भारतीय जनता पार्टी की राजस्थान इकाई में इन दिनो चल रही उठापठक को लेकर कल फेस बुक पर एक परिचित की टिप्पणी पढ़ने को मिली... वाकई भारतीय जनता पार्टी, पार्टी विद अ डिफरेंस...। दरअसल मामला राजस्थान में विधानसभा और लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार के साथ शुरू हुआ और सुस्त नेतृत्व के कारण इतना बिगड़ा। भाजपा विधानसभा चुनाव में राजस्थान हारने जा रही है यह पार्टी में सभी को मालूम था। सभी से मतलब एक सामान्य कार्यकर्ता से लेकर पार्टी के राजनीतिक पंडितों तक सभी को। हर कोई जानता था कि चुनाव बहुत आसान नहीं होगा। लेकिन मोदी फार्मुला चलाने औऱ तीन खेमों में बंटी पार्टी ने टिकटों की आपसी बंदरबांट के बाद चुपचाप चुनाव लड़ा और सभी क्षत्रप अजीबो गरीब अहम की लड़ाई में पार्टी को दांव पर लगता देखते रहे। हार हुई, लेकिन लोकसभा चुनाव में कोई सीख नहीं लेने की कसम खाते हुए उसी तिकड़ी के डिफरेंसेज के साथ राजस्थान में जबरदस्त नुकसान झेला गया। अब हार की समीक्षा में यह तय किया गया की सारे घर के बदल डालो। तो तीन में से दो ने अपना रास्ता पकड़ा लेकिन तीसरे को अपनी ताकत का गुमान हो गया। और नई पार्टी तक बनाने की बात हो गई। पता नहीं क्या सदबुद्धि मिली की बाद में कहा जाने लगा कि आदेश सिरमाथे। पर इस सबके बीच उन परिचित की उक्त व्यग्योक्ति सही प्रतीत होती दिखी।
दरअसल भाजपा पार्टी विद ए डिफरेंस तभी तक है जब यह आरएसएस की मूल विचारधारा और निरपेक्षता के सिद्धान्त पर काम करती रहे। जहां भी इसमें या इसके लोगों में सत्ता का भाव विद्यमान हुआ नहीं कि वह डिफरेंस अपनी डायवसिर्टी खो देता है। मुझे पिछले दिनों ही भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता से मुलाकात की याद आती है जब उनका कहना था राजनीति में कोई घर लुटाने नहीं आता। सबको कुछ न कुछ पाने की बनने की आस होती है,,,। और यह हकीकत है इससे मुंह नहीं चुराना चाहिए। लेकिन यह सब हासिल करने के लिए जनसेवा की ही राह चुननी होती है। उनके इस कथन के बाद मुझे सालों पहले कांग्रेस के एक वरिष्ठ दिग्गज नेता से हुई मुलाकात की याद आ गई। वे उस समय विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद की दौड़ में थीं। उनका भी यही कहना था राजनीति में पद एक चार्म है और सभी उसके लिए ही काम करते हैं। उन्होने इसे महत्वकांक्षा का नाम देते हुए कहा था कि महत्वाकांक्षी होना कोई बुरी बात नहीं है। दोनों ही कथन एक से हैं ,, बस बोलने वालों का चोला अलग है। भारतीय जनता पार्टी में सत्ता के सुर बोलने वालों की तादात लगातार बढ़ रही है। यहां तक की संघ के नाम पर भी लोग सत्ता के सुख को आजमाना चाह रहे हैं। और जब लक्ष्य एक है ,, सत्ता तो शायद पार्टी या पार्टी के लोगों के डिफरेंट होने का दावा खोखला ही रहता है। अब भारतीय जनता पार्टी की हालत देख कर सवाल खड़े हो रहे हैं कि क्या ,, यह वही पार्टी है जिसे किसी विचारधारा पर आधारित पार्टी कहा जाता है। क्या एक हार किसी पार्टी को इस स्तर तक तोड़ सकती है कि संगठन गौण हो जाए। क्या वाकई में भाजपा का सालों पुराना इतिहास रहा है। ,, इन सबसे परे और सबसे बड़ा सवाल जब लक्ष्य एक है राजनीतिक पद और सत्ता प्राप्त करना तो अलग अलग दल-पार्टी का महत्व ही क्या बचता है। भारतीय जनता पार्टी की यह स्थिति केवल पार्टी ही नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र का भी कठिन समय है। यदि समय रहते भाजपा नहीं सम्भली तो यह देश का दुर्भाग्य ही होगा। एक स्तंभकार लिखते हैं आडवाणी फिर से स्वस्थ हो रहे हैं और उनके परिवार के लोग उनकी छवि को स्वच्छ बनाने में जुट गए हैं। वे लम्बे समय तक नेता प्रतिपक्ष बने रह सकते हैं। यानी आडवाणी स्वयं ही सत्ता से दूर नहीं होना चाहते। वे फिर से नेतृत्व के लिए तैयार हो रहे हैं। ऐसा होने पर वे दूसरों को कैसे दूर होने की सलाह दे पाएंगे और कैसे पार्टी में जोश जगा पाएंगे। यह भी लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही है कि कोई राजनेता अपनी हार होने पर उसे स्वीकारना नहीं चाहता और पार्टी व देश उसे सहने पर मजबूर है।
1 comment:
अच्छा विश्लेषण. मुझे लगता है कि अब वक़्त आ गया है कि भाजपा संघ के साथ अपने रिश्तों पर नज़रिया साफ कर ले. संघ तो राजनीति से दूर होने की बात कहता-कहता भाजपा को नियंत्रित करता ही है, भाजपा में भी संघ् के साथ अपने रिश्तों को लेकर खासा दुचित्तापन है. इसमें कोई शक़ नहीं कि भाजपा एक राजनीतिक दल है और ऐसे दल के सदस्यों का लक्ष्य सत्ता होती है. सवाल सिर्फ इतना है कि सत्ता पाने के लिए आप किस हद तक जाना चाहेंगे? अगर इनका आदर्श कॉग्रेस है तो फिर पार्टी विद अ डिफरेंस की बात नहीं करनी चाहिए. इधर राजस्थान में पार्टी अनुशासन की जो धज्जियां उड़ाई गई हैं, उस पर भी तो कुछ विचार होना चाहिए.
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