Wednesday, April 27, 2022

इंतजार

 




किसी का इंतजार करना भी उसके साथ वक्त बिताना ही है। 

- अभिषेक सिंघल

Sunday, December 1, 2019

बचा रहता है आसमान

और एक रोज़ 
फिर 
चाँद मुस्कुराया
अपनी दोनों हथेलियों को उसने 
एक दूजे से मिलाया 
जैसे मिला रहा हो 
दो ध्रुवों के आसमान 
चांदनी मुस्काई
भाग्य का क्यूँ करते हो भरोसा 
ज़ब कहते हो भरम है जीवन 
क्यूँ देखते हो बार बार हथेलियाँ 
छिपती नहीं बेबस चाँद की फीकी हँसी 
किसी बादल की ओट में 
ज़बरन ओढ़ चपलता 
पगली
तुम साथ हो तो रेखाएँ भी हैं 
परिक्रमा पथ पर सितारे भी हैं 
जगमग 
भले अमावस्या की राह बढ़ रहे हैं 
पर पूनो के उजियारे का भरोसा है
कौन जाने कितना वक़्त
बने रहे हम यूँ ही नादान 
जब जागेगी समझदारी 
बनेगी चौकीदार दुनियादारी 
तपेगा क़ायदों का सूरज 
उड़ जाएगी संबंधों की नमी 
रह जाएगी यादों की उष्णता
तब भले ही बदल जाएँ 
इन रेखाओं की दशा 
रहेगा अँजुरी भर जल का वचन 
अटका छिपा सहेजा हुआ 
रेखाओं की इन खाईयों में 
गुज़रते समय में स्मृति पाषाण बन 
गहरे गहरे और गहरे 
धँसता चला जाएगा वो जल 
उन्हीं इन हथेलियों में 
जिनमें सदा रहेगा तुम्हारी हथेलियों का ताप
सच है हथेलियाँ मिलाने से 
नहीं मिल जाते दो ध्रुव 
रह जाता है बीच में आसमान

Sunday, August 25, 2019

कृष्ण हैं जीवनाधार

कृष्ण की बात होती है तो अक्सर बात बस कृष्ण को चाहने वालों तक ही सीमित रह जाती है। राधा की बात होती है। मीरां की बात होती है। उनकी गोपियों की बात होती है। हर ओर उन पर मोहने वालों की बात होती है। कृष्णप्रिया, कनुप्रिया की बात होती है। हर कोई कृष्ण से अपनी बात कहता है और अपनी उम्मीद जताता है। इतनी बातों के बीच कृष्ण की अपनी भी तो कुछ बात होती होगी, अपनी कुछ उम्मीद होती होगी । कृष्ण नीति नियंता हैं। उनकी यही छवि चहुंओर है। रण, राग और प्रेम में कृष्ण जीवन यात्रा की बारीकियों को सिखाते समझाते पथ प्रदर्शित करते नजर आते हैं। पर कान्हा भी तो रुक्मिणी, राधा, मीरां, गोपियों, अपने ग्वालसखाओं, मित्रों बांधवों  और उन पर मोह रखने वालों से कुछ चाहते होंगे। वो भी हर सुबह, दोपहर, शाम, रात्रि में जब अपने चाहने वालों के दरवाजों पर दस्तक देते होंगे तो उनके मन में भी तो कुछ होता होगा? ग्रंथों आख्यानों में इस चाहत को अटूट आस्था के रूप में रेखांकित किया है। कर्मण्येवाधिकारस्ते माफलेषु कदाचन् के रूप में शायद कृष्ण की इसी चाहत को निरूपित किया गया है। निष्काम आस्था। कर्म करते जाएं, कृष्ण ने अलग अलग भूमिकाओँ के लिए जो पथ प्रदर्शित किया है उसका अनुसरण करते जाएं और कृष्ण में आस्था रखते जाएं, कि वह सदैव साथ है। नाजुक रास्तों, रिश्तों और भ्रमों के आवरण वाले इस संसार में कृष्ण के समर्पण को ध्यान में रख यह आश्वस्ति सदैव मन में बनी रहनी चाहिए कि कृष्ण सदैव साथ हैं, हर रूप में। हर समय में। हर भ्रम में। हर वास्तविकता में। कृष्ण अनुरोध करते हैं विश्वास करने का। कृष्ण आग्रह करते हैं भरोसा करने का। कृष्ण निवेदन करते हैं अवसर देने का। और इसी प्रकार कृष्ण जीवन पर्यन्त साथ रह कर जीवन को परिणति प्रदान करते हैं।  कृष्ण जन्म की बधाई।

Saturday, December 15, 2018

क्या अंग्रेज़ी भारतीय भाषा हो सकती है?

