11 मार्च। कहने को भले ही
यह महज कलेण्डर की एक तारीख भर हो। लेकिन यह तारीख भारतीय राजनीति के इतिहास में
एक बड़ी तारीख साबित होने जा रही है। यह नोटबंदी के कड़े फैसले के बाद नरेन्द्र
मोदी सरकार के पहले लिटमस टेस्ट के नतीजे की तारीख है। 26 मई 2014 को जब केन्द्र
में नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में कामकाज संभाला तो उसके बाद से यह
यात्रा का एक करीब करीब मध्य पड़ाव है। और इस पड़ाव पर मोदी सरकार के कामकाज, उनके
फैसलों पर देश का वह एक बड़ा राज्य अपना फैसला सुनाएगा जिसने 2014 में नरेन्द्र
मोदी को झोली भर भर के अपना आशीर्वाद दिया था। इतना दिया कि मोदी को और किसी के
आशीर्वाद की फिर जरूरत ही नहीं रही। पिछले पौने तीन साल में नरेन्द्र मोदी सरकार
ने कई काम करने के दावे किए। देश – विदेश में कई रैलियां कीं। सर्जिकल स्ट्राइक
जैसी कड़ी कार्रवाई की तो नोटबंदी जैसा कड़ा फैसला लिया जिसने पूरे देश को कतार
में खड़ा कर दिया पर राजनीतिक दलों को अलग कर दें तो आम आदमी ने मोदी के इस फैसले
को कोसा नहीं, बस तकलीफ जरूर बयान की। लेकिन इस ढाई साल में मोदी सरकार के लिए
पहले दिल्ली, जम्मू कश्मीर फिर महाराष्ट्र-गुजरात और बिहार के चुनाव ऐसे रहे जो
सरकार की गति को अटकाते रहे। दिल्ली और बिहार के नतीजों ने मोदी को अपने फैसलों,
रीति-नीति पर फिर से सोचने पर भी मजबूर कर दिया। इसी बीच नरेन्द्र मोदी सरकार को
यह महसूस हुआ कि ये बार बार के चुनाव केन्द्र सरकार को खामख्वाह छोटे-मोटे जनमत
संग्रहों जैसे हालात में डाल देते हैं। प्रचंड बहुमत की सरकार को भी एक एक राज्य
के नतीजे का मुंह ताकना पड़ता है। और ऐसे में चुनाव सुधार को लेकर सतत चलने वाली
बहस फिर से केन्द्र सरकार के जेहन में ताजा हो गई। सुरक्षा, विदेश और आर्थिक
मामलों में कड़े फैसले लेने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार को अब 11 मार्च को उत्तर
प्रदेश के नतीजों का इंतजार है। ये नतीजे भारत में चुनाव सुधार की नई इबारत
लिखेंगे। यदि भाजपा को उत्तर प्रदेश में जीत मिल जाती है तो देश को जल्द ही
मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार रहना होगा। और यह मध्यावधि चुनाव होंगे चुनाव सुधार
के लिए। अगले साल जनवरी में गुजरात और हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं का कार्यकाल
पूरा होने जा रहा है। जिसके बाद मार्च 2018 में मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा की
विधानसभाओं का कार्यकाल पूरा होगा। मई 2018 में कर्नाटक का कार्यकाल पूरा होगा
वहीं दिसम्बर 2018 में मिजोरम का तो जनवरी 2019 में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश,
राजस्थान का कार्यकाल पूरा होगा। मई में सिक्किम का और जून 2019 में तेलंगाना,
आंध्रप्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, उड़ीसा का कार्यकाल पूरा होगा। और मई 2019 को ही लोकसभा
का कार्यकाल पूरा होगा। अब उत्तर प्रदेश के चुनाव से निपटने के बाद जो इसी साल जो
चुनावी कवायद शुरु हो जाएगी वह होगी गुजरात औऱ हिमाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड और
त्रिपुरा की। और इनमें गुजरात मोदी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न रहेगा। यानी उत्तर
प्रदेश के बाद बमुश्किल 3-4 महीने काम करने के बाद फिर से मोदी सरकार का इलेक्शन
