Thursday, January 31, 2008

सावधान मा बदौलत पधार रहे हैं...

मीडिया भी कई बार बेईमान बलम सा व्यवहार करता है, जब जिसे जिस तरह की कवरेज की जरूरत होती है तब तो करता नहीं, पर कभी बिना मांगे ही इतनी कवरेज देता है कि बस निहाल कर देता है। करोंड़ों का एडवर्टाइजिंग बजट एक ही दिन में पूरा कर देता है। कुछ यही हाल इन दिनों आशुतोष गोवारीकर का है। जब वे नहीं चाहते थे की फिल्म की ज्यादा चर्चा हो, मीडिया उनका पीछा करे तब वे जयपुर के महलों औऱ खुले मैदानों में मीडियाकर्मियों से दूरी बनाए चलते थे। लेकिन एश अभिषेक के किस्सों का दीवाना मीडिया एश की तलाश में आशुतोष की यूनिट का पीछा ही नहीं छोड़ रहा था। और अब जबकि फिल्म प्रदर्शन के लिए तैयार है, मीडिया है कि जोधा अकबर को पूछ ही नहीं रहा। लेकिन अपने आशुतोष भाई को भी लगता है किसी तगड़े पीआर मैनेजर का साथ मिल गया है। जिसने और कुछ नहीं तो जयपुर के पूर्व राजघराने के लोगों को फिल्म दिखाने की सलाह दी औऱ आशुभाई एसा कर गुजरे।बस फिर क्या था, जोधा अकबर खबरों में, राजघराने ने फिल्म को क्लीन चिट दी, अऱे भाई जैसे राजघराना अब सेंसर बोर्ड हो गया हो। मानो यदि फिल्म के निर्माण के बाद राजघराना आपत्ति करता तो आशुभाई तो फिल्म को डिब्बा बंद ही कर देते। लेकिन आप यकीन मानिए आशु भाई का टोटका चला औऱ जमकर चला। खबरिया चैनलों ने तो बड़ी सी स्टोरी कर दी। राज्य के एक राजपूत धड़े को भी इसके विरोध में खड़ा कर दिया। कोई बड़ी बात नहीं कि फिल्म आने से पहले एक दो धरने प्रदर्शन औऱ हो जाएँ तो खबर की गुणवत्ता बढ़ जाएगी। टाइम स्पेस भी ज्यादा मिल जाएगा। जोधा अकबर के फुटेज तो आशुभाई ने दे ही दिए हैं। कुल मिलाकर विवाद की उंगली थाम कर फिल्म चलाना औऱ प्रचार करना अब आशुतोष गोवारीकर को भी आ गया है। तो अब तैयार हो जाइए न्यूज बुलेटिन में एक न एक स्टोरी आपको मा बदौलत से जुड़ी मिलेगी.....

Wednesday, January 30, 2008

साहित्य के नाम पर सनसनी...

पिछले दिनों जयपुर में साहित्य के नाम पर एक जोरदार मजमा जमा, मजमा इसलिए कि यहां साहित्यकार भी थे, साहित्यप्रेमी भी थे, साहित्यचर्चा भी थी, पर निष्कर्ष नहीं थे। पहले ट्रांसलेटिंग भारत औऱ फिर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के रूप में यह जमावड़ा करीब सात दिन चला। देशी विदेशी साहित्यकारों की भीड़ में जयपुर जैसा टूरिस्ट डेस्टिनेशन जाहिर है विदेशियों के लिए ज्यादा मुफिद रहा औऱ अंग्रेजी के सत्र, साहित्य पर खूब कहकहों औऱ मानसिक विलासिता के दौर चले। पर इसका अंत कुछ अजीब रहा। चंद साहित्यकारों ने भाषा के गौरव की बात कर इस आयोजन से जुड़ीं एक प्रमुख साहित्यकार को ही निशाना बना डाला। फेस्टिवल में किस भाषा के कितने सत्र होने चाहिए, या किसे कितना समय मिलना चाहिए ये प्रश्न अलग हैं जिनका जवाब आयोजन औऱ उसके उद्देश्य के साथ केवल आयोजकों के पास ही होते हैं पर किसी छोटी सी बात को बढ़ा चढ़ा कर कहना या तिल का ताड़ बना देने से तो एसे सवालों का जवाब नहीं मिल सकता। हां, इस सारे विवाद, एक समाचार पत्र ने तो हद ही कर दी न केवल समय पर सत्र पूरा करने के आग्रह को, जो की किसी भी आयोजन में आयोजक की ओर से करना अपेक्षित होता है, अतिरंजित किया गया बल्कि प्रदेश भर के कई साहित्यकारों को ,जिन्होंने शायद इस घटना का केवल वह पक्ष देखा था जो उन्हें दिखाया गया था,भी इस सब में घसीट लिया गया। मानो किन्हीं दो लोगो को समय पर या संक्षेप में कुछ कहने के आग्रह से कोई ललकार मिल गई हो। हकीकत में अतिवादिता आयोजक की नहीं बल्कि इस घटना को ऐसा रूप देने वाले दुराग्रही की है। मैं इसे दुराग्रह ही कहूंगा। हालांकि आयोजक ने विवाद को अनावश्यक तूल नहीं देते हुए अपनी और से खेद व्यक्त किया गया। इसे भी आयोजक का बड़प्पन ही मानना चाहिए। क्या ये अतिरन्जना प्रदेश के छोटे साहित्यजगत में पनप रही किसी समूह विशेष को बढ़ावा देने या प्रश्रय देने की शुरुआत तो नहीं है। अक्सर मुझे साहित्य जगत में इस प्रकार के समूहों की बू तो आती है जो, तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाऊं की रणनीति पर काम करते हैं। एक निरपेक्ष पाठक के तौर पर केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि भाषा का गौरव उसमें अपना अमूल्य योगदान देने से बढ़ता है न कि इस प्रकार के थोथे मुद्दों को उछालने से। अच्छा होता ये साहित्यकार इसी समय को एक दो बढ़िया रचनाओँ में लगाते तो साहित्य भी समृद्ध होता औऱ वे भी।

