रहे हैं वो महज शब्दजाल और पिछली सरकार के कामकाज से अपने कामकाज को बेहतर बताने से ज्यादा कुछ होते नहीं हैं। हर बार आयकर विवरण का एक नया फार्म जारी कर दिया जाता है। कभी कभार कर की दरों में कुछ अन्तर कर दिया जाता है। कुछ बेहद ना काम आ सकने वाली चीजों के करों पर कुछ बेहद मामूली सी कमी कर दी जाती है जो इतनी कम होती है कि आम उपभोक्ता तक उसका कोई लाभ नहीं पहुंच पाता है, वो जो दाम पहले चुका रहा होता है अब भी वही दाम चुकाता है। वहीं सेवा कर, बिक्री कर, उत्पाद कर  और उप कर जैसे ना ना प्रकार के करों के मकड़जाल में कहीं चुपके से कुछ कुछ कर बढ़ा दिए जाते हैं, जिनके बारे में आम आदमी को भी पता नहीं होता पर, जब वो बाजार जाता है तो पाता है कि बजट के बाद करीब करीब सारे उत्पादों के दामों में कुछ न कुछ उछाल आ ही जाता है। और ऐसा भी नहीं है कि सरकार इन करों को बढ़ाने के लिए बजट का ही इंतजार कर रही होती है, साल में कई बार सरकार जब चाहे तब इन करों में से किसी की भी बढ़ोतरी करने को सक्षम होती है। कहने को बजट एक ऐसा वित्त विधेयक है जो संसद की अनुमति से सरकार को सरकारी पैसे को खर्च करने का अधिकार देता है। पर सरकार इसे भी पूरी तरह से लागू नहीं कर पाती। अब तक सैकड़ों ऐसी बजट घोषणाएं हैं जो पूरा होने के इन्तजार में ऩए बजट के आने के बाद कालातीत हो चुकी हैं। यानी सरकार पर बजट घोषणाओं को पूरा करने की नैतिक बाध्यता तो है पर वह हकीकत में ऐसा करती है या नहीं इसे लेकर भी बहुत चिंता समाज में नहीं है। कुल मिला कर कहूं तो बजट ऐसी बला है जो आम आदमी का बजट बनाती नहीं बस बिगाड़ती ही बिगाड़ती है.... देखते हैं अब अरूण जेटली जी दूसरे बजट में आम आदमी के इस बजट का क्या हाल करते हैं...।

1 comment:

mukesh bhardwaj said...

एक दम सही बात है