और एक सीट भी कौन सी? भुसावल। भुसावल वह सीट थी जो सालों से शिवसेना के खाते में चलती आ रही है। पिछली बार इस सीट पर एनसीपी ने जीत हासिल की थी और शिवसेना का उम्मीदवार महज तीन हजार वोटों से हारा था। उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों के परिणामों से चहुं ओर चुनावी रणनीति के महारथी साबित हो चुके उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रीति नीति पर चलते हुए महाराष्ट्र में भी पार्टी ने जब विरोधी दलों में सेंध लगा कर उनके नेताओं को पार्टी में शामिल करना शुरू किया तो भुसावल के विधायक और पूर्व मंत्री एनसीपी के संजय सावकर को भी भाजपा की सदस्यता दिलवा दी। इसी के साथ पार्टी ने इस सीट को शिवसेना से लेकर यहां अपना प्रत्याशी उतारने की कवायद शुरू कर दी। शिवसेना इस पर राजी नहीं हुई और अन्ततः गठबंधन टूटने का यही एक दिखता सा कारण बना। हालांकि घोषणा सीटों की संख्या के बंटवारे पर सहमति नहीं होने को आधार बना कर की गई।
गठबंधन टूटने की यह घटना क्या वाकई इतनी सरल है, जितनी यह दिख रही है? क्या वाकई भाजपा का शीर्ष नेतृत्व, जिसमें संघ की राय को भी शामिल मानें, महाराष्ट्र इकाई के नेताओं के तर्कों को इस कदर मानने पर उतर आया है जिसमें वह उद्धव और आदित्य ठाकरे की भावुक अपीलों, हमने 272 का साथ दिया अब आप 151 का साथ दो, को ही नकार दे? क्या नरेन्द्र मोदी गुजरात दंगो और उसके बाद देश भर में केवल शिवसेना की ओर से मिले समर्थन का इस तरह का सिला दे सकते हैं?
इन सब सवालों का जवाब कल खुद मोदी ने दे दिया है। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे शिवसेना के खिलाफ नहीं बोलेंगे। क्यों नहीं बोलेेंगे? क्योंकि यह उनकी बाला साहेब ठाकरे के प्रति श्रद्धांजलि है। यानी वह नेता जिसकी बात आज देश में सबसे ज्यादा सुनी और मानी जा रही है उस महाराष्ट्र के चुनावों में जिसमें उनकी पार्टी पिछले 15 सालों से सत्ता से दूर है, मैदान में विरोधी बन कर खम ठोक रही एक पार्टी के खिलाफ कुछ नहीं बोलेगा।
शायद मोदी के इस बयान ने सारी उलझी गुत्थियों को सुलझा दिया होगा। नहीं सुलझाया तो जरा एक बार इस नजरिए से सोचिए।
उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा ने प्रदर्शन किया क्या उसकी किसी ने उम्मीद की थी? नहीं ना। फिर कैसे संभव हुआ। मोदी लहर से? परिणाम के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने लड़ रही पार्टियों ने जिस शख्स को सबसे ज्यादा कोसा वो कौन था? वो नरेन्द्र मोदी नहीं थे। वो शख्स थे अमित शाह। क्यों? कहते हैं उन्होंने सीट दर सीट वोटों का इस तरह से बिखराव और ध्रुवीकरण किया कि ईवीएम के बटनों ने जिन्न बाहर निकाल दिया।
बस यही वो कड़ी है जिसने पच्चीस सालों के गठबंधन को तोड़ दिया। टूटे गठबंधन के बावजूद शिवसेना केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल है। नरेन्द्र मोदी शिवसेना के खिलाफ कुछ नहीं बोलेंगे। और चुनाव बाद के गठबंधन से इनकार नहीं किया जा रहा।
दरअसल अमित शाह ने जब महाराष्ट्र की सीटों का गहन विश्लेषण किया तो उन्हें समझ आया कि कई सीटों पर मतों का ध्रुवीकरण इस कदर गहराया हुआ है कि सीधे मुकाबले में भाजपा-शिवसेना उन सीटों को कभी नहीं जीत सकती। इन सीटों को बहुकोणिय मुकाबला बनाने के बाद ही जीता जा सकता है। बस इसके बाद शुरू हो गई मुकाबले को बहुकोणिय बनाने की रणनीति। शिवसेना और भाजपा एक तरह से दोस्ताना मैच खेल रही हैं। जहां शिवसेना का उम्मीदवार भारी है, वहां भाजपा का उम्मीदवार इस तरह से खड़ा है कि वह शिवसेना के विरोध कांग्रेस या एनसीपी के प्रत्याशी के वोट बैंक में सेंध लगा दे। और जहां भाजपा का उम्मीदवार मजबूत है वहां विपक्षी के वोटों में सेंधमारी का काम शिवसेना का प्रत्याशी करेगा। अब यह रणनीति कितनी सफल रहती है और कहीं इस रणनीति की एक खिलाड़ी शरद पवार की एनसीपी भी तो नहीं है, यह तो परिणामों के बाद ही सामने आएगा। पर एक बात तय है कि ये चुनाव अमित शाह के राजनीतिक कौशल को कसौटी पर कस रहे हैं। यदि यहां चुनाव के बाद भाजपा- शिवसेना की सरकार जबरदस्त बहुमत के साथ बने तो हिन्दुस्तान जम्मू कश्मीर के चुनाव परिणामों में भी ऐसा अभूतपूर्व बदलाव देखने की उम्मीद कर सकता है जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की होगी।
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