Tuesday, October 7, 2014

बयानबाजियों से गर्म हो रहा महाराष्ट्र


 महाराष्ट्र का चुनाव दिन ब दिन दिलचस्प होता जा रहा है। गठबंधन के टूटने का दंश शिवसेना को कुछ ज्यादा ही साल रहा है या मामला कुछ और ही है। दरअसल चुनाव से बहुत पहले ही महाराष्ट्र की तस्वीर बहुत साफ हो गई थी। उस साफ तस्वीर ने ही शिवसेना- भाजपा को आमने सामने ला खड़ा किया और साफ तस्वीर धुंधली हो गई। वो साफ तस्वीर जो कह रही थी उसका संदेश था कि कांग्रेस एनसीपी की सरकार एंटी एन्कम्बैंसी और मोदी लहर के चलते दरवाजा देखेगी और प्रदेश में भाजपा-शिवसेना की सरकार बनेगी। अब शुरू होती है इस साफ तस्वीर के धुंधला जाने की कहानी। भाजपा और शिवसेना में पिछले सालों से जो गठबंधन चल रहा है उसमें एक शर्त साफ होती है, और वह यह कि जिसके भी ज्यादा सदस्य चुन कर आएंगे, उसी पार्टी का व्यक्ति मुख्यमंत्री या नेता प्रतिपक्ष होगा। यही फार्मुला निकाय चुनावों में भी चलता रहा है। तो इस बार जब सरकार साफ साफ आती नजर आ रही थी तब सबसे बड़ा सवाल जो मुंबई के मातोश्री और दिल्ली के 11, अशोक रोड में चक्कर काट रहा था वह था कि कौन बनेगा मुख्यमंत्री। बाला साहब ठाकरे के जमाने की शिवसेना में इस सवाल को कभी उठाया नहीं जाता था। जिसे बाला साहब चाहते वह मुख्यमंत्री हो जाता। लेकिन सत्ता की डोर अन्ततः बाला साहब के ही हाथ में रहती थी। यदि भाजपा का मुख्यमंत्री होता तब भी डोर अन्ततः बाला साहब के ही हाथ में रहती। पर बाला साहब के बाद के युग में हालात बदले हुए हैं। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को अग्निपरीक्षा से गुजरना है। उद्धव का कद शिवसेना में तो निर्विवाद है पर भाजपा के नेता उनको बाला साहब की जगह नहीं देखते। ऐसे में शिवसेना किसी भी स्थिति में यह सुनिश्चित कर देना चाहती थी कि सरकार आने की स्थिति में उसी का मुख्यमंत्री हो। इसके लिए उसने बकायदा उद्घव ठाकरे का नाम भी चला दिया।  उद्घव ने भी कह दिया कि वक्त आने पर वे जिम्मेदारी से भागेंगे नहीं। यानी शिवसेना ने अपना दांव खेल दिया। पर भाजपा के सामने संकट की स्थिति बन गई।भाजपा के पास प्रदेश इकाई में उद्धव के कद का नेता नहीं है। जो हैं वो केन्द्र में कोई न कोई जिम्मेदारी निभा रहे हैं। ऐसे में उद्धव के मुकाबले वो कोई चेहरे घोषित करने से बच रही थी।  परम्परा के अनुसार तो जिसके ज्यादा विधायक उसका मुख्यमंत्री होता, पर उद्धव के घोषणा करने से ऐसा संदेश जाने लगा था कि भाजपा ने भी उद्धव को गठबंधन का मुख्यमंत्री स्वीकार कर लिया है। और चुनाव के बाद संख्या बल की बात करना महज एक औपचारिकता भर रह जाता। महाराष्ट्र में वैसे भी शिवसेना भाजपा की तुलना में कहीं अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही थी। ऐसे में संभवतया उसके विधायक ज्यादा हो सकते थे, पर भाजपा का सफलता का प्रतिशत ज्यादा था, और भाजपा पहले भी सेना की तुलना में ज्यादा विधायक जितवा कर ला चुकी है। मुख्यमंत्री पद की दौड़ को खुला रखने के लिए भाजपा ने ज्यादा सीटों पर लड़ने की मांग की। जाहिर है इससे शिवसेना की सीटों में कमी आती और अन्ततः इसका असर चुनाव के बाद शिवसेना के विधायकों की संख्या पर दिखाई देता। ज्यादा विधायकों की स्थिति में भाजपा स्वाभाविक तौर पर मुख्यमंत्री पद का दावा करती और उद्धव का दावा कमजोर पड़ जाता। मुख्यमंत्री पद को लेकर जब संकट ज्यादा गहराना भाजपा के रणनीतिकारों को  अपने लिए मुफीद ही लगा। उनकी गणित में वोटों का बिखराव ही भाजपा के लिए फायदेमंद होना था। तो इसी रणनीति पर चल रही भाजपा गठबंधन के टूटने में एक तीर से दो निशाने साधते दिख रही है। वोटों का बिखराव न केवल उसकी संभावनाओं को बढ़ाता है बल्कि चुनाव के बाद उसकी अपनी सरकार की स्थिति भी बनती है। शिवसेना को यह स्थिति पूरी तरह नागवार गुजर रही है और इसीलिए दिनोंदिन उसके तेवर तीखे होते जा रहे हैं। शिवसेना के निशाने पर अब एनसीपी कांग्रेस की जगह भाजपा है। ज्यों ज्यों चुनावी चौसर बिछ रही प्रचार में जुटे भाजपा नेता खासे उत्साहित होते जा रहे हैं। एक उत्साहित भाजपा नेता की अपनी गणित के मुताबिक पार्टी वहां 140 सीटों को जीतने की स्थिति में पहुंच चुकी है। यदि ऐसा होता है तो शिवसेना के लिए यह एक तरह का झटका ही होगा। हालांकि उन्हीं भाजपा नेता का यह भी कहना है कि महाराष्ट्र की सरकार शिवसेना और भाजपा मिल कर ही चलाएंगे। हो सकता है चुनाव के बाद भाजपा शिवसेना को ऐसा बड़ा तोहफा भी दे दे जिसकी राजनीतिक पंडितों तक ने उम्मीद नहीं की हो।

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