भारतीय भाषाएं- यानी भारतीय प्रायद्वीप में बोली या उनसे संबंध रखने वाली भाषाओँ का कई भाषा परिवारों से ताल्लुक है, मुख्यतया इंडो-आर्यन भाषाएं, जिन्हें लगभग 78 प्रतिशत भारतीय बोलते हैं, और द्रविड़ भाषाएं जिन्हें लगभग 19 प्रतिशत भारतीय लोग बोलते हैं शेष में आस्ट्रोएशियाटिक, साइनो-तिब्बतन, ताई-कडाई भाषा समूह हैं। मोटे तौर पर भाषा विज्ञानी करीब 780 भाषाओँ के भारत से ताल्लुक बताते हैं। भारतीय संविधान की बात करें तो अनुसूचित भाषाओं में
आसामी, बंगाली, बोडो, डोंगरी, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणीपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु, उर्दु शामिल हैं और इसके अलावा इंग्लिश को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया। आजादी के तुरन्त बाद से ही अंग्रेजी को यह दर्जा संविधान में मिल गया और आजादी से पहले ही यह अंग्रेज शासन के चलते राजकाज की आधिकारिक भाषा थी ही। 
वर्ष 2011 के जनसंख्या में भाषिक आंकड़ों की बात करें तो हिन्दी को करीब 53 करोड़ लोगों ने अपनी प्राथमिक भाषा बताया तो बंगाली को 9 करोड़ मराठी को सवा आठ करोड़, तेलुगू को आठ करोड़, तमिल को करीब सात करोड़ गुजराती को साढ़े पांच करोड़, उर्दु को करीब पांच करोड़ कन्नड़ को सवा चार करोड़ ओड़िया को पौने चार करोड़, मलयालम- पंजाबी प्रत्येक के करीब साढ़े तीन करोड़ प्राथमिक भाषा भाषी हैं।अंग्रेजों के इतने लम्बे असर और आज हर तरफ रोजगार के साधनों में अंग्रेजी की प्रधानता के बाद भी सवा सौ करोड़ के इस देश में अंग्रेजी को प्राथमिक भाषा बताने वाले लोग थे महज ढाई लाख। कुल जनसंख्या का 0.02 प्रतिशत। हां दूसरी तीसरी भाषा ज्ञान को भी जोड़ लेंगे तो यह प्रतिशत जरूर साढ़े दस के करीब पहुंच जाता है। और दूसरी तीसरी भाषाओँ की सूची में और भी कई अन्य विदेशी भाषाएँ अपनी जगह बनाती दिखती हैं। 

आप को लगने लगा होगा कि आज एकाएक ये भारतीय भाषाओं की बात और उस पर इतने महा बोरिंग से लगने वाले आंकड़ों का जिक्र क्यों? जिन्हें कोई भी विकीपीडिया से निकाल कर ला सकता है। दरअसल आप बिल्कुल सही हैं। यह आंकड़े भी विकीपीडिया से ही निकालें है। बस जरूरत इसलिए पड़ गई क्योंकि भारतीय भाषाओं के लिए दिए जाने वाले प्रतिष्ठित साहित्य पुरस्कार को एक गैर भारतीय भाषा के लेखक को दिया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि  साहित्यकार उस सम्मान का पात्र नहीं है। वो और उनकी कृतियां दोनों ही सम्मान की पात्र अवश्य ही हैं। किन्तु भारतीय भाषाओं की श्रेणी में नहीं। जी हां आप बिल्कुल ठीक समझे हैं भारतीय ज्ञानपीठ ने हाल ही अमिताव घोष को देने की घोषणा की है। अंग्रेजी भारतीय भाषा नहीं है भले ही लोग यह कहते हैं कि आज कल स्कूलों की शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में होती है। बिल्कुल होती है क्योंकि अच्छा रोजगार पाने के लिए अंग्रेजी आवश्यक है और वह इसलिए आवश्यक है क्योंकि आप अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा के पद से च्युत करने का साहस नहीं जुटा पाए। चीन में मंदारिन या अन्य देशो में उनकी स्थानीय भाषा को वह सम्मान इसलिए प्राप्त है क्योंकि वे अपने आधिकारिक कार्यों में उन भाषाओँ का प्रयोग करने लगे हैं। हम संघवाद के नाम पर अंग्रेजी को ओढ़े हैं। अंग्रेजी को ओढ़ने के बाद भी हमें अधिकांश कार्यों के लिए आधिकारिक दस्तावेजों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाना होता है। जो हम खुशी खुशी करते हैं। खैर अभी बात केवल भारतीय भाषाओं तक ही सीमित। तो कई लोग यह भी कहते हैं नई पीढ़ी अंग्रेजी में बात करती है। हां, बिल्कुल कुछ आभिजात्य परिवार कुछ वार्तालाप अंग्रेजी में करने लगे हैं। नई पीढ़ी के भी डूड अजीबोगरीब अंग्रेजी में बतियाने लगते हैं। किन्तु यह अंग्रेजी का भारतीयकरण नहीं बल्कि उन परिवारों का पाश्चात्यकरण है। जिसका का किसी भी खुले समाज में स्वागत है और यहां भी है। किन्तु फिर बात वहीं आती है कि क्या अंग्रेजी भारतीय भाषा है तो यह कहने में कतई झिझक नहीं है कि अंग्रेजी भारतीय भाषा नहीं है। तो क्या अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय साहित्यकारों को कभी ज्ञानपीठ नहीं देना चाहिए। नहीं,बिल्कुल नहीं। पुरस्कार प्रदान करने का निर्णय लेने वाली समिति जिसे उपयुक्त समझे उसे पुरस्कार दें।  पुरस्कार देने वाले यदि अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले भारतीय साहित्यकारों को पुरस्कार देना चाहते हैं तो बस इतना करें कि पुरस्कार की श्रेणी बदल कर उसे भारतीय भाषाओं के पुरस्कार के स्थान पर भारतीय साहित्य के लिए पुरस्कार कर दें। आखिर वर्षों तक भारतीय भाषाओं के साहित्य की अलख जगाने वाले भारतीय भाषाओं के लिए इतना तो कर ही सकते हैं। शायद जिस दौर में भारतीय भाषाओं के लिए पुरस्कार स्थापित करने का ख्याल आया होगा तब भी अंग्रेजी भाषा में भी भारतीयों द्वारा उत्कृष्ट साहित्य रचा ही जा रहा होगा और उस दौर में भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों संरक्षण प्रोत्साहन की दृष्टि से ही इतने वर्षों तक अंग्रेजी को भारतीय भाषा नहीं ही माना गया।