मोड शुरू हो जाएगा। फिर बारी होगी कर्नाटक की। और फिर उत्तरप्रदेश के बाद सबसे
महत्वपूर्ण हिन्दी हार्टलैंड कहे जाने वाले छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश और राजस्थान की
बारी आएगी। ये तीनों राज्य भी मोदी के लिए या यूं कहें कि भाजपा के लिए बहुत
ज्यादा अहम हैं क्योंकि इन तीनों राज्यों में भाजपा की सरकार है। इन राज्यों के
नतीजों के तुरन्त बाद लोकसभा के चुनाव होंगे और चार अन्य राज्यों यानी तेलंगाना,
आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और अरूणाचल प्रदेश भी इसी के साथ होंगे। तो राजस्थान,
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश के नतीजों का सीधा असर लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा। एक तरीके से
लोकसभा से पहले का सेमीफाइनल होगा। और गुजरात का चुनाव प्री क्वार्टर फाइनल तो
कर्नाटक को क्वार्टरफाइनल की संज्ञा दी जा सकती है।
मोदी सरकार के एक धड़े में
यह विचार बहुत तेजी से जोर पकड़ रहा है कि ये बार बार के लीग मैचों, प्री क्वार्टर
फाइनल, क्वार्टर फाइनल और सेमीफाइनल का
चक्कर ही खत्म कर दिया जाए। और इसके लिए चुनाव सुधारों का एक बड़ा और कड़ा फैसला
ले लिया जाए। लेकिन यह फैसला नोटबंदी पर उत्तर प्रदेश की जनता के फैसले पर टिका होगा।
यदि उत्तर प्रदेश की जनता ने किसी भी तरह से कमल खिला दिया और वहां भाजपा सरकार
बना पायी तो तय मानिए कि देश जल्द ही एक ऐसे महाचुनाव में उतरेगा जिसमें लोकसभा के
साथ ही करीब 9 विधानसभाओं के चुनाव हो जाएं। उत्तर प्रदेश ने ज्यादा ही झोली भर दी
तो विधानसभाओं की संख्या 15 भी हो सकती है। मतदाता एक ही बूथ में दो मशीनों पर
लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनाव के लिए बटन दबा कर आएगा। हालांकि अभी मोदी
सरकार को यह तय करना है कि वो इसके लिए कौन सा समय चुनेगी। सबसे समीचीन जो समय
मोदी सरकार के सलाहकार बता रहे हैं वो है दिसम्बर 2018 का। इसके लिए लोकसभा को छह
माह पहले भंग करना होगा। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़, मिजोरम के चुनाव इसी
समय होने हैं। लोकसभा के साथ ही तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और अरूणाचल के
चुनाव भी इन्हीं के साथ करवाए जा सकते हैं।
कुछ राजनीतिक पंडितों का
तर्क है कि यदि उत्तर प्रदेश में जीत के आधार पर ही एक साथ चुनाव करवाए जाने हैं
तो दिसम्बर 2018 और मार्च 2017 में बहुत फासला है। उत्तर प्रदेश की जीत सीधे सीधे
नोटबंदी की जीत होगी और करीब पौने दो साल तक नोटबंदी की जीत से बने माहौल बनाए रखना
चुनौती होगा। ऐसे में गुजरात चुनाव को ही आधार बना कर आगे बढ़ा जाए। पर ऐसे में
बहुत सी विधानसभाओं को समय से पहले ही चुनाव में जाना पड़ेगा। लोकसभा का कार्यकाल
भी करीब डेढ़ साल कम हो जाएगा। पर चुनाव सुधार को एक त्याग के रूप में दिखाने के
लिए मोदी सरकार यह कड़ा फैसला भी ले सकती है। लेकिन ध्यान रखने वाली बात यह है कि
यह सारा अगर मगर उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजे पर टिका है। यदि उत्तर प्रदेश के
नतीजे मोदी सरकार के खिलाफ गए तो सरकार को वैसे ही अपने तेवर बदल कर बैकफुट पर आना
होगा और फिर कम से कम चुनाव सुधारों को लेकर कोई बड़े कदम की तत्काल तो उम्मीद
नहीं की जा सकेगी।
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