वित्त मंत्री अरूण जेटली ने अपना तीसरा बजट पेश कर दिया और कुल मिला कर जो तस्वीर सामने उभरी है वो भविष्य की तस्वीर है। यह बजट भी मोदी सरकार के अब तक काम करने के तरीके को आगे बढ़ाता हुआ भविष्य की सुनहरी तस्वीर खींचता है। हालांकि आयकर सीमा में कोई बदलाव नहीं हुआ पर सेवा कर पर कृषि कल्याण कर लगा कर व्यक्ति के आम जीवन को और अधिक महंगा बना दिया गया है। महंगी कारों को और महंगा किया है। सस्ती चीजों की सूची अभी नहीं आई है। बीपीएल परिवारों को गैस कनेक्शन अच्छी योजना है पर गरीबों को कनेक्शन देने में कागजात की जो मूलभूत समस्या आती है उसे कैसे दूर करेंगे? कृषि और किसानों की बहुत बात की गई है और सपना दिखाया गया है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी। यह अच्छी बात है, पर इसे अमली जामा भी पहनाना होगा। मोदी सरकार की जवाबदेही तो 2019 तक की ही है। यानी यह गेंद अगली सरकार के पाले में डाली गई है। नए कर्मचारियों के लिए ईपीएफ की सरकारी हिस्सेदारी काबिलेतारीफ है। कालेधन का मुद्दा मोदी सरकार की प्राथमिकता में रहा है और इसके लिए सरकार ने एक बार फिर एक कदम उठाया है घरेलु टैक्स एमनेस्टी योजना के रूप में जिस पर 45 प्रतिशत का टैक्स देने के बाद काला धन सफेद हो जाएगा। उम्मीद करते हैं काला धन के जमाखोर बड़ी संख्या में इसका फायदा उठाएंगे। बाकि बाते सैद्धांतिक हैं और हर बजट में होती हैं।
Monday, February 29, 2016
Sunday, February 28, 2016
लोकतंत्र या कर तंत्र, आखिर budget हमें क्या बनाता जा रहा है?

उत्पाद से कहीं ज्यादा कर राशि के रूप में चुकाएंगे। फिर जब आप उस कार को सड़क पर चलाएंगे तो आपको कई जगह टोल टैक्स देना होगा। इतना ही नहीं। कार को जब आप कहीं पार्क करेंगे तो आपको पार्किंग भी देनी होगी यह पार्किंग भी कहीं न कहीं सरकार को राजस्व लाभ देती है। इस सबके बाद आता है सेवा कर। यह सेवा कर आपको हर तरह की सेवा लेने पर देना होता है। मोटा मोटा समझिए तो मोबाइल का फोन बिल, बाहर किसी रेस्टोरेंट में खान- पान और जितना कितना क्या क्या। मैंने एक उत्सुकतावश नेट पर सर्च किया कि भारत में कितने तरह के कर लागू होते हैं तो एक प्रतिष्ठित बिजनेस अखबार की वेबसाइट ने डायरेक्ट टैक्स की श्रेणी में बैंकिंग कैश ट्रांजेक्शन टैक्स, कॉरपोरेट टैक्स, कैपिटल गेन्स टैक्स,डबल टैक्स अवॉइडेंस ट्रीटी, फ्रिंज बेनिफिट टैक्स, सिक्युरिटी ट्रांजेक्शन टैक्स, पर्सनल इन्कम टैक्स, टैक्स इन्सेंटिव जैसे करों और इनडायरेक्ट टैक्स की श्रेणी में एंटी डंपिंग ड्यूटी, कस्टम ड्यूटी, एक्साइज ड्यूटी, सर्विस टैक्स, वैल्यू एडेड टैक्स (वैट) और इनके अलावा भी कई सारे टैक्स का जिक्र पाया। मैं चूंकि करों के इस गड़बड़झाले को ज्यादा नहीं समझता पर जितना समझा वो यह है कि अभी तक बस जिंदा रहने और सांस लेने पर कर नहीं लगा है। और जो एक बात समझ में आई वो यह कि ये मुआ बजट ही है जो एक नया टैक्स हम पर लाद जाता है। वित्तमंत्री जी बहुत सुहाने भाषण के बीच धीरे से एक लाइन में किसी नए टैक्स की घोषणा कर जाते हैं। दरअसल ऐसा शायद इसलिए होता है कि जो मौजूदा टैक्स लागू होते हैं उन्हें ही कई रसूखदार लोग ठीक प्रकार से जमा नहीं करवाते वहीं दूसरी तरफ सरकार भी अनुत्पादक कार्यों में अपने व्यय को लगातार बढ़ाती जा रही है। मेरा तो बस इतना सा अनुरोध है वित्तमंत्री जी कृपया कर नहीं चुकाने वालों का बोझ आप आम आदमी पर मत लादिए। ये इतने सारे करों का झंझट हटा कर बस केवल एक या दो ही तरह के कर रखें जो साल में एक बार चुका दिए जाएं। अन्यथा मेरे जैसा निरीह प्राणी तो इस लोक तंत्र को कर तंत्र के रूप में ही देखने लगेगा। और मुझ जैसे आम आदमी का सबसे बड़ा डर ये मुआ बजट ही होगा। जैसे कि मुझे आज यह डर लग रहा है कि कल जब वित्त मंत्री जी लोकसभा में बजट पेश करेंगे तो देश की आर्थिक हालत सुधारने के लिए किसी कड़वी दवा के रूप में कोई नया कर न लाद जाएं। भगवान करे ऐसा न हो। मेरी आप से गुजारिश है कि आप भी यही दुआ करें।
Saturday, February 27, 2016
बजट से क्या वाकई बनता बिगड़ता है आम आदमी का बजट? Budget For common Man?