Thursday, January 10, 2008

सड़क सुरक्षा सप्ताह में घर से बाहर निकलने के टिप्स


इन दिनों यातायात पुलिस सड़क सुरक्षा सप्ताह मना रही है। जैसा की पुलिस वालों की खासियत होती है कि या तो वे दोस्त होते हैं या फिर.... आप समझ लें। सड़कों की सुरक्षा के इस अभियान के दौरान हर वाहन चालक उनके लिए दोस्त की श्रेणी में तो कतई नहीं आता। सवाल सड़क की सुरक्षा का होता है इसलिए सड़क पर चलने वाला हर शख्स उनका दुश्मन नम्बर वन होता है। ऐसे में वे चाहे जिसे पकड़कर दुश्नमन करार दे सकते हैं, यदि आप ऐसी किसी दुश्मनी से बचना चाहते हैं तो पेश हैं कुछ सुझाव जिन पर अमल कर आप सकुशल बिना चालान घर वापसी कर सकते हैं। - घर से निकलते समय अपने वाहन को हर ओर से चैक करें। सारे नम्बर दुरुस्त हैं या नहीं यह जरुर देखे। उनका आकार प्रकार नियमों के अनुसार है या नहीं, भले ही आपके सामने वाले शर्मा जी जो ट्रैफिक पुलिस में हवलदार हैं, की मोटरसाइकिल के नम्बर अगड़म बगड़म शैली में हों, आप अपनी चिन्ता किजिएगा,क्योंकि भाई सवाल सड़क की सुरक्शा का है।- अपने वाहन की लाइट जला कर देख लें, रोशनी पूरी है या नहीं, भले ही आप शाम चार बजे ही घर लौट आते हों, पर अभी इसका जलना जरूरी है। सप्ताह खत्म होने के बाद आपकी लाइट भले ही खराब हो जाए कोई फर्क नहीं पड़ेगा पर अभी तो सप्ताह चल रहा है....।- वाहन के सारे कागज ठीक प्रकार से ढूंढ कर निकाल लें और सम्भालकर साथ में रख लीजिएगा। फोटोप्रति के साथ ही मूल प्रति भी। कुछ ट्रैफिक वाले भाई फोटो प्रति को मूल प्रति का सा सम्मान नहीं देते। सप्ताह खत्म होने के बाद आपसे कोई कागजात के बारे में नहीं पूछेगा इसलिए उन्हें अगले साल तक आप कहीं भी भूल सकते हैं, पर अभी हर्गिज नहीं भूलें। - फिर बारी आती है प्रदूषण की। आपकी गाड़ी चाहे धुंआ देती हो या नहीं, आपके वाहन पर स्टीकर होना चाहिए औऱ पर्स में पॉल्यूशन अण्डर कंट्रोल का प्रमाणपत्र। सप्ताह के दौरान यह बहुत जरूरी है।- हेलमेट की सेहत पर जरा गौर फरमा लीजिएगा।- हां, ड्राइविंग लाइसेंस भी जरूरी है। यूं तो हमारी सड़कों पर हजारों लोग बिना लाइसेंस के वाहन चला रहे हैं पर यदि आपके पास लाइसेंस नहीं है तो आप इन सात दिन तक पिछली सीट पर ही बैठें।यानी अब आप पूरी तैयारी के साथ सड़क सुरक्षा सप्ताह में काम पर जाने के लिए तैयार हैं। पर सड़क पर भी ध्यान रखें यदि आपको किसी सफेद जिप्सी के पास दस पन्द्रह दुपहिया वाहन खड़े नजर आएं तो समझ लीजिए की वे सभी सड़क सुरक्षा का पाठ पढ़ रहे होंगे। न वहां कोई उन्हें नही बताता कि क्या सही है, क्या गलत बस बीच सड़क पर रोका जाता है, और दनादन सवालों की झड़ी लगा दी जाती है। कागज हैं? लाइसेंस है? पॉल्यूशन है? इतनी तेज क्यों चला रहे हो? अन्तिम सवाल सबसे अन्त में आता है और ब्रह्मास्त्र होता है। सारे सवालों का जवाब होता पर इसका जवाब नहीं होता है। इंटरसेप्टर हैं, पर वो इंटरसेप्टर ही आपको यकीन दिला देते हैं कि आप कहीं न कहीं तो गलत ही थे। बस आपका चालान हो गया औऱ आपने सीख ली सड़क सुरक्षा। तो एक बात याद रखिए कि आप चाहे साल भर ट्रैफिक नियमों का पालन करते हों या नहीं पर इस समय जबकि सड़क सुरक्षा सप्ताह चल रहा है आपको पुलिस नामक ,प्राणी, हां शायद प्राणी, को देखते ही उनका पालन शुरु कर देना चाहिए। पर फिर भी आप तय मानिए की आप सही ट्रैफिक नियमों का पालन करना जरूर सीखेंगे और इसका एक ही तरीका है, चालान। तो घर से निकल रहे हैं बस एक ही टिप है चालान के लिए तैयार रहें। या सात दिन के लिए गाड़ी घर रख दें औऱ बस में जीवन असुरक्शा सप्ताह के लिए निकल पड़िए।