Saturday, March 28, 2009

अध्यक्ष जी की दिलेरी और लोकसभा का टिकट

हमें अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हो रहा था।पर चचा थे कि हंस हंस कर हमें बताए जा रहे थे।

अरे भइया, तुम नहीं मान रहे थे कि हमें लोकसभा का टिकट मिल जाएगा। देखो मिल गया।

और हम उनके दिखाए अखबार में भारत जनसहयोग पार्टी के लोकसभा उम्मीदवारों की सूची में हंगामीलाल नाम देख कर दंग रह गए थे।

चचा ये हंगामी लाल कोई और होगा। तुम्हारा राजनीति से क्या लेना देना।ये पार्टी वाले तुम्हें क्यों कर टिकट देने लग गए।

अरे मैं ही हूं भाई मानो। अच्छा तुम नहीं मानते तो मत मानो। मैं तो कल ही अपने चुनाव क्षेत्र में जा रहा हूं, प्रचार करने। वैसे यदि तुम वहां किसी को जानते हो तो बताओ। मैं तो वहां पहली बार ही जाउंगा, हालांकि मेरे लकड़दादा जिस गांव में रहते थे वह वहीं कहीं था, लेकिन मुझे तो गांव के नाम के अलावा कुछ भी नहीं पता।

अरे चचा जान पहचान का क्या वो तो पार्टी वाले होंगे न वो तो तुम्हें जानते ही होंगे।

अरे कैसी पार्टी, किसकी पार्टी। मैं तो वहां किसी पार्टी वाले को भी नहीं जानता। मैं भी उनसे पहली बार ही मिलूंगा।

अरे.. न पार्टी वाले तुम्हें जानते हैं, न तुम क्षेत्र में किसी को जानते हो, फिर कैसे वहां चुनाव लड़ने जा रहे हो? अरे तुम्हें टिकट किस ने दे दिया?

टिकट कैसे नहीं देते तुम्हें तो पता है यहां आने से पहले मैं अहमदाबाद में रहता था। अब पार्टी के अध्यक्ष जी तब अहमदाबाद आए हुए थे। उस दौरान हर कोई उन्हें अपने यहां ठहराने से बिदक रहा था। बिचारे जैसे तैसे पार्टी कार्यालय में दिन काट रहे थे। मैंने उनके बारे में अखबार में पढ़ा तो पता चला कि वो अपने ही यहां के निकले। बस मैंने कहा कि चलो यार परदेस में अपने देस का कोई मिला है तो मिल आऊं। वहां जब उनकी हालत देखी तो उन्हें अपने साथ रहने ले आया। तब कुछ दिन वो मेरे साथ रहे थे। अभी जब लोकसभा-लोकसभा सुना और देखा की कोई भी कहीं भी चुनाव लड़ रहा है। जीत रहा है। तो अपन ने भी सोचा की एक बार भाग्य आजमा लिया जाए। बैठे बैठे बोर हो रहे हैं, चल कर चुनाव ही लड़ लें। जीते तो पौ बारह, हारे तो अपने पास क्या है जो कोई ले जाएगा। सो इसी चक्कर में पिछले दिनों अध्यक्ष जी से मिल कर उन्हें पुराने दिन याद दिला दिए। पर कहना पड़ेगा ये अध्यक्ष भाईसाहब हैं दिलेर आदमी। वर्ना आजकल की दुनिया में कौन किस को याद रखता है। लेकिन उन्होंने सब याद रखते हुए टिकट दे दिया।

... सारी बात सुन कर हमें भी लगा कि चचा को चुनाव लड़ ही लेना चाहिए। क्या हुआ जो उन्हें उनके क्षेत्र में कोई नहीं जानता। क्या हुआ जो वे वहां पैराशूट से उतरेंगे। क्या हुआ जो वहां किसी कार्यकर्ता को टिकट देने की बजाय पार्टी ने उन्हें उम्मीदवार बनाया। अब तो पार्टी के लिए दरी बिछाने और उठाने वालों का फर्ज बनाता ही है कि पार्टी ने एक बार जिसे भी भेज दिया उसे जिताएं। और यदि चचा जीत गए तो अपनी तो पांच उंगुलियां घी में और सिर कढ़ाई में होगा। हम भी सांसद के खास होंगे।,, इतना सब सोचते सोचते हमारे मुंह से निकला.. हां चचा वाकई तुम्हारे अध्यक्ष जी हैं तो दिलेर आदमी....।

3 comments:

शोभा said...

हा हा हा बहुत अच्छा लिखा है।

somadri said...

अकेले अकेले कहाँ जा रहे हो? हमें साथ ले लो जहाँ जा रहो हो?


ha ha ha

abhishek said...

सोमा आपका स्वागत है.. सादर।