लीजिए, फिर आ गए हैं हम एक सालाना रस्मों रवायतों के और पड़ाव पर। पड़ाव यानी बजट। हर साल फरवरी माह के आखिरी दिन यह मौका आता है जब देश के वित्त मंत्री देश के अगले वित्त वर्ष का बजट पेश करते हैं। मीडिया में पिछले 17 सालों में लगातार किसी न किसी रूप में इस बजट उत्सव का अंग रहा हूं। तो कह सकता हूं कि हर बार एक सी उम्मीदें लिए बजट पर निगाहें टिकी रहती हैं। हर बार बहुत सारी पुरानी योजनाओं को नए लबादे में, नए नामों के साथ पेश होता देखता आया हूँ। और उन घोषणाओं में बहुत कम को हकीकत में धरातल पर उतरते भी देखा है। हर बार बजट पेश होने के साथ ही पक्ष के लोगों की शाबाशी औऱ प्रतिपक्ष की कमियों भरी त्वरित प्रतिक्रिया से भी दो चार होता रहा हूं। पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह बजट सही मायनों में आम आदमी के लिए कितना असरकारक होता है? कोई कोई बजट होता है जो वास्तव में पूरे देश की दिशा ही बदल देता है, जैसा अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने 1991 में जब अपना पहला बजट पेश किया था, तब उन्होंने आज के भारत की तस्वीर रखी थी। उदारवाद की उस लहर ने हमारी हर युवा पीढ़ी को नए सपने दिए। पर अब कई सालों से जो बजट भाषण सुनाई देते आ रहे हैं वो महज शब्दजाल और पिछली सरकार के कामकाज से अपने कामकाज को बेहतर बताने से ज्यादा कुछ होते नहीं हैं। हर बार आयकर विवरण का एक नया फार्म जारी कर दिया जाता है। कभी कभार कर की दरों में कुछ अन्तर कर दिया जाता है। कुछ बेहद ना काम आ सकने वाली चीजों के करों पर कुछ बेहद मामूली सी कमी कर दी जाती है जो इतनी कम होती है कि आम उपभोक्ता तक उसका कोई लाभ नहीं पहुंच पाता है, वो जो दाम पहले चुका रहा होता है अब भी वही दाम चुकाता है। वहीं सेवा कर, बिक्री कर, उत्पाद कर और उप कर जैसे ना ना प्रकार के करों के मकड़जाल में कहीं चुपके से कुछ कुछ कर बढ़ा दिए जाते हैं, जिनके बारे में आम आदमी को भी पता नहीं होता पर, जब वो बाजार जाता है तो पाता है कि बजट के बाद करीब करीब सारे उत्पादों के दामों में कुछ न कुछ उछाल आ ही जाता है। और ऐसा भी नहीं है कि सरकार इन करों को बढ़ाने के लिए बजट का ही इंतजार कर रही होती है, साल में कई बार सरकार जब चाहे तब इन करों में से किसी की भी बढ़ोतरी करने को सक्षम होती है। कहने को बजट एक ऐसा वित्त विधेयक है जो संसद की अनुमति से सरकार को सरकारी पैसे को खर्च करने का अधिकार देता है। पर सरकार इसे भी पूरी तरह से लागू नहीं कर पाती। अब तक सैकड़ों ऐसी बजट घोषणाएं हैं जो पूरा होने के इन्तजार में ऩए बजट के आने के बाद कालातीत हो चुकी हैं। यानी सरकार पर बजट घोषणाओं को पूरा करने की नैतिक बाध्यता तो है पर वह हकीकत में ऐसा करती है या नहीं इसे लेकर भी बहुत चिंता समाज में नहीं है। कुल मिला कर कहूं तो बजट ऐसी बला है जो आम आदमी का बजट बनाती नहीं बस बिगाड़ती ही बिगाड़ती है.... देखते हैं अब अरूण जेटली जी दूसरे बजट में आम आदमी के इस बजट का क्या हाल करते हैं...।
Friday, February 26, 2016
शीशे के घर वाला मीडिया
इक रहें ईर
एक रहेंन बीर
एक रहें फत्ते
एक रहें हम
ईर कहेंन चलो लकड़ी काट आई
बीर कहेंन चलो लकड़ी काट आई
फत्ते कहेंन चलो लकड़ी ड़ी काट आई
हम कहें चलो, हमहू लकड़ी काट आई।
ईर काटें ईर लकड़ी
बीर काटें बीर लकड़ी
फत्ते काटें तीन लकड़ी
हम काटा करिलिया ।
यह पंक्तियाँ हैं हरिवंश राय बच्चन की मशहूर कविता की मुझे याद इसलिए आ गई क्योंकि ये देखादेखी का माहौल है ईर बीर फत्ते बहुत हो गए हैं। हर कोई लकड़ी काटने में जुटा है नतीजा भले ही करिलिया ही क्यों ना हो। अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बहुत बात हुई। कोई कुछ बोला तो किसी ने कुछ कहा। अपने राम को ज्यादा कुछ समझ नहीं आया। सही कहूं तो हमें तो यही समझ नहीं आया कि आखिर इतना हड़कंप मचा काहे। पर जो हो इस पूरे मामले में सबका ठेका लेने वाले हमारे मीडिया तंत्र के खेमों की खेमेबंदी जरूर खुल कर सामने आ गई। हालात ये हो गए कि मीडिया ने अपने प्रतिद्वंद्वी की कलई न खोलने के अलिखित नियम की धज्जियां उड़ा दीं। इस कलई खोल अभियान ने स्वयं उनकी भी कलई खोल दी। टेप के आधार पर देश के जानने की चाह का हवाला देने वाले की दुकान उठाई भारत आजतक का दावा करने वाले ने तो टीवी की चिल्ल पौं से परे शांत अंदाज में अपना एजेंडा बढ़ाने वाले ने टीवी के पर्दे को रेडियो बना कर दूसरे प्रस्तोताओं की आवाज के अंशों को अपनी विचारधारा के तर्कों के पक्ष में पेश किया। तो हॉट सीट पर एक हॉट अभिनेत्री का सुपर हॉट इंटरव्यू करने के चक्कर में खुद की किरकिरी करवा चुके प्रस्तोता ने मीडिया पर न्यूज को पीछे कर अपना निजी एजेंडा लागू करने की रिपोर्ट पेश कर दी।
अब मन ही मन हंसता मेरा मन राजकुमार का वह मशहूर डायलॉग याद कर ठहाका लगाने को मचलने लगता है कि
..... जिनके घर शीशे के होते हैं वे दूसरे के घरों पे पत्थर नहीं फेंका करते...
समझे साब....
एक रहेंन बीर
एक रहें फत्ते
एक रहें हम
ईर कहेंन चलो लकड़ी काट आई
बीर कहेंन चलो लकड़ी काट आई
फत्ते कहेंन चलो लकड़ी ड़ी काट आई
हम कहें चलो, हमहू लकड़ी काट आई।
ईर काटें ईर लकड़ी
बीर काटें बीर लकड़ी
फत्ते काटें तीन लकड़ी
हम काटा करिलिया ।
यह पंक्तियाँ हैं हरिवंश राय बच्चन की मशहूर कविता की मुझे याद इसलिए आ गई क्योंकि ये देखादेखी का माहौल है ईर बीर फत्ते बहुत हो गए हैं। हर कोई लकड़ी काटने में जुटा है नतीजा भले ही करिलिया ही क्यों ना हो। अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बहुत बात हुई। कोई कुछ बोला तो किसी ने कुछ कहा। अपने राम को ज्यादा कुछ समझ नहीं आया। सही कहूं तो हमें तो यही समझ नहीं आया कि आखिर इतना हड़कंप मचा काहे। पर जो हो इस पूरे मामले में सबका ठेका लेने वाले हमारे मीडिया तंत्र के खेमों की खेमेबंदी जरूर खुल कर सामने आ गई। हालात ये हो गए कि मीडिया ने अपने प्रतिद्वंद्वी की कलई न खोलने के अलिखित नियम की धज्जियां उड़ा दीं। इस कलई खोल अभियान ने स्वयं उनकी भी कलई खोल दी। टेप के आधार पर देश के जानने की चाह का हवाला देने वाले की दुकान उठाई भारत आजतक का दावा करने वाले ने तो टीवी की चिल्ल पौं से परे शांत अंदाज में अपना एजेंडा बढ़ाने वाले ने टीवी के पर्दे को रेडियो बना कर दूसरे प्रस्तोताओं की आवाज के अंशों को अपनी विचारधारा के तर्कों के पक्ष में पेश किया। तो हॉट सीट पर एक हॉट अभिनेत्री का सुपर हॉट इंटरव्यू करने के चक्कर में खुद की किरकिरी करवा चुके प्रस्तोता ने मीडिया पर न्यूज को पीछे कर अपना निजी एजेंडा लागू करने की रिपोर्ट पेश कर दी।
अब मन ही मन हंसता मेरा मन राजकुमार का वह मशहूर डायलॉग याद कर ठहाका लगाने को मचलने लगता है कि
..... जिनके घर शीशे के होते हैं वे दूसरे के घरों पे पत्थर नहीं फेंका करते...
समझे साब....
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